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"हल्दीघाटी / पंचम सर्ग / श्यामनारायण पाण्डेय" के अवतरणों में अंतर

 
 
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रचनाकार: [[श्यामनारायण पाण्डेय]]
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<poem>
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पंचम सर्ग: सगवक्ष
  
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~
+
भरा रहता अकबर का
 +
सुरभित जय–माला से।
 +
सारा भारत भभक रहा था
 +
क्रोधानल–ज्वाला से॥1॥
  
<font size=4>पंचम सर्ग: सगवक्ष</font><br><br>
+
रत्न–जटित मणि–सिंहासन था
 +
मण्डित रणधीरों से।
 +
उसका पद जगमगा रहा था
 +
राजमुकुट–हीरों से॥2॥
  
भरा रहता अकबर का <Br/>
+
जग के वैभव खेल रहे थे  
सुरभित जय–माला से। <Br/>
+
मुगल–राज–थाती पर।  
सारा भारत भभक रहा था <Br/>
+
फहर रहा था अकबर का  
क्रोधानल–ज्वाला से।।1।। <Br/><Br/>
+
झण्डा नभ की छाती पर॥3॥
रत्न–जटित मणि–सिंहासन था <Br/>
+
 
मण्डित रणधीरों से। <Br/>
+
यह प्रताप यह विभव मिला¸  
उसका पद जगमगा रहा था <Br/>
+
पर एक मिला था वादी।  
राजमुकुट–हीरों से।।2।। <Br/><Br/>
+
रह रह काँटों सी चुभती थी  
जग के वैभव खेल रहे थे <Br/>
+
राणा की आजादी॥4॥
मुगल–राज–थाती पर। <Br/>
+
 
फहर रहा था अकबर का <Br/>
+
कहा एक वासर अकबर ने –  
झण्डा नभ की छाती पर।।3।। <Br/><Br/>
+
"मान¸ उठा लो भाला¸  
यह प्रताप यह विभव मिला¸ <Br/>
+
शोलापुर को जीत पिन्हा दो¸  
पर एक मिला था वादी। <Br/>
+
मुझे विजय की माला॥5॥
रह रह कांटों सी चुभती थी <Br/>
+
 
राणा की आजादी।।4।। <Br/><Br/>
+
हय–गज–दल पैदल रथ ले लो  
कहा एक वासर अकबर ने – <Br/>
+
मुगल–प्रताप बढ़ा दो।  
"मान¸ उठा लो भाला¸ <Br/>
+
राणा से मिलकर उसको भी  
शोलापुर को जीत पिन्हा दो¸ <Br/>
+
अपना पाठ पढ़ा दो॥6॥
मुझे विजय की माला।।5।। <Br/><Br/>
+
 
हय–गज–दल पैदल रथ ले लो <Br/>
+
ऐसा कोई यत्न करो  
मुगल–प्रताप बढ़ा दो। <Br/>
+
बन्धन में कस लेने को।  
राणा से मिलकर उसको भी <Br/>
+
वही एक विषधर बैठा है  
अपना पाठ पढ़ा दो।।6।। <Br/><Br/>
+
मुझको डस लेने को"॥7॥
ऐसा कोई यत्न करो <Br/>
+
 
बन्धन में कस लेने को। <Br/>
+
मानसिंह ने कहा "आपका  
वही एक विषधर बैठा है <Br/>
+
हुकुम सदा सिर पर है।  
मुझको डस लेने को्"।।7।। <Br/><Br/>
+
बिना सफलता के न मान यह  
मानसिंह ने कहा –्"आपका <Br/>
+
आ सकता फिरकर है।"॥8॥
हुकुम सदा सिर पर है। <Br/>
+
 
बिना सफलता के न मान यह <Br/>
+
यह कहकर उठ गया गर्व से  
आ सकता फिरकर है।्"।।8।। <Br/><Br/>
+
झुककर मान जताया।  
यह कहकर उठ गया गर्व से <Br/>
+
सेना ले कोलाहल करता  
झुककर मान जताया। <Br/>
+
शोलापुर चढ़ आया॥9॥
सेना ले कोलाहल करता <Br/>
+
 
शोलापुर चढ़ आया।।9।। <Br/><Br/>
+
युद्ध ठानकर मानसिंह ने  
युद्ध ठानकर मानसिंह ने <Br/>
+
जीत लिया शोलापुर।  
जीत लिया शोलापुर। <Br/>
+
भरा विजय के अहँकार से  
भरा विजय के अहंकार से <Br/>
+
उस अभिमानी का उर॥10॥
उस अभिमानी का उर।।10।। <Br/><Br/>
+
 
किसे मौत दूं¸ किसे जिला दूं¸ <Br/>
+
किसे मौत दूँ¸ किसे जिला दूँ¸
किसका राज हिला दूं? <Br/>
+
किसका राज हिला दूँ?  
लगा सोचने किसे मींजकर <Br/>
+
लगा सोचने किसे मींजकर  
रज में आज मिला दूं।।11।। <Br/><Br/>
+
रज में आज मिला दूँ॥11॥
किसे हंसा दूं बिजली–सा मैं¸ <Br/>
+
 
घन–सा किसै रूला दूं? <Br/>
+
किसे हँसा दूँ बिजली–सा मैं¸  
कौन विरोधी है मेरा <Br/>
+
घन–सा किसै रूला दूँ?  
फांसी पर जिसे झुला दूं।।12।। <Br/><Br/>
+
कौन विरोधी है मेरा  
बनकर भिक्षुक दीन जन्म भर <Br/>
+
फांसी पर जिसे झुला दूँ॥12॥
किसे झेलना दुख है? <Br/>
+
 
रण करने की इच्छा से <Br/>
+
बनकर भिक्षुक दीन जन्म भर  
जो आ सकता सम्मुख है।।13।। <Br/><Br/>
+
किसे झेलना दुख है?  
कहते ही यह ठिठक गया¸ <Br/>
+
रण करने की इच्छा से  
फिर धीमे स्वर से बोला। <Br/>
+
जो आ सकता सम्मुख है॥13॥
शोलापुर के विजय–गर्व पर <Br/>
+
 
