"हल्दीघाटी / नवम सर्ग / श्यामनारायण पाण्डेय" के अवतरणों में अंतर
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+ | <poem> | ||
+ | '''नवम सर्ग''' | ||
− | + | धीरे से दिनकर द्वार खोल | |
+ | प्राची से निकला लाल–लाल। | ||
+ | गह्वर के भीतर छिपी निशा | ||
+ | बिछ गया अचल पर किरण–जाल॥1॥ | ||
− | + | सन–सन–सन–सन–सन चला पवन | |
− | + | मुरझा–मुरझाकर गिरे फूल। | |
− | + | बढ़ चला तपन¸ चढ़ चला ताप | |
− | + | धू–धू करती चल पड़ी धूल॥2॥ | |
− | सन–सन–सन–सन–सन चला पवन | + | |
− | मुरझा–मुरझाकर गिरे फूल। | + | तन झुलस रही थीं लू–लपटें |
− | बढ़ चला तपन¸ चढ़ चला ताप | + | तरू–तरू पद में लिपटी छाया। |
− | धू–धू करती चल पड़ी | + | तर–तर चल रहा पसीना था |
− | तन झुलस रही थीं लू–लपटें | + | छन–छन जलती जग की काया॥3॥ |
− | तरू–तरू पद में लिपटी छाया। | + | |
− | तर–तर चल रहा पसीना था | + | पड़ गया कहीं दोपहरी में |
− | छन–छन जलती जग की | + | वह तृषित पथिक हुन गया वहीं। |
− | पड़ गया कहीं दोपहरी में | + | गिर गया कहीं कन भूतल पर |
− | वह तृषित पथिक हुन गया वहीं। | + | वह भूभुर में भुन गया वहीं॥4॥ |
− | गिर गया कहीं कन भूतल पर | + | |
− | वह भूभुर में भुन गया | + | विधु के वियोग से विकल मूक |
− | विधु के वियोग से विकल मूक | + | नभ जल रहा था अपार उर। |
− | नभ जल रहा था | + | जलती थी धरती तवा सदृश¸ |
− | जलती थी धरती तवा सदृश¸ | + | पथ की रज भी थी बनी भउर॥5॥ |
− | पथ की रज भी थी बनी | + | |
− | उस दोपहरी में चुपके से | + | उस दोपहरी में चुपके से |
− | खोते–खोते में चंचु खोल। | + | खोते–खोते में चंचु खोल। |
− | आतप के भय से बैठे थे | + | आतप के भय से बैठे थे |
− | खग मौन–तपस्वी सम | + | खग मौन–तपस्वी सम अबोल॥6॥ |
− | हर ओर नाचती दुपहरिया | + | |
− | मृग इधर–उधर थे डौक रहे। | + | हर ओर नाचती दुपहरिया |
− | जन भिगो–भिगो पट¸ ओढ़–ओढ़ | + | मृग इधर–उधर थे डौक रहे। |
− | जल पी–पी पंखे हौक | + | जन भिगो–भिगो पट¸ ओढ़–ओढ़ |
− | रवि आग उगलता था भू पर | + | जल पी–पी पंखे हौक रहे॥7॥ |
− | अदहन सरिता–सागर अपार। | + | |
− | कर से चिनगारी फेंक–फेंक | + | रवि आग उगलता था भू पर |
− | जग | + | अदहन सरिता–सागर अपार। |
− | गिरि के रोड़े अंगार बने | + | कर से चिनगारी फेंक–फेंक |
− | भुनते थे शेर कछारों में। | + | जग फूँक रहा था बार–बार॥8॥ |
− | इससे भी ज्वाला अधिक रही | + | |
− | उन वीर–व्रती तलवारों | + | गिरि के रोड़े अंगार बने |
− | आतप की ज्वाला से छिपकर | + | भुनते थे शेर कछारों में। |
− | बैठे थे संगर–वीर भील। | + | इससे भी ज्वाला अधिक रही |
− | पर्वत पर तरू की छाया में | + | उन वीर–व्रती तलवारों में॥9॥ |
