भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"कुरुक्षेत्र / द्वितीय सर्ग / भाग 2" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
 
(2 सदस्यों द्वारा किये गये बीच के 3 अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
कवि: [[रामधारी सिंह "दिनकर"]]
+
{{KKGlobal}}
[[Category:कविताएँ]]
+
{{KKRachna
[[Category:रामधारी सिंह "दिनकर"]]
+
|रचनाकार=रामधारी सिंह 'दिनकर'
 +
|संग्रह= कुरुक्षेत्र / रामधारी सिंह 'दिनकर'
 +
}}
 +
 
 +
 
 +
[[कुरुक्षेत्र / द्वितीय सर्ग  /  भाग  1|<< पिछला भाग]] | [[कुरुक्षेत्र / द्वितीय सर्ग  /  भाग  3|अगला भाग >>]]
  
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~
 
  
 
"कृष्ण कहते हैं, युद्ध अनघ है, किन्तु मेरे<br>
 
"कृष्ण कहते हैं, युद्ध अनघ है, किन्तु मेरे<br>
प्राण जलते हैं पल-पल परिताप से;<br>
+
:प्राण जलते हैं पल-पल परिताप से;<br>
 
लगता मुझे है, क्यों मनुष्य बच पाता नहीं<br>
 
लगता मुझे है, क्यों मनुष्य बच पाता नहीं<br>
दह्यमान इस पुराचीन अभिशाप से?<br>
+
:दह्यमान इस पुराचीन अभिशाप से?<br>
 
और महाभारत की बात क्या? गिराये गये<br>
 
और महाभारत की बात क्या? गिराये गये<br>
जहाँ छल-छद्म से वरण्य वीर आप-से,<br>
+
:जहाँ छल-छद्म से वरण्य वीर आप-से,<br>
 
अभिमन्यु-वध औ' सुयोधन का वध हाय,<br>
 
अभिमन्यु-वध औ' सुयोधन का वध हाय,<br>
हममें बचा है यहाँ कौन, किस पाप से?<br><br>
+
:हममें बचा है यहाँ कौन, किस पाप से?<br><br>
  
"एक ओर सत्यमयी गीता भगवान की है,<br>
+
:::"एक ओर सत्यमयी गीता भगवान की है,<br>
एक ओर जीवन की विरति प्रबुद्ध है;<br>
+
::::एक ओर जीवन की विरति प्रबुद्ध है;<br>
जनता हूँ, लड़ना पड़ा था हो विवश, किन्तु,<br>
+
:::जनता हूँ, लड़ना पड़ा था हो विवश, किन्तु,<br>
लहू-सनी जीत मुझे दीखती अशुद्ध है;<br>
+
::::लहू-सनी जीत मुझे दीखती अशुद्ध है;<br>
ध्वंसजन्य सुख याकि सश्रु दुख शान्तिजन्य,<br>
+
:::ध्वंसजन्य सुख याकि सश्रु दुख शान्तिजन्य,<br>
ग्यात नहीं, कौन बात नीति के विरुद्ध है;<br>
+
::::ग्यात नहीं, कौन बात नीति के विरुद्ध है;<br>
जानता नहीं मैं कुरुक्षेत्र में खिला है पुण्य,<br>
+
:::जानता नहीं मैं कुरुक्षेत्र में खिला है पुण्य,<br>
या महान पाप यहाँ फूटा बन युद्ध है।<br><br>
+
::::या महान पाप यहाँ फूटा बन युद्ध है।<br><br>
  
 
"सुलभ हुआ है जो किरीट कुरुवंशियों का,<br>
 
"सुलभ हुआ है जो किरीट कुरुवंशियों का,<br>
उसमें प्रचण्ड कोई दाहक अनल है;<br>
+
:उसमें प्रचण्ड कोई दाहक अनल है;<br>
 
अभिषेक से क्या पाप मन का धुलेगा कभी?<br>
 
अभिषेक से क्या पाप मन का धुलेगा कभी?<br>
पापियों के हित तीर्थ-वारि हलाहल है;<br>
+
:पापियों के हित तीर्थ-वारि हलाहल है;<br>
 