गिरा अचानक गोला।।14।। <Br/><Br/>
+
कहते ही यह ठिठक गया¸  
अहो अभी तो वीर–भूमि <Br/>
+
फिर धीमे स्वर से बोला।  
मेवाड़–केसरी खूनी। <Br/>
+
शोलापुर के विजय–गर्व पर  
गरज रहा है निर्भय मुझसे <Br/>
+
गिरा अचानक गोला॥14॥
लेकर ताकत दूनी।।15।। <Br/><Br/>
+
 
स्वतन्त्रता का वीर पुजारी <Br/>
+
अहो अभी तो वीर–भूमि  
संगर–मतवाला है। <Br/>
+
मेवाड़–केसरी खूनी।  
शत–शत असि के सम्मुख <Br/>
+
गरज रहा है निर्भय मुझसे  
उसका महाकाल भाला है।।16।। <Br/><Br/>
+
लेकर ताकत दूनी॥15॥
धन्य–धन्य है राजपूत वह <Br/>
+
 
उसका सिर न झुका है। <Br/>
+
स्वतन्त्रता का वीर पुजारी  
अब तक कोई अगर रूका तो <Br/>
+
संगर–मतवाला है।  
केवल वही रूका है।।17।। <Br/><Br/>
+
शत–शत असि के सम्मुख  
निज प्रताप–बल से प्रताप ने <Br/>
+
उसका महाकाल भाला है॥16॥
अपनी ज्योति जगा दी। <Br/>
+
 
हमने तो जो बुझ न सके¸ <Br/>
+
धन्य–धन्य है राजपूत वह  
कुछ ऐसी आग लगा दी।।18।। <Br/><Br/>
+
उसका सिर न झुका है।  
अहो जाति को तिलांजली दे <Br/>
+
अब तक कोई अगर रूका तो  
हुए भार हम भू के। <Br/>
+
केवल वही रूका है॥17॥
कहते ही यह ढुलक गये <Br/>
+
 
दो–चार बूंद आंसू के।।19।। <Br/><Br/>
+
निज प्रताप–बल से प्रताप ने  
किन्तु देर तक टिक न सका <Br/>
+
अपनी ज्योति जगा दी।  
अभिमान जाति का उर में। <Br/>
+
हमने तो जो बुझ न सके¸  
क्या विहंसेगा विटप¸ लगा है <Br/>
+
कुछ ऐसी आग लगा दी॥18॥
यदि कलंक अंकुर में।।20।। <Br/><Br/>
+
 
एक घड़ी तक मौन पुन: <Br/>
+
अहो जाति को तिलांजली दे  
कह उठा मान गरवीला– <Br/>
+
हुए भार हम भू के।  
देख काल भी डर सकता <Br/>
+
कहते ही यह ढुलक गये  
मेरी भीषण रण–लीला।।21।। <Br/><Br/>
+
दो–चार बूँद आँसू के॥19॥
वसुधा का कोना धरकर <Br/>
+
 
चाहूं तो विश्व हिला दूं। <Br/>
+
किन्तु देर तक टिक न सका  
गगन–मही का क्षितिज पकड़ <Br/>
+
अभिमान जाति का उर में।  
चाहूं तो अभी मिला दूं।।22।। <Br/><Br/>
+
क्या विहँसेगा विटप¸ लगा है  
राणा की क्या शक्ति उसे भी <Br/>
+
यदि कलंक अंकुर में॥20॥
रण की कला सिखा दूं। <Br/>
+
 
मृत्यु लड़े तो उसको भी <Br/>
+
एक घड़ी तक मौन पुन:  
अपने दो हाथ दिखा दूं।।23।। <Br/><Br/>
+
कह उठा मान गरवीला–  
पथ में ही मेवाड़ पड़ेगा <Br/>
+
देख काल भी डर सकता  
चलकर निश्चय कर लूं। <Br/>
+
मेरी भीषण रण–लीला॥21॥
मान रहा तो कुशल¸ नहीं तो <Br/>
+
 
संगर से जी भर लूं।।24।। <Br/><Br/>
+
वसुधा का कोना धरकर  
युद्ध महाराणा प्रताप से <Br/>
+
चाहूँ तो विश्व हिला दूँ।
मेरा मचा रहेगा। <Br/>
+
गगन–मही का क्षितिज पकड़  
मेरे जीते–जी कलंक से <Br/>
+
चाहूँ तो अभी मिला दूँ॥22॥
क्या वह बचा रहेगा?।।25।। <Br/><Br/>
+
 
मानी मान चला¸ सोचा <Br/>
+
राणा की क्या शक्ति उसे भी  
परिणाम न कुछ जाने का। <Br/>
+
रण की कला सिखा दूँ।
पास महाराणा के भेजा <Br/>
+
मृत्यु लड़े तो उसको भी  
समाचार आने का।।26।। <Br/><Br/>
+
अपने दो हाथ दिखा दूँ॥23॥
मानसिंह के आने का <Br/>
+
 
सन्देश उदयपुर आया। <Br/>
+
पथ में ही मेवाड़ पड़ेगा  
राणा ने भी अमरसिंह को <Br/>
+
चलकर निश्चय कर लूँ।
अपने पास बुलाया।।27।। <Br/><Br/>
+
मान रहा तो कुशल¸ नहीं तो  
कहा –्"पुत्र! मिलने आता है <Br/>
+
संगर से जी भर लूँ॥24॥
मानसिंह अभिमानी। <Br/>
+
 
छल है¸ तो भी मान करो <Br/>
+
युद्ध महाराणा प्रताप से  
लेकर लोटा भर पानी।।28।। <Br/><Br/>
+
मेरा मचा रहेगा।  
किसी बात की कमी न हो <Br/>
+
मेरे जीते–जी कलंक से  
रह जाये आन हमारी। <Br/>
+
क्या वह बचा रहेगा?॥25॥
पुत्र! मान के स्वागत की <Br/>
+
 
तुम ऐसी करो तयारी्"।।29।। <Br/><Br/>
+
मानी मान चला¸ सोचा  
मान लिया आदेश¸ स्वर्ण से <Br/>
+
परिणाम न कुछ जाने का।  
सजे गये दरवाजे। <Br/>
+
पास महाराणा के भेजा  
मान मान के लिये मधुर <Br/>
+
समाचार आने का॥26॥
बाजे मधुर–रव से बाजे।।30।। <Br/><Br/>
+
 