− | थे बहस कर रहे रण धीर | + | |
− | उन्नत मस्तक कर कहते थे | + | आतप की ज्वाला से छिपकर |
− | ले–लेकर कुन्त कमान तीर। | + | बैठे थे संगर–वीर भील। |
− | + | पर्वत पर तरू की छाया में | |
− | अर्पण है यह नश्वर | + | थे बहस कर रहे रण धीर भील॥10। |
− | हम अपनी इन करवालों को | + | उन्नत मस्तक कर कहते थे |
− | शोणित का पान करा देंगे। | + | ले–लेकर कुन्त कमान तीर। |
− | हम काट–काटकर बैरी सिर | + | माँ की रक्षा के लिए आज |
− | संगर–भू पर बिखरा | + | अर्पण है यह नश्वर शरीर॥11॥ |
− | हल्दीघाटी के प्रांगण में | + | |
− | हम लहू–लहू लहरा देंगे। | + | हम अपनी इन करवालों को |
− | हम कोल–भील¸ हम कोल–भील | + | शोणित का पान करा देंगे। |
− | हम रक्त–ध्वजा फहरा | + | हम काट–काटकर बैरी सिर |
− | यह कहते ही उन भीलों के | + | संगर–भू पर बिखरा देंगे॥12॥ |
− | सिर पर | + | |
− | उनके उर का संगर–साहस | + | हल्दीघाटी के प्रांगण में |
− | दूना–तिगुना–चौगुना | + | हम लहू–लहू लहरा देंगे। |
− | इतने में उनके कानों में | + | हम कोल–भील¸ हम कोल–भील |
− | भीषण आंधी सी हहराई। | + | हम रक्त–ध्वजा फहरा देंगे॥13॥ |
− | मच गया अचल पर कोलाहल | + | |
− | सेना आई¸ सेना | + | यह कहते ही उन भीलों के |
− | कितने पैदल कितने सवार | + | सिर पर भौरव–रणभूत चढ़ा। |
− | कितने स्पन्दन जोड़े जोड़े। | + | उनके उर का संगर–साहस |
− | कितनी सेना¸ कितने नायक¸ | + | दूना–तिगुना–चौगुना बढ़ा॥14॥ |
− | कितने हाथी¸ कितने | + | |
− | कितने हथियार लिये सैनिक | + | इतने में उनके कानों में |
− | कितने सेनानी तोप लिये। | + | भीषण आंधी सी हहराई। |
− | आते कितने झण्डे ले¸ ले | + | मच गया अचल पर कोलाहल |
− | कितने राणा पर कोप | + | सेना आई¸ सेना आई॥15॥ |
− | कितने कर में करवाल लिये | + | |
− | कितने जन मुग्दर ढाल लिये। | + | कितने पैदल कितने सवार |
− | कितने कण्टक–मय जाल लिये¸ | + | कितने स्पन्दन जोड़े जोड़े। |
− | कितने लोहे के फाल | + | कितनी सेना¸ कितने नायक¸ |
− | कितने खंजर–भाले ले¸ ले¸ | + | कितने हाथी¸ कितने घोड़े॥16॥ |
− | कितने बरछे ताजे ले¸ ले। | + | |
− | पावस–नद से उमड़े आते¸ | + | कितने हथियार लिये सैनिक |
− | कितने मारू बाजे | + | कितने सेनानी तोप लिये। |
− | कितने देते पैतरा वीर | + | आते कितने झण्डे ले¸ ले |
− | थे बने तुरग कितने समीर। | + | कितने राणा पर कोप किये॥17॥ |
− | कितने भीषण–रव से मतंग | + | |
− | जग को करते आते | + | कितने कर में करवाल लिये |
− | देखी न सुनी न¸ किसी ने भी | + | कितने जन मुग्दर ढाल लिये। |
− | + | कितने कण्टक–मय जाल लिये¸ | |
