"हल्दीघाटी / षष्ठ सर्ग / श्यामनारायण पाण्डेय" के अवतरणों में अंतर
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) |
Sharda suman (चर्चा | योगदान) |
||
| (एक अन्य सदस्य द्वारा किया गया बीच का एक अवतरण नहीं दर्शाया गया) | |||
| पंक्ति 1: | पंक्ति 1: | ||
| − | रचनाकार | + | {{KKGlobal}} |
| − | + | {{KKRachna | |
| − | + | |रचनाकार=श्यामनारायण पाण्डेय}} | |
| + | {{KKPageNavigation | ||
| + | |पीछे=हल्दीघाटी / पंचम सर्ग / श्यामनारायण पाण्डेय | ||
| + | |आगे=हल्दीघाटी / सप्तम सर्ग / श्यामनारायण पाण्डेय | ||
| + | |सारणी=हल्दीघाटी / श्यामनारायण पाण्डेय | ||
| + | }} | ||
| + | {{KKCatKavita}} | ||
| + | <poem> | ||
| + | षष्ठ सर्ग: सगनीलम | ||
| + | मणि के बन्दनवार¸ | ||
| + | उनमें चांदी के मृदु तार। | ||
| + | जातरूप के बने किवार | ||
| + | सजे कुसुम से हीरक–द्वार॥1॥ | ||
| − | + | दिल्ली के उज्जवल हर द्वार¸ | |
| + | चमचम कंचन कलश अपार। | ||
| + | जलमय कुश–पल्लव सहकार | ||
| + | शोभित उन पर कुसुमित हार॥2॥ | ||
| − | + | लटक रहे थे तोरण–जाल¸ | |
| + | बजती शहनाई हर काल। | ||
| + | उछल रहे थे सुन स्वर ताल¸ | ||
| + | पथ पर छोटे–छोटे बाल॥3॥ | ||
| − | + | बजते झांझ नगारे ढोल¸ | |
| − | + | गायक गाते थे उर खोल। | |
| − | + | जय जय नगर रहा था बोल¸ | |
| − | + | विजय–ध्वजा उड़ती अनमोल॥4॥ | |
| − | + | ||
| − | + | घोड़े हाथी सजे सवार¸ | |
| − | + | सेना सजी¸ सजा दरबार। | |
| − | + | गरज गरज तोपें अविराम | |
| − | + | छूट रही थीं बारंबार॥5॥ | |
| − | + | ||
| − | + | झण्डा हिलता अभय समान | |
| − | + | मादक स्वर से स्वागत–गान। | |
| − | बजते झांझ नगारे ढोल¸ | + | छाया था जय का अभिमान |
| − | गायक गाते थे उर खोल। | + | भू था अमल गगन अम्लान॥6॥ |
| − | जय जय नगर रहा था बोल¸ | + | |
| − | विजय–ध्वजा उड़ती | + | दिल्ली का विस्तृत उद्यान |
| − | घोड़े हाथी सजे सवार¸ | + | विहँस उठा ले सुरभि–निधान। |
| − | सेना सजी¸ सजा दरबार। | + | था मंगल का स्वर्ण–विहान |
| − | गरज गरज तोपें अविराम | + | पर अतिशय चिन्तित था मान॥7॥ |
| − | छूट रही थीं | + | |
| − | झण्डा हिलता अभय समान | + | सुनकर शोलापुर की हार |
| − | मादक स्वर से स्वागत–गान। | + | एक विशेष लगा दरबार। |
| − | छाया था जय का अभिमान | + | आये दरबारी सरदार |
| − | भू था अमल गगन | + | पहनेगा अकबर जय–हार॥8॥ |
| − | दिल्ली का विस्तृत उद्यान | + | |
| − | + | बैठा भूप सहित अभिमान | |
| − | था मंगल का स्वर्ण–विहान | + | पर न अभी तक आया मान। |
| − | पर अतिशय चिन्तित था | + | दुख से कहता था सुल्तान – |
| − | सुनकर शोलापुर की हार | + | 'कहाँ रह गया मान महान्'॥9॥ |
| − | एक विशेष लगा दरबार। | + | |
| − | आये दरबारी सरदार | + | तब तक चिन्तित आया मान |
| − | पहनेगा अकबर | + | किया सभी ने उठ सम्मान। |
| − | बैठा भूप सहित अभिमान | + | थोड़ा सा उठकर सुल्तान |
| − | पर न अभी तक आया मान। | + | बोला 'आओ¸ बैठो मान्'॥10॥ |
