भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"हल्दीघाटी / अष्ठम सर्ग / श्यामनारायण पाण्डेय" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
(3 सदस्यों द्वारा किये गये बीच के 4 अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति 3: पंक्ति 3:
 
|रचनाकार=श्यामनारायण पाण्डेय}}
 
|रचनाकार=श्यामनारायण पाण्डेय}}
 
{{KKPageNavigation
 
{{KKPageNavigation
|पीछे=हल्दीघाटी / अष्ठम सर्ग / श्यामनारायण पाण्डेय
+
|पीछे=हल्दीघाटी / सप्तम सर्ग / श्यामनारायण पाण्डेय
 
|आगे=हल्दीघाटी / नवम सर्ग / श्यामनारायण पाण्डेय
 
|आगे=हल्दीघाटी / नवम सर्ग / श्यामनारायण पाण्डेय
 
|सारणी=हल्दीघाटी / श्यामनारायण पाण्डेय
 
|सारणी=हल्दीघाटी / श्यामनारायण पाण्डेय
 
}}
 
}}
 +
{{KKCatKavita}}
 +
<poem>
 +
अष्ठम सर्ग: सगगणपति
  
<font size=4>अष्ठम सर्ग: सगगणपति</font><br><br>
+
गणपति के पावन पाँव पूज¸
 +
वाणी–पद को कर नमस्कार।
 +
उस चण्डी को¸ उस दुर्गा को¸
 +
काली–पद को कर नमस्कार॥1॥
  
के पावन पांव पूज¸ <Br/>
+
उस कालकूट पीनेवाले के  
वाणी–पद को कर नमस्कार। <Br/>
+
नयन याद कर लाल–लाल।  
उस चण्डी को¸ उस दुगार् को¸ <Br/>
+
डग–डग ब्रह्माण्ड हिला देता  
काली–पद को कर नमस्कार।।1।। <Br/><Br/>
+
जिसके ताण्डव का ताल–ताल॥2॥
उस कालकूट पीनेवाले के <Br/>
+
 
नयन याद कर लाल–लाल। <Br/>
+
ले महाशक्ति से शक्ति भीख  
डग–डग ब्रह्माण्ड हिला देता <Br/>
+
व्रत रख वनदेवी रानी का।  
जिसके ताण्डव का ताल–ताल।।2।। <Br/><Br/>
+
निर्भय होकर लिखता हूं मैं  
ले महाशक्ति से शक्ति भीख <Br/>
+
ले आशीर्वाद भवानी का॥3॥
व्रत रख वनदेवी रानी का। <Br/>
+
 
निर्भय होकर लिखता हूं मैं <Br/>
+
मुझको न किसी का भय–बन्धन  
ले आशीर्वाद भवानी का।।3।। <Br/><Br/>
+
क्या कर सकता संसार अभी।  
मुझको न किसी का भय–बन्धन <Br/>
+
मेरी रक्षा करने को जब  
क्या कर सकता संसार अभी। <Br/>
+
राणा की है तलवार अभी॥4॥
मेरी रक्षा करने को जब <Br/>
+
 
राणा की है तलवार अभी।।4।। <Br/><Br/>
+
मनभर लोहे का कवच पहन¸  
मनभर लोहे का कवच पहन¸ <Br/>
+
कर एकलिंग को नमस्कार।  
कर एकलिंग को नमस्कार। <Br/>
+
चल पड़ा वीर¸ चल पड़ी साथ  
चल पड़ा वीर¸ चल पड़ी साथ <Br/>
+
जो कुछ सेना थी लघु–अपार॥5॥
जो कुछ सेना थी लघु–अपार।।5।। <Br/><Br/>
+
 
घन–घन–घन–घन–घन गरज उठे <Br/>
+
घन–घन–घन–घन–घन गरज उठे  
रण–वाद्य सूरमा के आगे। <Br/>
+
रण–वाद्य सूरमा के आगे।  
जागे पुश्तैनी साहस–बल <Br/>
+
जागे पुश्तैनी साहस–बल  
वीरत्व वीर–उर के जागे।।6।। <Br/><Br/>
+
वीरत्व वीर–उर के जागे॥6॥
सैनिक राणा के रण जागे <Br/>
+
 