− | कल–कल करती¸ आगे बढ़ती | + | कितने लोहे के फाल लिये॥18॥ |
− | आती अरि की जितनी | + | |
− | अजमेर नगर से चला तुरत | + | कितने खंजर–भाले ले¸ ले¸ |
− | खमनौर–निकट बस गया मान। | + | कितने बरछे ताजे ले¸ ले। |
− | बज उठा दमामा दम–दम–दम | + | पावस–नद से उमड़े आते¸ |
− | गड़ गया अचल पर | + | कितने मारू बाजे ले–ले॥19॥ |
− | भीषण–रव से रण–डंका के | + | |
− | थर–थर अवनी–तल थहर उठा। | + | कितने देते पैतरा वीर |
− | गिरि–गुहा कन्दरा का कण–कण | + | थे बने तुरग कितने समीर। |
− | घन–घोर–नाद से घहर | + | कितने भीषण–रव से मतंग |
− | बोले चिल्लाकर कोल–भील | + | जग को करते आते अधीर॥20॥ |
− | तलवार उठा लो बढ़ आई। | + | |
− | मेरे शूरो¸ तैयार रहो | + | देखी न सुनी न¸ किसी ने भी |
− | मुगलों की सेना चढ़ | + | टिड्डी–दल सी इतनी सेना। |
− | चमका–चमका असि बिजली सम | + | कल–कल करती¸ आगे बढ़ती |
− | रंग दो शोणित से पर्वत कण। | + | आती अरि की जितनी सेना॥21॥ |
− | जिससे स्वतन्त्र रह रहे देश | + | |
− | दिखला दो वही भयानक | + | अजमेर नगर से चला तुरत |
− | हम सब पर अधिक भरोसा है | + | खमनौर–निकट बस गया मान। |
− | मेवाड़–देश के पानी का। | + | बज उठा दमामा दम–दम–दम |
− | वीरो¸ निज को कुबार्न करी | + | गड़ गया अचल पर रण–निशान॥22 |
− | है यही समय कुबार्नी | + | भीषण–रव से रण–डंका के |
− | + | थर–थर अवनी–तल थहर उठा। | |
− | तम शेष सदृश फुंकार करो। | + | गिरि–गुहा कन्दरा का कण–कण |
− | अपनी रक्षा के लिए उठो | + | घन–घोर–नाद से घहर उठा॥23॥ |
− | अब एक बार हुंकार | + | |
− | भीलों के कल–कल करने से | + | बोले चिल्लाकर कोल–भील |
− | आया अरि–सेनाधीश सुना। | + | तलवार उठा लो बढ़ आई। |
− | बढ़ गया अचानक पहले से | + | मेरे शूरो¸ तैयार रहो |
− | राणा का साहस बीस | + | मुगलों की सेना चढ़ आई॥24॥ |
− | बोला नरसिंहो¸ उठ जाओ | + | |
− | इस रण–वेला रमणीया में। | + | चमका–चमका असि बिजली सम |
− | चाहे जिस हालत में जो हो | + | रंग दो शोणित से पर्वत कण। |
− | जाग्रति में¸ स्वप्न–तुरिया | + | जिससे स्वतन्त्र रह रहे देश |
− | जिस दिन के लिए जन्म भर से | + | दिखला दो वही भयानक रण॥25॥ |
− | देते आते रण–शिक्षा हम। | + | |
− | वह समय आ गया करते थे | + | हम सब पर अधिक भरोसा है |
− | जिसकी दिन–रात प्रतीक्षा | + | मेवाड़–देश के पानी का। |
− | अब सावधान¸ अब सावधान¸ | + | वीरो¸ निज को कुबार्न करी |
− | वीरो¸ हो जाओ सावधान। | + | है यही समय कुबार्नी का॥26॥ |
− | बदला लेने आ गया मान | + | |
− | कर दो उससे रण | + | भौरव–धनु की टंकार करो |
− | सुनकर सैनिक तनतना उठे | + | तम शेष सदृश फुंकार करो। |
− | हाथी–हय–दल पनपना उठे। | + | अपनी रक्षा के लिए उठो |
