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"पटकथा / पृष्ठ 1 / धूमिल" के अवतरणों में अंतर

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जीभ और जाँघ के स्थानिक भूगोल की
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मैंने सोचा और संस्कार के
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मेरी नस-नस में बिजली
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अनाज के अँकुए फूट रहे थे<br>
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मैंने कहा- जैसे कसरत करते हुये<br>
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बच्चे। तारों पर<br>
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मैंने कहा-काँसे की बजती हुई घण्टियाँ…<br>
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खेत की मेड़ पार करते हुये<br>
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मैंने एक बैल की पीठ थपथपायी<br>
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खेत की मेड़ पार करते हुये
सड़क पर जाते हुये आदमी से<br>
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मैंने एक बैल की पीठ थपथपायी
उसका नाम पूछा<br>
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और कहा- बधाई…<br>
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घर लौटकर<br>
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और कहा- बधाई…
मैंने सारी बत्तियाँ जला दीं<br>
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पुरानी तस्वीरों को दीवार से<br>
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उतारकर<br>
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पुरानी तस्वीरों को दीवार से
उन्हें साफ किया<br>
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उन्हें साफ किया
पोंछकर टाँग दिया।<br>
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मैंने दरवाजे के बाहर<br>
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एक पौधा लगाया और कहा–<br>
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मैंने दरवाजे के बाहर
वन महोत्सव…<br>
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एक पौधा लगाया और कहा–
और देर तक<br>
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वन महोत्सव…
हवा में गरदन उचका-उचकाकर<br>
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और देर तक
लम्बी-लम्बी साँस खींचता रहा<br>
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हवा में गरदन उचका-उचकाकर
देर तक महसूस करता रहा–<br>
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लम्बी-लम्बी साँस खींचता रहा
कि मेरे भीतर<br>
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देर तक महसूस करता रहा–
वक्त का सामना करने के लिये<br>
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कि मेरे भीतर
औसतन ,जवान खून है<br>
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वक़्त का सामना करने के लिये
मगर ,मुझे शान्ति चाहिये<br>
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औसतन,जवान खून है
इसलिये एक जोड़ा कबूतर लाकर डाल दिया<br>
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मगर, मुझे शान्ति चाहिये
‘गूँ..गुटरगूँ…गूँ…गुटरगूँ…’<br>
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इसलिये एक जोड़ा कबूतर लाकर डाल दिया
और चहकते हुये कहा<br>
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यही मेरी आस्था है<br>
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और चहकते हुये कहा
यही मेरा कानून है।<br>
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यही मेरी आस्था है
इस तरह जो था उसे मैंने<br>
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यही मेरा कानून है।
जी भरकर प्यार किया<br>
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इस तरह जो था उसे मैंने
और जो नहीं था<br>
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जी भरकर प्यार किया
उसका इंतज़ार किया।<br>
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और जो नहीं था
मैंने इंतज़ार किया–<br>
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उसका इंतज़ार किया।
अब कोई बच्चा<br>
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मैंने इंतज़ार किया–
भूखा रहकर स्कूल नहीं जायेगा<br>
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अब कोई बच्चा
अब कोई छत बारिश में<br>
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भूखा रहकर स्कूल नहीं जायेगा
नहीं टपकेगी।<br>
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अब कोई छत बारिश में
अब कोई आदमी कपड़ों की लाचारी में<br>
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नहीं टपकेगी।
अपना नंगा चेहरा नहीं पहनेगा<br>
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अब कोई आदमी कपड़ों की लाचारी में
अब कोई दवा के अभाव में<br>
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अपना नंगा चेहरा नहीं पहनेगा
घुट-घुटकर नहीं मरेगा<br>
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अब कोई दवा के अभाव में
अब कोई किसी की रोटी नहीं छीनेगा<br>
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घुट-घुटकर नहीं मरेगा
कोई किसी को नंगा नहीं करेगा<br>
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अब कोई किसी की रोटी नहीं छीनेगा
अब यह ज़मीन अपनी है<br>
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कोई किसी को नंगा नहीं करेगा
आसमान अपना है<br>
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अब यह ज़मीन अपनी है
जैसा पहले हुआ करता था…<br>
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आसमान अपना है
सूर्य,हमारा सपना है<br>
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जैसा पहले हुआ करता था…
मैं इन्तजा़र करता रहा..<br>
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सूर्य, हमारा सपना है
इन्तजा़र करता रहा…<br>
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मैं इन्तजा़र करता रहा..
इन्तजा़र करता रहा…<br>
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इन्तजा़र करता रहा…
जनतन्त्र,त्याग,स्वतन्त्रता…<br>
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इन्तजा़र करता रहा…
संस्कृति,शान्ति,मनुष्यता…<br>
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जनतन्त्र,त्याग,स्वतन्त्रता…
ये सारे शब्द थे<br>
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संस्कृति,शान्ति,मनुष्यता…
सुनहरे वादे थे<br>
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ये सारे शब्द थे
खुशफ़हम इरादे थे<br>
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सुनहरे वादे थे
सुन्दर थे<br>
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ख़ुशफ़हम इरादे थे
मौलिक थे<br>
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सुन्दर थे
मुखर थे<br>
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मौलिक थे
मैं सुनता रहा…<br>
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मुखर थे
सुनता रहा…<br>
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मैं सुनता रहा…
सुनता रहा…<br>
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सुनता रहा…
मतदान होते रहे<br>
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सुनता रहा…
मैं अपनी सम्मोहित बुद्धि के नीचे<br>
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मतदान होते रहे
उसी लोकनायक को<br>
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मैं अपनी सम्मोहित बुद्धि के नीचे
बार-बार चुनता रहा<br>
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उसी लोकनायक को
जिसके पास हर शंका और<br>
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बार-बार चुनता रहा
हर सवाल का<br>
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जिसके पास हर शंका और
एक ही जवाब था<br>
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हर सवाल का
यानी कि कोट के बटन-होल में<br>
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एक ही जवाब था
महकता हुआ एक फूल<br>
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या कि कोट के बटन-होल में
गुलाब का।<br>
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महकता हुआ एक फूल
वह हमें विश्वशान्ति के और पंचशील के सूत्र<br>
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गुलाब का।
समझाता रहा। मैं खुद को<br>
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वह हमें विश्वशान्ति के और पंचशील के सूत्र
समझाता रहा-’जो मैं चाहता हूँ-<br>
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समझाता रहा।  
वही होगा। होगा-आज नहीं तो कल<br>
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मैं ख़ुद को
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समझाता रहा- 'जो मैं चाहता हूँ-
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वही होगा।  
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होगा-आज नहीं तो कल
 
