"हल्दीघाटी / प्रथम सर्ग / श्यामनारायण पाण्डेय" के अवतरणों में अंतर
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+ | <poem> | ||
+ | वण्डोली है यही¸ यहीं पर | ||
+ | है समाधि सेनापति की। | ||
+ | महातीर्थ की यही वेदिका¸ | ||
+ | यही अमर–रेखा स्मृति की॥1॥ | ||
+ | एक बार आलोकित कर हा¸ | ||
+ | यहीं हुआ था सूर्य अस्त। | ||
+ | चला यहीं से तिमिर हो गया | ||
+ | अन्धकार–मय जग समस्त॥2॥ | ||
+ | आज यहीं इस सिद्ध पीठ पर | ||
+ | फूल चढ़ाने आया हूँ। | ||
+ | आज यहीं पावन समाधि पर | ||
+ | दीप जलाने आया हूँ॥3॥ | ||
− | + | आज इसी छतरी के भीतर | |
+ | सुख–दुख गाने आया हूँ। | ||
+ | सेनानी को चिर समाधि से | ||
+ | आज जगाने आया हूँ॥4॥ | ||
+ | सुनता हूँ वह जगा हुआ था | ||
+ | जौहर के बलिदानों से। | ||
+ | सुनता हूँ वह जगा हुआ था | ||
+ | बहिनों के अपमानों से॥5॥ | ||
+ | सुनता हूँ स्त्री थी अँगड़ाई | ||
+ | अरि के अत्याचारों से। | ||
+ | सुनता हूँ वह गरज उठा था | ||
+ | कड़ियों की झनकारों से॥6॥ | ||
− | + | सजी हुई है मेरी सेना¸ | |
− | + | पर सेनापति सोता है। | |
− | + | उसे जगाऊँगा¸ विलम्ब अब | |
− | + | महासमर में होता है॥7॥ | |
− | + | आज उसी के चरितामृत में¸ | |
− | + | व्यथा कहूँगा दीनों की। | |
− | + | आज यही पर रूदन–गीत में | |
− | + | गाऊँगा बल–हीनों की॥8॥ | |
− | आज | + | आज उसी की अमर–वीरता |
− | + | व्यक्त करूँगा गानों में। | |
− | आज | + | आज उसी के रणकाशल की |
− | + | कथा कहूँगा कानों में॥9॥ | |
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | ||
− | + | पाठक! तुम भी सुनो कहानी | |
− | + | आँखों में पानी भरकर। | |
− | + | होती है आरम्भ कथा अब | |
− | + | बोलो मंगलकर शंकर॥10॥ | |
− | + | विहँस रही थी प्रकृति हटाकर | |
− | + | मुख से अपना घूँघट–पट। | |
− | + | बालक–रवि को ले गोदी में | |
− | + | धीरे से बदली करवट॥11॥ | |
− | + | ||
− | + | परियों सी उतरी रवि–किरण्ों | |
− | + | घुली मिलीं रज–कन–कन से। | |
− | + | खिलने लगे कमल दिनकर के | |
− | + | स्वर्णिम–कर के चुम्बन से॥12॥ | |
− | + | ||
− | + | मलयानिल के मृदु–झोकों से | |
− | + | उठीं लहरियाँ सर–सर में। | |
− | + | रवि की मृदुल सुनहली किरण्ों | |
− | + | लगीं खेलने निझर्र में॥13॥ | |
− | + | ||
− | + | फूलों की साँसों को लेकर | |
− | + | लहर उठा मारूत वन–वन। | |
− | + | कुसुम–पँखुरियों के आँगन में | |
− | + | थिरक–थिरक अलि के नर्तन॥14॥ | |
− | + | ||
− | विहँस रही थी प्रकृति हटाकर | + | देखी रवि में रूप–राशि निज |
− | मुख से अपना घूँघट–पट। | + | ओसों के लघु–दर्पण में। |
− | बालक–रवि को ले गोदी में | + | रजत रश्मियाँ फैल गई |
− | धीरे से बदली | + | गिरि–अरावली के कण–कण में॥15 |
− | परियों सी उतरी रवि–किरण्ों | + | इसी समय मेवाड़–देश की |
− | घुली मिलीं रज–कन–कन से। | + | कटारियाँ खनखना उठीं। |
− | खिलने लगे कमल दिनकर के | + | नागिन सी डस देने वाली |
− | स्वर्णिम–कर के चुम्बन | + | तलवारें झनझना उठीं॥16॥ |
− | मलयानिल के मृदु–झोकों से | + | |
− | उठीं लहरियाँ सर–सर में। | + | धारण कर केशरिया बाना |
− | रवि की मृदुल सुनहली किरण्ों | + | हाथों में ले ले भाले। |
− | लगीं खेलने निझर्र | + | वीर महाराणा से ले खिल |
− | फूलों की साँसों को लेकर | + | उठे बोल भोले भाले॥17॥ |
− | लहर उठा मारूत वन–वन। | + | |
− | कुसुम–पँखुरियों के आँगन में | + | विजयादशमी का वासर था¸ |
− | थिरक–थिरक अलि के | + | उत्सव के बाजे बाजे। |
− | देखी रवि में रूप–राशि निज | + | चले वीर आखेट खेलने |
− | ओसों के लघु–दर्पण में। | + | उछल पड़े ताजे–ताजे॥18॥ |
− | रजत रश्मियाँ फैल गई | + | |
− | गिरि–अरावली के कण–कण | + | राणा भी आलेट खेलने |
− | इसी समय मेवाड़–देश की | + | शक्तसिंह के साथ चला। |
− | कटारियाँ खनखना उठीं। | + | पीछे चारण¸ वंश–पुरोहित |
− | नागिन सी डस देने वाली | + | भाला उसके हाथ चला॥19॥ |
− | तलवारें झनझना | + | |
− | धारण कर केशरिया बाना | + | भुजा फड़कने लगी वीर की |
− | हाथों में ले ले भाले। | + | अशकुन जतलानेवाली। |
− | वीर महाराणा से ले खिल | + | गिरी तुरत तलवार हाथ से |
− | उठे बोल भोले | + | पावक बरसाने वाली॥20॥ |
− | विजयादशमी का वासर था¸ | + | |
− | उत्सव के बाजे बाजे। | + | बतलाता था यही अमंगल |
− | चले वीर आखेट खेलने | + | बन्धु–बन्धु का रण होगा। |
− | उछल पड़े | + | यही भयावह रण ब्राह्मण की |
− | राणा भी आलेट खेलने | + | हत्या का कारण होगा॥21॥ |
− | शक्तसिंह के साथ चला। | + | |
− | पीछे चारण¸ वंश–पुरोहित | + | अशकुन की परवाह न की¸ |
− | भाला उसके हाथ | + | वह आज न रूकनेवाला था। |
− | भुजा फड़कने लगी वीर की | + | अहो¸ हमारी स्वतन्त्रता का |
− | अशकुन जतलानेवाली। | + | झण्डा झुकनेवाला था॥22॥ |
− | गिरी तुरत तलवार हाथ से | + | |
− | पावक बरसाने | + | घोर विपिन में पहुँच गये |
− | बतलाता था यही अमंगल | + | कातरता के बन्धन तोड़े। |
− | बन्धु–बन्धु का रण होगा। | + | हिंसक जीवों के पीछे |
− | यही भयावह रण ब्राह्मण की | + | अपने अपने घोड़े छोड़े॥23॥ |