− | हथियारों से भिड़ जाने को | + | अब एक बार हुंकार करो॥27॥ |
− | हथियार सभी झनझना | + | |
− | गनगना उठे सातंक लोक | + | भीलों के कल–कल करने से |
− | तलवार म्यान से कढ़ते ही। | + | आया अरि–सेनाधीश सुना। |
− | शूरों के | + | बढ़ गया अचानक पहले से |
− | रण–मन्त्र वीर के पढ़ते | + | राणा का साहस बीस गुना॥28॥ |
− | अब से सैनिक राणा का | + | |
− | दरबार लगा रहता था। | + | बोला नरसिंहो¸ उठ जाओ |
− | दरबान महीधर बनकर | + | इस रण–वेला रमणीया में। |
− | दिन–रात जगा रहता | + | चाहे जिस हालत में जो हो |
+ | जाग्रति में¸ स्वप्न–तुरिया में॥29॥ | ||
+ | |||
+ | जिस दिन के लिए जन्म भर से | ||
+ | देते आते रण–शिक्षा हम। | ||
+ | वह समय आ गया करते थे | ||
+ | जिसकी दिन–रात प्रतीक्षा हम॥30॥ | ||
+ | |||
+ | अब सावधान¸ अब सावधान¸ | ||
+ | वीरो¸ हो जाओ सावधान। | ||
+ | बदला लेने आ गया मान | ||
+ | कर दो उससे रण धमासान॥31॥ | ||
+ | |||
+ | सुनकर सैनिक तनतना उठे | ||
+ | हाथी–हय–दल पनपना उठे। | ||
+ | हथियारों से भिड़ जाने को | ||
+ | हथियार सभी झनझना उठे॥32॥ | ||
+ | |||
+ | गनगना उठे सातंक लोक | ||
+ | तलवार म्यान से कढ़ते ही। | ||
+ | शूरों के रोएँ फड़क उठे | ||
+ | रण–मन्त्र वीर के पढ़ते ही॥33॥ | ||
+ | |||
+ | अब से सैनिक राणा का | ||
+ | दरबार लगा रहता था। | ||
+ | दरबान महीधर बनकर | ||
+ | दिन–रात जगा रहता था॥34॥ | ||
+ | </poem> |
10:27, 12 अगस्त 2016 के समय का अवतरण
नवम सर्ग
धीरे से दिनकर द्वार खोल
प्राची से निकला लाल–लाल।
गह्वर के भीतर छिपी निशा
बिछ गया अचल पर किरण–जाल॥1॥
सन–सन–सन–सन–सन चला पवन
मुरझा–मुरझाकर गिरे फूल।
बढ़ चला तपन¸ चढ़ चला ताप
धू–धू करती चल पड़ी धूल॥2॥
तन झुलस रही थीं लू–लपटें
तरू–तरू पद में लिपटी छाया।
तर–तर चल रहा पसीना था
छन–छन जलती जग की काया॥3॥
पड़ गया कहीं दोपहरी में
वह तृषित पथिक हुन गया वहीं।
गिर गया कहीं कन भूतल पर
वह भूभुर में भुन गया वहीं॥4॥
विधु के वियोग से विकल मूक
नभ जल रहा था अपार उर।
जलती थी धरती तवा सदृश¸
पथ की रज भी थी बनी भउर॥5॥
उस दोपहरी में चुपके से
खोते–खोते में चंचु खोल।
आतप के भय से बैठे थे
खग मौन–तपस्वी सम अबोल॥6॥
हर ओर नाचती दुपहरिया
मृग इधर–उधर थे डौक रहे।
जन भिगो–भिगो पट¸ ओढ़–ओढ़
जल पी–पी पंखे हौक रहे॥7॥
रवि आग उगलता था भू पर
अदहन सरिता–सागर अपार।
कर से चिनगारी फेंक–फेंक
जग फूँक रहा था बार–बार॥8॥
गिरि के रोड़े अंगार बने
भुनते थे शेर कछारों में।
इससे भी ज्वाला अधिक रही
उन वीर–व्रती तलवारों में॥9॥
आतप की ज्वाला से छिपकर
बैठे थे संगर–वीर भील।
पर्वत पर तरू की छाया में
थे बहस कर रहे रण धीर भील॥10।