राणा प्रताप के प्रण जागे। <Br/>
+
सैनिक राणा के रण जागे  
जौहर के पावन क्षण जागे <Br/>
+
राणा प्रताप के प्रण जागे।  
मेवाड़–देश के व्रण जागे।।7।। <Br/><Br/>
+
जौहर के पावन क्षण जागे  
जागे शिशोदिया के सपूत <Br/>
+
मेवाड़–देश के व्रण जागे॥7॥
बापा के वीर–बबर जागे। <Br/>
+
 
बरछे जागे¸ भाले जागे¸ <Br/>
+
जागे शिशोदिया के सपूत  
खन–खन तलवार तबर जागे।।8।। <Br/><Br/>
+
बापा के वीर–बबर जागे।  
कुम्भल गढ़ से चलकर राणा <Br/>
+
बरछे जागे¸ भाले जागे¸  
हल्दीघाटी पर ठहर गया। <Br/>
+
खन–खन तलवार तबर जागे॥8॥
गिरि अरावली की चोटी पर <Br/>
+
 
केसरिया–झंडा फहर गया।।9।। <Br/><Br/>
+
कुम्भल गढ़ से चलकर राणा  
प्रणवीर अभी आया ही था <Br/>
+
हल्दीघाटी पर ठहर गया।  
अरि साथ खेलने को होली। <Br/>
+
गिरि अरावली की चोटी पर  
तब तक पर्वत–पथ से उतरा <Br/>
+
केसरिया–झंडा फहर गया॥9॥
पुंजा ले भीलों की टोली।।10।। <Br/><Br/>
+
 
भ्ौरव–रव से जिनके आये <Br/>
+
प्रणवीर अभी आया ही था  
रण के बजते बाजे आये। <Br/>
+
अरि साथ खेलने को होली।  
इंगित पर मर मिटनेवाले <Br/>
+
तब तक पर्वत–पथ से उतरा  
वे राजे–महाराजे आये।।11।। <Br/><Br/>
+
पुंजा ले भीलों की टोली॥10॥
सुनकर जय हर–हर सैनिक–रव <Br/>
+
 
वह अचल अचानक जाग उठा। <Br/>
+
भ्ौरव–रव से जिनके आये  
राणा को उर से लगा लिया <Br/>
+
रण के बजते बाजे आये।  
चिर निद्रित जग अनुराग उठा।।12।। <Br/><Br/>
+
इंगित पर मर मिटनेवाले  
नभ की नीली चादर ओढ़े <Br/>
+
वे राजे–महाराजे आये॥11॥
युग–युग से गिरिवर सोता था। <Br/>
+
 
तरू तरू के कोमल पत्तों पर <Br/>
+
सुनकर जय हर–हर सैनिक–रव  
मारूत का नर्तन होता था।।13।। <Br/><Br/>
+
वह अचल अचानक जाग उठा।  
चलते चलते जब थक जाता <Br/>
+
राणा को उर से लगा लिया  
दिनकर करता आराम वहीं। <Br/>
+
चिर निद्रित जग अनुराग उठा॥12॥
अपनी तारक–माला पहने <Br/>
+
 
हिमकर करता विश्राम वहीं।।14।। <Br/><Br/>
+
नभ की नीली चादर ओढ़े  
गिरि–गुहा–कन्दरा के भीतर <Br/>
+
युग–युग से गिरिवर सोता था।  
अज्ञान–सदृश था अन्धकार। <Br/>
+
तरू तरू के कोमल पत्तों पर  
बाहर पर्वत का खण्ड–खण्ड <Br/>
+
मारूत का नर्तन होता था॥13॥
था ज्ञान–सदृश उज्ज्वल अपार।।15।। <Br/><Br/>
+
 
वह भी कहता था अम्बर से <Br/>
+
चलते चलते जब थक जाता  
मेरी छाती पर रण होगा। <Br/>
+
दिनकर करता आराम वहीं।  
जननी–सेवक–उर–शोणित से <Br/>
+
अपनी तारक–माला पहने  
पावन मेरा कण–कण होगा।।16।। <Br/><Br/>
+
हिमकर करता विश्राम वहीं॥14॥
पाषाण–हृदय भी पिघल–पिघल <Br/>
+
 