− | हत्या का कारण | + | |
− | अशकुन की परवाह न की¸ | + | भीषण वार हुए जीवों पर |
− | वह आज न रूकनेवाला था। | + | तरह–तरह के शोर हुए। |
− | अहो¸ हमारी स्वतन्त्रता का | + | मारो ललकारों के रव |
− | झण्डा झुकनेवाला | + | जंगल में चारों ओर हुए॥24॥ |
− | घोर विपिन में पहुँच गये | + | |
− | कातरता के बन्धन तोड़े। | + | चीता यह¸ वह बाघ¸ शेर वह¸ |
− | हिंसक जीवों के पीछे | + | शोर हुआ आखेट करो। |
− | अपने अपने घोड़े | + | छेको¸ छेको हृदय–रक्त ले |
− | भीषण वार हुए जीवों पर | + | निज बरछे को भेंट करो॥25॥ |
− | तरह–तरह के शोर हुए। | + | |
− | मारो ललकारों के रव | + | लगा निशाना ठीक हृदय में |
− | जंगल में चारों ओर | + | रक्त–पगा जाता है वह। |
− | चीता यह¸ वह बाघ¸ शेर वह¸ | + | चीते को जीते–जी पकड़ो |
− | शोर हुआ आखेट करो। | + | रीछ भगा जाता है वह॥26॥ |
− | छेको¸ छेको हृदय–रक्त ले | + | |
− | निज बरछे को भेंट | + | उडे. पखेरू¸ भाग गये मृग |
− | लगा निशाना ठीक हृदय में | + | भय से शशक सियार भगे। |
− | रक्त–पगा जाता है वह। | + | क्षण भर थमकर भगे मत्त गज |
− | चीते को जीते–जी पकड़ो | + | हरिण हार के हार भगे॥27॥ |
− | रीछ भगा जाता है | + | |
− | उडे. पखेरू¸ भाग गये मृग | + | नरम–हृदय कोमल मृग–छौने |
− | भय से शशक सियार भगे। | + | डौंक रहे थे इधर–उधर। |
− | क्षण भर थमकर भगे मत्त गज | + | एक प्रलय का रूप खड़ा था |
− | हरिण हार के हार | + | मेवाड़ी दल गया जिधर॥28॥ |
− | नरम–हृदय कोमल मृग–छौने | + | |
− | डौंक रहे थे इधर–उधर। | + | किसी कन्दरा से निकला हय¸ |
− | एक प्रलय का रूप खड़ा था | + | झाड़ी में फँस गया कहीं। |
− | मेवाड़ी दल गया | + | दौड़ रहा था¸ दौड़ रहा था¸ |
− | किसी कन्दरा से निकला हय¸ | + | दल–दल में धँस गया कहीं॥29॥ |
− | झाड़ी में फँस गया कहीं। | + | |
− | दौड़ रहा था¸ दौड़ रहा था¸ | + | लचकीली तलवार कहीं पर |
− | दल–दल में धँस गया | + | उलझ–उलझ मुड़ जाती थी। |
− | लचकीली तलवार कहीं पर | + | टाप गिरी¸ गिरि–कठिन शिक्षा पर |
− | उलझ–उलझ मुड़ जाती थी। | + | चिनगारी उड़ जाती थी॥30॥ |
− | टाप गिरी¸ गिरि–कठिन शिक्षा पर | + | |
− | चिनगारी उड़ जाती | + | हय के दिन–दिन हुंकारों से¸ |
− | हय के दिन–दिन हुंकारों से¸ | + | भीषण–धनु–टंकारों से¸ |
− | भीषण–धनु–टंकारों से¸ | + | कोलाहल मच गया भयंकर |
− | कोलाहल मच गया भयंकर | + | मेवाड़ी–ललकारों से॥31॥ |
− | मेवाड़ी–ललकारों | + | |
− | एक केसरी सोता था वन के | + | एक केसरी सोता था वन के |
− | गिरि–गह्वर के अन्दर। | + | गिरि–गह्वर के अन्दर। |
− | रोओं की दुर्गन्ध हवा से | + | रोओं की दुर्गन्ध हवा से |
− | फैल रही थी इधर | + | फैल रही थी इधर उधर॥32॥ |
− | सिर के केसर हिल उठते | + | |
− | जब हवा झुरकती थी झुर–झुर; | + | सिर के केसर हिल उठते |
− | फैली थीं टाँगे अवनी पर | + | जब हवा झुरकती थी झुर–झुर; |
− | नासा बजती थी | + | फैली थीं टाँगे अवनी पर |
− | नि:श्वासों के साथ लार थी | + | नासा बजती थी घुरघुर॥33॥ |
− | गलफर से चूती तर–तर। | + | |
− | खून सने तीखे दाँतों से | + | नि:श्वासों के साथ लार थी |
− | मौत काँपती थी | + | गलफर से चूती तर–तर। |
− | अन्धकार की चादर ओढ़े | + | खून सने तीखे दाँतों से |
− | निर्भय सोता था | + | मौत काँपती थी थर–थर॥34॥ |
− | मेवाड़ी–जन–मृगया से | + | |
− | कोलाहल होता था | + | अन्धकार की चादर ओढ़े |
− | कलकल से जग गया केसरी | + | निर्भय सोता था नाहर॥ |
− | अलसाई आँखें खोलीं। | + | |
− | झुँझलाया कुछ गुर्राया | + | मेवाड़ी–जन–मृगया से |
− | जब सुनी शिकारी की | + | कोलाहल होता था बाहर॥35॥ |
− | पर गुर्राता पुन: सो गया | + | |
− | नाहर वह आझादी से। | + | कलकल से जग गया केसरी |
− | तनिक न की परवाह किसी की | + | अलसाई आँखें खोलीं। |
− | रंचक डरा न वादी | + | झुँझलाया कुछ गुर्राया |
− | पर कोलाहल पर कोलाहल¸ | + | जब सुनी शिकारी की बोली॥36॥ |
− | किलकारों पर किलकारें। | + | |
− | उसके कानों में पड़ती थीं | + | पर गुर्राता पुन: सो गया |
− | ललकारों पर | + | नाहर वह आझादी से। |
− | सो न सका उठ गया क्रोध से | + | तनिक न की परवाह किसी की |
− | अँगड़ाकर तन झाड़ दिया। | + | रंचक डरा न वादी से॥37 |
− | हिलस उठा गिरि–गह्वर जब | + | पर कोलाहल पर कोलाहल¸ |
− | नीचे मुख कर चिग्धाड़ | + | किलकारों पर किलकारें। |
− | शिला–शिला फट उठी; हिले तरू¸ | + | उसके कानों में पड़ती थीं |
− | टूटे व्योम वितान गिरे। | + | ललकारों पर ललकारें॥38॥ |
− | सिंह–नाद सुनकर भय से जन | + | |
− | चित्त–पट–उत्तान | + | सो न सका उठ गया क्रोध से |
− | धीरे–धीरे चला केसरी | + | अँगड़ाकर तन झाड़ दिया। |
− | आँखों में अंगार लिये। | + | हिलस उठा गिरि–गह्वर जब |
− | लगे घ्ोरने राजपूत | + | नीचे मुख कर चिग्धाड़ दिया॥39॥ |
− | भाला–बछरी–तलवार | + | |
− | वीर–केसरी रूका नहीं | + | शिला–शिला फट उठी; हिले तरू¸ |
− | उन क्षत्रिय–राजकुमारों से। | + | टूटे व्योम वितान गिरे। |
− | डरा न उनकी बिजली–सी | + | सिंह–नाद सुनकर भय से जन |
