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निरख रहीं हों वे गुलाब, सोना, आँखें या दृश्य भला-सा | निरख रहीं हों वे गुलाब, सोना, आँखें या दृश्य भला-सा | ||
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00:21, 3 जून 2019 के समय का अवतरण
कभी नहीं होता,
पर होने की कगार पर सदा टँगा-सा,
मेरा सिर — मत्यु का मुखौटा,
लाया जाता है प्रकाश में ।
छाया पड़ती आर-पार गाल के और मैं,
होंठ हिलाता हूँ छूने को;
लेकिन मेरी पहुँच महज छूने तक ही सीमित रह जाती,
भले आत्मा
कितना ही बाहर निकाल कर गरदन झाँके ।
निरख रहीं हों वे गुलाब, सोना, आँखें या दृश्य भला-सा
ये मेरी इन्द्रियाँ आँकती क्रिया चाहने भर की;
होने की कामना दृश्य, सोना, गुलाब, दूसरा व्यक्ति वह ।
“करता हूँ मैं प्यार” — एक, बस, इसी तथ्य पर
दावा मेरा पूर्णकाम बनने का
टिका हुआ है ।
अँग्रेज़ी से अनुवाद : रमेशचन्द्र शाह