"वृन्द के दोहे / भाग ४" के अवतरणों में अंतर
(New page: नीति के दोहे / वृन्द <br> {{KKGlobal}}<br> वृन्द <br> दोहे <br> वृन्द <br> ~*~*~*~*~*~*~*~~*~*~*~*~*~*~*...) |
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) छो |
||
(इसी सदस्य द्वारा किया गया बीच का एक अवतरण नहीं दर्शाया गया) | |||
पंक्ति 1: | पंक्ति 1: | ||
− | [[ | + | {{KKGlobal}} |
+ | {{KKRachna | ||
+ | |रचनाकार=वृन्द | ||
+ | }} | ||
+ | [[Category:दोहे]] | ||
+ | '''नीति के दोहे''' | ||
− | |||
+ | गुन-सनेह-जुत होत है, ताही की छबि होत ।<br> | ||
+ | गुन-सनेह के दीप की, जैसे जोति उदोत ॥31<br><br> | ||
− | + | ऊँचे पद को पाय लघु, होत तुरत ही पात ।<br> | |
+ | घन तें गिरि पर गिरत जल, गिरिहूँ ते ढरि जात ॥32<br><br> | ||
+ | आए आदर न करै, पीछे लेत मनाय । <br> | ||
+ | घर आए पूजै न अहि, बाँबी पूजन जाय ॥33 <br><br> | ||
− | + | उत्तम विद्या लीजिए, जदपि नीच पै होय । <br> | |
− | + | पर्यौ अपावन ठौर को, कंचन तजत न कोय ॥34<br><br> | |
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | उत्तम विद्या लीजिए ,जदपि नीच पै होय । <br> | + | |
− | पर्यौ अपावन ठौर को कंचन तजत न कोय ॥34 | + | |
− | दुष्ट न छाड़ै दुष्टता ,बड़ी ठौरहूँ पाय । <br> | + | दुष्ट न छाड़ै दुष्टता, बड़ी ठौरहूँ पाय । <br> |
− | जैसे तजै न स्यामता ,विष शिव कण्ठ बसाय ॥35<br> | + | जैसे तजै न स्यामता, विष शिव कण्ठ बसाय ॥35<br><br> |
− | बड़े-बड़े को बिपति तैं ,निहचै लेत उबारि ।<br> | + | बड़े-बड़े को बिपति तैं, निहचै लेत उबारि ।<br> |
− | ज्यों हाथी को कीच सों ,हाथी लेत निकारि ॥36<br> | + | ज्यों हाथी को कीच सों, हाथी लेत निकारि ॥36<br><br> |
− | दुष्ट रहै जा ठौर पर ,ताको करै बिगार । <br> | + | दुष्ट रहै जा ठौर पर, ताको करै बिगार । <br> |
− | आगि जहाँ ही राखिये ,जारि करैं तिहिं छार ॥37<br> | + | आगि जहाँ ही राखिये, जारि करैं तिहिं छार ॥37<br><br> |
− | ओछे नर के चित्त में | + | ओछे नर के चित्त में, प्रेम न पूर्यो जाय ।<br> |
− | जैसे सागर को सलिल ,गागर में न समाय ॥38<br> | + | जैसे सागर को सलिल, गागर में न समाय ॥38<br><br> |
− | जाकौ बुधि-बल होत है ,ताहि न रिपु को त्रास ।<br> | + | जाकौ बुधि-बल होत है, ताहि न रिपु को त्रास ।<br> |
− | + | घन –बूँदें कह करि सके, सिर पर छतना जास ॥39<br><br> | |
− | + | सरसुति के भंडार की, बड़ी अपूरब बात ।<br> | |
− | जौं खरचे त्यों-त्यों बढ़ै , बिन खरचै घट जात ॥40<br> | + | जौं खरचे त्यों-त्यों बढ़ै, बिन खरचै घट जात ॥40<br><br> |
01:03, 21 जून 2007 के समय का अवतरण
नीति के दोहे
गुन-सनेह-जुत होत है, ताही की छबि होत ।
गुन-सनेह के दीप की, जैसे जोति उदोत ॥31
ऊँचे पद को पाय लघु, होत तुरत ही पात ।
घन तें गिरि पर गिरत जल, गिरिहूँ ते ढरि जात ॥32
आए आदर न करै, पीछे लेत मनाय ।
घर आए पूजै न अहि, बाँबी पूजन जाय ॥33
उत्तम विद्या लीजिए, जदपि नीच पै होय ।
पर्यौ अपावन ठौर को, कंचन तजत न कोय ॥34
दुष्ट न छाड़ै दुष्टता, बड़ी ठौरहूँ पाय ।
जैसे तजै न स्यामता, विष शिव कण्ठ बसाय ॥35
बड़े-बड़े को बिपति तैं, निहचै लेत उबारि ।
ज्यों हाथी को कीच सों, हाथी लेत निकारि ॥36
दुष्ट रहै जा ठौर पर, ताको करै बिगार ।
आगि जहाँ ही राखिये, जारि करैं तिहिं छार ॥37
ओछे नर के चित्त में, प्रेम न पूर्यो जाय ।
जैसे सागर को सलिल, गागर में न समाय ॥38
जाकौ बुधि-बल होत है, ताहि न रिपु को त्रास ।
घन –बूँदें कह करि सके, सिर पर छतना जास ॥39
सरसुति के भंडार की, बड़ी अपूरब बात ।
जौं खरचे त्यों-त्यों बढ़ै, बिन खरचै घट जात ॥40