− | गिरने वाली तलवारों | + | चित्त–पट–उत्तान गिरे॥40॥ |
− | छका दिया कितने जन को | + | |
− | कितनों को लड़ना सिखा दिया। | + | धीरे–धीरे चला केसरी |
− | हमने भी अपनी माता का | + | आँखों में अंगार लिये। |
− | दूध पिया है दिखा | + | लगे घ्ोरने राजपूत |
− | चेत करो तुम राजपूत हो¸ | + | भाला–बछरी–तलवार लिये॥41॥ |
− | राजपूत अब ठीक बनो। | + | |
− | मौन–मौन कह दिया सभी से | + | वीर–केसरी रूका नहीं |
− | हम सा तुम निभीर्क | + | उन क्षत्रिय–राजकुमारों से। |
− | हम भी सिंह¸ सिंह तुम भी हो¸ | + | डरा न उनकी बिजली–सी |
− | पाला भी है आन पड़ा। | + | गिरने वाली तलवारों से॥42॥ |
− | आओ हम तुम आज देख लें | + | |
− | हम दोनों में कौन | + | छका दिया कितने जन को |
− | घोड़ों की घुड़दौड़ रूकी | + | कितनों को लड़ना सिखा दिया। |
− | लोगों ने बंद शिकार किया। | + | हमने भी अपनी माता का |
− | शक्तसिंह ने हिम्मत कर बरछे | + | दूध पिया है दिखा दिया॥43॥ |
− | से उस पर वार | + | |
− | आह न की बिगड़ी न बात | + | चेत करो तुम राजपूत हो¸ |
− | चएड़ी के भीषण वाहन की। | + | राजपूत अब ठीक बनो। |
− | कठिन तड़ित सा तड़प उठा | + | मौन–मौन कह दिया सभी से |
− | कुछ भाले की परवाह न | + | हम सा तुम निभीर्क बनो॥44 |
− | काल–सदृश राणा प्रताप झट | + | हम भी सिंह¸ सिंह तुम भी हो¸ |
− | तीखा शूल निराला ले¸ | + | पाला भी है आन पड़ा। |
− | बढ़ा सिंह की ओर झपटकर | + | आओ हम तुम आज देख लें |
− | अपना भीषण–भाला | + | हम दोनों में कौन बड़ा॥45। |
− | ठहरो–ठहरो कहा सिंह को¸ | + | घोड़ों की घुड़दौड़ रूकी |
− | लक्ष्य बनाकर ललकारा। | + | लोगों ने बंद शिकार किया। |
− | शक्तसिंह¸ तुम हटो सिंह को | + | शक्तसिंह ने हिम्मत कर बरछे |
− | मैंने अब मारा¸ | + | से उस पर वार किया॥46॥ |
− | राजपूत अपमान न सहते¸ | + | |
− | परम्परा की बान यही। | + | आह न की बिगड़ी न बात |
− | हटो कहा राणा ने पर | + | चएड़ी के भीषण वाहन की। |
− | उसकी छाती उत्तान | + | कठिन तड़ित सा तड़प उठा |
− | आगे बढ़कर कहा लक्ष्य को | + | कुछ भाले की परवाह न की॥47॥ |
− | मार नहीं सकते हो तुम। | + | |
− | बोल उठा राणा प्रताप ललकार | + | काल–सदृश राणा प्रताप झट |
− | नहीं सकते हो | + | तीखा शूल निराला ले¸ |
− | शक्तसिंह ने कहा बने हो | + | बढ़ा सिंह की ओर झपटकर |
− | शूल चलानेवाले तुम। | + | अपना भीषण–भाला ले॥48॥ |
− | पड़े नहीं हो शक्तसिंह सम | + | |
− | किसी वीर के पाले | + | ठहरो–ठहरो कहा सिंह को¸ |
− | क्यों कहते हो हटो¸ हटो¸ | + | लक्ष्य बनाकर ललकारा। |
− | हूँ वीर नहीं रणधीर नहीं? | + | शक्तसिंह¸ तुम हटो सिंह को |
− | क्या सीखा है कहीं चलाना | + | मैंने अब मारा¸ मारा॥49॥ |
− | भाला–बरछी–तीर नहीं? | + | |
− | बोला राणा क्या बकते हो¸ | + | राजपूत अपमान न सहते¸ |
− | मैंने तो कुछ कहा नहीं। | + | परम्परा की बान यही। |
− | शक्तसिंह¸ बखरे का यह | + | हटो कहा राणा ने पर |
− | आखेट¸ तुम्हारा रहा | + | उसकी छाती उत्तान रही॥50॥ |
− | राजपूत–कुल के कलंक¸ | + | |
− | धिक्कार तुम्हारी वाणी पर¸ | + | आगे बढ़कर कहा लक्ष्य को |
− | बिना हेतु के झगड़ पड़े जो | + | मार नहीं सकते हो तुम। |
− | वज` गिरे उस प्राणी | + | बोल उठा राणा प्रताप ललकार |
− | राणा का सत्कार यही क्या¸ | + | नहीं सकते हो तुम॥51॥ |
− | बन्धु–हृदय का प्यार यही? | + | |
− | क्या भाई के साथ तुम्हारा | + | शक्तसिंह ने कहा बने हो |
− | है उत्तम व्यवहार यही? | + | शूल चलानेवाले तुम। |
− | अब तक का अपराध क्षमा | + | पड़े नहीं हो शक्तसिंह सम |
− | आगे को काल निकाला यह | + | किसी वीर के पाले तुम॥52 |
− | तेरा काम तमाम करेगा | + | क्यों कहते हो हटो¸ हटो¸ |
− | मेरा भीषण भाला | + | हूँ वीर नहीं रणधीर नहीं? |
− | बात काटकर राणा की यह | + | क्या सीखा है कहीं चलाना |
− | शक्तसिंह फिर बोल उठा | + | भाला–बरछी–तीर नहीं?॥53॥ |
− | बोल उठा मेवाड़ देश | + | |
− | इस बार हलाहल घोल | + | बोला राणा क्या बकते हो¸ |
− | धार देखने को जिसने | + | मैंने तो कुछ कहा नहीं। |
− | तलवार चला दी उँगली पर। | + | शक्तसिंह¸ बखरे का यह |
− | उस अवसर पर शक्तसिंह वह | + | आखेट¸ तुम्हारा रहा नहीं॥54॥ |
− | खेल गया अपने जी | + | |
− | बार–बार कहते हो तुम क्या | + | राजपूत–कुल के कलंक¸ |
− | अहंकार है भाले का? | + | धिक्कार तुम्हारी वाणी पर¸ |
− | ध्यान नहीं है क्या कुछ भी | + | बिना हेतु के झगड़ पड़े जो |
− | मुझ भीषण–रण–मतवाले | + | वज` गिरे उस प्राणी पर॥55॥ |
− | राजपूत हूँ मुझे चाहिए | + | |
− | ऐसी कभी सलाह नहीं। | + | राणा का सत्कार यही क्या¸ |
− | तुष्ट रहो या रूष्ट रहो¸ | + | बन्धु–हृदय का प्यार यही? |
− | मुझको इसकी परवाह | + | क्या भाई के साथ तुम्हारा |
− | रूक सकता है ऐ प्रताप¸ | + | है उत्तम व्यवहार यही?॥56॥ |
− | मेरे उर का उद््गार नहीं। | + | |
− | बिना युद्ध के अब कदापि | + | अब तक का अपराध क्षमा |
− | है किसी तरह उद्धार | + | आगे को काल निकाला यह |
− | मुख–सम्मुख ठहरा हूँ मैं¸ | + | तेरा काम तमाम करेगा |
− | रण–सागर में लहरा हूँ मैं। | + | मेरा भीषण भाला यह॥57॥ |
