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"वसन्त को छुआ / महेश सन्तोषी" के अवतरणों में अंतर

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समय की स्याहियों के सूखने का वक्त है ये,
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हमारी देहों ने सुने भी, कहे भी,
यह हमारा आखिरी ख़त, आखिरी दस्तख़त।
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वे सन्देशे, जो आज स्पर्शों के नाम रहे,
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जब भी मिले, पिछले स्पर्शों से ही मिले,
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अगले स्पर्शों को आयाम नये!
  
अकेला तुम्हारा ही नाम था, इस खत्म होते सफरनामें में,
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चढ़ती दोपहरियों में, अस्थिर अंगों के,
बड़े बदनाम थे हम, तुम्हारे नाम से, हाल में गुज़रे जमाने में
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ये स्थिर आकर्षण,
जरूरी तो नहीं है, हम लिखें, इन आँसुओं की उम्र कितनी है,
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मधुररंजित होकर रह जाते हैं, मन, दृष्टि, दर्पण,
सुबह सी ताज़गी है भीगने में, शाम तक, लिखने-लिखाने में।
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देहों की भाषा, कभी कहीं लिखी नहीं जाती,
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लिपियों में केवल अक्षर बँधते हैं,
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बाहों में बँधते हैं तन,
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हम क्यों रहते, स्पर्शों को मोहताज?
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वे सपने ही क्या, जो पलकों में सिमटे, सहमे रहें,
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प्यासे भागे, प्रिय के तपते अधरों तक नहीं गये,
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... आयाम नये!
  
बता तो दें वृथा की वसीयतों की नींव में क्या है,
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हमने वसन्त को छुआ, जिया उसे,
सनद रह जाएँगे, गीले खतों पर भीगते अक्षर।
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जीवित नियति, गति दी, प्रवाह दिया,
समय की स्याहियों के सूखने का वक्त है ये,
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और कैसे देते हम प्यार को उम्र?
यह हमारा आखिरी ख़त, आखिरी दस्तख़त।
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हमने हर साँ में प्यार का निर्वाह किया,
 
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अपनत्व की सीमाएँ, बनाईं भी हमने और तोड़ीं भी,
हदें इस उम्र की भी थीं, व्यथाएँ वहाँ से आगे नहीं जातीं,
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वर्जनाओं को कभी नागफनी, नागपाश नहीं बनने दिया,
अगर तुम देख पाते, सरहदें दर्द की भी थीं, हमें तो दिख नहीं पातीं।
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देहों में ही सिमटे रहे, देहों के उन्माद
अकेला नहीं था कोई धुआँ, वह धुओं के काफिलों का सिलसिला-सा था
+
हमें नहीं मिला, खुला नीला आकाश,
बहुत कुछ और भी था तुम्हें लिखने को, अधूरी रह गई यह आख़िरी पाती।
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देहरियों के भीतर ही मने उत्सव,
 
+
ये वसन्त आगे नहीं गये!
बुलाये तो नहीं थे, खुद-ब-खुद आये हैं हरकारे
+
... आयाम नये!
हमारे द्वार पर पढ़ने लगी है-एक आखिरी दस्तक
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समय की स्याहियों के सूखने का वक्त है ये,
+
यह हमारा आखिरी ख़त, आखिरी दस्तख़त।
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22:38, 3 मई 2017 के समय का अवतरण

हमारी देहों ने सुने भी, कहे भी,
वे सन्देशे, जो आज स्पर्शों के नाम रहे,
जब भी मिले, पिछले स्पर्शों से ही मिले,
अगले स्पर्शों को आयाम नये!

चढ़ती दोपहरियों में, अस्थिर अंगों के,
ये स्थिर आकर्षण,
मधुररंजित होकर रह जाते हैं, मन, दृष्टि, दर्पण,
देहों की भाषा, कभी कहीं लिखी नहीं जाती,
लिपियों में केवल अक्षर बँधते हैं,
बाहों में बँधते हैं तन,
हम क्यों रहते, स्पर्शों को मोहताज?
वे सपने ही क्या, जो पलकों में सिमटे, सहमे रहें,
प्यासे भागे, प्रिय के तपते अधरों तक नहीं गये,
... आयाम नये!

हमने वसन्त को छुआ, जिया उसे,
जीवित नियति, गति दी, प्रवाह दिया,
और कैसे देते हम प्यार को उम्र?
हमने हर साँ में प्यार का निर्वाह किया,
अपनत्व की सीमाएँ, बनाईं भी हमने और तोड़ीं भी,
वर्जनाओं को कभी नागफनी, नागपाश नहीं बनने दिया,
देहों में ही सिमटे रहे, देहों के उन्माद
हमें नहीं मिला, खुला नीला आकाश,
देहरियों के भीतर ही मने उत्सव,
ये वसन्त आगे नहीं गये!
... आयाम नये!