जगह जगह पर सजे गये <Br/>
+
मानसिंह के आने का  
फाटक सुन्दर सोने के। <Br/>
+
सन्देश उदयपुर आया।  
बन्दनवारों से हंसते थे <Br/>
+
राणा ने भी अमरसिंह को  
घर कोने कोने के।।31।। <Br/><Br/>
+
अपने पास बुलाया॥27॥
जगमग जगमग ज्योति उठी जल¸ <Br/>
+
 
व्याकुल दरबारी–जन¸ <Br/>
+
कहा "पुत्र! मिलने आता है  
नव गुलाब–वासित पानी से <Br/>
+
मानसिंह अभिमानी।  
किया गया पथ–सिंचन।।32।। <Br/><Br/>
+
छल है¸ तो भी मान करो  
शीतल–जल–पूरित कंचन के <Br/>
+
लेकर लोटा भर पानी॥28॥
कलसे थे द्वारों पर। <Br/>
+
 
चम–चम पानी चमक रहा था <Br/>
+
किसी बात की कमी न हो  
तीखी तलवारों पर।।33।। <Br/><Br/>
+
रह जाये आन हमारी।  
उदयसिंधु के नीचे भी <Br/>
+
पुत्र! मान के स्वागत की  
बाहर की शोभा छाई। <Br/>
+
तुम ऐसी करो तैयारी"॥29॥
हृदय खोलकर उसने भी <Br/>
+
 
अपनी श्रद्धा दिखलाई।।34।। <Br/><Br/>
+
मान लिया आदेश¸ स्वर्ण से  
किया अमर ने धूमधाम से <Br/>
+
सजे गये दरवाजे।  
मानसिंह का स्वागत। <Br/>
+
मान मान के लिये मधुर  
मधुर–मधुर सुरभित गजरों के <Br/>
+
बाजे मधुर–रव से बाजे॥30॥
बोझे से वह था नत।।35।। <Br/><Br/>
+
 
कहा देखकर अमरसिंह का <Br/>
+
जगह जगह पर सजे गये  
विकल प्रेम अपने मन में। <Br/>
+
फाटक सुन्दर सोने के।  
होगा यह सम्मान मुझे <Br/>
+
बन्दनवारों से हँसते थे  
विश्वास न था सपने में।।36।। <Br/><Br/>
+
घर कोने कोने के॥31॥
शत–शत तुमको धन्यवाद है¸ <Br/>
+
 
सुखी रहो जीवन भर। <Br/>
+
जगमग जगमग ज्योति उठी जल¸  
झरें शीश पर सुमन–सुयश के <Br/>
+
व्याकुल दरबारी–जन¸  
अम्बर–तल से झर–झर।।37।। <Br/><Br/>
+
नव गुलाब–वासित पानी से  
धन्यवाद स्वीकार किया¸ <Br/>
+
किया गया पथ–सिंचन॥32॥
कर जोड़ पुन: वह बोला। <Br/>
+
 
भावी भीषण रण का <Br/>
+
शीतल–जल–पूरित कंचन के  
दरवाजा धीरे से खोला –।।38।। <Br/><Br/>
+
कलसे थे द्वारों पर।  
समय हो गया भूख लगी है¸ <Br/>
+
चम–चम पानी चमक रहा था  
चलकर भोजन कर लें। <Br/>
+
तीखी तलवारों पर॥33॥
थके हुए हैं ये मृदु पद <Br/>
+
 
जल से इनको तर कर लें।्"।।39।। <Br/><Br/>
+
उदयसिंधु के नीचे भी  
सुनकर विनय उठा केवल रख <Br/>
+
बाहर की शोभा छाई।  
पट रेशम का तन पर। <Br/>
+
हृदय खोलकर उसने भी  
धोकर पद भोजन करने को <Br/>
+
अपनी श्रद्धा दिखलाई॥34॥
बैठ गया आसन पर।।40।। <Br/><Br/>
+
 
देखे मधु पदार्थ पन्ने की <Br/>
+
किया अमर ने धूमधाम से  
मृदु प्याली प्याली में। <Br/>
+
मानसिंह का स्वागत।  
चावल के सामान मनोहर <Br/>
+
मधुर–मधुर सुरभित गजरों के  
सोने की थाली में।।41।। <Br/><Br/>
+
बोझे से वह था नत॥35॥
घी से सनी सजी रोटी थी¸ <Br/>
+
 
रत्नों के बरतन में। <Br/>
+
कहा देखकर अमरसिंह का  
शाक खीर नमकीन मधुर¸ <Br/>
+
विकल प्रेम अपने मन में।  
चटनी चमचम कंचन में।।42।। <Br/><Br/>
+
होगा यह सम्मान मुझे  
मोती झालर से रक्षित¸ <Br/>
+
विश्वास न था सपने में॥36॥
रसदार लाल थाली में। <Br/>
+
 
एक ओर मीठे फल थे¸ <Br/>
+
शत–शत तुमको धन्यवाद है¸  
मणि–तारों की डाली में।।43।। <Br/><Br/>
+
सुखी रहो जीवन भर।  
तरह–तरह के खाद्य–कलित¸ <Br/>
+
झरें शीश पर सुमन–सुयश के  
चांदी के नये कटोरे <Br/>
+
अम्बर–तल से झर–झर॥37॥
भरे खराये घी से देखे¸ <Br/>
+
 
नीलम के नव खोरे।।44।। <Br/><Br/>
+
धन्यवाद स्वीकार किया¸  
पर न वहां भी राणा था <Br/>
+
कर जोड़ पुन: वह बोला।  
बस ताड़ गया वह मानी। <Br/>
+
भावी भीषण रण का  
रहा गया जब उसे न तब वह <Br/>
+
दरवाजा धीरे से खोला –॥38॥
बोल उठा अभिमानी।।45।। <Br/><Br/>
+
 
