भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"असमंजस / शिवमंगल सिंह ‘सुमन’" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
 
(2 सदस्यों द्वारा किये गये बीच के 2 अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
लेखक: [[शिवमंगल सिंह सुमन]]
+
{{KKGlobal}}
[[Category:कविताएँ]]
+
{{KKRachna
[[Category:शिवमंगल सिंह सुमन]]
+
|रचनाकार=शिवमंगल सिंह सुमन
 +
|संग्रह=
 +
}}
 +
{{KKCatKavita}}
 +
<poem>
 +
जीवन में कितना सूनापन
 +
पथ निर्जन है, एकाकी है,
 +
उर में मिटने का आयोजन
 +
सामने प्रलय की झाँकी है
  
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~
+
वाणी में है विषाद के कण
 +
प्राणों में कुछ कौतूहल है
 +
स्मृति में कुछ बेसुध-सी कम्पन
 +
पग अस्थिर है, मन चंचल है
  
जीवन में कितना सूनापन<br>
+
यौवन में मधुर उमंगें हैं
पथ निर्जन है, एकाकी है,<br>
+
कुछ बचपन है, नादानी है
उर में मिटने का आयोजन<br>
+
मेरे रसहीन कपालो पर
सामने प्रलय की झाँकी है<br><br>
+
कुछ-कुछ पीडा का पानी है
  
वाणी में है विषाद के कण<br>
+
आंखों में अमर-प्रतीक्षा ही
प्राणों में कुछ कौतूहल है<br>
+
बस एक मात्र मेरा धन है
स्मृति में कुछ बेसुध-सी कम्पन<br>
+
मेरी श्वासों, निःश्वासों में
पग अस्थिर है, मन चंचल है<br><br>
+
आशा का चिर आश्वासन है
  
यौवन में मधुर उमंगें हैं<br>
+
मेरी सूनी डाली पर खग
कुछ बचपन है, नादानी है<br>
+
कर चुके बंद करना कलरव
मेरे रसहीन कपालो पर<br>
+
जाने क्यों मुझसे रूठ गया
कुछ-कुछ पीडा का पानी है<br><br>
+
मेरा वह दो दिन का वैभव
  
आंखों में अमर-प्रतीक्षा ही<br>
+
कुछ-कुछ धुँधला सा है अतीत
बस एक मात्र मेरा धन है<br>
+
भावी है व्यापक अन्धकार
मेरी श्वासों, निःश्वासों में<br>
+
उस पार कहां? वह तो केवल
आशा का चिर आश्वासन है<br><br>
+
मन बहलाने का है विचार
  
मेरी सूनी डाली पर खग<br>
+
आगे, पीछे, दायें, बायें
कर चुके बंद करना कलरव<br>
+
जल रही भूख की ज्वाला यहाँ
जाने क्यों मुझसे रूठ गया<br>
+
तुम एक ओर, दूसरी ओर
मेरा वह दो दिन का वैभव<br><br>
+
चलते फिरते कंकाल यहाँ
  
कुछ-कुछ धुँधला सा है अतीत<br>
+
इस ओर रूप की ज्वाला में
भावी है व्यापक अन्धकार<br>
+
जलते अनगिनत पतंगे हैं
उस पार कहां? वह तो केवल<br>
+
उस ओर पेट की ज्वाला से
मन बहलाने का है विचार<br><br>
+
कितने नंगे भिखमंगे हैं
  
आगे, पीछे, दायें, बायें<br>
+
इस ओर सजा मधु-मदिरालय
जल रही भूख की ज्वाला यहाँ<br>
+
हैं रास-रंग के साज कहीं
तुम एक ओर, दूसरी ओर<br>
+
उस ओर असंख्य अभागे हैं
चलते फिरते कंकाल यहाँ<br><br>
+
दाने तक को मुहताज कहीं
  
इस ओर रूप की ज्वाला में<br>
+
इस ओर अतृप्ति कनखियों से
जलते अनगिनत पतंगे हैं<br>
+
सालस है मुझे निहार रही
उस ओर पेट की ज्वाला से<br>
+
उस ओर साधना पथ पर
कितने नंगे भिखमंगे हैं<br><br>
+
मानवता मुझे पुकार रही
  
