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"पटकथा / पृष्ठ 6 / धूमिल" के अवतरणों में अंतर

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लेकिन मुझे लगा कि एक विशाल दलदल के किनारे<br>
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लेकिन मुझे लगा कि एक विशाल दलदल के किनारे
बहुत बड़ा अधमरा पशु पड़ा हुआ है<br>
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बहुत बड़ा अधमरा पशु पड़ा हुआ है
उसकी नाभि में एक सड़ा हुआ घाव है<br>
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उसकी नाभि में एक सड़ा हुआ घाव है
जिससे लगातार-भयानक बदबूदार मवाद<br>
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जिससे लगातार-भयानक बदबूदार मवाद
बह रहा है<br>
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उसमें जाति और धर्म और सम्प्रदाय और<br>
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उसमें जाति और धर्म और सम्प्रदाय और
पेशा और पूँजी के असंख्य कीड़े<br>
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पेशा और पूँजी के असंख्य कीड़े
किलबिला रहे हैं और अन्धकार में<br>
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किलबिला रहे हैं और अन्धकार में
डूबी हुई पृथ्वी<br>
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डूबी हुई पृथ्वी
(पता नहीं किस अनहोनी की प्रतीक्षा में)<br>
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(पता नहीं किस अनहोनी की प्रतीक्षा में)
इस भीषण सड़ाँव को चुपचाप सह रही है<br>
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इस भीषण सड़ाँध को चुपचाप सह रही है
मगर आपस में नफरत करते हुये वे लोग<br>
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मगर आपस में नफरत करते हुए वे लोग
इस बात पर सहमत हैं कि<br>
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इस बात पर सहमत हैं कि
‘चुनाव’ ही सही इलाज है<br>
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‘चुनाव’ ही सही इलाज है
क्योंकि बुरे और बुरे के बीच से<br>
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क्योंकि बुरे और बुरे के बीच से
किसी हद तक ‘कम से कम बुरे को’ चुनते हुये<br>
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किसी हद तक ‘कम से कम बुरे को’ चुनते हुए
न उन्हें मलाल है,न भय है<br>
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न उन्हें मलाल है, न भय है
न लाज है<br>
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न लाज है
दरअस्ल उन्हें एक मौका मिला है<br>
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दरअस्ल उन्हें एक मौका मिला है
और इसी बहाने<br>
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और इसी बहाने
वे अपने पडो़सी को पराजित कर रहे हैं<br>
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वे अपने पड़ोसी को पराजित कर रहे हैं
मैंने देखा कि हर तरफ<br>
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मैंने देखा कि हर तरफ
मूढ़ता की हरी-हरी घास लहरा रही है<br>
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मूढ़ता की हरी-हरी घास लहरा रही है
जिसे कुछ जंगली पशु<br>
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जिसे कुछ जंगली पशु
खूँद रहे हैं<br>
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खूँद रहे हैं
लीद रहे हैं<br>
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लीद रहे हैं
चर रहे है<br>
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चर रहे है
मैंने ऊब और गुस्से को<br>
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मैंने ऊब और गुस्से को
गलत मुहरों के नीचे से गुज़रते हुये देखा<br>
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गलत मुहरों के नीचे से गुज़रते हुये देखा
मैंने अहिंसा को<br>
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मैंने अहिंसा को
एक सत्तारूढ़ शब्द का गला काटते हुये देखा<br>
