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"रात / अलेक्सान्दर पूश्किन" के अवतरणों में अंतर

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वे मुस्काएँ, और चेतना सुनती यह मेरी
 
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मेरे मीत, मीत प्यारे तुम... प्यार करूँ... मैं हूँ तेरी ...हूँ तेरी!
 
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'''रचनाकाल : 1823'''
 
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»  रात

तेरे लिए प्यार में डूबी और व्यथित वाणी मेरी
अर्ध-रात्रि का मौन, निशा जो भेदे अंधेरी,
निकट पलंग के मोम गल रहा, जलती है बाती
झर-झर झर-झर निर्झर-सी कविता उमड़ी आती,
डूबी हुई प्रणय में तेरे, बहती सरिताएँ
चमक लिए तम में दो आँखें सम्मुख आ जाएँ,
वे मुस्काएँ, और चेतना सुनती यह मेरी
मेरे मीत, मीत प्यारे तुम... प्यार करूँ... मैं हूँ तेरी ...हूँ तेरी!


रचनाकाल : 1823