| − | दुख से कहता था सुल्तान – | + | |
| − | + | की अपनी छाती उत्तान | |
| − | तब तक चिन्तित आया मान | + | अब आई मुख पर मुस्कान। |
| − | किया सभी ने उठ सम्मान। | + | किन्तु मान–मुख पर दे ध्यान |
| − | थोड़ा सा उठकर सुल्तान | + | भय से बोल उठा सुल्तान॥11॥ |
| − | बोला | + | |
| − | की अपनी छाती उत्तान | + | "ऐ मेरे उर के अभिमान¸ |
| − | अब आई मुख पर मुस्कान। | + | शोलापुर के विजयी मान! |
| − | किन्तु मान–मुख पर दे ध्यान | + | है किस ओर बता दे ध्यान¸ |
| − | भय से बोल उठा | + | क्यों तेरा मुख–मण्डल म्लान॥12॥ |
| − | + | ||
| − | शोलापुर के विजयी मान! | + | तेरे स्वागत में मधु–गान |
| − | है किस ओर बता दे ध्यान¸ | + | जगह जगह पर तने वितान। |
| − | क्यों तेरा मुख–मण्डल | + | क्या दुख है बतला दे मान¸ |
| − | तेरे स्वागत में मधु–गान | + | तुझ पर यह दिल्ली कुर्बान।"॥13॥ |
| − | जगह जगह पर तने वितान। | + | |
| − | क्या दुख है बतला दे मान¸ | + | अकबर के सुन प्रश्न उदार |
| − | तुझ पर यह दिल्ली | + | देख सभासद–जन के प्यार। |
| − | अकबर के सुन प्रश्न उदार | + | लगी ढरकने बारम्बार |
| − | देख सभासद–जन के प्यार। | + | आँखों से आँसू की धार॥14॥ |
| − | लगी ढरकने बारम्बार | + | |
| − | + | दुख के उठे विषम उद्गार | |
| − | दुख के उठे विषम | + | सोच–सोच अपना अपकार। |
| − | सोच–सोच अपना अपकार। | + | लगा सिसकने मान अपार |
| − | लगा सिसकने मान अपार | + | थर–थर काँप उठा दरबार॥15॥ |
| − | थर–थर | + | |
| − | घोर अवज्ञा का कर ध्यान | + | घोर अवज्ञा का कर ध्यान |
| − | बोला सिसक–सिसक कर मान– | + | बोला सिसक–सिसक कर मान– |
| − | + | "तेरे जीते–जी सुल्तान! | |
| − | ऐसा हो मेरा अपमान्" | + | ऐसा हो मेरा अपमान्"॥16॥ |
| − | सबने कहा | + | |
| − | मानसिंह तेरा अपमान! | + | सबने कहा "अरे¸ अपमान! |
| − | + | मानसिंह तेरा अपमान!" | |
| − | सरदारो! मेरा | + | "हाँ¸ हाँ मेरा ही अपमान¸ |
| − | कहकर रोने लगा अपार¸ | + | सरदारो! मेरा अपमान।"॥17॥ |
| − | विकल हो रहा था दरबार। | + | |
| − | रोते ही बोला – | + | कहकर रोने लगा अपार¸ |
| − | असहनीय मेरा | + | विकल हो रहा था दरबार। |
| − | ले सिंहासन का सन्देश¸ | + | रोते ही बोला – "सरकार¸ |
| − | सिर पर तेरा ले आदेश। | + | असहनीय मेरा अपकार॥18॥ |
| − | गया निकट मेवाड़–नरेश¸ | + | |
| − | यही व्यथा है¸ यह ही | + | ले सिंहासन का सन्देश¸ |
| − | + | सिर पर तेरा ले आदेश। | |
| − | क्षण–क्षण राणा का फटकार– | + | गया निकट मेवाड़–नरेश¸ |
| − | + | यही व्यथा है¸ यह ही क्लेश॥19॥ | |
| − | तुझको जीवन भर | + | |
| − | तेरे दर्शन से संताप | + | आँखों में लेकर अंगार |
| − | तुझको छूने से ही पाप। | + | क्षण–क्षण राणा का फटकार– |
| − | हिन्दू–जनता का परिताप | + | 'तुझको खुले नरक के द्वार |
| − | तू है अम्बर–कुल पर | + | तुझको जीवन भर धिक्कार॥20॥ |
| − | स्वामी है अकबर सुल्तान | + | |
| − | तेरे साथी मुगल पठान। | + | तेरे दर्शन से संताप |