− | हो न युद्ध इस नम्र विनय पर | + | |
− | आज बना बहरा हूँ | + | बात काटकर राणा की यह |
− | विष बखेर कर बैर किया | + | शक्तसिंह फिर बोल उठा |
− | राणा से ही क्या¸ लाखों से। | + | बोल उठा मेवाड़ देश |
− | लगी बरसने चिनगारी | + | इस बार हलाहल घोल उठा॥58॥ |
− | राणा की लोहित आँखों | + | |
− | क्रोध बढ़ा¸ आदेश बढ़ा¸ | + | धार देखने को जिसने |
− | अब वार न रूकने वाला है। | + | तलवार चला दी उँगली पर। |
− | कहीं नहीं पर यहीं हमारा | + | उस अवसर पर शक्तसिंह वह |
− | मस्तक झुकने वाला | + | खेल गया अपने जी पर॥59॥ |
− | तनकर राणा शक्तसिंह से | + | |
− | बोला – ठहरो ठहरो तुम। | + | बार–बार कहते हो तुम क्या |
− | ऐ मेरे भीषण भाला¸ | + | अहंकार है भाले का? |
− | भाई पर लहरो लहरो | + | ध्यान नहीं है क्या कुछ भी |
− | पीने का है यही समय इच्छा | + | मुझ भीषण–रण–मतवाले का॥60॥ |
− | भर शोणित पी लो तुम। | + | |
− | बढ़ो बढ़ो अब वक्षस्थल में | + | राजपूत हूँ मुझे चाहिए |
− | घुसकर विजय अभी लो | + | ऐसी कभी सलाह नहीं। |
− | शक्तसिंह¸ आखेट तुम्हारा | + | तुष्ट रहो या रूष्ट रहो¸ |
− | करने को तैयार हुआ। | + | मुझको इसकी परवाह नहीं॥61॥ |
− | लो कर में करवाल बचो अब | + | |
− | मेरा तुम पर वार | + | रूक सकता है ऐ प्रताप¸ |
− | खड़े रहो भाले ने तन को | + | मेरे उर का उद््गार नहीं। |
− | लून किया अब लून किया! | + | बिना युद्ध के अब कदापि |
− | खेद¸ महाराणा प्रताप ने¸ | + | है किसी तरह उद्धार नहीं॥62॥ |
− | आज तुम्हारा खून | + | |
− | देख भभकती आग क्रोध की | + | मुख–सम्मुख ठहरा हूँ मैं¸ |
− | शक्तसिंह भी क्रुद्ध हुआ। | + | रण–सागर में लहरा हूँ मैं। |
− | हा¸ कलंक की वेदी पर फिर | + | हो न युद्ध इस नम्र विनय पर |
− | उन दोनों का युद्ध | + | आज बना बहरा हूँ मैं॥63॥ |
− | कूद पड़े वे अहंकार से | + | |
− | भीषण–रण की ज्वाला में। | + | विष बखेर कर बैर किया |
− | रण–चण्डी भी उठी रक्त | + | राणा से ही क्या¸ लाखों से। |
− | पीने को भरकर प्याला | + | लगी बरसने चिनगारी |
− | होने लगे वार हरके से | + | राणा की लोहित आँखों से॥64॥ |
− | एकलिंग प्रतिकूल हुए। | + | |
− | मौत बुलानेवाले उनके | + | क्रोध बढ़ा¸ आदेश बढ़ा¸ |
− | तीक्ष्ण अग्रसर शूल | + | अब वार न रूकने वाला है। |
− | क्षण–क्षण लगे पैतरा देने | + | कहीं नहीं पर यहीं हमारा |
− | बिगड़ गया रुख भालों का। | + | मस्तक झुकने वाला है॥65॥ |
− | रक्षक कौन बनेगा अब इन | + | |
− | दोनों रण–मतवालों | + | तनकर राणा शक्तसिंह से |
− | दोनों का यह हाल देख | + | बोला – ठहरो ठहरो तुम। |
− | वन–देवी थी उर फाड़ रही। | + | ऐ मेरे भीषण भाला¸ |
− | भाई–भाई के विरोध से | + | भाई पर लहरो लहरो तुम॥66॥ |
− | काँप उठी | + | |
− | लोग दूर से देख रहे थे | + | पीने का है यही समय इच्छा |
− | भय से उनके वारों को। | + | भर शोणित पी लो तुम। |
− | किन्तु रोकने की न पड़ी | + | बढ़ो बढ़ो अब वक्षस्थल में |
− | हिम्मत उन राजकुमारों | + | घुसकर विजय अभी लो तुम॥67॥ |
− | दोनों की आँखों पर परदे | + | |
− | पड़े मोह के काले थे। | + | शक्तसिंह¸ आखेट तुम्हारा |
− | राज–वंश के अभी–अभी | + | करने को तैयार हुआ। |
− | दो दीपक बुझनेवाले | + | लो कर में करवाल बचो अब |
− | तब तक नारायण ने देखा | + | मेरा तुम पर वार हुआ॥68॥ |
− | लड़ते भाई भाई को। | + | |
− | रूको¸ रूको कहता दौड़ा कुछ | + | खड़े रहो भाले ने तन को |
− | सोचो मान–बड़ाई | + | लून किया अब लून किया! |
− | कहा¸ डपटकर रूक जाओ¸ | + | खेद¸ महाराणा प्रताप ने¸ |
− | यह शिशोदिया–कुल–धर्म नहीं। | + | आज तुम्हारा खून किया॥69॥ |
− | भाई से भाई का रण यह | + | |
− | कर्मवीर का कर्म | + | देख भभकती आग क्रोध की |
− | राजपूत–कुल के कलंक¸ | + | शक्तसिंह भी क्रुद्ध हुआ। |
− | अब लज्जा से तुम झुक जाओ। | + | हा¸ कलंक की वेदी पर फिर |
− | शक्तसिंह¸ तुम रूको रूको¸ | + | उन दोनों का युद्ध हुआ॥70॥ |
− | राणा प्रताप¸ तुम रूक | + | |
− | चतुर पुरोहित की बातों की | + | कूद पड़े वे अहंकार से |
− | दोनों ने परवाह न की। | + | भीषण–रण की ज्वाला में। |
− | अहो¸ पुरोहित ने भी निज | + | रण–चण्डी भी उठी रक्त |
− | प्राणों की रंचक चाह न | + | पीने को भरकर प्याला में॥71॥ |
− | उठा लिया विकराल छुरा | + | |
− | सीने में मारा ब्राह्मण ने। | + | होने लगे वार हरके से |
− | उन दोनों के बीच बहा दी | + | एकलिंग प्रतिकूल हुए। |
− | शोणित–धारा ब्राह्मण | + | मौत बुलानेवाले उनके |
− | वन का तन रँग दिया रूधिर से | + | तीक्ष्ण अग्रसर शूल हुए॥72॥ |
− | दिखा दिया¸ है त्याग यही। | + | |
− | निज स्वामी के प्राणों की | + | क्षण–क्षण लगे पैतरा देने |
− | रक्षा का है अनुराग | + | बिगड़ गया रुख भालों का। |
− | ब्राह्मण था वह ब्राह्मण था¸ | + | रक्षक कौन बनेगा अब इन |
− | हित राजवंश का सदा किया। | + | दोनों रण–मतवालों का॥73॥ |
− | निज स्वामी का नमक हृदय का | + | |
− | रक्त बहाकर अदा | + | दोनों का यह हाल देख |
− | जीवन–चपला चमक दमक कर | + | वन–देवी थी उर फाड़ रही। |
− | अन्तरिक्ष में लीन हुई। | + | भाई–भाई के विरोध से |