इस ओर सजा मधु-मदिरालय<br>
+
तुमको पाने की आकांक्षा
हैं रास-रंग के साज कहीं<br>
+
उनसे मिल मिटने में सुख है
उस ओर असंख्य अभागे हैं<br>
+
किसको खोजूँ, किसको पाऊँ
दाने तक को मुहताज कहीं<br><br>
+
असमंजस है, दुस्सह दुख है
  
इस ओर अतृप्ति कनखियों से<br>
+
बन-बनकर मिटना ही होगा
सालस है मुझे निहार रही<br>
+
जब कण-कण में परिवर्तन है
उस ओर साधना पथ पर<br>
+
संभव हो यहां मिलन कैसे
मानवता मुझे पुकार रही<br><br>
+
जीवन तो आत्म-विसर्जन है
  
तुमको पाने की आकांक्षा<br>
+
सत्वर समाधि की शय्या पर
उनसे मिल मिटने में सुख है<br>
+
अपना चिर-मिलन मिला लूँगा
किसको खोजूँ, किसको पाऊँ<br>
+
जिनका कोई भी आज नहीं
असमंजस है, दुस्सह दुख है<br><br>
+
मिटकर उनको अपना लूँगा।
 
+
बन-बनकर मिटना ही होगा<br>
+
जब कण-कण में परिवर्तन है<br>
+
संभव हो यहां मिलन कैसे<br>
+
जीवन तो आत्म-विसर्जन है<br><br>
+
 
+
सत्वर समाधि की शय्या पर<br>
+
अपना चिर-मिलन मिला लूँगा<br>
+
जिनका कोई भी आज नहीं<br>
+
मिटकर उनको अपना लूँगा ।<br><br>
+

09:33, 5 अगस्त 2013 के समय का अवतरण

जीवन में कितना सूनापन
पथ निर्जन है, एकाकी है,
उर में मिटने का आयोजन
सामने प्रलय की झाँकी है

वाणी में है विषाद के कण
प्राणों में कुछ कौतूहल है
स्मृति में कुछ बेसुध-सी कम्पन
पग अस्थिर है, मन चंचल है

यौवन में मधुर उमंगें हैं
कुछ बचपन है, नादानी है
मेरे रसहीन कपालो पर
कुछ-कुछ पीडा का पानी है

आंखों में अमर-प्रतीक्षा ही
बस एक मात्र मेरा धन है
मेरी श्वासों, निःश्वासों में
आशा का चिर आश्वासन है

मेरी सूनी डाली पर खग
कर चुके बंद करना कलरव
जाने क्यों मुझसे रूठ गया
मेरा वह दो दिन का वैभव

कुछ-कुछ धुँधला सा है अतीत
भावी है व्यापक अन्धकार
उस पार कहां? वह तो केवल
मन बहलाने का है विचार

आगे, पीछे, दायें, बायें
जल रही भूख की ज्वाला यहाँ
तुम एक ओर, दूसरी ओर
चलते फिरते कंकाल यहाँ

इस ओर रूप की ज्वाला में
जलते अनगिनत पतंगे हैं
उस ओर पेट की ज्वाला से
कितने नंगे भिखमंगे हैं

इस ओर सजा मधु-मदिरालय
हैं रास-रंग के साज कहीं
उस ओर असंख्य अभागे हैं
दाने तक को मुहताज कहीं

इस ओर अतृप्ति कनखियों से
सालस है मुझे निहार रही
उस ओर साधना पथ पर
मानवता मुझे पुकार रही

तुमको पाने की आकांक्षा
उनसे मिल मिटने में सुख है
किसको खोजूँ, किसको पाऊँ
असमंजस है, दुस्सह दुख है

बन-बनकर मिटना ही होगा
जब कण-कण में परिवर्तन है
संभव हो यहां मिलन कैसे
जीवन तो आत्म-विसर्जन है

सत्वर समाधि की शय्या पर
अपना चिर-मिलन मिला लूँगा
जिनका कोई भी आज नहीं
मिटकर उनको अपना लूँगा।