विजय कराल नागिनी-सी डँसती है मुझे,<br>
 
विजय कराल नागिनी-सी डँसती है मुझे,<br>
इससे न जूझने को मेरे पास बल है;<br>
+
:इससे न जूझने को मेरे पास बल है;<br>
ग्रहन करूँ मैं कैसे? बार-बार सोचता हूँ,<br>
+
ग्रहण करूँ मैं कैसे? बार-बार सोचता हूँ,<br>
राजसुख लोहू-भरी कीच का कमल है।<br><br>
+
:राजसुख लोहू-भरी कीच का कमल है।<br><br>
  
"बालहीना माता की पुकार कभी आती, और<br>
+
:::"बालहीना माता की पुकार कभी आती, और<br>
आता कभी आर्त्तनाद पितृहीन बाल का;<br>
+
::::आता कभी आर्त्तनाद पितृहीन बाल का;<br>
आँख पड़ती है जहाँ, हाय, वहीं देखता हूँ<br>
+
:::आँख पड़ती है जहाँ, हाय, वहीं देखता हूँ<br>
सेंदुर पुँछा हुआ सुहागिनी के भाल का;<br>
+
::::सेंदुर पुँछा हुआ सुहागिनी के भाल का;<br>
बाहर से भाग कक्ष में जो छिपता हूँ कभी,<br>
+
:::बाहर से भाग कक्ष में जो छिपता हूँ कभी,<br>
तो भी सुनता हूँ अट्टहास क्रूर काल का;<br>
+
::::तो भी सुनता हूँ अट्टहास क्रूर काल का;<br>
और सोते-जागते मैं चौंक उठता हूँ, मानो<br>
+
:::और सोते-जागते मैं चौंक उठता हूँ, मानो<br>
शोणित पुकारता हो अर्जुन के लाल का।<br><br>
+
::::शोणित पुकारता हो अर्जुन के लाल का।<br><br>
  
 
"जिस दिन समर की अग्नि बुझ शान्त हुई,<br>
 
"जिस दिन समर की अग्नि बुझ शान्त हुई,<br>
एक आग तब से ही जलती है मन में;<br>
+
:एक आग तब से ही जलती है मन में;<br>
 
हाय, पितामह, किसी भाँति नहीं देखता हूँ<br>
 
हाय, पितामह, किसी भाँति नहीं देखता हूँ<br>
मुँह दिखलाने योग्य निज को भुवन मे<br>
+
:मुँह दिखलाने योग्य निज को भुवन मे<br>
 
ऐसा लगता है, लोग देखते घृणा से मुझे,<br>
 
ऐसा लगता है, लोग देखते घृणा से मुझे,<br>
धिक् सुनता हूँ अपने पै कण-कण में;<br>
+
:धिक् सुनता हूँ अपने पै कण-कण में;<br>
 
मानव को देख आँखे आप झुक जातीं, मन<br>
 
मानव को देख आँखे आप झुक जातीं, मन<br>
चाहता अकेला कहीं भाग जाऊँ वन में।<br><br>
+
:चाहता अकेला कहीं भाग जाऊँ वन में।<br><br>
 +
 
 +
:::"करूँ आत्मघात तो कलंक और घोर होगा,<br>
 +
::::नगर को छोड़ अतएव, वन जाऊँगा;<br>
 +
:::पशु-खग भी न देख पायें जहाँ, छिप किसी<br>
 +
::::कन्दरा में बैठ अश्रु खुलके बहाऊँगा;<br>
 +
:::जानता हूँ, पाप न धुलेगा वनवास से भी,<br>
 +
::::छिप तो रहुँगा, दुःख कुछ तो भुलऊँगा;<br>
 +
:::व्यंग से बिंधेगा वहाँ जर्जर हृदय तो नहीं,<br>
 +
::::वन में कहीं तो धर्मराज न कहाऊँगा।"<br><br>
 +
 