− | अहो¸ पुरोहित की अनन्त में | + | काँप उठी मेवाड़–मही॥74॥ |
− | जाकर ज्योति विलीन | + | |
− | सुनकर ब्राह्मण की हत्या | + | लोग दूर से देख रहे थे |
− | उत्साह सभी ने मन्द किया। | + | भय से उनके वारों को। |
− | हाहाकार मचा सबने आखेट | + | किन्तु रोकने की न पड़ी |
− | खेलना बन्द | + | हिम्मत उन राजकुमारों को॥75॥ |
− | खून हो गया खून हो गया | + | |
− | का जंगल में शोर हुआ। | + | दोनों की आँखों पर परदे |
− | धन्य धन्य है धन्य पुरोहित – | + | पड़े मोह के काले थे। |
− | यह रव चारों ओर | + | राज–वंश के अभी–अभी |
− | युगल बन्धु के दृग अपने को | + | दो दीपक बुझनेवाले थे॥76॥ |
− | लज्जा–पट से ढाँप उठे। | + | |
− | रक्त देखकर ब्राह्मण का | + | तब तक नारायण ने देखा |
− | सहसा वे दोनों काँप | + | लड़ते भाई भाई को। |
− | धर्म भीरू राणा का तन तो | + | रूको¸ रूको कहता दौड़ा कुछ |
− | भय से कम्पित और हुआ। | + | सोचो मान–बड़ाई को॥77॥ |
− | लगा सोचने अहो कलंकित | + | |
− | वीर–देश चित्तौर | + | कहा¸ डपटकर रूक जाओ¸ |
− | बोल उठा राणा प्रताप – | + | यह शिशोदिया–कुल–धर्म नहीं। |
− | मेवाड़–देश को छोड़ो तुम। | + | भाई से भाई का रण यह |
− | शक्तसिंह¸ तुम हटो हटो¸ | + | कर्मवीर का कर्म नहीं॥78॥ |
− | मुझसे अब नाता तोड़ो | + | |
− | शिशोदिया–कुल के कलंक¸ | + | राजपूत–कुल के कलंक¸ |
− | हा जन्म तुम्हारा व्यर्थ हुआ। | + | अब लज्जा से तुम झुक जाओ। |
− | हाय¸ तुम्हारे ही कारण यह | + | शक्तसिंह¸ तुम रूको रूको¸ |
− | पातक¸ महा अनर्थ | + | राणा प्रताप¸ तुम रूक जाओ॥79॥ |
− | सुनते ही यह मौन हो गया¸ | + | |
− | घूँट घूँट विष–पान किया। | + | चतुर पुरोहित की बातों की |
− | आज्ञा मानी¸ यही सोचता | + | दोनों ने परवाह न की। |
− | दिल्ली को प्रस्थान | + | अहो¸ पुरोहित ने भी निज |
− | हाय¸ निकाला गया आज दिन | + | प्राणों की रंचक चाह न की॥80॥ |
− | मेरा बुरा जमाना है। | + | |
− | भूख लगी है प्यास लगी | + | उठा लिया विकराल छुरा |
− | पानी का नहीं ठिकाना | + | सीने में मारा ब्राह्मण ने। |
− | मैं सपूत हूँ राजपूत¸ | + | उन दोनों के बीच बहा दी |
− | मुझको ही जरा यकीन नहीं। | + | शोणित–धारा ब्राह्मण ने॥81॥ |
− | एक जगह सुख से बैठूँ¸ दो | + | |
− | अंगुल मुझे जमीन | + | वन का तन रँग दिया रूधिर से |
− | अकबर से मिल जाने पर हा¸ | + | दिखा दिया¸ है त्याग यही। |
− | रजपूती की शान कहाँ! | + | निज स्वामी के प्राणों की |
− | जन्मभूमि पर रह जायेगा | + | रक्षा का है अनुराग यही॥82॥ |
− | हा¸ अब नाम–निशान | + | |
− | यह भी मन में सोच रहा था¸ | + | ब्राह्मण था वह ब्राह्मण था¸ |
− | इसका बदला लूँगा मैं। | + | हित राजवंश का सदा किया। |
− | क्रोध–हुताशन में आहुति | + | निज स्वामी का नमक हृदय का |
− | मेवाड़–देश की दूँगा | + | रक्त बहाकर अदा किया॥83॥ |
− | शिशोदिया में जन्म लिया यद्यपि | + | |
− | यह है कर्तव्य नहीं। | + | जीवन–चपला चमक दमक कर |
− | पर प्रताप–अपराध कभी | + | अन्तरिक्ष में लीन हुई। |
− | क्षन्तव्य नहीं¸ क्षन्तव्य | + | अहो¸ पुरोहित की अनन्त में |
− | शक्तसिंह पहुँचा अकबर भी | + | जाकर ज्योति विलीन हुई॥84॥ |
− | आकर मिला कलेजे से। | + | |
− | लगा छेदने राणा का उर | + | सुनकर ब्राह्मण की हत्या |
− | कूटनीति के तेजे | + | उत्साह सभी ने मन्द किया। |
− | युगल–बन्धु–रण देख क्रोध से | + | हाहाकार मचा सबने आखेट |
− | लाल हो गया था सूरज। | + | खेलना बन्द किया॥85॥ |
− | मानों उसे मनाने को अम्बर पर | + | |
− | चढ़ती थी | + | खून हो गया खून हो गया |
− | किया सुनहला काम प्रकृति ने¸ | + | का जंगल में शोर हुआ। |
− | मकड़ी के मृदु तारों पर। | + | धन्य धन्य है धन्य पुरोहित – |
− | छलक रही थी अन्तिम | + | यह रव चारों ओर हुआ॥86॥ |
− | राजपूत–तलवारों | + | |
− | धीरे धीरे रंग जमा तक का | + | युगल बन्धु के दृग अपने को |
− | सूरज की लाली पर। | + | लज्जा–पट से ढाँप उठे। |
− | कौवों की बैठी पंचायत | + | रक्त देखकर ब्राह्मण का |
− | तरू की डाली डाली | + | सहसा वे दोनों काँप उठे॥87॥ |
− | चूम लिया शशि ने झुककर। | + | |
− | कोई के कोमल गालों को। | + | धर्म भीरू राणा का तन तो |
− | देने लगा रजत हँस हँसकर¸ | + | भय से कम्पित और हुआ। |
− | सागर–सरिता–नालों | + | लगा सोचने अहो कलंकित |
− | हिंस्त्र जन्तु निकले गह्वर से | + | वीर–देश चित्तौर हुआ॥88॥ |
− | घ्ोर लिया गिरि झीलों को। | + | |
− | इधर मलिन महलों में आया | + | बोल उठा राणा प्रताप – |
− | लाश सौंपकर भीलों | + | मेवाड़–देश को छोड़ो तुम। |
− | वंश–पुरोहित का प्रताप ने | + | शक्तसिंह¸ तुम हटो हटो¸ |
− | दाह कर्म करवा डाला। | + | मुझसे अब नाता तोड़ो तुम॥89॥ |
− | देकर घन ब्राह्मण–कुल के | + | |
− | खाली घर को भरवा | + | शिशोदिया–कुल के कलंक¸ |
− | जहाँ लाश थी ब्राह्मण की | + | हा जन्म तुम्हारा व्यर्थ हुआ। |
− | जिस जगह त्याग दिखलाया था। | + | हाय¸ तुम्हारे ही कारण यह |
− | चबूतरा बन गया जहाँ | + | पातक¸ महा अनर्थ हुआ॥90॥ |
− | प्राणों का पुष्प चढ़ाया | + | |
