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"हिंदी का प्रथम थिसॉरस / शेषनाथ प्रसाद" के अवतरणों में अंतर

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अरविंद कुमार के "समांतर कोश" को हिंदी का पहला थिसॉरस कहा गया हैं. मेरे पास सन् 1929 ई में प्रकाशित एक "पद्य-शब्द-कोश" है जिसे मैं बेहिचक हिंदी का प्रथम थिसॉरस कह सकता हूँ.
 
अरविंद कुमार के "समांतर कोश" को हिंदी का पहला थिसॉरस कहा गया हैं. मेरे पास सन् 1929 ई में प्रकाशित एक "पद्य-शब्द-कोश" है जिसे मैं बेहिचक हिंदी का प्रथम थिसॉरस कह सकता हूँ.
  
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इस समय इस "पद्य-शब्द-कोश" की जो प्रति मेरे हाथ में है वह सन् 1929 में छपी है, प्रकाशक हैं विजयप्रतापसिंह वर्मा, साहित्य सदन, मधुबनी (दरभंगा).
 
इस समय इस "पद्य-शब्द-कोश" की जो प्रति मेरे हाथ में है वह सन् 1929 में छपी है, प्रकाशक हैं विजयप्रतापसिंह वर्मा, साहित्य सदन, मधुबनी (दरभंगा).
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20:51, 5 दिसम्बर 2014 के समय का अवतरण

अरविंद कुमार के "समांतर कोश" को हिंदी का पहला थिसॉरस कहा गया हैं. मेरे पास सन् 1929 ई में प्रकाशित एक "पद्य-शब्द-कोश" है जिसे मैं बेहिचक हिंदी का प्रथम थिसॉरस कह सकता हूँ.

बहुत पहले 'आजकल' में 'कुमार' के हिंदी थिसॉरस पर एक लेख छपा था. तब इस पर मैंने अपनी प्रतिक्रिया दी थी. मैंने प्रमाण के साथ लिखा था कि हिंदी का पहला थिसॉरस वस्तुतः सत्यनारायण सिंह वर्मा 'हिंदी भूषण' का "पद्य-शब्द-कोश" है. 'आजकल' ने मेरी प्रतिक्रिया को अपने 'पत्र स्तंभ' के अंतिम पृष्ठ पर प्रमुखता से एक फ्रेम में छापा था. आज मुझे आवश्यक लग रहा है कि उस कोश का पूरा विवरण मैं दूँ,

'थिसॉरस' शब्द ग्रीक मूल के 'थिसरस' शब्द से व्युत्पन्न है जिसका अर्थ है तिजोरी, कोश. यह सामान्य शब्दकोश से भिन्न एक अन्य तरह का संदर्भ ग्रंथ (reference work) है जिसमें समान अर्थ रखनेवाले शब्द समूहबद्ध किए गए होते हैं. इस शब्द-समूह में शब्द के पर्यायवाची होते हैं. यह कोश उन लोगों के लिए उपयोगी है जिन्हें एक ही अर्थ रखनेवाले कई शब्दों में से किसी खास अभिप्राय वाले शब्द को ढूँढ़ना होता हैं. यहाँ संदर्भित ‘पद्य-शब्द-कोश’ में यह लक्षण विद्यमान है.

अरविंद कुमार को हिंदी थिसॉरस बनाने की प्रेरणा पीटर मार्क रोजेट के "थिसॉरस" (जो रोजेट्स थिसॉरस के नाम से प्रसिद्ध है) से मिली. यह अँग्रेजी में बना पहला थिसॉरस है जो सन् 1852 ई में प्रकाशित हुआ था. अपने हिंदी थिसॉरस को अत्याधुनिक रूप देने के लिए अरविंद कुमार ने भारतीय भाषाओं की तरफ भी अपनी दृष्टि फिराई. उनका ध्यान संस्कृत में प्रजापति कश्यप के निघंटु (ई. पू. नवीं सदी), यास्क के निरुक्त (ई पू छठीं सदी), अमर सिंह के 'अमरकोश' (ईसा की चौथी सदी) आदि कोशों की ओर गया. किंतु हिंदी में बने सत्यनारायण सिंह वर्मा के इस "पद्य-शब्द-कोश" तक उनकी पहुँच नहीं हो सकी. यह हिंदी जगत की कमजोरी है कि बिहार के छात्रों और तब के नवोदित कवियों में अत्यंत लोकप्रिय होते हुए भी यह कोश विद्वज्जन एवं कोशकारों का ध्यान आकर्षित नहीं कर सका.

