"हल्दीघाटी / त्रयोदश सर्ग / श्यामनारायण पाण्डेय" के अवतरणों में अंतर
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+ | '''त्रयोदश सर्ग: सगजो''' | ||
− | + | कुछ बचे सिपाही शेष¸ | |
+ | हट जाने का दे आदेश। | ||
+ | अपने भी हट गया नरेश¸ | ||
+ | वह मेवाड़–गगन–राकेश॥1॥ | ||
− | + | बनकर महाकाल का काल¸ | |
+ | जूझ पड़ा अरि से तत्काल। | ||
+ | उसके हाथों में विकराल¸ | ||
+ | मरते दम तक थी करवाल॥2॥ | ||
− | + | उसपर तन–मन–धन बलिहार | |
− | + | झाला धन्य¸ धन्य परिवार। | |
− | + | राणा ने कह–कह शत–बार¸ | |
− | + | कुल को दिया अमर अधिकार॥3॥ | |
− | + | ||
− | + | हाय¸ ग्वालियर का सिरताज¸ | |
− | + | सेनप रामसिंह अधिराज। | |
− | + | उसका जगमग जगमग ताज¸ | |
− | उसपर तन–मन–धन बलिहार | + | शोणित–रज–लुiण्ठत है आज॥4॥ |
− | झाला धन्य¸ धन्य परिवार। | + | |
− | राणा ने कह–कह शत–बार¸ | + | राजे–महराजे–सरदार¸ |
− | कुल को दिया अमर | + | जो मिट गये लिये तलवार। |
− | हाय¸ ग्वालियर का सिरताज¸ | + | उनके तर्पण में अविकार¸ |
− | सेनप रामसिंह अधिराज। | + | आँखों से आँसू की धार॥5॥ |
− | उसका जगमग जगमग ताज¸ | + | |
− | शोणित–रज–लुiण्ठत है | + | बढ़ता जाता विकल अपार |
− | राजे–महराजे–सरदार¸ | + | घोड़े पर हो व्यथित सवार। |
− | जो मिट गये लिये तलवार। | + | सोच रहा था बारम्बार¸ |
− | उनके तर्पण में अविकार¸ | + | कैसे हो माँ का उद्धार॥6॥ |
− | + | ||
− | बढ़ता जाता विकल अपार | + | मैंने किया मुगल–बलिदान¸ |
− | घोड़े पर हो व्यथित सवार। | + | लोहू से लोहित मैदान। |
− | सोच रहा था बारम्बार¸ | + | बचकर निकल गया पर मान¸ |
− | कैसे हो | + | पूरा हो न सका अरमान॥7॥ |
− | मैंने किया मुगल–बलिदान¸ | + | |
− | लोहू से लोहित मैदान। | + | कैसे बचे देश–सम्मान |
− | बचकर निकल गया पर मान¸ | + | कैसे बचा रहे अभिमान! |
− | पूरा हो न सका | + | कैसे हो भू का उत्थान¸ |
− | कैसे बचे देश–सम्मान | + | मेरे एकलिंग भगवान॥8॥ |
− | कैसे बचा रहे अभिमान! | + | |
− | कैसे हो भू का उत्थान¸ | + | स्वतन्त्रता का झगड़ा तान¸ |
− | मेरे एकलिंग | + | कब गरजेगा राजस्थान! |
− | स्वतन्त्रता का झगड़ा तान¸ | + | उधर उड़ रहा था वह वाजि¸ |
− | कब गरजेगा राजस्थान! | + | स्वामी–रक्षा का कर ध्यान॥9॥ |
− | उधर उड़ रहा था वह वाजि¸ | + | |
− | स्वामी–रक्षा का कर | + | उसको नद–नाले–चट्टान¸ |
− | उसको नद–नाले–चट्टान¸ | + | सकते रोक न वन–वीरान। |
− | सकते रोक न वन–वीरान। | + | राणा को लेकर अविराम¸ |
− | राणा को लेकर अविराम¸ | + | उसको बढ़ने का था ध्यान॥10॥ |
− | उसको बढ़ने का था | + | |
− | पड़ी अचानक नदी अपार¸ | + | पड़ी अचानक नदी अपार¸ |
− | घोड़ा कैसे उतरे पार। | + | घोड़ा कैसे उतरे पार। |
