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"मैं ख़ुदा बनके / निदा फ़ाज़ली" के अवतरणों में अंतर

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मन्दिरों-मस्ज़िदों की दुनिया में  
 
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मुझको पहचानते कहाँ हैं लोग.
 
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१. बिना रौशनी
 
१. बिना रौशनी
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18:52, 11 अक्टूबर 2020 के समय का अवतरण

मन्दिरों-मस्ज़िदों की दुनिया में
मुझको पहचानते कहाँ हैं लोग.

रोज़ मैं चाँद बन के आता हूँ
दिन में सूरज सा जगमगाता हूँ.

खनखनाता हूँ माँ के गहनों में
हँसता रहता हूँ छुप के बहनों में

मैं ही मज़दूर के पसीने में...!
मैं ही बरसात के महीने में.

मेरी तस्वीर आँख का आँसू
मेरी तहरीर जिस्म का जादू.

मन्दिरों-मस्ज़िदों की दुनिया में
मुझको पहचानते नहीं,जब लोग.

मैं जमीनों को बेजिया१ करके
आसमानों में लौट जाता हूँ

मैं ख़ुदा बनके कहर ढाता हूँ.

१. बिना रौशनी