"अमरसिंह¸ भोजन का तो <Br/>
+
समय हो गया भूख लगी है¸  
सामान सभी सम्मुख है। <Br/>
+
चलकर भोजन कर लें।  
पर प्रताप का पता नहीं है <Br/>
+
थके हुए हैं ये मृदु पद  
एक यही अब दुख है।।46।। <Br/><Br/>
+
जल से इनको तर कर लें।"॥39॥
मान करो पर मानसिंह का <Br/>
+
 
मान अधूरा होगा। <Br/>
+
सुनकर विनय उठा केवल रख  
बिना महाराणा के यह <Br/>
+
पट रेशम का तन पर।  
आतिथ्य न पूरा होगा।।47।। <Br/><Br/>
+
धोकर पद भोजन करने को  
जब तक भोजन वह न करेंगे <Br/>
+
बैठ गया आसन पर॥40॥
एक साथ आसन पर; <Br/>
+
 
तब तक कभी न हो सकता है <Br/>
+
देखे मधु पदार्थ पन्ने की  
मानसिंह का आदर।।48।। <Br/><Br/>
+
मृदु प्याली प्याली में।  
अमरसिंह¸ इसलिए उठो तुम <Br/>
+
चावल के सामान मनोहर  
जाओ मिलो पिता से; <Br/>
+
सोने की थाली में॥41॥
मेरा यह सन्देश कहो <Br/>
+
 
मेवाड़–गगन–सविता से।।49।। <Br/><Br/>
+
घी से सनी सजी रोटी थी¸  
बिना आपके वह न ठहर पर <Br/>
+
रत्नों के बरतन में।  
ठहर सकेंगे क्षण भी। <Br/>
+
शाक खीर नमकीन मधुर¸  
छू सकते हैं नहीं हाथ से¸ <Br/>
+
चटनी चमचम कंचन में॥42॥
चावल का लघु कण भी।्"।।50।। <Br/><Br/>
+
 
अहो¸ विपत्ति में देश पड़ेगा <Br/>
+
मोती झालर से रक्षित¸  
इसी भयानक तिथि से। <Br/>
+
रसदार लाल थाली में।  
गया लौटकर अमरसिंह फिर <Br/>
+
एक ओर मीठे फल थे¸  
आया कहा अतिथि से।।51।। <Br/><Br/>
+
मणि–तारों की डाली में॥43॥
"मैं सेवा के लिए आपकी <Br/>
+
 
तन–मन–धन से आकुल। <Br/>
+
तरह–तरह के खाद्य–कलित¸  
प्रभो¸ करें भोजन¸ वह हैं <Br/>
+
चांदी के नये कटोरे  
सिर की पीड़ा से व्याकुल।्"।।51।। <Br/><Br/>
+
भरे खराये घी से देखे¸  
पथ प्रताप का देख रहा था¸ <Br/>
+
नीलम के नव खोरे॥44॥
प्रेम न था रोटी में। <Br/>
+
 
सुनते ही वह कांप गया¸ <Br/>
+
पर न वहां भी राणा था  
लग गई आग चोटी में।।53।। <Br/><Br/>
+
बस ताड़ गया वह मानी।  
घोर अवज्ञा से ज्वाला सी¸ <Br/>
+
रहा गया जब उसे न तब वह  
लगी दहकने त्रिकुटी। <Br/>
+
बोल उठा अभिमानी॥45॥
अधिक क्रोध से वक्र हो गई¸ <Br/>
+
 
मानसिंह की भृकुटी।।54।। <Br/><Br/>
+
"अमरसिंह¸ भोजन का तो  
चावल–कण दो–एक बांधकर <Br/>
+
सामान सभी सम्मुख है।  
गरज उठा बादल सा। <Br/>
+
पर प्रताप का पता नहीं है  
मानो भीषण क्रोध–वह्नि से¸ <Br/>
+
एक यही अब दुख है॥46॥
गया अचानक जल सा।।55।। <Br/><Br/>
+
 
"कुशल नहीं¸ राणा प्रताप का <Br/>
+
मान करो पर मानसिंह का  
मस्तक की पीड़ा से। <Br/>
+
मान अधूरा होगा।  
थहर उठेगा अब भूतल <Br/>
+
बिना महाराणा के यह  
रण–चण्डी की क्रीड़ा से।।56।। <Br/><Br/>
+
आतिथ्य न पूरा होगा॥47॥
जिस प्रताप की स्वतन्त्रता के <Br/>
+
 
गौरव की रक्षा की। <Br/>
+
जब तक भोजन वह न करेंगे  
खेद यही है वही मान का <Br/>
+
एक साथ आसन पर;  
कुछ रख सका न बाकी।।57।। <Br/><Br/>
+
तब तक कभी न हो सकता है  
बिना हेतु के होगा ही वह <Br/>
+
मानसिंह का आदर॥48॥
जो कुछ बदा रहेगा। <Br/>
+
 
किन्तु महाराणा प्रताप अब <Br/>
+
अमरसिंह¸ इसलिए उठो तुम  
रोता सदा रहेगा।।58।। <Br/><Br/>
+
जाओ मिलो पिता से;  
मान रहेगा तभी मान का <Br/>
+
मेरा यह सन्देश कहो  
हाला घोल उठे जब। <Br/>
+
मेवाड़–गगन–सविता से॥49॥
डग–डग–डग ब्रह्माण्ड चराचर <Br/>
+
 
भय से डोल उठे जब।्"।।59।। <Br/><Br/>
+
बिना आपके वह न ठहर पर  
चकाचौंध सी लगी मान को <Br/>
+
ठहर सकेंगे क्षण भी।  
राणा की मुख–भा से। <Br/>
+
छू सकते हैं नहीं हाथ से¸  
अहंकार की बातें सुन <Br/>
+
चावल का लघु कण भी।"॥50॥
जब निकला सिंह गुफा से।।60।। <Br/><Br/>
+
 
दक्षिण–पद–कर आगे कर <Br/>
+
अहो¸ विपत्ति में देश पड़ेगा  
तर्जनी उठाकर बोला। <Br/>
+
इसी भयानक तिथि से।  
गिरने लगा मान–छाती पर <Br/>
+
गया लौटकर अमरसिंह फिर  
गरज–गरज कर गोला।।61।। <Br/><Br/>
+
आया कहा अतिथि से॥51॥
वज`–नाद सा तड़प उठा <Br/>
+
 