− | राणा ने सोचा इस पार¸ | + | राणा ने सोचा इस पार¸ |
− | तब तक चेतक था उस | + | तब तक चेतक था उस पार॥11॥ |
− | शक्तसिंह भी ले तलवार | + | |
− | करने आया था संहार। | + | शक्तसिंह भी ले तलवार |
− | पर उमड़ा राणा को देख | + | करने आया था संहार। |
− | भाई–भाई का मधु | + | पर उमड़ा राणा को देख |
− | चेतक के पीछे दो काल¸ | + | भाई–भाई का मधु प्यार॥12॥ |
− | पड़े हुए थे ले असि ढाल। | + | |
− | उसने पथ में उनको मार¸ | + | चेतक के पीछे दो काल¸ |
− | की अपनी पावन | + | पड़े हुए थे ले असि ढाल। |
− | आगे बढ़कर भुजा पसार¸ | + | उसने पथ में उनको मार¸ |
− | बोला | + | की अपनी पावन करवाल॥13॥ |
− | रूक जा¸ रूक जा¸ ऐ तलवार¸ | + | |
− | नीला–घोड़ारा | + | आगे बढ़कर भुजा पसार¸ |
− | पीछे से सुन तार पुकार¸ | + | बोला आँखों से जल ढार। |
− | फिरकर देखा एक सवार। | + | रूक जा¸ रूक जा¸ ऐ तलवार¸ |
− | हय से उतर पड़ा तत्काल¸ | + | नीला–घोड़ारा असवार॥14॥ |
− | लेकर हाथों में | + | |
− | राणा उसको वैरी जान¸ | + | पीछे से सुन तार पुकार¸ |
− | काल बन गया कुन्तल तान। | + | फिरकर देखा एक सवार। |
− | बोला | + | हय से उतर पड़ा तत्काल¸ |
− | आ¸ तुझको भी दें बलिदान्" | + | लेकर हाथों में तलवार॥15॥ |
− | पर देखा झर–झर अविकार | + | |
− | बहती है | + | राणा उसको वैरी जान¸ |
− | गर्दन में लटकी तलवार¸ | + | काल बन गया कुन्तल तान। |
− | घोड़े पर है शक्त | + | बोला "कर लें शोणित पान¸ |
− | उतर वहीं घोड़े को छोड़¸ | + | आ¸ तुझको भी दें बलिदान्"॥16॥ |
− | चला शक्त कम्पित कर जोड़। | + | |
− | पैरों पर गिर पड़ा विनीत¸ | + | पर देखा झर–झर अविकार |
− | बोला धीरज बन्धन | + | बहती है आँसू की धार। |
− | + | गर्दन में लटकी तलवार¸ | |
− | दे मेरे अपराध बिसार। | + | घोड़े पर है शक्त सवार॥17॥ |
− | या मेरा दे गला उतार¸ | + | |
− | + | उतर वहीं घोड़े को छोड़¸ | |
− | यह कह–कहकर बारंबार¸ | + | चला शक्त कम्पित कर जोड़। |
− | सिसकी भरने लगा अपार। | + | पैरों पर गिर पड़ा विनीत¸ |
− | राणा भी भूला संसार¸ | + | बोला धीरज बन्धन तोड़॥18॥ |
− | उमड़ा उर में बन्धु | + | |
− | उसे उठाकर लेकर गोद¸ | + | "करूणा कर तू करूणागार¸ |
− | गले लगाया सजल–समोद। | + | दे मेरे अपराध बिसार। |
− | मिलता था जो रज में प्रेम¸ | + | या मेरा दे गला उतार¸ |
− | किया उसे | + | "तेरे कर में हैं तलवार्"॥19॥ |
− | लेकर वन्य–कुसुम की धूल¸ | + | |
− | बही हवा मन्थर अनुकूल। | + | यह कह–कहकर बारंबार¸ |
− | दोनों के सिर पर अविराम¸ | + | सिसकी भरने लगा अपार। |
− | पेड़ों ने बरसाये | + | राणा भी भूला संसार¸ |
− | कल–कल छल–छल भर स्वर–तान¸ | + | उमड़ा उर में बन्धु दुलार॥20॥ |