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एक सत्तारूढ़ शब्द का गला काटते हुये देखा
मैंने ईमानदारी को अपनी चोरजेबें<br>
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मैंने ईमानदारी को अपनी चोरजेबें
भरते हुये देखा<br>
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भरते हुये देखा
मैंने विवेक को<br>
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मैंने विवेक को
चापलूसों के तलवे चाटते हुये देखा…<br>
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चापलूसों के तलवे चाटते हुये देखा…
मैं यह सब देख ही रहा था कि एक नया रेला आया<br>
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मैं यह सब देख ही रहा था कि एक नया रेला आया
उन्मत्त लोगों का बर्बर जुलूस। वे किसी आदमी को<br>
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उन्मत्त लोगों का बर्बर जुलूस। वे किसी आदमी को
हाथों पर गठरी की तरह उछाल रहे थे<br>
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हाथों पर गठरी की तरह उछाल रहे थे
उसे एक दूसरे से छीन रहे थे।उसे घसीट रहे थे।<br>
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उसे एक दूसरे से छीन रहे थे।उसे घसीट रहे थे।
चूम रहे थे।पीट रहे थे। गालियाँ दे रहे थे।<br>
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चूम रहे थे।पीट रहे थे। गालियाँ दे रहे थे।
गले से लगा रहे थे। उसकी प्रशंसा के गीत<br>
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गले से लगा रहे थे। उसकी प्रशंसा के गीत
गा रहे थे। उस पर अनगिनत झण्डे फहरा रहे थे।<br>
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गा रहे थे। उस पर अनगिनत झण्डे फहरा रहे थे।
उसकी जीभ बाहर लटक रही थी। उसकी आँखें बन्द<br>
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उसकी जीभ बाहर लटक रही थी। उसकी आँखें बन्द
थीं। उसका चेहरा खून और आँसू से तर था।’मूर्खों!<br>
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थीं। उसका चेहरा खून और आँसू से तर था।’मूर्खों!
यह क्या कर रहे हो?’ मैं चिल्लाया। और तभी किसी ने<br>
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यह क्या कर रहे हो? ’मैं चिल्लाया।  
उसे मेरी ओर उछाल दिया। अरे यह कैसे हुआ?<br>
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और तभी किसी ने
मैं हतप्रभ सा खड़ा था<br>
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उसे मेरी ओर उछाल दिया। अरे यह कैसे हुआ?
और मेरा हमशक्ल<br>
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मैं हतप्रभ सा खड़ा था
मेरे पैरों के पास<br>
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और मेरा हमशक्ल
मूर्च्छित- सा<br>
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मेरे पैरों के पास
पड़ा था-<br>
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मूर्च्छित- सा
दुख और भय से झुरझुरी लेकर<br>
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पड़ा था-
मैं उस पर झुक गया<br>
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दुख और भय से झुरझुरी लेकर
किन्तु बीच में ही रुक गया<br>
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मैं उस पर झुक गया
उसका हाथ ऊपर उठा था<br>
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किन्तु बीच में ही रुक गया
खून और आँसू से तर चेहरा<br>
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उसका हाथ ऊपर उठा था
मुस्कराया था। उसकी आँखों का हरापन<br>
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खून और आँसू से तर चेहरा
उसकी आवाज में उतर आया था-<br>
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मुस्कराया था। उसकी आँखों का हरापन
‘दुखी मत हो। यह मेरी नियति है।<br>
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उसकी आवाज में उतर आया था-
मैं हिन्दुस्तान हूँ। जब भी मैंने<br>
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‘दुखी मत हो। यह मेरी नियति है।