हलचल थी मरदानों में। <Br/>
+
"मैं सेवा के लिए आपकी  
पहुंच गया राणा का वह रव <Br/>
+
तन–मन–धन से आकुल।  
अकबर के कानों में।।62।। <Br/><Br/>
+
प्रभो¸ करें भोजन¸ वह हैं  
"अरे तुर्क¸ बकवाद करो मत <Br/>
+
सिर की पीड़ा से व्याकुल।"॥51॥
खाना हो तो खाओ। <Br/>
+
 
या बधना का ही शीतल–जल <Br/>
+
पथ प्रताप का देख रहा था¸  
पीना हो तो जाओ।।63।। <Br/><Br/>
+
प्रेम न था रोटी में।  
जो रण को ललकार रहे हो <Br/>
+
सुनते ही वह काँप गया¸  
तो आकर लड़ लेना। <Br/>
+
लग गई आग चोटी में॥53॥
चढ़ आना यदि चाह रहे <Br/>
+
 
चित्तौड़ वीर–गढ़ लेना।।64।। <Br/><Br/>
+
घोर अवज्ञा से ज्वाला सी¸  
कहां रहे जब स्वतन्त्रता का <Br/>
+
लगी दहकने त्रिकुटी।  
मेरा बिगुल बजा था? <Br/>
+
अधिक क्रोध से वक्र हो गई¸  
जाति–धर्म के मुझ रक्षक को <Br/>
+
मानसिंह की भृकुटी॥54॥
तुमने क्या समझा था।।65।। <Br/><Br/>
+
 
अभी कहूं क्या¸ प्रश्नों का <Br/>
+
चावल–कण दो–एक बांधकर  
रण में क्या उत्तर दूंगा। <Br/>
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गरज उठा बादल सा।  
महामृत्यु के साथ–साथ <Br/>
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मानो भीषण क्रोध–वह्नि से¸  
जब इधर–उधर लहरूंगा।।66।। <Br/><Br/>
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गया अचानक जल सा॥55॥
भभक उठेगी जब प्रताप के <Br/>
+
 
प्रखर तेज की आगी। <Br/>
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"कुशल नहीं¸ राणा प्रताप का  
तब क्या हूं बतला दूंगा <Br/>
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मस्तक की पीड़ा से।  
ऐ अम्बर कुल के त्यागी।्"।।67।। <Br/><Br/>
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थहर उठेगा अब भूतल  
अभी मान से राणा से था <Br/>
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रण–चण्डी की क्रीड़ा से॥56॥
वाद–विवाद लगा ही¸ <Br/>
+
 
तब तक आगे बढ़कर बोला <Br/>
+
जिस प्रताप की स्वतन्त्रता के  
कोई वीर–सिपाही।।68।। <Br/><Br/>
+
गौरव की रक्षा की।  
"करो न बकझक लड़कर ही <Br/>
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खेद यही है वही मान का  
अब साहस दिखलाना तुम; <Br/>
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कुछ रख सका न बाकी॥57॥
भगो¸ भगो¸ अपने फूफे को <Br/>
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भी लेते आना तुम।्"।।69।। <Br/><Br/>
+
बिना हेतु के होगा ही वह  
महा महा अपमान देखकर <Br/>
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जो कुछ बदा रहेगा।  
बढ़ी क्रोध की ज्वाला। <Br/>
+
किन्तु महाराणा प्रताप अब  
मान कड़ककर बोल उठा फिर <Br/>
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रोता सदा रहेगा॥58॥
पहन अiर्च की माला–।।70।। <Br/><Br/>
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"मानसिंह की आज अवज्ञा <Br/>
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मान रहेगा तभी मान का  
कर लो और करा लो; <Br/>
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हाला घोल उठे जब।  
बिना विजय के ऐ प्रताप <Br/>
+
डग–डग–डग ब्रह्माण्ड चराचर  
तुम¸ विजय–केतु फहरा लो।।71।। <Br/><Br/>
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भय से डोल उठे जब।"॥59॥
पर इसका मैं बदल लूंगा¸ <Br/>
+
 
अभी चन्द दिवसों में; <Br/>
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चकाचौंध सी लगी मान को  
झुक जाओगे भर दूंगा जब <Br/>
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राणा की मुख–भा से।  
जलती ज्वाल नसों में।।72।। <Br/><Br/>
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अहँकार की बातें सुन  
ऐ प्रताप¸ तुम सजग रहो <Br/>
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जब निकला सिंह गुफा से॥60॥
अब मेरी ललकारों से; <Br/>
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अकबर के विकराल क्रोध से¸ <Br/>
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दक्षिण–पद–कर आगे कर  
तीखी तलवारों से।।73।। <Br/><Br/>
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तर्जनी उठाकर बोला।  
ऐ प्रताप¸ तैयार रहो मिटने <Br/>
+
गिरने लगा मान–छाती पर  
के लिए रणों में; <Br/>
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गरज–गरज कर गोला॥61॥
हाथों में हथकड़ी पहनकर <Br/>
+
 
बेड़ी निज चरणों में।।74।। <Br/><Br/>
+
वज`–नाद सा तड़प उठा  
मानसिंह–दल बन जायेगा <Br/>
+
हलचल थी मरदानों में।  
जब भीषण रण–पागल। <Br/>
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पहुंच गया राणा का वह रव  
ऐ प्रताप¸ तुम झुक जाओगे <Br/>
+
अकबर के कानों में॥62॥
झुक जायेगा सेना–बल।।75।। <Br/><Br/>
+
 
ऐ प्रताप¸ तुम सिहर उठो <Br/>
+
"अरे तुर्क¸ बकवाद करो मत  
सांपिन सी करवालों से; <Br/>
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खाना हो तो खाओ।  
ऐ प्रताप¸ तुम भभर उठो <Br/>
+
या बधना का ही शीतल–जल  
तीखे–तीखे भालों से।।76।। <Br/><Br/>
+
पीना हो तो जाओ॥63॥
"गिनो मृत्यु के दिन्" कहकर <Br/>
+
 