− | कहकर कुल–गौरव–अभिमान। | + | |
− | नाले ने गाया स–तरंग¸ | + | उसे उठाकर लेकर गोद¸ |
− | उनके निर्मल यश का | + | गले लगाया सजल–समोद। |
− | तब तक चेतक कर चीत्कार¸ | + | मिलता था जो रज में प्रेम¸ |
− | गिरा धर पर देह बिसार। | + | किया उसे सुरभित–सामोद॥21॥ |
− | लगा लोटने बारम्बार¸ | + | |
− | बहने लगी रक्त की | + | लेकर वन्य–कुसुम की धूल¸ |
− | बरछे–असि–भाले गम्भीर¸ | + | बही हवा मन्थर अनुकूल। |
− | तन में लगे हुए थे तीर। | + | दोनों के सिर पर अविराम¸ |
− | जर्जर उसका सकल शरीर¸ | + | पेड़ों ने बरसाये फूल॥22॥ |
− | चेतक था व्रण–व्यथित | + | |
− | करता धावों पर दृग–कोर¸ | + | कल–कल छल–छल भर स्वर–तान¸ |
− | कभी मचाता दुख से शोर। | + | कहकर कुल–गौरव–अभिमान। |
− | कभी देख राणा की ओर¸ | + | नाले ने गाया स–तरंग¸ |
− | रो देता¸ हो | + | उनके निर्मल यश का गाना॥23॥ |
− | लोट–लोट सह व्यथा | + | |
− | यश का फहरा अमर–निशान। | + | तब तक चेतक कर चीत्कार¸ |
− | राणा–गोदी में रख शीश | + | गिरा धर पर देह बिसार। |
− | चेतक ने कर दिया | + | लगा लोटने बारम्बार¸ |
− | घहरी दुख की घटा नवीन¸ | + | बहने लगी रक्त की धार॥24॥ |
− | राणा बना विकल बल–हीन। | + | |
− | लगा तलफने बारंबार | + | बरछे–असि–भाले गम्भीर¸ |
− | जैसे जल–वियोग से | + | तन में लगे हुए थे तीर। |
− | + | जर्जर उसका सकल शरीर¸ | |
− | कुछ तो उठकर मुझसे बोल। | + | चेतक था व्रण–व्यथित अधीर॥25॥ |
− | मुझको तू न बना असहाय | + | |
− | मत बन मुझसे निठुर | + | करता धावों पर दृग–कोर¸ |
− | मिला बन्धु जो खोकर काल | + | कभी मचाता दुख से शोर। |
− | तो तेरा चेतक¸ यह हाल! | + | कभी देख राणा की ओर¸ |
− | हा चेतक¸ हा चेतक¸ हाय्"¸ | + | रो देता¸ हो प्रेम–विभोर॥26॥ |
− | कहकर चिपक गया | + | |
− | + | लोट–लोट सह व्यथा महान्¸ | |
− | न तू इस तरह नाता तोड़। | + | यश का फहरा अमर–निशान। |
− | इस भव–सागर–बीच अपार | + | राणा–गोदी में रख शीश |
− | दुख सहने के लिए न | + | चेतक ने कर दिया पयान॥27॥ |
− | बैरी को देना परिताप¸ | + | |
− | गज–मस्तक पर तेरी टाप। | + | घहरी दुख की घटा नवीन¸ |
− | फिर यह तेरी निद्रा देख | + | राणा बना विकल बल–हीन। |
− | विष–सा चढ़ता है | + | लगा तलफने बारंबार |
− | हाय¸ पतन में तेरा पात¸ | + | जैसे जल–वियोग से मीन॥28॥ |
− | क्षत पर कठिन लवण–आघात। | + | |
− | हा¸ उठ जा¸ तू मेरे बन्धु¸ | + | "हाँ! चेतक¸ तू पलकें खोल¸ |
− | पल–पल बढ़ती आती | + | कुछ तो उठकर मुझसे बोल। |
− | चला गया गज रामप्रसाद¸ | + | मुझको तू न बना असहाय |
− | तू भी चला बना आजाद। | + | मत बन मुझसे निठुर अबोल॥29॥ |
− | हा¸ मेरा अब राजस्थान | + | |
− | दिन पर दिन होगा | + | मिला बन्धु जो खोकर काल |
