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"कहीं नहीं बचे / भवानीप्रसाद मिश्र" के अवतरणों में अंतर
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− | कहीं नहीं बचे | + | कहीं नहीं बचे |
− | हरे वृक्ष | + | हरे वृक्ष |
− | न ठीक सागर बचे हैं | + | न ठीक सागर बचे हैं |
− | न ठीक नदियाँ | + | न ठीक नदियाँ |
− | पहाड़ उदास हैं | + | पहाड़ उदास हैं |
− | और झरने लगभग चुप | + | और झरने लगभग चुप |
− | आँखों में | + | आँखों में |
− | घिरता है अँधेरा घुप | + | घिरता है अँधेरा घुप |
− | दिन दहाड़े यों | + | दिन दहाड़े यों |
− | जैसे बदल गई हो | + | जैसे बदल गई हो |
− | तलघर में | + | तलघर में |
− | दुनिया | + | दुनिया |
− | कहीं नहीं बचे | + | कहीं नहीं बचे |
− | ठीक हरे वृक्ष | + | ठीक हरे वृक्ष |
− | कहीं नहीं बचा | + | कहीं नहीं बचा |
− | ठीक चमकता सूरज | + | ठीक चमकता सूरज |
− | चांदनी उछालता | + | चांदनी उछालता |
− | चांद | + | चांद |
− | स्निग्धता बखेरते | + | स्निग्धता बखेरते |
− | तारे | + | तारे |
− | काहे के सहारे खड़े | + | काहे के सहारे खड़े |
− | कभी की | + | कभी की |
− | उत्साहवन्त सदियाँ | + | उत्साहवन्त सदियाँ |
− | इसीलिए चली | + | इसीलिए चली |
− | जा रही हैं वे | + | जा रही हैं वे |
− | सिर झुकाये | + | सिर झुकाये |
− | हरेपन से हीन | + | हरेपन से हीन |
− | सूखेपन की ओर | + | सूखेपन की ओर |
− | पंछियों के | + | पंछियों के |
− | आसमान में | + | आसमान में |
− | चक्कर काटते दल | + | चक्कर काटते दल |
− | नजर नहीं आते | + | नजर नहीं आते |
− | क्योंकि | + | क्योंकि |
− | बनाते थे | + | बनाते थे |
− | वे जिन पर घोंसले | + | वे जिन पर घोंसले |
− | वे वृक्ष | + | वे वृक्ष |
− | कट चुके हैं | + | कट चुके हैं |
− | क्या जाने | + | क्या जाने |
− | अधूरे और बंजर हम | + | अधूरे और बंजर हम |
− | अब और | + | अब और |
− | किस बात के लिए रुके हैं | + | किस बात के लिए रुके हैं |
− | ऊबते क्यों नहीं हैं | + | ऊबते क्यों नहीं हैं |
− | इस तरंगहीनता | + | इस तरंगहीनता |
− | और सूखेपन से | + | और सूखेपन से |
− | उठते क्यों नहीं हैं यों | + | उठते क्यों नहीं हैं यों |
− | कि भर दें फिर से | + | कि भर दें फिर से |
− | धरती को | + | धरती को |
− | ठीक निर्झरों | + | ठीक निर्झरों |
− | नदियों पहाड़ों | + | नदियों पहाड़ों |
− | वन से !< | + | वन से! |
+ | </poem> |
12:01, 12 मार्च 2016 के समय का अवतरण
कहीं नहीं बचे
हरे वृक्ष
न ठीक सागर बचे हैं
न ठीक नदियाँ
पहाड़ उदास हैं
और झरने लगभग चुप
आँखों में
घिरता है अँधेरा घुप
दिन दहाड़े यों
जैसे बदल गई हो
तलघर में
दुनिया
कहीं नहीं बचे
ठीक हरे वृक्ष
कहीं नहीं बचा
ठीक चमकता सूरज
चांदनी उछालता
चांद
स्निग्धता बखेरते
तारे
काहे के सहारे खड़े
कभी की
उत्साहवन्त सदियाँ
इसीलिए चली
जा रही हैं वे
सिर झुकाये
हरेपन से हीन
सूखेपन की ओर
पंछियों के
आसमान में
चक्कर काटते दल
नजर नहीं आते
क्योंकि
बनाते थे
वे जिन पर घोंसले
वे वृक्ष
कट चुके हैं
क्या जाने
अधूरे और बंजर हम
अब और
किस बात के लिए रुके हैं
ऊबते क्यों नहीं हैं
इस तरंगहीनता
और सूखेपन से
उठते क्यों नहीं हैं यों
कि भर दें फिर से
धरती को
ठीक निर्झरों
नदियों पहाड़ों
वन से!