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गाती थी मंगल-गीत,
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छँटती बदली में एक कौंध कह गयी --
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तुम्हारे ये मणि-माणिक, कंठहार, पट-वस्त्र,
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प्यार अनन्य ! उसी की
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सबने भी अलग-अलग संगीत सुना
छँटती बदली में एक कौंध कह गयी --<br>
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तुम्हारे ये मणि-माणिक, कंठहार, पट-वस्त्र,<br>
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वह कृपा-वाक्य था प्रभुओं का --
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सब अंधकार के कण हैं ये ! आलोक एक है<br>
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आतंक-मुक्ति का आश्वासन :
प्यार अनन्य ! उसी की<br>
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विद्युल्लता घेरती रहती है रस-भार मेघ को,<br>
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वह भरी तिजोरी में सोने की खनक --  
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आश्वस्त, सहज विश्वास भरी <br>
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बटुली में बहुत दिनों के बाद अन्न की सोंधी खुशबू ।
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उस एक प्यार को साधेगी <br><br>
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एक अपर को चहक मुक्त नभ में उड़ती चिड़िया की ।  
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चौथे को मन्दिर मी ताल-युक्त घंटा-ध्वनि ।  
 
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और पाँचवें को लोहे पर सधे हथौड़े की सम चोटें  
सबने भी अलग-अलग संगीत सुना ।<br>
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और छठें को लंगर पर कसमसा रही नौका पर लहरों की अविराम थपक ।  
इसको<br>
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बटिया पर चमरौधे की रूँधी चाप सातवें के लिये --  
वह कृपा-वाक्य था प्रभुओं का --<br>
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और आठवें को कुलिया की कटी मेंड़ से बहते जल की छुल-छुल  
उसकी<br>
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इसे गमक नट्टिन की एड़ी के घुँघरू की  
आतंक-मुक्ति का आश्वासन :<br>
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उसे युद्ध का ढाल :  
इसको<br>
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इसे सझा-गोधूली की लघु टुन-टुन --  
वह भरी तिजोरी में सोने की खनक --<br>
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उसे प्रलय का डमरू-नाद ।  
उसे<br>
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इसको जीवन की पहली अँगड़ाई  
बटुली में बहुत दिनों के बाद अन्न की सोंधी खुशबू ।<br>
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पर उसको महाजृम्भ विकराल काल !  
किसी एक को नयी वधू की सहमी-सी पायल-ध्वनि ।<br>
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सब डूबे, तिरे, झिपे, जागे --  
किसी दूसरे को शिशु की किलकारी ।<br>
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ओ रहे वशंवद, स्तब्ध :  
एक किसी को जाल-फँसी मछली की तड़पन --<br>
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इयत्ता सबकी अलग-अलग जागी,  
एक अपर को चहक मुक्त नभ में उड़ती चिड़िया की ।<br>
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संघीत हुई,  
एक तीसरे को मंडी की ठेलमेल, गाहकों की अस्पर्धा-भरी बोलियाँ<br><br>
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पा गयी विलय ।
 
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चौथे को मन्दिर मी ताल-युक्त घंटा-ध्वनि ।<br>
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और पाँचवें को लोहे पर सधे हथौड़े की सम चोटें<br>
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और छठें को लंगर पर कसमसा रही नौका पर लहरों की अविराम थपक ।<br>
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बटिया पर चमरौधे की रूँधी चाप सातवें के लिये --<br>
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और आठवें को कुलिया की कटी मेंड़ से बहते जल की छुल-छुल<br>
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इसे गमक नट्टिन की एड़ी के घुँघरू की<br>
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उसे युद्ध का ढाल :<br>
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इसे सझा-गोधूली की लघु टुन-टुन --<br>
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उसे प्रलय का डमरू-नाद ।<br>
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इसको जीवन की पहली अँगड़ाई<br>
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पर उसको महाजृम्भ विकराल काल !<br>
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सब डूबे, तिरे, झिपे, जागे --<br>
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ओ रहे वशंवद, स्तब्ध :<br>
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इयत्ता सबकी अलग-अलग जागी,<br>
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संघीत हुई,<br>
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पा गयी विलय ।<br><br>
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11:12, 3 सितम्बर 2011 के समय का अवतरण

Vichitra Veena1.jpg

राजा ने अलग सुना :

"जय देवी यश:काय
वरमाल लिये
गाती थी मंगल-गीत,
दुन्दुभी दूर कहीं बजती थी,
राज-मुकुट सहसा हलका हो आया था, मानो हो फल सिरिस का
ईर्ष्या, महदाकांक्षा, द्वेष, चाटुता
सभी पुराने लुगड़े-से झड़ गये, निखर आया था जीवन-कांचन
धर्म-भाव से जिसे निछावर वह कर देगा ।

रानी ने अलग सुना :
छँटती बदली में एक कौंध कह गयी --
तुम्हारे ये मणि-माणिक, कंठहार, पट-वस्त्र,
मेखला किंकिणि --
सब अंधकार के कण हैं ये ! आलोक एक है
प्यार अनन्य ! उसी की
विद्युल्लता घेरती रहती है रस-भार मेघ को,
थिरक उसी की छाती पर उसमें छिपकर सो जाती है
आश्वस्त, सहज विश्वास भरी ।
रानी
उस एक प्यार को साधेगी ।

Vichitra Veena1.jpg

सबने भी अलग-अलग संगीत सुना ।
इसको
वह कृपा-वाक्य था प्रभुओं का --
उसकी
आतंक-मुक्ति का आश्वासन :
इसको
वह भरी तिजोरी में सोने की खनक --
उसे
बटुली में बहुत दिनों के बाद अन्न की सोंधी खुशबू ।
किसी एक को नयी वधू की सहमी-सी पायल-ध्वनि ।
किसी दूसरे को शिशु की किलकारी ।
एक किसी को जाल-फँसी मछली की तड़पन --
एक अपर को चहक मुक्त नभ में उड़ती चिड़िया की ।
एक तीसरे को मंडी की ठेलमेल, गाहकों की अस्पर्धा-भरी बोलियाँ

चौथे को मन्दिर मी ताल-युक्त घंटा-ध्वनि ।
और पाँचवें को लोहे पर सधे हथौड़े की सम चोटें
और छठें को लंगर पर कसमसा रही नौका पर लहरों की अविराम थपक ।
बटिया पर चमरौधे की रूँधी चाप सातवें के लिये --
और आठवें को कुलिया की कटी मेंड़ से बहते जल की छुल-छुल
इसे गमक नट्टिन की एड़ी के घुँघरू की
उसे युद्ध का ढाल :
इसे सझा-गोधूली की लघु टुन-टुन --
उसे प्रलय का डमरू-नाद ।
इसको जीवन की पहली अँगड़ाई
पर उसको महाजृम्भ विकराल काल !
सब डूबे, तिरे, झिपे, जागे --
ओ रहे वशंवद, स्तब्ध :
इयत्ता सबकी अलग-अलग जागी,
संघीत हुई,
पा गयी विलय ।

Vichitra Veena1.jpg

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