− | किस पर देश करे अभिमान¸ | + | तो तेरा चेतक¸ यह हाल! |
− | किस पर छाती हो उत्तान। | + | हा चेतक¸ हा चेतक¸ हाय्"¸ |
− | भाला मौन¸ मौन असि म्यान¸ | + | कहकर चिपक गया तत्काल॥30॥ |
− | इस पर कुछ तो कर तू | + | |
− | लेकर क्या होगा अब राज¸ | + | "अभी न तू तुझसे मुख मोड़¸ |
− | क्या मेरे जीवन का काज? | + | न तू इस तरह नाता तोड़। |
− | पाठक¸ तू भी रो दे आज | + | इस भव–सागर–बीच अपार |
− | रोता है | + | दुख सहने के लिए न छोड़॥31॥ |
− | तड़प–तड़प अपने नभ–गेह | + | |
− | + | बैरी को देना परिताप¸ | |
− | देख महाराणा का हाल | + | गज–मस्तक पर तेरी टाप। |
− | बिजली व्याकुल¸ कम्पित | + | फिर यह तेरी निद्रा देख |
− | घुल–घुल¸ पिघल–पिघलकर प्राण¸ | + | विष–सा चढ़ता है संताप॥32॥ |
− | + | ||
− | निझर्र–मिस बहता था हाय | + | हाय¸ पतन में तेरा पात¸ |
− | हा¸ पर्वत भी था मि` | + | क्षत पर कठिन लवण–आघात। |
− | क्षण भर ही तक था अज्ञान¸ | + | हा¸ उठ जा¸ तू मेरे बन्धु¸ |
− | चमक उठा फिर उर में ज्ञान। | + | पल–पल बढ़ती आती रात॥33॥ |
− | दिया शक्त ने अपना वाजि¸ | + | |
− | चढ़कर आगे बढ़ा | + | चला गया गज रामप्रसाद¸ |
− | + | तू भी चला बना आजाद। | |
− | हुई | + | हा¸ मेरा अब राजस्थान |
− | बहीं देव–मन्दिर के पास¸ | + | दिन पर दिन होगा बरबाद॥34॥ |
− | चबूतरा बन गया | + | |
− | होता धन–यौवन का हास¸ | + | किस पर देश करे अभिमान¸ |
− | पर है यश का अमर–विहास। | + | किस पर छाती हो उत्तान। |
− | राणा रहा न¸ वाजि–विलास¸ | + | भाला मौन¸ मौन असि म्यान¸ |
− | पर उनसे उज्ज्वल | + | इस पर कुछ तो कर तू ध्यान॥35॥ |
− | बनकर राणा सदृश महान | + | |
− | सीखें हम होना कुबार्न। | + | लेकर क्या होगा अब राज¸ |
− | चेतक सम लें वाजि खरीद¸ | + | क्या मेरे जीवन का काज?" |
− | जननी–पद पर हों | + | पाठक¸ तू भी रो दे आज |
− | आओ खोज निकाले यन्त्र | + | रोता है भारत–सिरताज॥36॥ |
− | जिससे रहें न हम परतन्त्र। | + | |
− | + | तड़प–तड़प अपने नभ–गेह | |
− | बन जायें | + | आँसू बहा रहा था मेह। |
− | हल्दीघाटी–अवनी पर | + | देख महाराणा का हाल |
− | सड़ती थीं बिखरी लाशें। | + | बिजली व्याकुल¸ कम्पित देह॥37॥ |
− | होती थी घृणा घृणा को¸ | + | |
− | बदबू करती थीं | + | घुल–घुल¸ पिघल–पिघलकर प्राण¸ |
+ | आँसू बन–बनकर पाषाण। | ||
+ | निझर्र–मिस बहता था हाय | ||
+ | हा¸ पर्वत भी था मि`यमाण॥38॥ | ||
+ | |||
+ | क्षण भर ही तक था अज्ञान¸ | ||
+ | चमक उठा फिर उर में ज्ञान। | ||
+ | दिया शक्त ने अपना वाजि¸ | ||
+ | चढ़कर आगे बढ़ा महान्॥39॥ | ||
+ | |||
+ | जहाँ गड़ा चेतक–कंकाल¸ | ||
+ | हुई जहाँ की भूमि निहाल। | ||
+ | बहीं देव–मन्दिर के पास¸ | ||
