"पटकथा / पृष्ठ 7 / धूमिल" के अवतरणों में अंतर
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) |
Sharda suman (चर्चा | योगदान) |
||
(इसी सदस्य द्वारा किया गया बीच का एक अवतरण नहीं दर्शाया गया) | |||
पंक्ति 8: | पंक्ति 8: | ||
|सारणी=पटकथा / धूमिल | |सारणी=पटकथा / धूमिल | ||
}} | }} | ||
− | + | <poem> | |
− | मेरी नींद टूट चुकी थी | + | मेरी नींद टूट चुकी थी |
− | मेरा पूरा जिस्म पसीने में | + | मेरा पूरा जिस्म पसीने में |
− | सराबोर था। मेरे आसपास से | + | सराबोर था। |
− | तरह-तरह के लोग | + | मेरे आसपास से |
− | हर तरफ हलचल थी,शोर था। | + | तरह-तरह के लोग गुज़र रहे थे। |
− | और मैं चुपचाप सुनता हूँ | + | हर तरफ हलचल थी,शोर था। |
− | हाँ शायद - | + | और मैं चुपचाप सुनता हूँ |
− | मैंने भी अपने भीतर | + | हाँ शायद - |
− | (कहीं बहुत गहरे) | + | मैंने भी अपने भीतर |
− | ‘कुछ जलता हुआ सा | + | (कहीं बहुत गहरे) |
− | लेकिन मैं जानता हूँ कि जो कुछ हुआ है | + | ‘कुछ जलता हुआ सा' छुआ है |
− | नींद में हुआ है | + | लेकिन मैं जानता हूँ कि जो कुछ हुआ है |
− | और तब से आजतक | + | नींद में हुआ है |
− | नींद और नींद के बीच का जंगल काटते हुये | + | और तब से आजतक |
− | मैंने कई रातें जागकर गुजा़र दीं हैं | + | नींद और नींद के बीच का जंगल काटते हुये |
− | + | मैंने कई रातें जागकर गुजा़र दीं हैं | |
− | अपनी परेशानी के | + | हफ़्तों पर हफ़्ते तह किये हैं |
− | निर्मम अकेले और बेहद अनमने क्षण | + | अपनी परेशानी के |
− | जिये हैं। | + | निर्मम अकेले और बेहद अनमने क्षण |
− | और हर बार मुझे लगा है कि कहीं | + | जिये हैं। |
− | कोई | + | और हर बार मुझे लगा है कि कहीं |
− | ज़िन्दगी उसी पुराने ढर्रे पर चल रही है | + | कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं है |
− | जिसके पीछे कोई तर्क नहीं है | + | ज़िन्दगी उसी पुराने ढर्रे पर चल रही है |
− | हाँ ,यह सही है कि इन दिनों | + | जिसके पीछे कोई तर्क नहीं है |
− | कुछ अर्जियाँ | + | हाँ, यह सही है कि इन दिनों |
− | कुछ तबादले हुये हैं | + | कुछ अर्जियाँ मंजूर हुई हैं |
− | कल तक जो थे नहले | + | कुछ तबादले हुये हैं |
− | आज | + | कल तक जो थे नहले |
− | दहले | + | आज |
− | हाँ यह सही है कि | + | दहले हुए हैं |
− | मन्त्री जब प्रजा के सामने आता है | + | हाँ यह सही है कि |
− | तो पहले से | + | मन्त्री जब प्रजा के सामने आता है |
− | नये-नये वादे करता है | + | तो पहले से ज़्यादा मुस्कराता है |
− | और यह सिर्फ़ घास के | + | नये-नये वादे करता है |
− | सामने होने की मजबूरी है | + | और यह सिर्फ़ घास के |
− | वर्ना उस भले मानुस को | + | सामने होने की मजबूरी है |
