भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"दुख-सुख ग्रीषम और सिसिर न ब्यापै जिन्हें / जगन्नाथदास ’रत्नाकर’" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
छो () |
|||
पंक्ति 7: | पंक्ति 7: | ||
<poem> | <poem> | ||
दुख-सुख ग्रीषम और सिसिर न ब्यापै जिन्हें, | दुख-सुख ग्रीषम और सिसिर न ब्यापै जिन्हें, | ||
− | छापै छाप एकै हिये ब्रह्म-ज्ञान साने मैं । | + | ::छापै छाप एकै हिये ब्रह्म-ज्ञान साने मैं । |
कहै रतनाकर गम्भीर सोई ऊधव कौ, | कहै रतनाकर गम्भीर सोई ऊधव कौ, | ||
− | धीर उधरान्यौ आनि ब्रज के सिवाने मैं ॥ | + | ::धीर उधरान्यौ आनि ब्रज के सिवाने मैं ॥ |
औरे मुख-रंग भयौ सिथिलित अंग भयौ, | औरे मुख-रंग भयौ सिथिलित अंग भयौ, | ||
− | बैन दबि दंग भयौ गर गरुवाने मैं । | + | ::बैन दबि दंग भयौ गर गरुवाने मैं । |
पुलकि पसीजि पास चाँपि मुरझाने कांपि, | पुलकि पसीजि पास चाँपि मुरझाने कांपि, | ||
− | जानैं कौन बहति बयारि बरसाने मैं ॥24॥ | + | ::जानैं कौन बहति बयारि बरसाने मैं ॥24॥ |
</poem> | </poem> |
09:21, 2 मार्च 2010 के समय का अवतरण
दुख-सुख ग्रीषम और सिसिर न ब्यापै जिन्हें,
छापै छाप एकै हिये ब्रह्म-ज्ञान साने मैं ।
कहै रतनाकर गम्भीर सोई ऊधव कौ,
धीर उधरान्यौ आनि ब्रज के सिवाने मैं ॥
औरे मुख-रंग भयौ सिथिलित अंग भयौ,
बैन दबि दंग भयौ गर गरुवाने मैं ।
पुलकि पसीजि पास चाँपि मुरझाने कांपि,
जानैं कौन बहति बयारि बरसाने मैं ॥24॥