मगर सब कुछ सही होगा।
 
मगर सब कुछ सही होगा।
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11:45, 27 सितम्बर 2024 के समय का अवतरण

जब मैं बाहर आया
मेरे हाथों में
एक कविता थी और दिमाग में
आँतों का एक्स-रे।
वह काला धब्बा
कल तक एक शब्द था;
खून के अँधेर में
दवा का ट्रेडमार्क
बन गया था।
औरतों के लिये गै़र-ज़रूरी होने के बाद
अपनी ऊब का
दूसरा समाधान ढूँढना ज़रूरी है।
मैंने सोचा!
क्योंकि शब्द और स्वाद के बीच
अपनी भूख को ज़िन्दा रखना
जीभ और जाँघ के स्थानिक भूगोल की
वाजिब मजबूरी है।
मैंने सोचा और संस्कार के
वर्जित इलाकों में
अपनी आदतों का शिकार
होने के पहले ही बाहर चला आया।
बाहर हवा थी
धूप थी
घास थी
मैंने कहा आज़ादी…
मुझे अच्छी तरह याद है-
मैंने यही कहा था
मेरी नस-नस में बिजली
दौड़ रही थी
उत्साह में
ख़ुद मेरा स्वर
मुझे अजनबी लग रहा था
मैंने कहा-आ-ज़ा-दी
और दौड़ता हुआ खेतों की ओर
गया।
वहाँ कतार के कतार
अनाज के अँकुए फूट रहे थे
मैंने कहा- जैसे कसरत करते हुये
बच्चे।
तारों पर
चिड़ियाँ चहचहा रही थीं
मैंने कहा- काँसे की बजती हुई घण्टियाँ…
खेत की मेड़ पार करते हुये
मैंने एक बैल की पीठ थपथपायी
सड़क पर जाते हुये आदमी से
उसका नाम पूछा
और कहा- बधाई…
घर लौटकर
मैंने सारी बत्तियाँ जला दीं
पुरानी तस्वीरों को दीवार से
उतारकर
उन्हें साफ किया
और फिर उन्हें दीवार पर (उसी जगह)
पोंछकर टाँग दिया।
मैंने दरवाजे के बाहर
एक पौधा लगाया और कहा–
वन महोत्सव…
और देर तक
हवा में गरदन उचका-उचकाकर
लम्बी-लम्बी साँस खींचता रहा
देर तक महसूस करता रहा–
कि मेरे भीतर
वक़्त का सामना करने के लिये
औसतन,जवान खून है
मगर, मुझे शान्ति चाहिये
इसलिये एक जोड़ा कबूतर लाकर डाल दिया
‘गूँ..गुटरगूँ…गूँ…गुटरगूँ…’
और चहकते हुये कहा
यही मेरी आस्था है
यही मेरा कानून है।
इस तरह जो था उसे मैंने
जी भरकर प्यार किया
और जो नहीं था
उसका इंतज़ार किया।
मैंने इंतज़ार किया–
अब कोई बच्चा
भूखा रहकर स्कूल नहीं जायेगा
अब कोई छत बारिश में
नहीं टपकेगी।
अब कोई आदमी कपड़ों की लाचारी में
अपना नंगा चेहरा नहीं पहनेगा
अब कोई दवा के अभाव में
घुट-घुटकर नहीं मरेगा
अब कोई किसी की रोटी नहीं छीनेगा
कोई किसी को नंगा नहीं करेगा
अब यह ज़मीन अपनी है
आसमान अपना है
जैसा पहले हुआ करता था…
सूर्य, हमारा सपना है
मैं इन्तजा़र करता रहा..
इन्तजा़र करता रहा…
इन्तजा़र करता रहा…
जनतन्त्र,त्याग,स्वतन्त्रता…
संस्कृति,शान्ति,मनुष्यता…
ये सारे शब्द थे
सुनहरे वादे थे
ख़ुशफ़हम इरादे थे
सुन्दर थे
मौलिक थे
मुखर थे
मैं सुनता रहा…
सुनता रहा…
सुनता रहा…
मतदान होते रहे
मैं अपनी सम्मोहित बुद्धि के नीचे
उसी लोकनायक को
बार-बार चुनता रहा
जिसके पास हर शंका और
हर सवाल का
एक ही जवाब था
या कि कोट के बटन-होल में
महकता हुआ एक फूल
गुलाब का।
वह हमें विश्वशान्ति के और पंचशील के सूत्र
समझाता रहा।
मैं ख़ुद को
समझाता रहा- 'जो मैं चाहता हूँ-
वही होगा।
होगा-आज नहीं तो कल
मगर सब कुछ सही होगा।