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"उल्टे सीधे गिरे पड़े हैं पेड़ / सूर्यभानु गुप्त" के अवतरणों में अंतर
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अपना चेहरा निहार लें ऋतुएँ | अपना चेहरा निहार लें ऋतुएँ | ||
आईनों की तरह जड़े हैं पेड़</poem> | आईनों की तरह जड़े हैं पेड़</poem> |
21:52, 11 अक्टूबर 2016 के समय का अवतरण
उल्टे सीधे गिरे पड़े हैं पेड़
रात तूफ़ान से लड़े हैं पेड़
कौन आया था किस से बात हुई
आँसुओं की तरह झडे हैं पेड़
बाग़बाँ हो गये लकड़हारे
हाल पूछा तो रो पड़े हैं पेड़
क्या ख़बर इंतिज़ार है किस का
सालहासाल से खड़े हैं पेड़
जिस जगह हैं न टस से मस होंगे
कौन सी बात पर अड़े हैं पेड़
कोंपलें फूल पत्तियाँ देखो
कौन कहता है ये कड़े हैं पेड़
जीत कर कौन इस ज़मीं को गया
परचमों की तरह गड़े हैं पेड़
अपनी दुनिया के लोग लगते हैं
कुछ हैं छोटे तो कुछ बड़े हैं पेड़
उम्र भर रासतों पे रहते हैं
शायरी पर सभी पड़े हैं पेड़
मौत तक दोस्ती निभाते हैं
आदमी से बहुत बड़े हैं पेड़
अपना चेहरा निहार लें ऋतुएँ
आईनों की तरह जड़े हैं पेड़