+ | चबूतरा बन गया विशाल॥40॥ | ||
+ | |||
+ | होता धन–यौवन का हास¸ | ||
+ | पर है यश का अमर–विहास। | ||
+ | राणा रहा न¸ वाजि–विलास¸ | ||
+ | पर उनसे उज्ज्वल इतिहास॥41॥ | ||
+ | |||
+ | बनकर राणा सदृश महान | ||
+ | सीखें हम होना कुबार्न। | ||
+ | चेतक सम लें वाजि खरीद¸ | ||
+ | जननी–पद पर हों बलिदान॥42॥ | ||
+ | |||
+ | आओ खोज निकाले यन्त्र | ||
+ | जिससे रहें न हम परतन्त्र। | ||
+ | फूँके कान–कान में मन्त्र¸ | ||
+ | बन जायें स्वाधीन–स्वतन्त्र॥43॥ | ||
+ | |||
+ | हल्दीघाटी–अवनी पर | ||
+ | सड़ती थीं बिखरी लाशें। | ||
+ | होती थी घृणा घृणा को¸ | ||
+ | बदबू करती थीं लाशें॥44॥ | ||
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10:48, 12 अगस्त 2016 के समय का अवतरण
त्रयोदश सर्ग: सगजो
कुछ बचे सिपाही शेष¸
हट जाने का दे आदेश।
अपने भी हट गया नरेश¸
वह मेवाड़–गगन–राकेश॥1॥
बनकर महाकाल का काल¸
जूझ पड़ा अरि से तत्काल।
उसके हाथों में विकराल¸
मरते दम तक थी करवाल॥2॥
उसपर तन–मन–धन बलिहार
झाला धन्य¸ धन्य परिवार।
राणा ने कह–कह शत–बार¸
कुल को दिया अमर अधिकार॥3॥
हाय¸ ग्वालियर का सिरताज¸
सेनप रामसिंह अधिराज।
उसका जगमग जगमग ताज¸
शोणित–रज–लुiण्ठत है आज॥4॥
राजे–महराजे–सरदार¸
जो मिट गये लिये तलवार।
उनके तर्पण में अविकार¸
आँखों से आँसू की धार॥5॥
बढ़ता जाता विकल अपार
घोड़े पर हो व्यथित सवार।
सोच रहा था बारम्बार¸
कैसे हो माँ का उद्धार॥6॥
मैंने किया मुगल–बलिदान¸
लोहू से लोहित मैदान।
बचकर निकल गया पर मान¸
पूरा हो न सका अरमान॥7॥
कैसे बचे देश–सम्मान
कैसे बचा रहे अभिमान!
कैसे हो भू का उत्थान¸
मेरे एकलिंग भगवान॥8॥
स्वतन्त्रता का झगड़ा तान¸
कब गरजेगा राजस्थान!
उधर उड़ रहा था वह वाजि¸
स्वामी–रक्षा का कर ध्यान॥9॥
उसको नद–नाले–चट्टान¸
सकते रोक न वन–वीरान।
राणा को लेकर अविराम¸
उसको बढ़ने का था ध्यान॥10॥
पड़ी अचानक नदी अपार¸
घोड़ा कैसे उतरे पार।
राणा ने सोचा इस पार¸
तब तक चेतक था उस पार॥11॥
शक्तसिंह भी ले तलवार
करने आया था संहार।
पर उमड़ा राणा को देख
भाई–भाई का मधु प्यार॥12॥
चेतक के पीछे दो काल¸
पड़े हुए थे ले असि ढाल।
उसने पथ में उनको मार¸
की अपनी पावन करवाल॥13॥
आगे बढ़कर भुजा पसार¸
बोला आँखों से जल ढार।
रूक जा¸ रूक जा¸ ऐ तलवार¸
नीला–घोड़ारा असवार॥14॥
पीछे से सुन तार पुकार¸
फिरकर देखा एक सवार।
हय से उतर पड़ा तत्काल¸
लेकर हाथों में तलवार॥15॥
राणा उसको वैरी जान¸
काल बन गया कुन्तल तान।
बोला "कर लें शोणित पान¸
आ¸ तुझको भी दें बलिदान्"॥16॥
पर देखा झर–झर अविकार
बहती है आँसू की धार।
गर्दन में लटकी तलवार¸
घोड़े पर है शक्त सवार॥17॥
उतर वहीं घोड़े को छोड़¸
चला शक्त कम्पित कर जोड़।
पैरों पर गिर पड़ा विनीत¸
बोला धीरज बन्धन तोड़॥18॥