− | गया बन्ध¸ पर गया न गौरव¸ | + | सुनते ही यह मौन हो गया¸ |
− | अपनी कुल–परिपाटी का। | + | घूँट घूँट विष–पान किया। |
− | पर विरोध भी कारण है | + | आज्ञा मानी¸ यही सोचता |
− | भीषण–रण हल्दीघाटी | + | दिल्ली को प्रस्थान किया॥91 |
− | मेवाड़¸ तुम्हारी आगे | + | हाय¸ निकाला गया आज दिन |
− | अब हा¸ कैसी गति होगी। | + | मेरा बुरा जमाना है। |
− | हा¸ अब तेरी उन्नति में | + | भूख लगी है प्यास लगी |
− | क्या पग पग पर यति होगी? | + | पानी का नहीं ठिकाना है॥92 |
+ | मैं सपूत हूँ राजपूत¸ | ||
+ | मुझको ही जरा यकीन नहीं। | ||
+ | एक जगह सुख से बैठूँ¸ दो | ||
+ | अंगुल मुझे जमीन नहीं॥93 | ||
+ | अकबर से मिल जाने पर हा¸ | ||
+ | रजपूती की शान कहाँ! | ||
+ | जन्मभूमि पर रह जायेगा | ||
+ | हा¸ अब नाम–निशान कहाँ॥94॥ | ||
+ | |||
+ | यह भी मन में सोच रहा था¸ | ||
+ | इसका बदला लूँगा मैं। | ||
+ | क्रोध–हुताशन में आहुति | ||
+ | मेवाड़–देश की दूँगा मैं॥95॥ | ||
+ | |||
+ | शिशोदिया में जन्म लिया यद्यपि | ||
+ | यह है कर्तव्य नहीं। | ||
+ | पर प्रताप–अपराध कभी | ||
+ | क्षन्तव्य नहीं¸ क्षन्तव्य नहीं॥96॥ | ||
+ | |||
+ | शक्तसिंह पहुँचा अकबर भी | ||
+ | आकर मिला कलेजे से। | ||
+ | लगा छेदने राणा का उर | ||
+ | कूटनीति के तेजे से॥97॥ | ||
+ | |||
+ | युगल–बन्धु–रण देख क्रोध से | ||
+ | लाल हो गया था सूरज। | ||
+ | मानों उसे मनाने को अम्बर पर | ||
+ | चढ़ती थी भू–रज॥98॥ | ||
+ | |||
+ | किया सुनहला काम प्रकृति ने¸ | ||
+ | मकड़ी के मृदु तारों पर। | ||
+ | छलक रही थी अन्तिम किरणें | ||
+ | राजपूत–तलवारों पर॥99॥ | ||
+ | |||
+ | धीरे धीरे रंग जमा तक का | ||
+ | सूरज की लाली पर। | ||
+ | कौवों की बैठी पंचायत | ||
+ | तरू की डाली डाली पर॥100॥ | ||
+ | |||
+ | चूम लिया शशि ने झुककर। | ||
+ | कोई के कोमल गालों को। | ||
+ | देने लगा रजत हँस हँसकर¸ | ||
+ | सागर–सरिता–नालों को॥101। | ||
+ | हिंस्त्र जन्तु निकले गह्वर से | ||
+ | घ्ोर लिया गिरि झीलों को। | ||
+ | इधर मलिन महलों में आया | ||
+ | लाश सौंपकर भीलों को॥102॥ | ||
+ | |||
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+ | जिस जगह त्याग दिखलाया था। | ||
+ | चबूतरा बन गया जहाँ | ||
+ | प्राणों का पुष्प चढ़ाया था॥104॥ | ||
+ | |||
+ | गया बन्ध¸ पर गया न गौरव¸ | ||
+ | अपनी कुल–परिपाटी का। | ||
+ | पर विरोध भी कारण है | ||
+ | भीषण–रण हल्दीघाटी का॥105॥ | ||
+ | |||
+ | मेवाड़¸ तुम्हारी आगे | ||
+ | अब हा¸ कैसी गति होगी। | ||
+ | हा¸ अब तेरी उन्नति में | ||
+ | क्या पग पग पर यति होगी?॥106॥ | ||
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09:25, 12 अगस्त 2016 के समय का अवतरण
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वण्डोली है यही¸ यहीं पर
है समाधि सेनापति की।
महातीर्थ की यही वेदिका¸
यही अमर–रेखा स्मृति की॥1॥
एक बार आलोकित कर हा¸
यहीं हुआ था सूर्य अस्त।
चला यहीं से तिमिर हो गया
अन्धकार–मय जग समस्त॥2॥
आज यहीं इस सिद्ध पीठ पर
फूल चढ़ाने आया हूँ।
आज यहीं पावन समाधि पर
दीप जलाने आया हूँ॥3॥
आज इसी छतरी के भीतर
सुख–दुख गाने आया हूँ।
सेनानी को चिर समाधि से
आज जगाने आया हूँ॥4॥
सुनता हूँ वह जगा हुआ था
जौहर के बलिदानों से।
सुनता हूँ वह जगा हुआ था
बहिनों के अपमानों से॥5॥
सुनता हूँ स्त्री थी अँगड़ाई
अरि के अत्याचारों से।
सुनता हूँ वह गरज उठा था
कड़ियों की झनकारों से॥6॥
सजी हुई है मेरी सेना¸
पर सेनापति सोता है।
उसे जगाऊँगा¸ विलम्ब अब
महासमर में होता है॥7॥
आज उसी के चरितामृत में¸
व्यथा कहूँगा दीनों की।
आज यही पर रूदन–गीत में
गाऊँगा बल–हीनों की॥8॥
आज उसी की अमर–वीरता
व्यक्त करूँगा गानों में।
आज उसी के रणकाशल की
कथा कहूँगा कानों में॥9॥
पाठक! तुम भी सुनो कहानी
आँखों में पानी भरकर।
होती है आरम्भ कथा अब
बोलो मंगलकर शंकर॥10॥
विहँस रही थी प्रकृति हटाकर
मुख से अपना घूँघट–पट।
बालक–रवि को ले गोदी में
धीरे से बदली करवट॥11॥
परियों सी उतरी रवि–किरण्ों
घुली मिलीं रज–कन–कन से।
खिलने लगे कमल दिनकर के
स्वर्णिम–कर के चुम्बन से॥12॥
मलयानिल के मृदु–झोकों से
उठीं लहरियाँ सर–सर में।
रवि की मृदुल सुनहली किरण्ों
लगीं खेलने निझर्र में॥13॥
फूलों की साँसों को लेकर
लहर उठा मारूत वन–वन।
कुसुम–पँखुरियों के आँगन में
थिरक–थिरक अलि के नर्तन॥14॥
देखी रवि में रूप–राशि निज
ओसों के लघु–दर्पण में।
रजत रश्मियाँ फैल गई
गिरि–अरावली के कण–कण में॥15
इसी समय मेवाड़–देश की
कटारियाँ खनखना उठीं।
नागिन सी डस देने वाली
तलवारें झनझना उठीं॥16॥
धारण कर केशरिया बाना
हाथों में ले ले भाले।
वीर महाराणा से ले खिल
उठे बोल भोले भाले॥17॥
विजयादशमी का वासर था¸
उत्सव के बाजे बाजे।
चले वीर आखेट खेलने
उछल पड़े ताजे–ताजे॥18॥
राणा भी आलेट खेलने
शक्तसिंह के साथ चला।
पीछे चारण¸ वंश–पुरोहित
भाला उसके हाथ चला॥19॥
भुजा फड़कने लगी वीर की
अशकुन जतलानेवाली।
गिरी तुरत तलवार हाथ से
पावक बरसाने वाली॥20॥
बतलाता था यही अमंगल
बन्धु–बन्धु का रण होगा।
यही भयावह रण ब्राह्मण की
हत्या का कारण होगा॥21॥
अशकुन की परवाह न की¸
वह आज न रूकनेवाला था।