आंसूं बनकर गिरता झर–झर। <Br/>
+
गिरि–गुहा–कन्दरा के भीतर  
गिरिवर भविष्य पर रोता था <Br/>
+
अज्ञान–सदृश था अन्धकार।  
जग कहता था उसको निझर्र।।17।। <Br/><Br/>
+
बाहर पर्वत का खण्ड–खण्ड  
वह लिखता था चट्टानों पर <Br/>
+
था ज्ञान–सदृश उज्ज्वल अपार॥15॥
राणा के गुण अभिमान सजल। <Br/>
+
 
वह सुना रहा था मृदु–स्वर से <Br/>
+
वह भी कहता था अम्बर से  
सैनिक को रण के गान सजल।।18।। <Br/><Br/>
+
मेरी छाती पर रण होगा।  
वह चला चपल निझर्र झर–झर <Br/>
+
जननी–सेवक–उर–शोणित से  
वसुधा–उर–ज्वाला खोने को; <Br/>
+
पावन मेरा कण–कण होगा॥16॥
या थके महाराणा–पद को <Br/>
+
 
पर्वत से उतरा धोने को।।19।। <Br/><Br/>
+
पाषाण–हृदय भी पिघल–पिघल  
लघु–लघु लहरों में ताप–विकल <Br/>
+
आँसूं बनकर गिरता झर–झर।  
दिनकर दिन भर मुख धोता था। <Br/>
+
गिरिवर भविष्य पर रोता था  
निर्मल निझर्र जल के अन्दर <Br/>
+
जग कहता था उसको निझर्र॥17॥
हिमकर रजनी भर सोता था।।20।। <Br/><Br/>
+
 
राणा पर्वत–छवि देख रहा <Br/>
+
वह लिखता था चट्टानों पर  
था¸ उन्नत कर अपना भाला। <Br/>
+
राणा के गुण अभिमान सजल।  
थे विटप खड़े पहनाने को <Br/>
+
वह सुना रहा था मृदु–स्वर से  
लेकर मृदु कुसुमों की माला।।21।। <Br/><Br/>
+
सैनिक को रण के गान सजल॥18॥
लाली के साथ निखरती थी <Br/>
+
 
पल्लव–पल्लव की हरियाली। <Br/>
+
वह चला चपल निझर्र झर–झर  
डाली–डाली पर बोल रही <Br/>
+
वसुधा–उर–ज्वाला खोने को;  
थी कुहू–कुहू कोयल काली।।22।। <Br/><Br/>
+
या थके महाराणा–पद को  
निझर्र की लहरें चूम–चूम <Br/>
+
पर्वत से उतरा धोने को॥19॥
फूलों के वन में घूम–घूम। <Br/>
+
 
मलयानिल बहता मन्द–मन्द <Br/>
+
लघु–लघु लहरों में ताप–विकल  
बौरे आमों में झूम–झूम।।23।। <Br/><Br/>
+
दिनकर दिन भर मुख धोता था।  
जब तुहिन–भार से चलता था <Br/>
+
निर्मल निझर्र जल के अन्दर  
धीरे धीरे मारूत–कुमार। <Br/>
+
हिमकर रजनी भर सोता था॥20॥
तब कुसुम–कुमारी देख–देख <Br/>
+
 
उस पर हो जाती थी निसार।।24।। <Br/><Br/>
+
राणा पर्वत–छवि देख रहा  
उड़–उड़ गुलाब पर बैठ–बैठ <Br/>
+
था¸ उन्नत कर अपना भाला।  
करते थे मधु का पान मधुप। <Br/>
+
थे विटप खड़े पहनाने को  
गुन–गुन–गुन–गुन–गुन कर करते <Br/>
+
लेकर मृदु कुसुमों की माला॥21॥
राणा के यश का गान मधुप।।25।। <Br/><Br/>
+
 