| − | राणा से तेरा सम्मान | + | तुझको छूने से ही पाप। |
| − | कभी न हो सकता है | + | हिन्दू–जनता का परिताप |
| − | करता भोजन से इनकार | + | तू है अम्बर–कुल पर शाप॥21॥ |
| − | अथवा कुत्ते सम स्वीकार। | + | |
| − | इसका आज न तनिक विचार | + | स्वामी है अकबर सुल्तान |
| − | तुझको लानत सौ सौ | + | तेरे साथी मुगल पठान। |
| − | + | राणा से तेरा सम्मान | |
| − | तू अपने कुल का | + | कभी न हो सकता है मान॥22॥ |
| − | इस पर यदि उठती तलवार | + | |
| − | राणा लड़ने को | + | करता भोजन से इनकार |
| − | उसका छोटा सा सरदार | + | अथवा कुत्ते सम स्वीकार। |
| − | मुझे द्वार से दे दुत्कार। | + | इसका आज न तनिक विचार |
| − | कितना है मेरा अपकार | + | तुझको लानत सौ सौ बार॥23॥ |
| − | यही बात खलती हर | + | |
| − | शेष कहा जो उसने आज¸ | + | म्लेच्छ–वंश का तू सरदार¸ |
| − | कहने में लगती है लाज। | + | तू अपने कुल का अंगार।' |
| − | उसे समझ ले तू सिरताज | + | इस पर यदि उठती तलवार |
| − | और बन्धु यह | + | राणा लड़ने को तैयार॥24॥ |
| − | वर्णन के थे शब्द ज्वलन्त | + | |
| − | बढ़े अचानक ताप अनन्त। | + | उसका छोटा सा सरदार |
| − | सब ने कहा यकायक हन्त | + | मुझे द्वार से दे दुत्कार। |
| − | अब मेवाड़ देश का | + | कितना है मेरा अपकार |
| − | बैठे थे जो यवन अमीर | + | यही बात खलती हर बार॥25॥ |
| − | लगा हृदय में उनके तीर। | + | |
| − | अकबर का हिल गया शरीर | + | शेष कहा जो उसने आज¸ |
| − | सिंहासन हो गया | + | कहने में लगती है लाज। |
| − | + | उसे समझ ले तू सिरताज | |
| − | उर में लगी आग विकराल। | + | और बन्धु यह यवन–समाज।"॥26॥ |
| − | + | ||
| − | भभक उठा अकबर | + | वर्णन के थे शब्द ज्वलन्त |
| − | कहा | + | बढ़े अचानक ताप अनन्त। |
| − | सह सकता न मान–संताप | + | सब ने कहा यकायक हन्त |
| − | बढ़ा हृदय का मेरे ताप | + | अब मेवाड़ देश का अन्त॥27॥ |
| − | आन रहे¸ या रहे | + | |
| − | वीरो! अरि को दो ललकार¸ | + | बैठे थे जो यवन अमीर |
| − | उठो¸ उठा लो भीम कटार। | + | लगा हृदय में उनके तीर। |
| − | घुसा–घुसा अपनी तलवार¸ | + | अकबर का हिल गया शरीर |
| − | कर दो सीने के उस | + | सिंहासन हो गया अधीर॥28॥ |
| − | महा महा भीषण रण ठान | + | |
| − | ऐ भारत के मुगल पठान! | + | कहाँ पहनता वह जयमाल |
| − | रख लो सिंहासन की शान¸ | + | उर में लगी आग विकराल। |
| − | कर दो अब मेवाड़ | + | आँखें कर लोहे सम लाल |
| − | है न तिरस्कृत केवल मान¸ | + | भभक उठा अकबर तत्काल॥29॥ |
| − | मुगल–राज का भी अपमान। | + | |
| − | रख लो मेरी अपनी आन | + | कहा –'न रह सकता चुपचाप¸ |
| − | कर लो हृदय–रक्त का | + | सह सकता न मान–संताप |
| − | ले लो सेना एक विशाल | + | बढ़ा हृदय का मेरे ताप |
| − | मान¸ उठा लो कर से ढाल। | + | आन रहे¸ या रहे प्रताप॥30॥ |
| − | शक्तसिंह¸ ले लो करवाल | + | |
| − | बदला लेने का है | + | वीरो! अरि को दो ललकार¸ |
| − | सरदारों¸ अब करो न देर | + | उठो¸ उठा लो भीम कटार। |