अरविंद कुमार ने अमरसिंह के अमरकोश को विश्व की भाषाओं का प्रथम थिसॉरस माना. इस कोश में शब्द के पर्यायवाची शब्द दिए गए हैं. यह कोश कांडों (3) में, प्रत्येक कांड वर्गों (कांडवार 11,10,6 वर्ग) में और प्रत्येक वर्ग श्लोकों में विभक्त हैं. इसमें कुल 1496 मूल श्लोक हैं. प्रत्येक श्लोक की प्रथम पंक्ति की बाँयी तरफ कोष्ठक में कांड, वर्ग, श्लोक-पंक्ति संख्या में निर्देशित हैं. शब्दों की कुल संख्या लगभग 10,000 हैं.

अमरसिंह अपने कोश (थिसॉरस) की उपयोगिता पर मौन हैं किंतु इसी ढाँचे के कोशकार धनंजय कहते हैं कि मैं इसे कवियों के लाभ के लिए लिख रहा हूँ (कवीनां हितकाम्यया). विद्वज्जन की राय में अमरसिंह का भी यही मंतव्य रहा होगा.

हिंदी के इस प्रथम थिसॉरस “पद्य-शब्द-कोश” के प्रणयन के समय सत्यनारायण सिंह वर्मा “हिंदी भूषण” के ध्यान में अमरसिंह कृत ‘अमरकोश’ ही था. वह “पद्य-शब्द-कोश” के प्रथम संस्करण (सन् 1928 ई) की भूमिका में लिखते हैं:

"कतिपय पाठक ऐसा प्रश्न उठा सकते हैं कि इस पुस्तक में अधिकांश शब्द संस्कृत के ही आए हैं और जब संस्कृत में 'अमरकोश' है ही तो फिर इसकी क्या आवश्यकता थी. मैं उन महानुभावों से यह निवेदन कर देना चाहता हूँ कि मैंने प्रधानतः उन्हीं शब्दों का इसमें उल्लेख किया है जो हिंदी साहित्य में व्यवहृत हैं".

यह कोश लगभग 'अमरकोश' के ढाँचे पर ही बना है. बस एक फर्क है. 'अमरकोश' में शब्द खंडों, वर्गों और श्लोकों में विभक्त हैं किंतु "पद्य-शब्द-कोश" में शब्द अकारादि वर्णक्रम में दिए गए हैं. उनका समान अर्थ देनेवाले शब्द पद्य में दिए गए है. किसी किसी शब्द के समानार्थक एक से अधिक पद्यों में दिए गए है. इसमें 290 शब्दों के लगभग 6000 समानार्थक शब्द, 390 पद्यों में दिए गए हैं. अमरकोश की अपेक्षा पद्य-शब्द-कोश (थिसॉरस) की एक विशेषता है. शब्द के पर्यायवाची पद्यों में देने के बाद उसके नीचे टिप्पणी, शुद्ध शब्द और अनेकार्थ भी दिए गए है. कहीं कहीं अनेकार्थ भी पद्यों में दिए गए हैं.

इन टिप्पणियों में कहीं पर्यायवाचियों के अर्थ, कहीं अर्थाशय, भावार्थ और कहीं कहीं इनकी अर्थ-व्यंजना के अनुसार इनके प्रयोग-स्थल को भी निर्देशित करने की कोशिश दिखती है. इनमें कहीं कहीं शब्द के धातु को भी देने की कोशिश दिखती है जो अन्य कोशों में नहीं है, यहाँ तक कि अरविंद कुमार के हिंदी थिसॉरस "समांतर कोश" में भी नहीं. रचनाकार की अवधारणा देखें-

"शब्दों पर टिप्पणियाँ इस अभिप्राय से दी गई हैं कि पाठक शब्दों के यथार्थ अर्थ को समझ सकें और अर्थानुसार उनका प्रयोग कर सकें. पुस्तक विस्तार के भय से सभी शब्दों के धातु नहीं दर्शाए जा सके हैं, यदि पाठकों की अभिरुचि हुई तो आगे चलकर इसकी पूर्ति कर दी जाएगी. धात्वर्थ जानते हुए शब्द के प्रयोग से साहित्य का सौष्ठव कहीं अधिक बढ़ जाता है". ("पद्य-शब्द-कोश" की भूमिका, प्रथम संस्करण)

जैसे, तीर का पर्यायवाची 'बाण' भी होता है और ‘नाराच’ भी. तुलसीदास ने इन शब्दों का सौष्ठवगत प्रयोग बड़ी खूबी से किया है.