लोनी लतिका पर झूल–झूल¸ <Br/>
+
लाली के साथ निखरती थी  
बिखरते कुसुम पराग प्यार। <Br/>
+
पल्लव–पल्लव की हरियाली।  
हंस–हंसकर कलियां झांक रही <Br/>
+
डाली–डाली पर बोल रही  
थीं खोल पंखुरियों के किवार।।26।। <Br/><Br/>
+
थी कुहू–कुहू कोयल काली॥22॥
तरू–तरू पर बैठे मृदु–स्वर से <Br/>
+
 
गाते थे स्वागत–गान शकुनि। <Br/>
+
निझर्र की लहरें चूम–चूम  
कहते यह ही बलि–वेदी है <Br/>
+
फूलों के वन में घूम–घूम।  
इस पर कर दो बलिदान शकुनि।।27।। <Br/><Br/>
+
मलयानिल बहता मन्द–मन्द  
केसर से निझर्र–फूल लाल <Br/>
+
बौरे आमों में झूम–झूम॥23॥
फूले पलास के फूल लाल। <Br/>
+
 
तुम भी बैरी–सिर काट–काट <Br/>
+
जब तुहिन–भार से चलता था  
कर दो शोणित से धूल लाल।।28।। <Br/><Br/>
+
धीरे धीरे मारूत–कुमार।  
तुम तरजो–तरजो वीर¸ रखो <Br/>
+
तब कुसुम–कुमारी देख–देख  
अपना गौरव अभिमान यहीं। <Br/>
+
उस पर हो जाती थी निसार॥24॥
तुम गरजो–गरजो सिंह¸ करो <Br/>
+
 
रण–चण्डी का आह्वान यहीं।।29।। <Br/><Br/>
+
उड़–उड़ गुलाब पर बैठ–बैठ  
खग–रव सुनते ही रोम–रोम <Br/>
+
करते थे मधु का पान मधुप।  
राणा–तन के फरफरा उठे। <Br/>
+
गुन–गुन–गुन–गुन–गुन कर करते  
जरजरा उठे सैनिक अरि पर <Br/>
+
राणा के यश का गान मधुप॥25॥
पत्ते–पत्ते थरथरा उठे।।30।। <Br/><Br/>
+
 
तरू के पत्तों से¸ तिनकों से <Br/>
+
लोनी लतिका पर झूल–झूल¸  
बन गया यहीं पर राजमहल। <Br/>
+
बिखरते कुसुम पराग प्यार।  
उस राजकुटी के वैभव से <Br/>
+
हंस–हंसकर कलियां झांक रही  
अरि का सिंहासन गया दहल।।31।। <Br/><Br/>
+
थीं खोल पंखुरियों के किवार॥26॥
बस गये अचल पर राजपूत¸ <Br/>
+
 
अपनी–अपनी रख ढाल–प्रबल। <Br/>
+
तरू–तरू पर बैठे मृदु–स्वर से  
जय बोल उठे राणा की रख <Br/>
+
गाते थे स्वागत–गान शकुनि।  
बरछे–भाले–करवाल प्रबल।।32।। <Br/><Br/>
+
कहते यह ही बलि–वेदी है  
राणा प्रताप की जय बोले <Br/>
+
इस पर कर दो बलिदान शकुनि॥27॥
अपने नरेश की जय बोले। <Br/>
+
 
भारत–माता की जय बोले <Br/>
+
केसर से निझर्र–फूल लाल  
मेवाड़–देश की जय बोले।।33।। <Br/><Br/>
+
फूले पलास के फूल लाल।  
जय एकलिंग¸ जय एकलिंग¸ <Br/>
+
तुम भी बैरी–सिर काट–काट  
जय प्रलयंकर शंकर हर–हर। <Br/>
+
कर दो शोणित से धूल लाल॥28॥
जय हर–हर गिरि का बोल उठा <Br/>
+
 
कंकड़–कंकड़¸ पत्थर–पत्थर।।34।। <Br/><Br/>
+
तुम तरजो–तरजो वीर¸ रखो  
देने लगा महाराणा <Br/>
+
अपना गौरव अभिमान यहीं।  
दिन–रात समर की शिक्षा। <Br/>
+
तुम गरजो–गरजो सिंह¸ करो  
फूंक–फूंक मेरी वैरी को <Br/>
+
रण–चण्डी का आह्वान यहीं॥29॥
करने लगा प्रतीक्षा।।35।। <Br/><Br/>
+
 