घोड़े को सरपट छोड़ा¸ <Br/>
+
जो रण को ललकार रहे हो  
पहुंच गया दिल्ली उड़ता वह <Br/>
+
तो आकर लड़ लेना।  
वायु–वेग से घोड़ा।।77।। <Br/><Br/>
+
चढ़ आना यदि चाह रहे  
इधर महाराणा प्रताप ने <Br/>
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चित्तौड़ वीर–गढ़ लेना॥64॥
सारा घर खुदवाया। <Br/>
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धर्म–भीरू ने बार–बार <Br/>
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कहाँ रहे जब स्वतन्त्रता का  
गंगा–जल से धुलवाया।।78।। <Br/><Br/>
+
मेरा बिगुल बजा था?  
उतर गया पानी¸ प्यासा था¸ <Br/>
+
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तो भी पिया न पानी। <Br/>
+
तुमने क्या समझा था॥65॥
उदय–सिन्धु था निकट डर गया <Br/>
+
 
अपना दिया न पानी।।79।। <Br/><Br/>
+
अभी कहूँ क्या¸ प्रश्नों का  
राणा द्वारा मानसिंह का <Br/>
+
रण में क्या उत्तर दूँगा।
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महामृत्यु के साथ–साथ  
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+
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+
 
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तब तक आगे बढ़कर बोला  
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कोई वीर–सिपाही॥68॥
 +
 
 +
"करो न बकझक लड़कर ही  
 +
अब साहस दिखलाना तुम;  
 +
भगो¸ भगो¸ अपने फूफे को  
 +
भी लेते आना तुम।"॥69॥
 +
 
 +
महा महा अपमान देखकर  
 +
बढ़ी क्रोध की ज्वाला।  
 +
मान कड़ककर बोल उठा फिर  
 +
पहन अiर्च की माला–॥70॥
 +
 
 +
"मानसिंह की आज अवज्ञा  
 +
कर लो और करा लो;  
 +
बिना विजय के ऐ प्रताप  
 +
तुम¸ विजय–केतु फहरा लो॥71॥
 +
 
 +
पर इसका मैं बदल लूँगा¸
 +
अभी चन्द दिवसों में;  
 +
झुक जाओगे भर दूँगा जब  
 +
जलती ज्वाल नसों में॥72॥
 +
 
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ऐ प्रताप¸ तुम सजग रहो  
 +
अब मेरी ललकारों से;  
 +
अकबर के विकराल क्रोध से¸  
 +
तीखी तलवारों से॥73॥
 +
 
 +
ऐ प्रताप¸ तैयार रहो मिटने  
 +
के लिए रणों में;  
 +
हाथों में हथकड़ी पहनकर  
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बेड़ी निज चरणों में॥74॥
 +
 
 +
मानसिंह–दल बन जायेगा  
 +
जब भीषण रण–पागल।  
 +
ऐ प्रताप¸ तुम झुक जाओगे  
 +
झुक जायेगा सेना–बल॥75॥
 +
 
 +
ऐ प्रताप¸ तुम सिहर उठो  
 +
सांपिन सी करवालों से;  
 +
ऐ प्रताप¸ तुम भभर उठो  
 +
तीखे–तीखे भालों से॥76॥
 +
 
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"गिनो मृत्यु के दिन्" कहकर  
 +
घोड़े को सरपट छोड़ा¸  
 +
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 +
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 +
 
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इधर महाराणा प्रताप ने  
 +
सारा घर खुदवाया।  
 +
धर्म–भीरू ने बार–बार  
 +
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 +
 
 +
उतर गया पानी¸ प्यासा था¸  
 +
तो भी पिया न पानी।  
 +
उदय–सिन्धु था निकट डर गया  
 +
अपना दिया न पानी॥79॥
 +
 
 +
राणा द्वारा मानसिंह का  
 +
यह जो मान–हरण था।  
 +
हल्दीघाटी के होने का  
 +
यही मुख्य कारण था॥80॥
 +
 
 +
लगी सुलगने आग समर की  
 +
भीषण आग लगेगी।  
 +
प्यासी है अब वीर–रक्त से  
 +
माँ की प्यास बुझेगी॥81॥
 +
 
 +
स्वतन्त्रता का कवच पहन  
 +
विश्वास जमाकर भाला में।  
 +
कूद पड़ा राणा प्रताप उस  
 +
समर–वह्नि की ज्वाला में॥82॥
 +
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09:41, 12 अगस्त 2016 के समय का अवतरण

पंचम सर्ग: सगवक्ष

भरा रहता अकबर का
सुरभित जय–माला से।
सारा भारत भभक रहा था
क्रोधानल–ज्वाला से॥1॥

रत्न–जटित मणि–सिंहासन था
मण्डित रणधीरों से।
उसका पद जगमगा रहा था
राजमुकुट–हीरों से॥2॥

जग के वैभव खेल रहे थे
मुगल–राज–थाती पर।
फहर रहा था अकबर का
झण्डा नभ की छाती पर॥3॥

यह प्रताप यह विभव मिला¸
पर एक मिला था वादी।
रह रह काँटों सी चुभती थी
राणा की आजादी॥4॥

कहा एक वासर अकबर ने –
"मान¸ उठा लो भाला¸
शोलापुर को जीत पिन्हा दो¸
मुझे विजय की माला॥5॥

हय–गज–दल पैदल रथ ले लो
मुगल–प्रताप बढ़ा दो।
राणा से मिलकर उसको भी
अपना पाठ पढ़ा दो॥6॥

ऐसा कोई यत्न करो
बन्धन में कस लेने को।
वही एक विषधर बैठा है
मुझको डस लेने को"॥7॥

मानसिंह ने कहा –"आपका
हुकुम सदा सिर पर है।
बिना सफलता के न मान यह
आ सकता फिरकर है।"॥8॥

यह कहकर उठ गया गर्व से
झुककर मान जताया।
सेना ले कोलाहल करता
शोलापुर चढ़ आया॥9॥

युद्ध ठानकर मानसिंह ने
जीत लिया शोलापुर।
भरा विजय के अहँकार से
उस अभिमानी का उर॥10॥