− | यह भी पता नहीं कि विधानसभा भवन | + | वर्ना उस भले मानुस को |
− | और अपने निजी बिस्तर के बीच | + | यह भी पता नहीं कि विधानसभा भवन |
− | कितने जूतों की दूरी है। | + | और अपने निजी बिस्तर के बीच |
− | हाँ यह सही है कि इन दिनों | + | कितने जूतों की दूरी है। |
− | भाव कुछ चढ़ गये | + | हाँ यह सही है कि इन दिनों चीजों के |
− | शीर्षक दिलचस्प हैं,नये हैं। | + | भाव कुछ चढ़ गये हैं। |
− | मन्दी की मार से | + | अख़बारों के |
− | पट पड़ी हुई चीज़ें ,बाज़ार में | + | शीर्षक दिलचस्प हैं,नये हैं। |
− | सहसा उछल गयीं हैं | + | मन्दी की मार से |
− | हाँ यह सही है कि कुर्सियाँ वही हैं | + | पट पड़ी हुई चीज़ें, बाज़ार में |
− | सिर्फ टोपियाँ बदल गयी हैं और- | + | सहसा उछल गयीं हैं |
− | सच्चे मतभेद के अभाव में | + | हाँ यह सही है कि कुर्सियाँ वही हैं |
− | लोग उछल-उछलकर | + | सिर्फ टोपियाँ बदल गयी हैं और- |
− | अपनी जगहें बदल रहे हैं | + | सच्चे मतभेद के अभाव में |
− | चढ़ी हुई नदी में | + | लोग उछल-उछलकर |
− | भरी हुई नाव में | + | अपनी जगहें बदल रहे हैं |
− | हर | + | चढ़ी हुई नदी में |
− | दलदल है | + | भरी हुई नाव में |
− | सतहों पर हलचल है | + | हर तरफ़, विरोधी विचारों का |
− | नये-नये नारे हैं | + | दलदल है |
− | भाषण में जोश है | + | सतहों पर हलचल है |
− | पानी ही पानी है | + | नये-नये नारे हैं |
− | पर | + | भाषण में जोश है |
− | की | + | पानी ही पानी है |
− | च | + | पर |
− | ड़ | + | की |
− | + | च | |
− | मैं रोज देखता हूँ कि व्यवस्था की मशीन का | + | ड़ |
− | एक | + | ख़ामोश है |
− | अलग छिटक गया है और | + | मैं रोज देखता हूँ कि व्यवस्था की मशीन का |
− | ठण्डा होते ही | + | एक पुर्ज़ा गरम होकर |
− | फिर कुर्सी से चिपक गया है | + | अलग छिटक गया है और |
− | उसमें न हया है | + | ठण्डा होते ही |
− | न दया है | + | फिर कुर्सी से चिपक गया है |
− | नहीं-अपना कोई हमदर्द | + | उसमें न हया है |
− | यहाँ नहीं है। मैंने एक-एक को | + | न दया है |
− | परख लिया है। | + | नहीं-अपना कोई हमदर्द |
− | मैंने हरेक को आवाज़ दी है | + | यहाँ नहीं है। |
− | हरेक का दरवाजा खटखटाया है | + | मैंने एक-एक को |
− | मगर | + | परख लिया है। |
− | उठायी है उसको मादा | + | मैंने हरेक को आवाज़ दी है |
− | पाया है। | + | हरेक का दरवाजा खटखटाया है |
− | वे सब के सब तिजोरियों के | + | मगर बेकार… मैंने जिसकी पूँछ |
− | दुभाषिये हैं। | + | उठायी है उसको मादा |
− | वे वकील हैं। वैज्ञानिक हैं। | + | पाया है। |
− | अध्यापक हैं। नेता हैं। दार्शनिक | + | वे सब के सब तिजोरियों के |
− | + | दुभाषिये हैं। | |