 +
खग–रव सुनते ही रोम–रोम  
 +
राणा–तन के फरफरा उठे।  
 +
जरजरा उठे सैनिक अरि पर  
 +
पत्ते–पत्ते थरथरा उठे॥30॥
 +
 
 +
तरू के पत्तों से¸ तिनकों से  
 +
बन गया यहीं पर राजमहल।  
 +
उस राजकुटी के वैभव से  
 +
अरि का सिंहासन गया दहल॥31॥
 +
 
 +
बस गये अचल पर राजपूत¸  
 +
अपनी–अपनी रख ढाल–प्रबल।  
 +
जय बोल उठे राणा की रख  
 +
बरछे–भाले–करवाल प्रबल॥32॥
 +
 
 +
राणा प्रताप की जय बोले  
 +
अपने नरेश की जय बोले।  
 +
भारत–माता की जय बोले  
 +
मेवाड़–देश की जय बोले॥33॥
 +
 
 +
जय एकलिंग¸ जय एकलिंग¸  
 +
जय प्रलयंकर शंकर हर–हर।  
 +
जय हर–हर गिरि का बोल उठा  
 +
कंकड़–कंकड़¸ पत्थर–पत्थर॥34॥
 +
 
 +
देने लगा महाराणा  
 +
दिन–रात समर की शिक्षा।  
 +
फूँक–फूँक मेरी वैरी को  
 +
करने लगा प्रतीक्षा॥35॥
 +
</poem>

09:58, 12 अगस्त 2016 के समय का अवतरण

अष्ठम सर्ग: सगगणपति

गणपति के पावन पाँव पूज¸
वाणी–पद को कर नमस्कार।
उस चण्डी को¸ उस दुर्गा को¸
काली–पद को कर नमस्कार॥1॥

उस कालकूट पीनेवाले के
नयन याद कर लाल–लाल।
डग–डग ब्रह्माण्ड हिला देता
जिसके ताण्डव का ताल–ताल॥2॥

ले महाशक्ति से शक्ति भीख
व्रत रख वनदेवी रानी का।
निर्भय होकर लिखता हूं मैं
ले आशीर्वाद भवानी का॥3॥

मुझको न किसी का भय–बन्धन
क्या कर सकता संसार अभी।
मेरी रक्षा करने को जब
राणा की है तलवार अभी॥4॥

मनभर लोहे का कवच पहन¸
कर एकलिंग को नमस्कार।
चल पड़ा वीर¸ चल पड़ी साथ
जो कुछ सेना थी लघु–अपार॥5॥

घन–घन–घन–घन–घन गरज उठे
रण–वाद्य सूरमा के आगे।
जागे पुश्तैनी साहस–बल
वीरत्व वीर–उर के जागे॥6॥

सैनिक राणा के रण जागे
राणा प्रताप के प्रण जागे।
जौहर के पावन क्षण जागे
मेवाड़–देश के व्रण जागे॥7॥

जागे शिशोदिया के सपूत
बापा के वीर–बबर जागे।
बरछे जागे¸ भाले जागे¸
खन–खन तलवार तबर जागे॥8॥

कुम्भल गढ़ से चलकर राणा
हल्दीघाटी पर ठहर गया।
गिरि अरावली की चोटी पर
केसरिया–झंडा फहर गया॥9॥

प्रणवीर अभी आया ही था
अरि साथ खेलने को होली।
तब तक पर्वत–पथ से उतरा
पुंजा ले भीलों की टोली॥10॥

भ्ौरव–रव से जिनके आये
रण के बजते बाजे आये।
इंगित पर मर मिटनेवाले
वे राजे–महाराजे आये॥11॥

सुनकर जय हर–हर सैनिक–रव
वह अचल अचानक जाग उठा।
राणा को उर से लगा लिया
चिर निद्रित जग अनुराग उठा॥12॥

नभ की नीली चादर ओढ़े
युग–युग से गिरिवर सोता था।
तरू तरू के कोमल पत्तों पर
मारूत का नर्तन होता था॥13॥

चलते चलते जब थक जाता
दिनकर करता आराम वहीं।
अपनी तारक–माला पहने
हिमकर करता विश्राम वहीं॥14॥