  
"करूँ आत्मघात तो कलंक और घोर होगा,<br>
+
[[कुरुक्षेत्र / द्वितीय सर्ग  /  भाग  1|<< पिछला भाग]] | [[कुरुक्षेत्र / द्वितीय सर्ग  /  भाग  3|अगला भाग >>]]
नगर को छोड़ अतएव, वन जाऊँगा;<br>
+
पशु-खग भी न देख पायें जहाँ, छिप किसी<br>
+
कन्दरा में बैठ अश्रु खुलके बहाऊँगा;<br>
+
जानता हूँ, पाप न धुलेगा वनवास से भी,<br>
+
छिप तो रहुँगा, दुःख कुछ तो भुलऊँगा;<br>
+
व्यंग से बिंधेगा वहाँ जर्जर हृदय तो नहीं,<br>
+
वन में कहीं तो धर्मराज न कहाऊँगा।"<br><br>
+

20:08, 21 अगस्त 2008 के समय का अवतरण


<< पिछला भाग | अगला भाग >>


"कृष्ण कहते हैं, युद्ध अनघ है, किन्तु मेरे

प्राण जलते हैं पल-पल परिताप से;

लगता मुझे है, क्यों मनुष्य बच पाता नहीं

दह्यमान इस पुराचीन अभिशाप से?

और महाभारत की बात क्या? गिराये गये

जहाँ छल-छद्म से वरण्य वीर आप-से,

अभिमन्यु-वध औ' सुयोधन का वध हाय,

हममें बचा है यहाँ कौन, किस पाप से?

"एक ओर सत्यमयी गीता भगवान की है,
एक ओर जीवन की विरति प्रबुद्ध है;
जनता हूँ, लड़ना पड़ा था हो विवश, किन्तु,
लहू-सनी जीत मुझे दीखती अशुद्ध है;
ध्वंसजन्य सुख याकि सश्रु दुख शान्तिजन्य,
ग्यात नहीं, कौन बात नीति के विरुद्ध है;
जानता नहीं मैं कुरुक्षेत्र में खिला है पुण्य,
या महान पाप यहाँ फूटा बन युद्ध है।

"सुलभ हुआ है जो किरीट कुरुवंशियों का,

उसमें प्रचण्ड कोई दाहक अनल है;

अभिषेक से क्या पाप मन का धुलेगा कभी?

पापियों के हित तीर्थ-वारि हलाहल है;

विजय कराल नागिनी-सी डँसती है मुझे,

इससे न जूझने को मेरे पास बल है;

ग्रहण करूँ मैं कैसे? बार-बार सोचता हूँ,

राजसुख लोहू-भरी कीच का कमल है।

"बालहीना माता की पुकार कभी आती, और
आता कभी आर्त्तनाद पितृहीन बाल का;
आँख पड़ती है जहाँ, हाय, वहीं देखता हूँ
सेंदुर पुँछा हुआ सुहागिनी के भाल का;
बाहर से भाग कक्ष में जो छिपता हूँ कभी,
तो भी सुनता हूँ अट्टहास क्रूर काल का;
और सोते-जागते मैं चौंक उठता हूँ, मानो
शोणित पुकारता हो अर्जुन के लाल का।

"जिस दिन समर की अग्नि बुझ शान्त हुई,

एक आग तब से ही जलती है मन में;

हाय, पितामह, किसी भाँति नहीं देखता हूँ

मुँह दिखलाने योग्य निज को भुवन मे

ऐसा लगता है, लोग देखते घृणा से मुझे,

धिक् सुनता हूँ अपने पै कण-कण में;

मानव को देख आँखे आप झुक जातीं, मन

चाहता अकेला कहीं भाग जाऊँ वन में।

"करूँ आत्मघात तो कलंक और घोर होगा,
नगर को छोड़ अतएव, वन जाऊँगा;
पशु-खग भी न देख पायें जहाँ, छिप किसी
कन्दरा में बैठ अश्रु खुलके बहाऊँगा;
जानता हूँ, पाप न धुलेगा वनवास से भी,
छिप तो रहुँगा, दुःख कुछ तो भुलऊँगा;
व्यंग से बिंधेगा वहाँ जर्जर हृदय तो नहीं,
वन में कहीं तो धर्मराज न कहाऊँगा।"


<< पिछला भाग | अगला भाग >>