किसे मौत दूँ¸ किसे जिला दूँ¸
किसका राज हिला दूँ?
लगा सोचने किसे मींजकर
रज में आज मिला दूँ॥11॥

किसे हँसा दूँ बिजली–सा मैं¸
घन–सा किसै रूला दूँ?
कौन विरोधी है मेरा
फांसी पर जिसे झुला दूँ॥12॥

बनकर भिक्षुक दीन जन्म भर
किसे झेलना दुख है?
रण करने की इच्छा से
जो आ सकता सम्मुख है॥13॥

कहते ही यह ठिठक गया¸
फिर धीमे स्वर से बोला।
शोलापुर के विजय–गर्व पर
गिरा अचानक गोला॥14॥

अहो अभी तो वीर–भूमि
मेवाड़–केसरी खूनी।
गरज रहा है निर्भय मुझसे
लेकर ताकत दूनी॥15॥

स्वतन्त्रता का वीर पुजारी
संगर–मतवाला है।
शत–शत असि के सम्मुख
उसका महाकाल भाला है॥16॥

धन्य–धन्य है राजपूत वह
उसका सिर न झुका है।
अब तक कोई अगर रूका तो
केवल वही रूका है॥17॥

निज प्रताप–बल से प्रताप ने
अपनी ज्योति जगा दी।
हमने तो जो बुझ न सके¸
कुछ ऐसी आग लगा दी॥18॥

अहो जाति को तिलांजली दे
हुए भार हम भू के।
कहते ही यह ढुलक गये
दो–चार बूँद आँसू के॥19॥

किन्तु देर तक टिक न सका
अभिमान जाति का उर में।
क्या विहँसेगा विटप¸ लगा है
यदि कलंक अंकुर में॥20॥

एक घड़ी तक मौन पुन:
कह उठा मान गरवीला–
देख काल भी डर सकता
मेरी भीषण रण–लीला॥21॥

वसुधा का कोना धरकर
चाहूँ तो विश्व हिला दूँ।
गगन–मही का क्षितिज पकड़
चाहूँ तो अभी मिला दूँ॥22॥

राणा की क्या शक्ति उसे भी
रण की कला सिखा दूँ।
मृत्यु लड़े तो उसको भी
अपने दो हाथ दिखा दूँ॥23॥

पथ में ही मेवाड़ पड़ेगा
चलकर निश्चय कर लूँ।
मान रहा तो कुशल¸ नहीं तो
संगर से जी भर लूँ॥24॥

युद्ध महाराणा प्रताप से
मेरा मचा रहेगा।
मेरे जीते–जी कलंक से
क्या वह बचा रहेगा?॥25॥

मानी मान चला¸ सोचा
परिणाम न कुछ जाने का।
पास महाराणा के भेजा
समाचार आने का॥26॥

मानसिंह के आने का
सन्देश उदयपुर आया।
राणा ने भी अमरसिंह को
अपने पास बुलाया॥27॥

कहा –"पुत्र! मिलने आता है
मानसिंह अभिमानी।
छल है¸ तो भी मान करो
लेकर लोटा भर पानी॥28॥

किसी बात की कमी न हो
रह जाये आन हमारी।
पुत्र! मान के स्वागत की
तुम ऐसी करो तैयारी"॥29॥

मान लिया आदेश¸ स्वर्ण से
सजे गये दरवाजे।
मान मान के लिये मधुर
बाजे मधुर–रव से बाजे॥30॥

जगह जगह पर सजे गये
फाटक सुन्दर सोने के।
बन्दनवारों से हँसते थे
घर कोने कोने के॥31॥

जगमग जगमग ज्योति उठी जल¸
व्याकुल दरबारी–जन¸
नव गुलाब–वासित पानी से
किया गया पथ–सिंचन॥32॥

शीतल–जल–पूरित कंचन के
कलसे थे द्वारों पर।
चम–चम पानी चमक रहा था
तीखी तलवारों पर॥33॥

उदयसिंधु के नीचे भी
बाहर की शोभा छाई।
हृदय खोलकर उसने भी
अपनी श्रद्धा दिखलाई॥34॥

किया अमर ने धूमधाम से
मानसिंह का स्वागत।
मधुर–मधुर सुरभित गजरों के
बोझे से वह था नत॥35॥

कहा देखकर अमरसिंह का
विकल प्रेम अपने मन में।
होगा यह सम्मान मुझे
विश्वास न था सपने में॥36॥

शत–शत तुमको धन्यवाद है¸
सुखी रहो जीवन भर।
झरें शीश पर सुमन–सुयश के
अम्बर–तल से झर–झर॥37॥

धन्यवाद स्वीकार किया¸
कर जोड़ पुन: वह बोला।
भावी भीषण रण का
दरवाजा धीरे से खोला –॥38॥

समय हो गया भूख लगी है¸
चलकर भोजन कर लें।
थके हुए हैं ये मृदु पद
जल से इनको तर कर लें।"॥39॥

सुनकर विनय उठा केवल रख
पट रेशम का तन पर।
धोकर पद भोजन करने को
बैठ गया आसन पर॥40॥

देखे मधु पदार्थ पन्ने की
मृदु प्याली प्याली में।
चावल के सामान मनोहर
सोने की थाली में॥41॥

घी से सनी सजी रोटी थी¸
रत्नों के बरतन में।
शाक खीर नमकीन मधुर¸
चटनी चमचम कंचन में॥42॥

मोती झालर से रक्षित¸
रसदार लाल थाली में।
एक ओर मीठे फल थे¸
मणि–तारों की डाली में॥43॥

तरह–तरह के खाद्य–कलित¸
चांदी के नये कटोरे
भरे खराये घी से देखे¸
नीलम के नव खोरे॥44॥

पर न वहां भी राणा था
बस ताड़ गया वह मानी।
रहा गया जब उसे न तब वह
बोल उठा अभिमानी॥45॥

"अमरसिंह¸ भोजन का तो
सामान सभी सम्मुख है।
पर प्रताप का पता नहीं है
एक यही अब दुख है॥46॥