गिरि–गुहा–कन्दरा के भीतर
अज्ञान–सदृश था अन्धकार।
बाहर पर्वत का खण्ड–खण्ड
था ज्ञान–सदृश उज्ज्वल अपार॥15॥

वह भी कहता था अम्बर से
मेरी छाती पर रण होगा।
जननी–सेवक–उर–शोणित से
पावन मेरा कण–कण होगा॥16॥

पाषाण–हृदय भी पिघल–पिघल
आँसूं बनकर गिरता झर–झर।
गिरिवर भविष्य पर रोता था
जग कहता था उसको निझर्र॥17॥

वह लिखता था चट्टानों पर
राणा के गुण अभिमान सजल।
वह सुना रहा था मृदु–स्वर से
सैनिक को रण के गान सजल॥18॥

वह चला चपल निझर्र झर–झर
वसुधा–उर–ज्वाला खोने को;
या थके महाराणा–पद को
पर्वत से उतरा धोने को॥19॥

लघु–लघु लहरों में ताप–विकल
दिनकर दिन भर मुख धोता था।
निर्मल निझर्र जल के अन्दर
हिमकर रजनी भर सोता था॥20॥

राणा पर्वत–छवि देख रहा
था¸ उन्नत कर अपना भाला।
थे विटप खड़े पहनाने को
लेकर मृदु कुसुमों की माला॥21॥

लाली के साथ निखरती थी
पल्लव–पल्लव की हरियाली।
डाली–डाली पर बोल रही
थी कुहू–कुहू कोयल काली॥22॥

निझर्र की लहरें चूम–चूम
फूलों के वन में घूम–घूम।
मलयानिल बहता मन्द–मन्द
बौरे आमों में झूम–झूम॥23॥

जब तुहिन–भार से चलता था
धीरे धीरे मारूत–कुमार।
तब कुसुम–कुमारी देख–देख
उस पर हो जाती थी निसार॥24॥

उड़–उड़ गुलाब पर बैठ–बैठ
करते थे मधु का पान मधुप।
गुन–गुन–गुन–गुन–गुन कर करते
राणा के यश का गान मधुप॥25॥

लोनी लतिका पर झूल–झूल¸
बिखरते कुसुम पराग प्यार।
हंस–हंसकर कलियां झांक रही
थीं खोल पंखुरियों के किवार॥26॥

तरू–तरू पर बैठे मृदु–स्वर से
गाते थे स्वागत–गान शकुनि।
कहते यह ही बलि–वेदी है
इस पर कर दो बलिदान शकुनि॥27॥

केसर से निझर्र–फूल लाल
फूले पलास के फूल लाल।
तुम भी बैरी–सिर काट–काट
कर दो शोणित से धूल लाल॥28॥

तुम तरजो–तरजो वीर¸ रखो
अपना गौरव अभिमान यहीं।
तुम गरजो–गरजो सिंह¸ करो
रण–चण्डी का आह्वान यहीं॥29॥

खग–रव सुनते ही रोम–रोम
राणा–तन के फरफरा उठे।
जरजरा उठे सैनिक अरि पर
पत्ते–पत्ते थरथरा उठे॥30॥

तरू के पत्तों से¸ तिनकों से
बन गया यहीं पर राजमहल।
उस राजकुटी के वैभव से
अरि का सिंहासन गया दहल॥31॥

बस गये अचल पर राजपूत¸
अपनी–अपनी रख ढाल–प्रबल।
जय बोल उठे राणा की रख
बरछे–भाले–करवाल प्रबल॥32॥

राणा प्रताप की जय बोले
अपने नरेश की जय बोले।
भारत–माता की जय बोले
मेवाड़–देश की जय बोले॥33॥

जय एकलिंग¸ जय एकलिंग¸
जय प्रलयंकर शंकर हर–हर।
जय हर–हर गिरि का बोल उठा
कंकड़–कंकड़¸ पत्थर–पत्थर॥34॥

देने लगा महाराणा
दिन–रात समर की शिक्षा।
फूँक–फूँक मेरी वैरी को
करने लगा प्रतीक्षा॥35॥