उन्हें उजाले से जोड़ा है<br>
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मैं हिन्दुस्तान हूँ। जब भी मैंने
उन्होंने मुझे इसी तरह अपमानित किया है<br>
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उन्हें उजाले से जोड़ा है
इसी तरह तोड़ा है<br>
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उन्होंने मुझे इसी तरह अपमानित किया है
मगर समय गवाह है<br>
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इसी तरह तोड़ा है
कि मेरी बेचैनी के आगे भी राह है।’<br>
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मगर समय गवाह है
मैंने सुना। वह आहिस्ता-आहिस्ता कह रहा है<br>
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कि मेरी बेचैनी के आगे भी राह है।’
जैसे किसी जले हुये जंगल में<br>
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मैंने सुना। वह आहिस्ता-आहिस्ता कह रहा है
पानी का एक ठण्डा सोता बह रहा है<br>
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जैसे किसी जले हुये जंगल में
घास की की ताजगी- भरी<br>
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पानी का एक ठण्डा सोता बह रहा है
ऐसी आवाज़ है<br>
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घास की की ताजगी-भरी
जो न किसी से खुश है,न नाराज़ है।<br>
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ऐसी आवाज़ है
‘भूख ने उन्हें जानवर कर दिया है<br>
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जो न किसी से खुश है,न नाराज़ है।
संशय ने उन्हें आग्रहों से भर दिया है<br>
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‘भूख ने उन्हें जानवर कर दिया है
फिर भी वे अपने हैं…<br>
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संशय ने उन्हें आग्रहों से भर दिया है
अपने हैं…<br>
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फिर भी वे अपने हैं…
अपने हैं…<br>
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अपने हैं…
जीवित भविष्य के सुन्दरतम सपने हैं<br>
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अपने हैं…
नहीं-यह मेरे लिये दुखी होने का समय<br>
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जीवित भविष्य के सुन्दरतम सपने हैं
नहीं है।अपने लोगों की घृणा के<br>
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नहीं-यह मेरे लिये दुखी होने का समय
इस महोत्सव में<br>
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नहीं है।अपने लोगों की घृणा के
मैं शापित निश्चय हूँ<br>
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इस महोत्सव में
मुझे किसी का भय नहीं है।<br>
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मैं शापित निश्चय हूँ
‘तुम मेरी चिंता न करो। उनके साथ<br>
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मुझे किसी का भय नहीं है।
चलो। इससे पहले कि वे<br>
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‘तुम मेरी चिंता न करो।  
गलत हाथों के हथियार हों<br>
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उनके साथ
इससे पहले कि वे नारों और इस्तहारों से<br>
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चलो।  
काले बाजा़र हों<br>
+
इससे पहले कि वे
उनसे मिलो।उन्हें बदलो।<br>
+
ग़लत हाथों के हथियार हों
नहीं-भीड़ के खिलाफ रुकना<br>
+
इससे पहले कि वे नारों और इस्तहारों से
एक खूनी विचार है<br>
+
काले बाज़ार हों
क्योंकि हर ठहरा हुआ आदमी<br>
+
उनसे मिलो।
इस हिंसक भीड़ का<br>
+
उन्हें बदलो।
अन्धा शिकार है।<br>
+
नहीं-भीड़ के ख़िलाफ़ रुकना
तुम मेरी चिन्ता मत करो।<br>
+
एक खूनी विचार है
मैं हर वक्त सिर्फ एक चेहरा नहीं हूँ<br>
+
क्योंकि हर ठहरा हुआ आदमी
जहाँ वर्तमान<br>
+
इस हिंसक भीड़ का
अपने शिकारी कुत्ते उतारता है<br>
+
अन्धा शिकार है।
अक्सर में मिट्टी की हरक़त करता हुआ<br>
+
तुम मेरी चिन्ता मत करो।
वह टुकड़ा हूँ<br>
+
मैं हर वक़्त सिर्फ एक चेहरा नहीं हूँ
जो आदमी की शिराओं में<br>
