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"माँ / भाग १९ / मुनव्वर राना" के अवतरणों में अंतर

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मैं हूँ मिट्टी तो मुझे कूज़ागरों तक पहुँचा
 
मैं हूँ मिट्टी तो मुझे कूज़ागरों तक पहुँचा
 
 
मैं खिलौना हूँ तो बच्चों के हवाले कर दे  
 
मैं खिलौना हूँ तो बच्चों के हवाले कर दे  
 
  
 
हमारी ज़िन्दगी का इस तरह हर साल कटता है
 
हमारी ज़िन्दगी का इस तरह हर साल कटता है
 
 
कभी गाड़ी पलटती है कभी तिरपाल कटता है  
 
कभी गाड़ी पलटती है कभी तिरपाल कटता है  
 
  
 
शायद हमारे पाँव में तिल है कि आज तक
 
शायद हमारे पाँव में तिल है कि आज तक
 
 
घर में कभी सुकून से दो दिन नहीं रहे  
 
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मैं वसीयत कर सका न कोई वादा ले सका
 
मैं वसीयत कर सका न कोई वादा ले सका
 
 
मैंने सोचा भी नहीं था हादसा हो जायेगा  
 
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हम बहुत थक हार के लौटे थे लेकिन जाने क्यों
 
हम बहुत थक हार के लौटे थे लेकिन जाने क्यों
 
 
रेंगती, बढ़ती, सरकती  च्यूँटियाँ अच्छी लगीं  
 
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मुद्दतों बाद कोई श्ख्ह़्स है आने वाला
 
मुद्दतों बाद कोई श्ख्ह़्स है आने वाला
 
 
ऐ मेरे आँसुओ! तुम दीदा—ए—तर में रहना  
 
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तक़ल्लुफ़ात ने ज़ख़्मों को कर दिया नासूर
 
तक़ल्लुफ़ात ने ज़ख़्मों को कर दिया नासूर
 
 
कभी मुझे कभी ताख़ीर चारागर को हुई  
 
कभी मुझे कभी ताख़ीर चारागर को हुई  
 
  
 
अपने बिकने का बहुत दुख है हमें भी लेकिन
 
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मुस्कुराते हुए मिलते हैं ख़रीदार से हम  
 
मुस्कुराते हुए मिलते हैं ख़रीदार से हम  
 
  
 
हमें दिन तारीख़ तो याद नहीं बस इससे अंदाज़ा कर लो
 
हमें दिन तारीख़ तो याद नहीं बस इससे अंदाज़ा कर लो
 
 
हम उससे मौसम में बिछ्ड़े थे जब गाँव में झूला पड़ता है  
 
हम उससे मौसम में बिछ्ड़े थे जब गाँव में झूला पड़ता है  
 
  
 
मैं इक फ़क़ीर के होंठों की मुस्कुराहट हूँ
 
मैं इक फ़क़ीर के होंठों की मुस्कुराहट हूँ
 
 
किसी से भी मेरी क़ीमत अदा नहीं होती  
 
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हम तो इक अख़बार से काटी हुई तस्वीर हैं
 
हम तो इक अख़बार से काटी हुई तस्वीर हैं
 
 
जिसको काग़ज़ चुनने वाले कल उठा ले जाएँगे  
 
जिसको काग़ज़ चुनने वाले कल उठा ले जाएँगे  
 
  
 
अना ने मेरे बच्चों की हँसी भी छीन ली मुझसे
 
अना ने मेरे बच्चों की हँसी भी छीन ली मुझसे
 
 
यहाँ जाने नहीं देती वहाँ जाने नहीं देती  
 
यहाँ जाने नहीं देती वहाँ जाने नहीं देती  
 
  
 
जाने अब कितना सफ़र बाक़ी बचा है उम्र का
 
जाने अब कितना सफ़र बाक़ी बचा है उम्र का
 
 
ज़िन्दगी उबले हुए खाने तलक तो आ गई  
 
ज़िन्दगी उबले हुए खाने तलक तो आ गई  
 
  
 
हमें बच्चों का मुस्तक़बिल लिए फिरता है सड़कों पर
 
हमें बच्चों का मुस्तक़बिल लिए फिरता है सड़कों पर
 
 
नहीं तो गर्मियों में कब कोई घर से निकलता है  
 
नहीं तो गर्मियों में कब कोई घर से निकलता है  
 
  
 
सोने के ख़रीदार न ढूँढो कि यहाँ पर
 
सोने के ख़रीदार न ढूँढो कि यहाँ पर
 
 
इक उम्र हुई लोगों ने पीतल नहीं देखा  
 
इक उम्र हुई लोगों ने पीतल नहीं देखा  
 
  
 
मैं अपने गाँव का मुखिया भी हूँ बच्चों का क़ातिल भी
 
मैं अपने गाँव का मुखिया भी हूँ बच्चों का क़ातिल भी
 
 
जला कर दूध कुछ लोगों की ख़ातिर घी बनाता हूँ
 
जला कर दूध कुछ लोगों की ख़ातिर घी बनाता हूँ
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20:42, 14 नवम्बर 2010 के समय का अवतरण

मैं हूँ मिट्टी तो मुझे कूज़ागरों तक पहुँचा
मैं खिलौना हूँ तो बच्चों के हवाले कर दे

हमारी ज़िन्दगी का इस तरह हर साल कटता है
कभी गाड़ी पलटती है कभी तिरपाल कटता है

शायद हमारे पाँव में तिल है कि आज तक
घर में कभी सुकून से दो दिन नहीं रहे

मैं वसीयत कर सका न कोई वादा ले सका
मैंने सोचा भी नहीं था हादसा हो जायेगा

हम बहुत थक हार के लौटे थे लेकिन जाने क्यों
रेंगती, बढ़ती, सरकती च्यूँटियाँ अच्छी लगीं

मुद्दतों बाद कोई श्ख्ह़्स है आने वाला
ऐ मेरे आँसुओ! तुम दीदा—ए—तर में रहना

तक़ल्लुफ़ात ने ज़ख़्मों को कर दिया नासूर
कभी मुझे कभी ताख़ीर चारागर को हुई

अपने बिकने का बहुत दुख है हमें भी लेकिन
मुस्कुराते हुए मिलते हैं ख़रीदार से हम

हमें दिन तारीख़ तो याद नहीं बस इससे अंदाज़ा कर लो
हम उससे मौसम में बिछ्ड़े थे जब गाँव में झूला पड़ता है

मैं इक फ़क़ीर के होंठों की मुस्कुराहट हूँ
किसी से भी मेरी क़ीमत अदा नहीं होती

हम तो इक अख़बार से काटी हुई तस्वीर हैं
जिसको काग़ज़ चुनने वाले कल उठा ले जाएँगे

अना ने मेरे बच्चों की हँसी भी छीन ली मुझसे
यहाँ जाने नहीं देती वहाँ जाने नहीं देती

जाने अब कितना सफ़र बाक़ी बचा है उम्र का
ज़िन्दगी उबले हुए खाने तलक तो आ गई

हमें बच्चों का मुस्तक़बिल लिए फिरता है सड़कों पर
नहीं तो गर्मियों में कब कोई घर से निकलता है

सोने के ख़रीदार न ढूँढो कि यहाँ पर
इक उम्र हुई लोगों ने पीतल नहीं देखा

मैं अपने गाँव का मुखिया भी हूँ बच्चों का क़ातिल भी
जला कर दूध कुछ लोगों की ख़ातिर घी बनाता हूँ