अहो¸ हमारी स्वतन्त्रता का
झण्डा झुकनेवाला था॥22॥
घोर विपिन में पहुँच गये
कातरता के बन्धन तोड़े।
हिंसक जीवों के पीछे
अपने अपने घोड़े छोड़े॥23॥
भीषण वार हुए जीवों पर
तरह–तरह के शोर हुए।
मारो ललकारों के रव
जंगल में चारों ओर हुए॥24॥
चीता यह¸ वह बाघ¸ शेर वह¸
शोर हुआ आखेट करो।
छेको¸ छेको हृदय–रक्त ले
निज बरछे को भेंट करो॥25॥
लगा निशाना ठीक हृदय में
रक्त–पगा जाता है वह।
चीते को जीते–जी पकड़ो
रीछ भगा जाता है वह॥26॥
उडे. पखेरू¸ भाग गये मृग
भय से शशक सियार भगे।
क्षण भर थमकर भगे मत्त गज
हरिण हार के हार भगे॥27॥
नरम–हृदय कोमल मृग–छौने
डौंक रहे थे इधर–उधर।
एक प्रलय का रूप खड़ा था
मेवाड़ी दल गया जिधर॥28॥
किसी कन्दरा से निकला हय¸
झाड़ी में फँस गया कहीं।
दौड़ रहा था¸ दौड़ रहा था¸
दल–दल में धँस गया कहीं॥29॥
लचकीली तलवार कहीं पर
उलझ–उलझ मुड़ जाती थी।
टाप गिरी¸ गिरि–कठिन शिक्षा पर
चिनगारी उड़ जाती थी॥30॥
हय के दिन–दिन हुंकारों से¸
भीषण–धनु–टंकारों से¸
कोलाहल मच गया भयंकर
मेवाड़ी–ललकारों से॥31॥
एक केसरी सोता था वन के
गिरि–गह्वर के अन्दर।
रोओं की दुर्गन्ध हवा से
फैल रही थी इधर उधर॥32॥
सिर के केसर हिल उठते
जब हवा झुरकती थी झुर–झुर;
फैली थीं टाँगे अवनी पर
नासा बजती थी घुरघुर॥33॥
नि:श्वासों के साथ लार थी
गलफर से चूती तर–तर।
खून सने तीखे दाँतों से
मौत काँपती थी थर–थर॥34॥
अन्धकार की चादर ओढ़े
निर्भय सोता था नाहर॥
मेवाड़ी–जन–मृगया से
कोलाहल होता था बाहर॥35॥
कलकल से जग गया केसरी
अलसाई आँखें खोलीं।
झुँझलाया कुछ गुर्राया
जब सुनी शिकारी की बोली॥36॥
पर गुर्राता पुन: सो गया
नाहर वह आझादी से।
तनिक न की परवाह किसी की
रंचक डरा न वादी से॥37
पर कोलाहल पर कोलाहल¸
किलकारों पर किलकारें।
उसके कानों में पड़ती थीं
ललकारों पर ललकारें॥38॥
सो न सका उठ गया क्रोध से
अँगड़ाकर तन झाड़ दिया।
हिलस उठा गिरि–गह्वर जब
नीचे मुख कर चिग्धाड़ दिया॥39॥
शिला–शिला फट उठी; हिले तरू¸
टूटे व्योम वितान गिरे।
सिंह–नाद सुनकर भय से जन
चित्त–पट–उत्तान गिरे॥40॥
धीरे–धीरे चला केसरी
आँखों में अंगार लिये।
लगे घ्ोरने राजपूत
भाला–बछरी–तलवार लिये॥41॥
वीर–केसरी रूका नहीं
उन क्षत्रिय–राजकुमारों से।
डरा न उनकी बिजली–सी
गिरने वाली तलवारों से॥42॥
छका दिया कितने जन को
कितनों को लड़ना सिखा दिया।
हमने भी अपनी माता का
दूध पिया है दिखा दिया॥43॥
चेत करो तुम राजपूत हो¸
राजपूत अब ठीक बनो।
मौन–मौन कह दिया सभी से
हम सा तुम निभीर्क बनो॥44
हम भी सिंह¸ सिंह तुम भी हो¸
पाला भी है आन पड़ा।
आओ हम तुम आज देख लें
हम दोनों में कौन बड़ा॥45।
घोड़ों की घुड़दौड़ रूकी
लोगों ने बंद शिकार किया।
शक्तसिंह ने हिम्मत कर बरछे
से उस पर वार किया॥46॥
आह न की बिगड़ी न बात
चएड़ी के भीषण वाहन की।
कठिन तड़ित सा तड़प उठा
कुछ भाले की परवाह न की॥47॥
काल–सदृश राणा प्रताप झट
तीखा शूल निराला ले¸
बढ़ा सिंह की ओर झपटकर
अपना भीषण–भाला ले॥48॥
ठहरो–ठहरो कहा सिंह को¸
लक्ष्य बनाकर ललकारा।
शक्तसिंह¸ तुम हटो सिंह को
मैंने अब मारा¸ मारा॥49॥
राजपूत अपमान न सहते¸
परम्परा की बान यही।
हटो कहा राणा ने पर
उसकी छाती उत्तान रही॥50॥
आगे बढ़कर कहा लक्ष्य को
मार नहीं सकते हो तुम।
बोल उठा राणा प्रताप ललकार
नहीं सकते हो तुम॥51॥
शक्तसिंह ने कहा बने हो
शूल चलानेवाले तुम।
पड़े नहीं हो शक्तसिंह सम
किसी वीर के पाले तुम॥52
क्यों कहते हो हटो¸ हटो¸
हूँ वीर नहीं रणधीर नहीं?
क्या सीखा है कहीं चलाना
भाला–बरछी–तीर नहीं?॥53॥
बोला राणा क्या बकते हो¸
मैंने तो कुछ कहा नहीं।
शक्तसिंह¸ बखरे का यह
आखेट¸ तुम्हारा रहा नहीं॥54॥
राजपूत–कुल के कलंक¸
धिक्कार तुम्हारी वाणी पर¸
बिना हेतु के झगड़ पड़े जो
वज` गिरे उस प्राणी पर॥55॥
राणा का सत्कार यही क्या¸
बन्धु–हृदय का प्यार यही?
क्या भाई के साथ तुम्हारा
है उत्तम व्यवहार यही?॥56॥
अब तक का अपराध क्षमा
आगे को काल निकाला यह
तेरा काम तमाम करेगा
मेरा भीषण भाला यह॥57॥
बात काटकर राणा की यह
शक्तसिंह फिर बोल उठा
बोल उठा मेवाड़ देश
इस बार हलाहल घोल उठा॥58॥
धार देखने को जिसने
तलवार चला दी उँगली पर।
उस अवसर पर शक्तसिंह वह
खेल गया अपने जी पर॥59॥
बार–बार कहते हो तुम क्या
अहंकार है भाले का?
ध्यान नहीं है क्या कुछ भी
मुझ भीषण–रण–मतवाले का॥60॥
राजपूत हूँ मुझे चाहिए
ऐसी कभी सलाह नहीं।
तुष्ट रहो या रूष्ट रहो¸
मुझको इसकी परवाह नहीं॥61॥
रूक सकता है ऐ प्रताप¸
मेरे उर का उद््गार नहीं।
बिना युद्ध के अब कदापि
है किसी तरह उद्धार नहीं॥62॥
मुख–सम्मुख ठहरा हूँ मैं¸
रण–सागर में लहरा हूँ मैं।
हो न युद्ध इस नम्र विनय पर
आज बना बहरा हूँ मैं॥63॥
विष बखेर कर बैर किया
राणा से ही क्या¸ लाखों से।
लगी बरसने चिनगारी
राणा की लोहित आँखों से॥64॥
क्रोध बढ़ा¸ आदेश बढ़ा¸
अब वार न रूकने वाला है।
कहीं नहीं पर यहीं हमारा
मस्तक झुकने वाला है॥65॥
तनकर राणा शक्तसिंह से
बोला – ठहरो ठहरो तुम।
ऐ मेरे भीषण भाला¸
भाई पर लहरो लहरो तुम॥66॥
पीने का है यही समय इच्छा
भर शोणित पी लो तुम।
बढ़ो बढ़ो अब वक्षस्थल में
घुसकर विजय अभी लो तुम॥67॥
शक्तसिंह¸ आखेट तुम्हारा
करने को तैयार हुआ।
लो कर में करवाल बचो अब
मेरा तुम पर वार हुआ॥68॥
खड़े रहो भाले ने तन को
लून किया अब लून किया!