| − | हाथों में ले लो शमशेर। | + | घुसा–घुसा अपनी तलवार¸ |
| − | वीरो¸ लो अरिदल को घ्ोर | + | कर दो सीने के उस पार॥31॥ |
| − | कर दो काट–काटकर | + | |
| − | क्षण भर में निकले हथियार | + | महा महा भीषण रण ठान |
| − | बिजली सी चमकी तलवार। | + | ऐ भारत के मुगल पठान! |
| − | घोड़े¸ हाथी सजे अपार | + | रख लो सिंहासन की शान¸ |
| − | रण का भीषणतम | + | कर दो अब मेवाड़ मसान॥32॥ |
| − | ले सेना होकर उत्तान | + | |
| − | ले करवाल–कटार–कमान। | + | है न तिरस्कृत केवल मान¸ |
| − | चला चुकाने बदला मान | + | मुगल–राज का भी अपमान। |
| − | हल्दीघाटी के | + | रख लो मेरी अपनी आन |
| − | मानसिंह का था प्रस्थान | + | कर लो हृदय–रक्त का पान॥33॥ |
| − | सत्य–अहिंसा का बलिदान। | + | |
| − | कितना हृदय–विदारक ध्यान | + | ले लो सेना एक विशाल |
| − | शत–शत पीड़ा का | + | मान¸ उठा लो कर से ढाल। |
| + | शक्तसिंह¸ ले लो करवाल | ||
| + | बदला लेने का है काल॥34॥ | ||
| + | |||
| + | सरदारों¸ अब करो न देर | ||
| + | हाथों में ले लो शमशेर। | ||
| + | वीरो¸ लो अरिदल को घ्ोर | ||
| + | कर दो काट–काटकर ढेर।"॥35॥ | ||
| + | |||
| + | क्षण भर में निकले हथियार | ||
| + | बिजली सी चमकी तलवार। | ||
| + | घोड़े¸ हाथी सजे अपार | ||
| + | रण का भीषणतम हुंकार॥36॥ | ||
| + | |||
| + | ले सेना होकर उत्तान | ||
| + | ले करवाल–कटार–कमान। | ||
| + | चला चुकाने बदला मान | ||
| + | हल्दीघाटी के मैदान॥37॥ | ||
| + | |||
| + | मानसिंह का था प्रस्थान | ||
| + | सत्य–अहिंसा का बलिदान। | ||
| + | कितना हृदय–विदारक ध्यान | ||
| + | शत–शत पीड़ा का उत्थान॥38॥ | ||
| + | </poem> | ||
09:46, 12 अगस्त 2016 के समय का अवतरण
षष्ठ सर्ग: सगनीलम
मणि के बन्दनवार¸
उनमें चांदी के मृदु तार।
जातरूप के बने किवार
सजे कुसुम से हीरक–द्वार॥1॥
दिल्ली के उज्जवल हर द्वार¸
चमचम कंचन कलश अपार।
जलमय कुश–पल्लव सहकार
शोभित उन पर कुसुमित हार॥2॥
लटक रहे थे तोरण–जाल¸
बजती शहनाई हर काल।
उछल रहे थे सुन स्वर ताल¸
पथ पर छोटे–छोटे बाल॥3॥
बजते झांझ नगारे ढोल¸
गायक गाते थे उर खोल।
जय जय नगर रहा था बोल¸
विजय–ध्वजा उड़ती अनमोल॥4॥
घोड़े हाथी सजे सवार¸
सेना सजी¸ सजा दरबार।
गरज गरज तोपें अविराम
छूट रही थीं बारंबार॥5॥
झण्डा हिलता अभय समान
मादक स्वर से स्वागत–गान।
छाया था जय का अभिमान
भू था अमल गगन अम्लान॥6॥
दिल्ली का विस्तृत उद्यान
विहँस उठा ले सुरभि–निधान।
था मंगल का स्वर्ण–विहान
पर अतिशय चिन्तित था मान॥7॥
सुनकर शोलापुर की हार
एक विशेष लगा दरबार।
आये दरबारी सरदार
पहनेगा अकबर जय–हार॥8॥
बैठा भूप सहित अभिमान
पर न अभी तक आया मान।
दुख से कहता था सुल्तान –
'कहाँ रह गया मान महान्'॥9॥
तब तक चिन्तित आया मान
किया सभी ने उठ सम्मान।
थोड़ा सा उठकर सुल्तान
बोला 'आओ¸ बैठो मान्'॥10॥
की अपनी छाती उत्तान
अब आई मुख पर मुस्कान।
किन्तु मान–मुख पर दे ध्यान
भय से बोल उठा सुल्तान॥11॥
"ऐ मेरे उर के अभिमान¸
शोलापुर के विजयी मान!