मान करो पर मानसिंह का
मान अधूरा होगा।
बिना महाराणा के यह
आतिथ्य न पूरा होगा॥47॥

जब तक भोजन वह न करेंगे
एक साथ आसन पर;
तब तक कभी न हो सकता है
मानसिंह का आदर॥48॥

अमरसिंह¸ इसलिए उठो तुम
जाओ मिलो पिता से;
मेरा यह सन्देश कहो
मेवाड़–गगन–सविता से॥49॥

बिना आपके वह न ठहर पर
ठहर सकेंगे क्षण भी।
छू सकते हैं नहीं हाथ से¸
चावल का लघु कण भी।"॥50॥

अहो¸ विपत्ति में देश पड़ेगा
इसी भयानक तिथि से।
गया लौटकर अमरसिंह फिर
आया कहा अतिथि से॥51॥

"मैं सेवा के लिए आपकी
तन–मन–धन से आकुल।
प्रभो¸ करें भोजन¸ वह हैं
सिर की पीड़ा से व्याकुल।"॥51॥

पथ प्रताप का देख रहा था¸
प्रेम न था रोटी में।
सुनते ही वह काँप गया¸
लग गई आग चोटी में॥53॥

घोर अवज्ञा से ज्वाला सी¸
लगी दहकने त्रिकुटी।
अधिक क्रोध से वक्र हो गई¸
मानसिंह की भृकुटी॥54॥

चावल–कण दो–एक बांधकर
गरज उठा बादल सा।
मानो भीषण क्रोध–वह्नि से¸
गया अचानक जल सा॥55॥

"कुशल नहीं¸ राणा प्रताप का
मस्तक की पीड़ा से।
थहर उठेगा अब भूतल
रण–चण्डी की क्रीड़ा से॥56॥

जिस प्रताप की स्वतन्त्रता के
गौरव की रक्षा की।
खेद यही है वही मान का
कुछ रख सका न बाकी॥57॥

बिना हेतु के होगा ही वह
जो कुछ बदा रहेगा।
किन्तु महाराणा प्रताप अब
रोता सदा रहेगा॥58॥

मान रहेगा तभी मान का
हाला घोल उठे जब।
डग–डग–डग ब्रह्माण्ड चराचर
भय से डोल उठे जब।"॥59॥

चकाचौंध सी लगी मान को
राणा की मुख–भा से।
अहँकार की बातें सुन
जब निकला सिंह गुफा से॥60॥

दक्षिण–पद–कर आगे कर
तर्जनी उठाकर बोला।
गिरने लगा मान–छाती पर
गरज–गरज कर गोला॥61॥

वज`–नाद सा तड़प उठा
हलचल थी मरदानों में।
पहुंच गया राणा का वह रव
अकबर के कानों में॥62॥

"अरे तुर्क¸ बकवाद करो मत
खाना हो तो खाओ।
या बधना का ही शीतल–जल
पीना हो तो जाओ॥63॥

जो रण को ललकार रहे हो
तो आकर लड़ लेना।
चढ़ आना यदि चाह रहे
चित्तौड़ वीर–गढ़ लेना॥64॥

कहाँ रहे जब स्वतन्त्रता का
मेरा बिगुल बजा था?
जाति–धर्म के मुझ रक्षक को
तुमने क्या समझा था॥65॥

अभी कहूँ क्या¸ प्रश्नों का
रण में क्या उत्तर दूँगा।
महामृत्यु के साथ–साथ
जब इधर–उधर लहरूंगा॥66॥

भभक उठेगी जब प्रताप के
प्रखर तेज की आगी।
तब क्या हूँ बतला दूँगा
ऐ अम्बर कुल के त्यागी।"॥67॥

अभी मान से राणा से था
वाद–विवाद लगा ही¸
तब तक आगे बढ़कर बोला
कोई वीर–सिपाही॥68॥

"करो न बकझक लड़कर ही
अब साहस दिखलाना तुम;
भगो¸ भगो¸ अपने फूफे को
भी लेते आना तुम।"॥69॥

महा महा अपमान देखकर
बढ़ी क्रोध की ज्वाला।
मान कड़ककर बोल उठा फिर
पहन अiर्च की माला–॥70॥

"मानसिंह की आज अवज्ञा
कर लो और करा लो;
बिना विजय के ऐ प्रताप
तुम¸ विजय–केतु फहरा लो॥71॥

पर इसका मैं बदल लूँगा¸
अभी चन्द दिवसों में;
झुक जाओगे भर दूँगा जब
जलती ज्वाल नसों में॥72॥

ऐ प्रताप¸ तुम सजग रहो
अब मेरी ललकारों से;
अकबर के विकराल क्रोध से¸
तीखी तलवारों से॥73॥

ऐ प्रताप¸ तैयार रहो मिटने
के लिए रणों में;
हाथों में हथकड़ी पहनकर
बेड़ी निज चरणों में॥74॥

मानसिंह–दल बन जायेगा
जब भीषण रण–पागल।
ऐ प्रताप¸ तुम झुक जाओगे
झुक जायेगा सेना–बल॥75॥

ऐ प्रताप¸ तुम सिहर उठो
सांपिन सी करवालों से;
ऐ प्रताप¸ तुम भभर उठो
तीखे–तीखे भालों से॥76॥

"गिनो मृत्यु के दिन्" कहकर
घोड़े को सरपट छोड़ा¸
पहुंच गया दिल्ली उड़ता वह
वायु–वेग से घोड़ा॥77॥

इधर महाराणा प्रताप ने
सारा घर खुदवाया।
धर्म–भीरू ने बार–बार
गंगा–जल से धुलवाया॥78॥

उतर गया पानी¸ प्यासा था¸
तो भी पिया न पानी।
उदय–सिन्धु था निकट डर गया
अपना दिया न पानी॥79॥

राणा द्वारा मानसिंह का
यह जो मान–हरण था।
हल्दीघाटी के होने का
यही मुख्य कारण था॥80॥

लगी सुलगने आग समर की
भीषण आग लगेगी।
प्यासी है अब वीर–रक्त से
माँ की प्यास बुझेगी॥81॥

स्वतन्त्रता का कवच पहन
विश्वास जमाकर भाला में।
कूद पड़ा राणा प्रताप उस
समर–वह्नि की ज्वाला में॥82॥