उन्नत मस्तक कर कहते थे
ले–लेकर कुन्त कमान तीर।
माँ की रक्षा के लिए आज
अर्पण है यह नश्वर शरीर॥11॥
हम अपनी इन करवालों को
शोणित का पान करा देंगे।
हम काट–काटकर बैरी सिर
संगर–भू पर बिखरा देंगे॥12॥
हल्दीघाटी के प्रांगण में
हम लहू–लहू लहरा देंगे।
हम कोल–भील¸ हम कोल–भील
हम रक्त–ध्वजा फहरा देंगे॥13॥
यह कहते ही उन भीलों के
सिर पर भौरव–रणभूत चढ़ा।
उनके उर का संगर–साहस
दूना–तिगुना–चौगुना बढ़ा॥14॥
इतने में उनके कानों में
भीषण आंधी सी हहराई।
मच गया अचल पर कोलाहल
सेना आई¸ सेना आई॥15॥
कितने पैदल कितने सवार
कितने स्पन्दन जोड़े जोड़े।
कितनी सेना¸ कितने नायक¸
कितने हाथी¸ कितने घोड़े॥16॥
कितने हथियार लिये सैनिक
कितने सेनानी तोप लिये।
आते कितने झण्डे ले¸ ले
कितने राणा पर कोप किये॥17॥
कितने कर में करवाल लिये
कितने जन मुग्दर ढाल लिये।
कितने कण्टक–मय जाल लिये¸
कितने लोहे के फाल लिये॥18॥
कितने खंजर–भाले ले¸ ले¸
कितने बरछे ताजे ले¸ ले।
पावस–नद से उमड़े आते¸
कितने मारू बाजे ले–ले॥19॥
कितने देते पैतरा वीर
थे बने तुरग कितने समीर।
कितने भीषण–रव से मतंग
जग को करते आते अधीर॥20॥
देखी न सुनी न¸ किसी ने भी
टिड्डी–दल सी इतनी सेना।
कल–कल करती¸ आगे बढ़ती
आती अरि की जितनी सेना॥21॥
अजमेर नगर से चला तुरत
खमनौर–निकट बस गया मान।
बज उठा दमामा दम–दम–दम
गड़ गया अचल पर रण–निशान॥22
भीषण–रव से रण–डंका के
थर–थर अवनी–तल थहर उठा।
गिरि–गुहा कन्दरा का कण–कण
घन–घोर–नाद से घहर उठा॥23॥
बोले चिल्लाकर कोल–भील
तलवार उठा लो बढ़ आई।
मेरे शूरो¸ तैयार रहो
मुगलों की सेना चढ़ आई॥24॥
चमका–चमका असि बिजली सम
रंग दो शोणित से पर्वत कण।
जिससे स्वतन्त्र रह रहे देश
दिखला दो वही भयानक रण॥25॥
हम सब पर अधिक भरोसा है
मेवाड़–देश के पानी का।
वीरो¸ निज को कुबार्न करी
है यही समय कुबार्नी का॥26॥
भौरव–धनु की टंकार करो
तम शेष सदृश फुंकार करो।
अपनी रक्षा के लिए उठो
अब एक बार हुंकार करो॥27॥
भीलों के कल–कल करने से
आया अरि–सेनाधीश सुना।
बढ़ गया अचानक पहले से
राणा का साहस बीस गुना॥28॥
बोला नरसिंहो¸ उठ जाओ
इस रण–वेला रमणीया में।
चाहे जिस हालत में जो हो
जाग्रति में¸ स्वप्न–तुरिया में॥29॥
जिस दिन के लिए जन्म भर से
देते आते रण–शिक्षा हम।
वह समय आ गया करते थे
जिसकी दिन–रात प्रतीक्षा हम॥30॥
अब सावधान¸ अब सावधान¸
वीरो¸ हो जाओ सावधान।
बदला लेने आ गया मान
कर दो उससे रण धमासान॥31॥
सुनकर सैनिक तनतना उठे
हाथी–हय–दल पनपना उठे।
हथियारों से भिड़ जाने को
हथियार सभी झनझना उठे॥32॥
गनगना उठे सातंक लोक
तलवार म्यान से कढ़ते ही।
शूरों के रोएँ फड़क उठे
रण–मन्त्र वीर के पढ़ते ही॥33॥
अब से सैनिक राणा का
दरबार लगा रहता था।
दरबान महीधर बनकर
दिन–रात जगा रहता था॥34॥