"ईद-2 / नज़ीर अकबराबादी" के अवतरणों में अंतर
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11:34, 27 जून 2017 के समय का अवतरण
यूं लब से अपने निकले हैं अब बार-बार आह।
करता है जिस तरह कि दिले बेक़रार आह।
आलम ने क्या ही ऐश की लूटी बहार आह।
हमसे तो आज भी न मिला वह निगार<ref>प्रेमपात्र</ref> आह।
हम ईद के, भी दिन रहे उम्मीदवार, आह!॥1॥
हो जी में अपने ईद की फ़रहत<ref>खुशी</ref> से शाद<ref>प्रसन्न</ref> काम<ref>मनोरथ</ref>।
खूबां<ref>सुन्दर स्त्रियां, प्रियतमाएं</ref> से अपने-अपने लिए सबसे दिल के काम।
दिल खोल-खोल सब मिले आपस में ख़ासोआम।
आग़ोशे<ref>बगल</ref> ख़ल्क़<ref>दुनियां के लोग</ref> गुल बदनों<ref>फूल जैसे कोमल शरीर वाले</ref> से भरे तमाम।
खाली रहा पर एक हमारा किनार<ref>गोद, बगल</ref> आह॥2॥
क्या पूछते हो शोख<ref>चंचल</ref> से मिलने की अब खबर।
कितना ही जुस्तुजू<ref>तलाश</ref> में फिरे हम इधर-उधर।
लेकिन मिला न हमसे वह अय्यार<ref>छली</ref> फ़ितना गर<ref>बहुत ही नटखट</ref>।
मिलना तो एक तरफ़ है, अज़ीज़ो<ref>प्रियजन, मित्रो</ref>! कि भर नज़र।
पोशाक की भी हमने न देखी बहार, आह!॥3॥
रखते थे हम उम्मीद यह दिल में कि ईद को।
क्या-क्या गले लगायेंगे दिलबर<ref>दिल लेने वाला, प्रेमपात्र</ref> को शाद हो।
सो तो वह आज भी न मिला शोख़ हीलागो<ref>बहाने बनाने वाला</ref>।
थी आस ईद की सो गई वह भी दोस्तो।
अब देखें क्या करे दिले उम्मीदवार, आह!॥4॥
उस संगदिल<ref>बेरहम</ref> की हमने ग़रज़ जबसे चाह की।
देखा न अपने दिल को कभी एकदम खु़शी।
कुछ अब ही उसकी ज़ोरो तअद्दी<ref>जुल्म</ref> नहीं नयी।
हर ईद में हमें तो सदा यास<ref>निराशा</ref> ही रही।
काफ़िर<ref>प्रेमपात्र, माशूक</ref> कभी न हमसे हुआ हम किनार,<ref>आलिंगित</ref> आह!॥5॥
इक़रार<ref>प्रतिज्ञा, वचन</ref> हमसे था कई दिन आगे ईद से।
यानी कि ईदगाह को जायेंगे तुमको ले।
आखि़र को हमको छोड़ गए साथ और के।
हम हाथ मलते रह गए और राह देखते।
क्या-क्या गरज़ सहा, सितमे<ref>अत्याचार</ref> इन्तज़ार आह!॥6॥
क्योंकर लगें न दिल में मेरे हस्रतों<ref>तमन्ना</ref> के तीर।
दिन ईद के भी मुझसे हुआ वह किनारा गीर<ref>कोना पकड़ने वाला, दूर</ref>।
इस दर्द को वह समझे जो हो इश्क़<ref>प्रेम, अनुराग</ref> का असीर<ref>बंदी</ref>।
जिस ईद में कि यार से मिलना न हो ‘नज़ीर’।
उसके ऊपर तो हैफ़<ref>अफसोस</ref> है और सद<ref>सैकड़ों</ref> हज़ार आह!॥7॥