भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"ऐसे साँचे रहे नहीं अब / नईम" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) |
Sharda suman (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 8: | पंक्ति 8: | ||
<poem> | <poem> | ||
ऐसे साँचे रहे नहीं अब | ऐसे साँचे रहे नहीं अब | ||
− | जो अपने | + | जो अपने अनुरूप ढाल लें। |
खरी धातु के सिक्कों-सा | खरी धातु के सिक्कों-सा | ||
हाटों-बाज़ारों में उछाल दें। | हाटों-बाज़ारों में उछाल दें। |
16:04, 14 मई 2018 के समय का अवतरण
ऐसे साँचे रहे नहीं अब
जो अपने अनुरूप ढाल लें।
खरी धातु के सिक्कों-सा
हाटों-बाज़ारों में उछाल दें।
पूर्णाहुति की क्या कहते, प्रारम्भ अधूरे,
मूल्यों के ये ढेर हो रहे बिल्कुल घूरे;
पानी ही जब नहीं रहे, हम-
क्या धोएँ कैसे खँगाल लें?
अब है मात्र सियासत पूँजी की टकसालें,
पिद्दी चमचे, छुटभैयों को केवल ढालें;
धूर्त्त लकड़बग्घों की एवज-
बेहतर है, हम शेर पाल लें।
पुत्रवान होने से बेहतर आज निपूते,
काट रहे हैं रह-रहकर पैरों को जूते;
भूजी भाँग नहीं है घर में,
क्या पिसवाएँ, क्या उबाल लें?