खेद¸ महाराणा प्रताप ने¸
आज तुम्हारा खून किया॥69॥
देख भभकती आग क्रोध की
शक्तसिंह भी क्रुद्ध हुआ।
हा¸ कलंक की वेदी पर फिर
उन दोनों का युद्ध हुआ॥70॥
कूद पड़े वे अहंकार से
भीषण–रण की ज्वाला में।
रण–चण्डी भी उठी रक्त
पीने को भरकर प्याला में॥71॥
होने लगे वार हरके से
एकलिंग प्रतिकूल हुए।
मौत बुलानेवाले उनके
तीक्ष्ण अग्रसर शूल हुए॥72॥
क्षण–क्षण लगे पैतरा देने
बिगड़ गया रुख भालों का।
रक्षक कौन बनेगा अब इन
दोनों रण–मतवालों का॥73॥
दोनों का यह हाल देख
वन–देवी थी उर फाड़ रही।
भाई–भाई के विरोध से
काँप उठी मेवाड़–मही॥74॥
लोग दूर से देख रहे थे
भय से उनके वारों को।
किन्तु रोकने की न पड़ी
हिम्मत उन राजकुमारों को॥75॥
दोनों की आँखों पर परदे
पड़े मोह के काले थे।
राज–वंश के अभी–अभी
दो दीपक बुझनेवाले थे॥76॥
तब तक नारायण ने देखा
लड़ते भाई भाई को।
रूको¸ रूको कहता दौड़ा कुछ
सोचो मान–बड़ाई को॥77॥
कहा¸ डपटकर रूक जाओ¸
यह शिशोदिया–कुल–धर्म नहीं।
भाई से भाई का रण यह
कर्मवीर का कर्म नहीं॥78॥
राजपूत–कुल के कलंक¸
अब लज्जा से तुम झुक जाओ।
शक्तसिंह¸ तुम रूको रूको¸
राणा प्रताप¸ तुम रूक जाओ॥79॥
चतुर पुरोहित की बातों की
दोनों ने परवाह न की।
अहो¸ पुरोहित ने भी निज
प्राणों की रंचक चाह न की॥80॥
उठा लिया विकराल छुरा
सीने में मारा ब्राह्मण ने।
उन दोनों के बीच बहा दी
शोणित–धारा ब्राह्मण ने॥81॥
वन का तन रँग दिया रूधिर से
दिखा दिया¸ है त्याग यही।
निज स्वामी के प्राणों की
रक्षा का है अनुराग यही॥82॥
ब्राह्मण था वह ब्राह्मण था¸
हित राजवंश का सदा किया।
निज स्वामी का नमक हृदय का
रक्त बहाकर अदा किया॥83॥
जीवन–चपला चमक दमक कर
अन्तरिक्ष में लीन हुई।
अहो¸ पुरोहित की अनन्त में
जाकर ज्योति विलीन हुई॥84॥
सुनकर ब्राह्मण की हत्या
उत्साह सभी ने मन्द किया।
हाहाकार मचा सबने आखेट
खेलना बन्द किया॥85॥
खून हो गया खून हो गया
का जंगल में शोर हुआ।
धन्य धन्य है धन्य पुरोहित –
यह रव चारों ओर हुआ॥86॥
युगल बन्धु के दृग अपने को
लज्जा–पट से ढाँप उठे।
रक्त देखकर ब्राह्मण का
सहसा वे दोनों काँप उठे॥87॥
धर्म भीरू राणा का तन तो
भय से कम्पित और हुआ।
लगा सोचने अहो कलंकित
वीर–देश चित्तौर हुआ॥88॥
बोल उठा राणा प्रताप –
मेवाड़–देश को छोड़ो तुम।
शक्तसिंह¸ तुम हटो हटो¸
मुझसे अब नाता तोड़ो तुम॥89॥
शिशोदिया–कुल के कलंक¸
हा जन्म तुम्हारा व्यर्थ हुआ।
हाय¸ तुम्हारे ही कारण यह
पातक¸ महा अनर्थ हुआ॥90॥
सुनते ही यह मौन हो गया¸
घूँट घूँट विष–पान किया।
आज्ञा मानी¸ यही सोचता
दिल्ली को प्रस्थान किया॥91
हाय¸ निकाला गया आज दिन
मेरा बुरा जमाना है।
भूख लगी है प्यास लगी
पानी का नहीं ठिकाना है॥92
मैं सपूत हूँ राजपूत¸
मुझको ही जरा यकीन नहीं।
एक जगह सुख से बैठूँ¸ दो
अंगुल मुझे जमीन नहीं॥93
अकबर से मिल जाने पर हा¸
रजपूती की शान कहाँ!
जन्मभूमि पर रह जायेगा
हा¸ अब नाम–निशान कहाँ॥94॥
यह भी मन में सोच रहा था¸
इसका बदला लूँगा मैं।
क्रोध–हुताशन में आहुति
मेवाड़–देश की दूँगा मैं॥95॥
शिशोदिया में जन्म लिया यद्यपि
यह है कर्तव्य नहीं।
पर प्रताप–अपराध कभी
क्षन्तव्य नहीं¸ क्षन्तव्य नहीं॥96॥
शक्तसिंह पहुँचा अकबर भी
आकर मिला कलेजे से।
लगा छेदने राणा का उर
कूटनीति के तेजे से॥97॥
युगल–बन्धु–रण देख क्रोध से
लाल हो गया था सूरज।
मानों उसे मनाने को अम्बर पर
चढ़ती थी भू–रज॥98॥
किया सुनहला काम प्रकृति ने¸
मकड़ी के मृदु तारों पर।
छलक रही थी अन्तिम किरणें
राजपूत–तलवारों पर॥99॥
धीरे धीरे रंग जमा तक का
सूरज की लाली पर।
कौवों की बैठी पंचायत
तरू की डाली डाली पर॥100॥
चूम लिया शशि ने झुककर।
कोई के कोमल गालों को।
देने लगा रजत हँस हँसकर¸
सागर–सरिता–नालों को॥101।
हिंस्त्र जन्तु निकले गह्वर से
घ्ोर लिया गिरि झीलों को।
इधर मलिन महलों में आया
लाश सौंपकर भीलों को॥102॥
वंश–पुरोहित का प्रताप ने
दाह कर्म करवा डाला।
देकर घन ब्राह्मण–कुल के
खाली घर को भरवा डाला॥103॥
जहाँ लाश थी ब्राह्मण की
जिस जगह त्याग दिखलाया था।
चबूतरा बन गया जहाँ
प्राणों का पुष्प चढ़ाया था॥104॥
गया बन्ध¸ पर गया न गौरव¸
अपनी कुल–परिपाटी का।
पर विरोध भी कारण है
भीषण–रण हल्दीघाटी का॥105॥
मेवाड़¸ तुम्हारी आगे
अब हा¸ कैसी गति होगी।
हा¸ अब तेरी उन्नति में
क्या पग पग पर यति होगी?॥106॥