+
जहाँ वर्तमान
बहते हुये खू़न को<br>
+
अपने शिकारी कुत्ते उतारता है
उसके सही नाम से पुकारता हूँ<br>
+
अक्सर में मिट्टी की हरक़त करता हुआ
इसलिये मैं कहता हूँ,जाओ ,और<br>
+
वह टुकड़ा हूँ
देखो कि लोग…<br>
+
जो आदमी की शिराओं में
मैं कुछ कहना चाहता था कि एक धक्के ने<br>
+
बहते हुये खू़न को
मुझे दूर फेंक दिया। इससे पहले कि मैं गिरता<br>
+
उसके सही नाम से पुकारता हूँ
किन्हीं मजबूत हाथों ने मुझे टेक लिया।<br>
+
इसलिये मैं कहता हूँ, जाओ,और
अचानक भीड़ में से निकलकर एक प्रशिक्षित दलाल<br>
+
देखो कि लोग…
मेरी देह में समा गया। दूसरा मेरे हाथों में<br>
+
मैं कुछ कहना चाहता था कि एक धक्के ने
एक पर्ची थमा गया। तीसरे ने एक मुहर देकर<br>
+
मुझे दूर फेंक दिया।  
पर्दे के पीछे ढकेल दिया।<br>
+
इससे पहले कि मैं गिरता
भय और अनिश्चय के दुहरे दबाव में<br>
+
किन्हीं मजबूत हाथों ने मुझे टेक लिया।
पता नहीं कब और कैसे और कहाँ–<br>
+
अचानक भीड़ में से निकलकर एक प्रशिक्षित दलाल
कितने नामों से और चिन्हों और शब्दों को<br>
+
मेरी देह में समा गया।  
काटते हुये मैं चीख पड़ा-<br>
+
दूसरा मेरे हाथों में
‘हत्यारा!हत्यारा!!हत्यारा!!!’<br>
+
एक पर्ची थमा गया।  
मुझे ठीक ठीक याद नहीं है।मैंने यह<br>
+
तीसरे ने एक मुहर देकर
किसको कहा था। शायद अपने-आपको<br>
+
पर्दे के पीछे ढकेल दिया।
शायद उस हमशक्ल को(जिसने खुद को<br>
+
भय और अनिश्चय के दुहरे दबाव में
हिन्दुस्तान कहा था) शायद उस दलाल को<br>
+
पता नहीं कब और कैसे और कहाँ–
 +
कितने नामों से और चिन्हों और शब्दों को
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काटते हुये मैं चीख पड़ा-
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‘हत्यारा! हत्यारा!! हत्यारा!!!’
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मुझे ठीक ठीक याद नहीं है।
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मैंने यह
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किसको कहा था।  
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शायद अपने-आपको
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शायद उस हमशक्ल को  
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(जिसने ख़ुद को हिन्दुस्तान कहा था)  
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शायद उस दलाल को
 
मगर मुझे ठीक-ठीक याद नहीं है
 
मगर मुझे ठीक-ठीक याद नहीं है
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12:10, 27 सितम्बर 2024 के समय का अवतरण

लेकिन मुझे लगा कि एक विशाल दलदल के किनारे
बहुत बड़ा अधमरा पशु पड़ा हुआ है
उसकी नाभि में एक सड़ा हुआ घाव है
जिससे लगातार-भयानक बदबूदार मवाद
बह रहा है
उसमें जाति और धर्म और सम्प्रदाय और
पेशा और पूँजी के असंख्य कीड़े
किलबिला रहे हैं और अन्धकार में
डूबी हुई पृथ्वी
(पता नहीं किस अनहोनी की प्रतीक्षा में)
इस भीषण सड़ाँध को चुपचाप सह रही है
मगर आपस में नफरत करते हुए वे लोग
इस बात पर सहमत हैं कि
‘चुनाव’ ही सही इलाज है
क्योंकि बुरे और बुरे के बीच से
किसी हद तक ‘कम से कम बुरे को’ चुनते हुए
न उन्हें मलाल है, न भय है
न लाज है
दरअस्ल उन्हें एक मौका मिला है
और इसी बहाने
वे अपने पड़ोसी को पराजित कर रहे हैं
मैंने देखा कि हर तरफ
मूढ़ता की हरी-हरी घास लहरा रही है
जिसे कुछ जंगली पशु
खूँद रहे हैं
लीद रहे हैं
चर रहे है
मैंने ऊब और गुस्से को
गलत मुहरों के नीचे से गुज़रते हुये देखा
मैंने अहिंसा को
एक सत्तारूढ़ शब्द का गला काटते हुये देखा
मैंने ईमानदारी को अपनी चोरजेबें
भरते हुये देखा
मैंने विवेक को
चापलूसों के तलवे चाटते हुये देखा…
मैं यह सब देख ही रहा था कि एक नया रेला आया
उन्मत्त लोगों का बर्बर जुलूस। वे किसी आदमी को
हाथों पर गठरी की तरह उछाल रहे थे
उसे एक दूसरे से छीन रहे थे।उसे घसीट रहे थे।
चूम रहे थे।पीट रहे थे। गालियाँ दे रहे थे।
गले से लगा रहे थे। उसकी प्रशंसा के गीत
गा रहे थे। उस पर अनगिनत झण्डे फहरा रहे थे।
उसकी जीभ बाहर लटक रही थी। उसकी आँखें बन्द
थीं। उसका चेहरा खून और आँसू से तर था।’मूर्खों!
