"मातृ मूर्ति / पदुमलाल पन्नालाल बख्शी" के अवतरणों में अंतर
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क्या तुमने मेरी माता का देखा दिव्याकार, | क्या तुमने मेरी माता का देखा दिव्याकार, | ||
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उसकी प्रभा देख कर विस्मय-मुग्ध हुआ संसार ।। | उसकी प्रभा देख कर विस्मय-मुग्ध हुआ संसार ।। | ||
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अति उन्नत ललाट पर हिमगिरि का है मुकुट विशाल, | अति उन्नत ललाट पर हिमगिरि का है मुकुट विशाल, | ||
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पड़ा हुआ है वक्षस्थल पर जह्नुसुता का हार।। | पड़ा हुआ है वक्षस्थल पर जह्नुसुता का हार।। | ||
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हरित शस्य से श्यामल रहता है उसका परिधान, | हरित शस्य से श्यामल रहता है उसका परिधान, | ||
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विन्ध्या-कटि पर हुई मेखला देवी की जलधार।। | विन्ध्या-कटि पर हुई मेखला देवी की जलधार।। | ||
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भत्य भाल पर शोभित होता सूर्य रश्मि सिंदूर, | भत्य भाल पर शोभित होता सूर्य रश्मि सिंदूर, | ||
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पाद पद्म को को प्रक्षालित है करता सिंधु अपार।. | पाद पद्म को को प्रक्षालित है करता सिंधु अपार।. | ||
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सौम्य वदन पर स्मित आभा से होता पुष्प विराम, | सौम्य वदन पर स्मित आभा से होता पुष्प विराम, | ||
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पाद पद्म को प्रक्षालित है करता सिंधु अपार ।। | पाद पद्म को प्रक्षालित है करता सिंधु अपार ।। | ||
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सौम्य वदन पर स्मित आभा से होता पुष्प विराम, | सौम्य वदन पर स्मित आभा से होता पुष्प विराम, | ||
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जिससे सब मलीन पड़ जाते हैं रत्नालंकार ।। | जिससे सब मलीन पड़ जाते हैं रत्नालंकार ।। | ||
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दयामयी वह सदा हस्त में रखती भिक्षा-पात्र, | दयामयी वह सदा हस्त में रखती भिक्षा-पात्र, | ||
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जगधात्री सब ही का उससे होता है उपकार ।। | जगधात्री सब ही का उससे होता है उपकार ।। | ||
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देश विजय की नहीं कामना आत्म विजय है इष्ट , | देश विजय की नहीं कामना आत्म विजय है इष्ट , | ||
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इससे ही उसके चरणों पर नत होता संसारा ।। | इससे ही उसके चरणों पर नत होता संसारा ।। | ||
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(19 मई 1920 को ‘श्री शारदा’ के मुखपृष्ठ पर प्रकाशित । यह उनकी प्रारंभिक रचनाओं में से एक है ।) | (19 मई 1920 को ‘श्री शारदा’ के मुखपृष्ठ पर प्रकाशित । यह उनकी प्रारंभिक रचनाओं में से एक है ।) |
11:44, 19 सितम्बर 2013 के समय का अवतरण
क्या तुमने मेरी माता का देखा दिव्याकार,
उसकी प्रभा देख कर विस्मय-मुग्ध हुआ संसार ।।
अति उन्नत ललाट पर हिमगिरि का है मुकुट विशाल,
पड़ा हुआ है वक्षस्थल पर जह्नुसुता का हार।।
हरित शस्य से श्यामल रहता है उसका परिधान,
विन्ध्या-कटि पर हुई मेखला देवी की जलधार।।
भत्य भाल पर शोभित होता सूर्य रश्मि सिंदूर,
पाद पद्म को को प्रक्षालित है करता सिंधु अपार।.
सौम्य वदन पर स्मित आभा से होता पुष्प विराम,
पाद पद्म को प्रक्षालित है करता सिंधु अपार ।।
सौम्य वदन पर स्मित आभा से होता पुष्प विराम,
जिससे सब मलीन पड़ जाते हैं रत्नालंकार ।।
दयामयी वह सदा हस्त में रखती भिक्षा-पात्र,
जगधात्री सब ही का उससे होता है उपकार ।।
देश विजय की नहीं कामना आत्म विजय है इष्ट ,
इससे ही उसके चरणों पर नत होता संसारा ।।
(19 मई 1920 को ‘श्री शारदा’ के मुखपृष्ठ पर प्रकाशित । यह उनकी प्रारंभिक रचनाओं में से एक है ।)