− | यानी कि- | + | वे वकील हैं। |
− | कानून की भाषा बोलता हुआ | + | वैज्ञानिक हैं। |
+ | अध्यापक हैं। | ||
+ | नेता हैं। | ||
+ | दार्शनिक हैं। | ||
+ | लेखक हैं। | ||
+ | कवि हैं। | ||
+ | कलाकार हैं। | ||
+ | यानी कि- | ||
+ | कानून की भाषा बोलता हुआ | ||
अपराधियों का एक संयुक्त परिवार है। | अपराधियों का एक संयुक्त परिवार है। | ||
+ | </poem> |
12:16, 27 सितम्बर 2024 के समय का अवतरण
मेरी नींद टूट चुकी थी
मेरा पूरा जिस्म पसीने में
सराबोर था।
मेरे आसपास से
तरह-तरह के लोग गुज़र रहे थे।
हर तरफ हलचल थी,शोर था।
और मैं चुपचाप सुनता हूँ
हाँ शायद -
मैंने भी अपने भीतर
(कहीं बहुत गहरे)
‘कुछ जलता हुआ सा' छुआ है
लेकिन मैं जानता हूँ कि जो कुछ हुआ है
नींद में हुआ है
और तब से आजतक
नींद और नींद के बीच का जंगल काटते हुये
मैंने कई रातें जागकर गुजा़र दीं हैं
हफ़्तों पर हफ़्ते तह किये हैं
अपनी परेशानी के
निर्मम अकेले और बेहद अनमने क्षण
जिये हैं।
और हर बार मुझे लगा है कि कहीं
कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं है
ज़िन्दगी उसी पुराने ढर्रे पर चल रही है
जिसके पीछे कोई तर्क नहीं है
हाँ, यह सही है कि इन दिनों
कुछ अर्जियाँ मंजूर हुई हैं
कुछ तबादले हुये हैं
कल तक जो थे नहले
आज
दहले हुए हैं
हाँ यह सही है कि
मन्त्री जब प्रजा के सामने आता है
तो पहले से ज़्यादा मुस्कराता है
नये-नये वादे करता है
और यह सिर्फ़ घास के
सामने होने की मजबूरी है
वर्ना उस भले मानुस को
यह भी पता नहीं कि विधानसभा भवन
और अपने निजी बिस्तर के बीच
कितने जूतों की दूरी है।
हाँ यह सही है कि इन दिनों चीजों के
भाव कुछ चढ़ गये हैं।
अख़बारों के
शीर्षक दिलचस्प हैं,नये हैं।
मन्दी की मार से
पट पड़ी हुई चीज़ें, बाज़ार में
सहसा उछल गयीं हैं
हाँ यह सही है कि कुर्सियाँ वही हैं
सिर्फ टोपियाँ बदल गयी हैं और-
सच्चे मतभेद के अभाव में
लोग उछल-उछलकर
अपनी जगहें बदल रहे हैं
चढ़ी हुई नदी में
भरी हुई नाव में
हर तरफ़, विरोधी विचारों का
दलदल है
सतहों पर हलचल है
नये-नये नारे हैं
भाषण में जोश है
पानी ही पानी है
पर
की
च
ड़
ख़ामोश है
मैं रोज देखता हूँ कि व्यवस्था की मशीन का
एक पुर्ज़ा गरम होकर
अलग छिटक गया है और
ठण्डा होते ही
फिर कुर्सी से चिपक गया है
उसमें न हया है
न दया है
नहीं-अपना कोई हमदर्द
यहाँ नहीं है।
मैंने एक-एक को
परख लिया है।
मैंने हरेक को आवाज़ दी है
हरेक का दरवाजा खटखटाया है
मगर बेकार… मैंने जिसकी पूँछ
उठायी है उसको मादा
पाया है।
वे सब के सब तिजोरियों के
दुभाषिये हैं।
वे वकील हैं।
वैज्ञानिक हैं।
अध्यापक हैं।
नेता हैं।
दार्शनिक हैं।
लेखक हैं।
कवि हैं।
कलाकार हैं।
यानी कि-
कानून की भाषा बोलता हुआ
अपराधियों का एक संयुक्त परिवार है।