यह क्या कर रहे हो? ’मैं चिल्लाया।
और तभी किसी ने
उसे मेरी ओर उछाल दिया। अरे यह कैसे हुआ?
मैं हतप्रभ सा खड़ा था
और मेरा हमशक्ल
मेरे पैरों के पास
मूर्च्छित- सा
पड़ा था-
दुख और भय से झुरझुरी लेकर
मैं उस पर झुक गया
किन्तु बीच में ही रुक गया
उसका हाथ ऊपर उठा था
खून और आँसू से तर चेहरा
मुस्कराया था। उसकी आँखों का हरापन
उसकी आवाज में उतर आया था-
‘दुखी मत हो। यह मेरी नियति है।
मैं हिन्दुस्तान हूँ। जब भी मैंने
उन्हें उजाले से जोड़ा है
उन्होंने मुझे इसी तरह अपमानित किया है
इसी तरह तोड़ा है
मगर समय गवाह है
कि मेरी बेचैनी के आगे भी राह है।’
मैंने सुना। वह आहिस्ता-आहिस्ता कह रहा है
जैसे किसी जले हुये जंगल में
पानी का एक ठण्डा सोता बह रहा है
घास की की ताजगी-भरी
ऐसी आवाज़ है
जो न किसी से खुश है,न नाराज़ है।
‘भूख ने उन्हें जानवर कर दिया है
संशय ने उन्हें आग्रहों से भर दिया है
फिर भी वे अपने हैं…
अपने हैं…
अपने हैं…
जीवित भविष्य के सुन्दरतम सपने हैं
नहीं-यह मेरे लिये दुखी होने का समय
नहीं है।अपने लोगों की घृणा के
इस महोत्सव में
मैं शापित निश्चय हूँ
मुझे किसी का भय नहीं है।
‘तुम मेरी चिंता न करो।
उनके साथ
चलो।
इससे पहले कि वे
ग़लत हाथों के हथियार हों
इससे पहले कि वे नारों और इस्तहारों से
काले बाज़ार हों
उनसे मिलो।
उन्हें बदलो।
नहीं-भीड़ के ख़िलाफ़ रुकना
एक खूनी विचार है
क्योंकि हर ठहरा हुआ आदमी
इस हिंसक भीड़ का
अन्धा शिकार है।
तुम मेरी चिन्ता मत करो।
मैं हर वक़्त सिर्फ एक चेहरा नहीं हूँ
जहाँ वर्तमान
अपने शिकारी कुत्ते उतारता है
अक्सर में मिट्टी की हरक़त करता हुआ
वह टुकड़ा हूँ
जो आदमी की शिराओं में
बहते हुये खू़न को
उसके सही नाम से पुकारता हूँ
इसलिये मैं कहता हूँ, जाओ,और
देखो कि लोग…
मैं कुछ कहना चाहता था कि एक धक्के ने
मुझे दूर फेंक दिया।
इससे पहले कि मैं गिरता
किन्हीं मजबूत हाथों ने मुझे टेक लिया।
अचानक भीड़ में से निकलकर एक प्रशिक्षित दलाल
मेरी देह में समा गया।
दूसरा मेरे हाथों में
एक पर्ची थमा गया।
तीसरे ने एक मुहर देकर
पर्दे के पीछे ढकेल दिया।
भय और अनिश्चय के दुहरे दबाव में
पता नहीं कब और कैसे और कहाँ–
कितने नामों से और चिन्हों और शब्दों को
काटते हुये मैं चीख पड़ा-
‘हत्यारा! हत्यारा!! हत्यारा!!!’
मुझे ठीक ठीक याद नहीं है।
मैंने यह
किसको कहा था।
शायद अपने-आपको
शायद उस हमशक्ल को
(जिसने ख़ुद को हिन्दुस्तान कहा था)
शायद उस दलाल को
मगर मुझे ठीक-ठीक याद नहीं है