है किस ओर बता दे ध्यान¸
क्यों तेरा मुख–मण्डल म्लान॥12॥
तेरे स्वागत में मधु–गान
जगह जगह पर तने वितान।
क्या दुख है बतला दे मान¸
तुझ पर यह दिल्ली कुर्बान।"॥13॥
अकबर के सुन प्रश्न उदार
देख सभासद–जन के प्यार।
लगी ढरकने बारम्बार
आँखों से आँसू की धार॥14॥
दुख के उठे विषम उद्गार
सोच–सोच अपना अपकार।
लगा सिसकने मान अपार
थर–थर काँप उठा दरबार॥15॥
घोर अवज्ञा का कर ध्यान
बोला सिसक–सिसक कर मान–
"तेरे जीते–जी सुल्तान!
ऐसा हो मेरा अपमान्"॥16॥
सबने कहा "अरे¸ अपमान!
मानसिंह तेरा अपमान!"
"हाँ¸ हाँ मेरा ही अपमान¸
सरदारो! मेरा अपमान।"॥17॥
कहकर रोने लगा अपार¸
विकल हो रहा था दरबार।
रोते ही बोला – "सरकार¸
असहनीय मेरा अपकार॥18॥
ले सिंहासन का सन्देश¸
सिर पर तेरा ले आदेश।
गया निकट मेवाड़–नरेश¸
यही व्यथा है¸ यह ही क्लेश॥19॥
आँखों में लेकर अंगार
क्षण–क्षण राणा का फटकार–
'तुझको खुले नरक के द्वार
तुझको जीवन भर धिक्कार॥20॥
तेरे दर्शन से संताप
तुझको छूने से ही पाप।
हिन्दू–जनता का परिताप
तू है अम्बर–कुल पर शाप॥21॥
स्वामी है अकबर सुल्तान
तेरे साथी मुगल पठान।
राणा से तेरा सम्मान
कभी न हो सकता है मान॥22॥
करता भोजन से इनकार
अथवा कुत्ते सम स्वीकार।
इसका आज न तनिक विचार
तुझको लानत सौ सौ बार॥23॥
म्लेच्छ–वंश का तू सरदार¸
तू अपने कुल का अंगार।'
इस पर यदि उठती तलवार
राणा लड़ने को तैयार॥24॥
उसका छोटा सा सरदार
मुझे द्वार से दे दुत्कार।
कितना है मेरा अपकार
यही बात खलती हर बार॥25॥
शेष कहा जो उसने आज¸
कहने में लगती है लाज।
उसे समझ ले तू सिरताज
और बन्धु यह यवन–समाज।"॥26॥
वर्णन के थे शब्द ज्वलन्त
बढ़े अचानक ताप अनन्त।
सब ने कहा यकायक हन्त
अब मेवाड़ देश का अन्त॥27॥
बैठे थे जो यवन अमीर
लगा हृदय में उनके तीर।
अकबर का हिल गया शरीर
सिंहासन हो गया अधीर॥28॥
कहाँ पहनता वह जयमाल
उर में लगी आग विकराल।
आँखें कर लोहे सम लाल
भभक उठा अकबर तत्काल॥29॥
कहा –'न रह सकता चुपचाप¸
सह सकता न मान–संताप
बढ़ा हृदय का मेरे ताप
आन रहे¸ या रहे प्रताप॥30॥
वीरो! अरि को दो ललकार¸
उठो¸ उठा लो भीम कटार।
घुसा–घुसा अपनी तलवार¸
कर दो सीने के उस पार॥31॥
महा महा भीषण रण ठान
ऐ भारत के मुगल पठान!
रख लो सिंहासन की शान¸
कर दो अब मेवाड़ मसान॥32॥
है न तिरस्कृत केवल मान¸
मुगल–राज का भी अपमान।
रख लो मेरी अपनी आन
कर लो हृदय–रक्त का पान॥33॥
ले लो सेना एक विशाल
मान¸ उठा लो कर से ढाल।
शक्तसिंह¸ ले लो करवाल
बदला लेने का है काल॥34॥
सरदारों¸ अब करो न देर
हाथों में ले लो शमशेर।
वीरो¸ लो अरिदल को घ्ोर
कर दो काट–काटकर ढेर।"॥35॥
क्षण भर में निकले हथियार
बिजली सी चमकी तलवार।
घोड़े¸ हाथी सजे अपार
रण का भीषणतम हुंकार॥36॥
ले सेना होकर उत्तान
ले करवाल–कटार–कमान।
चला चुकाने बदला मान
हल्दीघाटी के मैदान॥37॥
मानसिंह का था प्रस्थान
सत्य–अहिंसा का बलिदान।
कितना हृदय–विदारक ध्यान
शत–शत पीड़ा का उत्थान॥38॥