कोशकार के उद्धरण देखें:

तब चलेउ बाण कराल। फुंकरत जनु बहु व्याल॥

'बाण' बण धातु से निकला है. इसका अर्थ शब्द करना होता है. अतः जो तीर शब्द करता हुआ चले उसे बाण कहेंगे. इसी आशय को लक्ष्य कर गोस्वामीजी ने लिख दिया "फुंकरत जनु बहु व्याल". और भी-

छाड़े विपुल नाराच। लगे कटन विकट पिशाच॥

जब भगवान रामचंद्र को खरदूषण की सेना ने घेर लिया तब भगवान ने नाराच छोड़ना आरंभ किया. 'नाराच' (ना -मनुष्यों का समूह, आ -चारो ओर से, चम -खाना) जो तीर चारो ओर से शत्रुओं का नाश करे (खाए) उसे 'नाराच' कहते है." (“पद्य-शब्द-कोश“ की भूमिका, प्रथम संस्करण)

बाण (क्रमांक-171, पृष्ठ 62) शब्द के नीचे दी गई टिप्पणी को भी देखें.

वहीं "पद्य-शब्द-कोश"कार यह भी कहते हैं"

"इस पुस्तक के लिखने का यह एक मुख्य अभिप्राय है कि पाठक रसानुकूल शब्दों का प्रयोग कर सकें.. यथाः- 'मरीचि' और 'मार्तंड' ये दोनों शब्द सूर्य के पर्यायवाची है., किंतु 'मरीचि' में यदि तंत्री के तारों का मधुर झंकार है तो 'मार्तंड' में मृदंग का प्रचंड एवं उद्दंड गर्जन".

सूर्य (क्रमांक-279, पृष्ठ 100) शब्द के नीचे दी गई टिप्पणी को देखें.

वांछित शब्द का पर्यायवाची ढूँढ़ने के लिए इस "पद्य-शब्द-कोश" के प्रारंभ में भूमिका के बाद वर्णानुक्रम से सूचीपत्र दिया गया है. कोश के अंत में एक परिशिष्ट है. इसमें अकारादि क्म से एक संक्षिप्त सामान्य शब्दकोश दिया है. परिशिष्ट के संबंध में कोशकार लिखते हैं:

"प्रथम संस्करण केवल कवि तथा बालकों के लिए ही बनाया गया था, अतः अन्यान्य कोशों की भाँति शब्दार्थ निकालने का काम उससे नहीं लिया जा सकता था, इस अभाव की पूर्ति इस बार परिशिष्ट देकर कर दी गई है".

किसी शब्द का पर्यायवाची देखने का तरीका यह है. उस शब्द को पहले सूचीपत्र में देखें. फिर उसके सामने अंकित पृष्ठ पर जाकर वहाँ उसका पर्यायवाची देख लें या उस शब्द को परिशष्ट में दिए शब्दकोश में देखिए और उस शब्द के आगे लिखी संख्या के शब्द को "पद्य-शब्द-कोश" में देख लें. परिशिष्ट के शब्द के आगे यदि कोई संख्या नहीं लिखी है तो शब्दार्थ देखें. उस शब्दार्थ को सूचीपत्र में देखें और उस शब्द के आगे लिखी पृष्ठ संख्या पर जाकर उसके पर्यायवाची प्राप्त कर लें. उदाहरण के लिए 'अनंग' शब्द का पर्यायवाची देखना है-

पहले अनंग शब्द को सूचीपत्र में देखें. सूचीपत्र में यह न मिले तब इसे परिशिष्ट में देखें. परिशिष्ट में 'अनंग' शब्द मिलेगा. पर इसके आगे कोई संख्या नहीं लिखी है, इसका अर्थ लिखा है- 'कामदेव'. अब 'कामदेव' शब्द को सूचीपत्र में देखें. यहाँ 'कामदेव' के आगे पृष्ठ संख्या 17 लिखी है. अब "पद्य-शब्द-कोश" में इस पृष्ठ को पलटें और 'अनंग' का पर्यायवाची जान लें. पर परिशिष्ट की हर संख्याविहीन शब्दों के लिए लागू नहीं हो पाचा है.

उपर्युक्त विवरण-विवेचन से स्पष्ट है कि हिंदी का प्रथम थिसॉरस सूर्यनारायण सिंह वर्मा “हिंदी भूषण” का "पद्य-शब्द-कोश" हिंदी का प्रथम थिसॉरस है.

यहाँ उल्लेखनीय है कि यह कोश सन् 1928 में बना था. इसमें उस समय के हिंदी मानस की प्रतिच्छवि वर्तमान है.

इस कोशकार ने कोश के द्वितीय संस्करण की भूमिका में इसके तृतीय परिवर्द्धित संस्करण निकालने का इच्छा जताई थी. पर वह आया या नहीं इसकी कोई सूचना मेरे पास नहीं है.

इस समय इस "पद्य-शब्द-कोश" की जो प्रति मेरे हाथ में है वह सन् 1929 में छपी है, प्रकाशक हैं विजयप्रतापसिंह वर्मा, साहित्य सदन, मधुबनी (दरभंगा).