"वसन्त कोकिल / लेखनाथ पौड्याल" के अवतरणों में अंतर
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− | भरी लता वृक्ष | + | (१) |
− | नवीन लाखौं | + | भरी लता वृक्ष विष टनाटन |
− | वसन्त | + | नवीन लाखौं फुल पालुवाकन । |
− | सुनिन्छ | + | वसन्त मायो कलकण्ठको अव |
− | अगाडि जो दीन बनी लुकीकन | + | सुनिन्छ साझै कलकण्ठ-गौरव ॥ |
− | बिताउँथ्यो केवल | + | (२) |
− | अहो !! उही कोकिल हेर आज यो | + | अगाडि जो दीन बनी लुकीकन |
− | प्रमोदले पूर्ण महासुखी | + | बिताउँथ्यो केवल दुःखमा दिन । |
− | बसी | + | अहो !! उही कोकिल हेर आज यो । |
− | नयाँ कलीला | + | प्रमोदले पूर्ण महासुखी भयो ॥ |
− | चपाउँदै मस्त | + | (३) |
− | + | बसी बगैचा बिच मोजमा परी | |
− | चलीरहेको छ | + | नयाँ कलीला सहकार-मञ्जरी । |
− | + | चपाउँदै मस्त भयेर बेसरी | |
− | जता दियो दृष्टि उतै | + | कुहुँ, कुहुँ, गर्दछ त्यो घरी घरी ।। |
− | प्रमोदले पूर्ण नहोस त्यो किन? | + | (४) |
− | समीरले पुष्प परागको झरी | + | चलीरहेको छ सिरीसिरी हवा |
− | लगाउँदा त्यो | + | झुलिरहेछन् सब मञ्जु पालुवा । |
− | + | जता दियो दृष्टि उतै खुशी मन | |
− | मुछेर तेही रजमा | + | प्रमोदले पूर्ण नहोस त्यो किन ? |
− | + | (५) | |
− | घुमाउँदै | + | समीरले पुष्प-परागको झरी |
− | सहर्ष | + | लगाउँदा त्यो रस-रङ्गमा परि । |
− | घनक्क घन्काउँछ त्यो सबै | + | झुलिरहेको छ शरीर बेसरी |
− | घरीघरी भुर्र उडी | + | मुछेर तेही रजमा घरीघरी ॥ |
− | घुमेर शाखान्तरमा | + | (६) |
− | बडो बहाडी | + | पियेर साssनन्द रसालको रस |
− | ढलीमली गर्दछ | + | घुमाउँदै नेन दुवै मदाऽलस । |
− | चुचो | + | सहर्ष खोली सुरिलो गलाकन |
− | + | घनक्क घन्काउँछ त्यो सबै वन ।। | |
− | फरक्क फर्कन्छ घरी पछिल्तिर | + | (७) |
− | प्रसन्नता-साथ लतारि | + | घरीघरी भुर्र उडी अलिकति |
− | न शीत-बाधा, न त | + | घुमेर शाखान्तरमा यताउती । |
− | न बाग | + | बडो बहाडी रसिक बनी तहाँ |
− | + | ढलीमली गर्दछ पालुवामहाँ ॥ | |
− | खुसी छ | + | (८) |
+ | चुचो ठड्याइकन चट्ट मञ्जरी | ||
+ | ढुगेर च्यापीकन देखिने गरी । | ||
+ | फरक्क फर्कन्छ घरी पछिल्तिर | ||
+ | प्रसन्नता-साथ लतारि पुच्छर ॥ | ||
+ | (९) | ||
+ | न शीत-बाधा, न त धामको डर | ||
+ | न बाग नाङ्गा, न त वृष्टिको पिर । | ||
+ | वसम्तमा गौरवले गरीकन | ||
+ | खुसी छ साहै कलकण्ठको मन ।। | ||
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23:09, 13 फ़रवरी 2022 के समय का अवतरण
(१)
भरी लता वृक्ष विष टनाटन
नवीन लाखौं फुल पालुवाकन ।
वसन्त मायो कलकण्ठको अव
सुनिन्छ साझै कलकण्ठ-गौरव ॥
(२)
अगाडि जो दीन बनी लुकीकन
बिताउँथ्यो केवल दुःखमा दिन ।
अहो !! उही कोकिल हेर आज यो ।
प्रमोदले पूर्ण महासुखी भयो ॥
(३)
बसी बगैचा बिच मोजमा परी
नयाँ कलीला सहकार-मञ्जरी ।
चपाउँदै मस्त भयेर बेसरी
कुहुँ, कुहुँ, गर्दछ त्यो घरी घरी ।।
(४)
चलीरहेको छ सिरीसिरी हवा
झुलिरहेछन् सब मञ्जु पालुवा ।
जता दियो दृष्टि उतै खुशी मन
प्रमोदले पूर्ण नहोस त्यो किन ?
(५)
समीरले पुष्प-परागको झरी
लगाउँदा त्यो रस-रङ्गमा परि ।
झुलिरहेको छ शरीर बेसरी
मुछेर तेही रजमा घरीघरी ॥
(६)
पियेर साssनन्द रसालको रस
घुमाउँदै नेन दुवै मदाऽलस ।
सहर्ष खोली सुरिलो गलाकन
घनक्क घन्काउँछ त्यो सबै वन ।।
(७)
घरीघरी भुर्र उडी अलिकति
घुमेर शाखान्तरमा यताउती ।
बडो बहाडी रसिक बनी तहाँ
ढलीमली गर्दछ पालुवामहाँ ॥
(८)
चुचो ठड्याइकन चट्ट मञ्जरी
ढुगेर च्यापीकन देखिने गरी ।
फरक्क फर्कन्छ घरी पछिल्तिर
प्रसन्नता-साथ लतारि पुच्छर ॥
(९)
न शीत-बाधा, न त धामको डर
न बाग नाङ्गा, न त वृष्टिको पिर ।
वसम्तमा गौरवले गरीकन
खुसी छ साहै कलकण्ठको मन ।।