"करूणा कर तू करूणागार¸
दे मेरे अपराध बिसार।
या मेरा दे गला उतार¸
"तेरे कर में हैं तलवार्"॥19॥
यह कह–कहकर बारंबार¸
सिसकी भरने लगा अपार।
राणा भी भूला संसार¸
उमड़ा उर में बन्धु दुलार॥20॥
उसे उठाकर लेकर गोद¸
गले लगाया सजल–समोद।
मिलता था जो रज में प्रेम¸
किया उसे सुरभित–सामोद॥21॥
लेकर वन्य–कुसुम की धूल¸
बही हवा मन्थर अनुकूल।
दोनों के सिर पर अविराम¸
पेड़ों ने बरसाये फूल॥22॥
कल–कल छल–छल भर स्वर–तान¸
कहकर कुल–गौरव–अभिमान।
नाले ने गाया स–तरंग¸
उनके निर्मल यश का गाना॥23॥
तब तक चेतक कर चीत्कार¸
गिरा धर पर देह बिसार।
लगा लोटने बारम्बार¸
बहने लगी रक्त की धार॥24॥
बरछे–असि–भाले गम्भीर¸
तन में लगे हुए थे तीर।
जर्जर उसका सकल शरीर¸
चेतक था व्रण–व्यथित अधीर॥25॥
करता धावों पर दृग–कोर¸
कभी मचाता दुख से शोर।
कभी देख राणा की ओर¸
रो देता¸ हो प्रेम–विभोर॥26॥
लोट–लोट सह व्यथा महान्¸
यश का फहरा अमर–निशान।
राणा–गोदी में रख शीश
चेतक ने कर दिया पयान॥27॥
घहरी दुख की घटा नवीन¸
राणा बना विकल बल–हीन।
लगा तलफने बारंबार
जैसे जल–वियोग से मीन॥28॥
"हाँ! चेतक¸ तू पलकें खोल¸
कुछ तो उठकर मुझसे बोल।
मुझको तू न बना असहाय
मत बन मुझसे निठुर अबोल॥29॥
मिला बन्धु जो खोकर काल
तो तेरा चेतक¸ यह हाल!
हा चेतक¸ हा चेतक¸ हाय्"¸
कहकर चिपक गया तत्काल॥30॥
"अभी न तू तुझसे मुख मोड़¸
न तू इस तरह नाता तोड़।
इस भव–सागर–बीच अपार
दुख सहने के लिए न छोड़॥31॥
बैरी को देना परिताप¸
गज–मस्तक पर तेरी टाप।
फिर यह तेरी निद्रा देख
विष–सा चढ़ता है संताप॥32॥
हाय¸ पतन में तेरा पात¸
क्षत पर कठिन लवण–आघात।
हा¸ उठ जा¸ तू मेरे बन्धु¸
पल–पल बढ़ती आती रात॥33॥
चला गया गज रामप्रसाद¸
तू भी चला बना आजाद।
हा¸ मेरा अब राजस्थान
दिन पर दिन होगा बरबाद॥34॥
किस पर देश करे अभिमान¸
किस पर छाती हो उत्तान।
भाला मौन¸ मौन असि म्यान¸
इस पर कुछ तो कर तू ध्यान॥35॥
लेकर क्या होगा अब राज¸
क्या मेरे जीवन का काज?"
पाठक¸ तू भी रो दे आज
रोता है भारत–सिरताज॥36॥
तड़प–तड़प अपने नभ–गेह
आँसू बहा रहा था मेह।
देख महाराणा का हाल
बिजली व्याकुल¸ कम्पित देह॥37॥
घुल–घुल¸ पिघल–पिघलकर प्राण¸
आँसू बन–बनकर पाषाण।
निझर्र–मिस बहता था हाय
हा¸ पर्वत भी था मि`यमाण॥38॥
क्षण भर ही तक था अज्ञान¸
चमक उठा फिर उर में ज्ञान।
दिया शक्त ने अपना वाजि¸
चढ़कर आगे बढ़ा महान्॥39॥
जहाँ गड़ा चेतक–कंकाल¸
हुई जहाँ की भूमि निहाल।
बहीं देव–मन्दिर के पास¸
चबूतरा बन गया विशाल॥40॥
होता धन–यौवन का हास¸
पर है यश का अमर–विहास।
राणा रहा न¸ वाजि–विलास¸
पर उनसे उज्ज्वल इतिहास॥41॥
बनकर राणा सदृश महान
सीखें हम होना कुबार्न।
चेतक सम लें वाजि खरीद¸
जननी–पद पर हों बलिदान॥42॥
आओ खोज निकाले यन्त्र
जिससे रहें न हम परतन्त्र।
फूँके कान–कान में मन्त्र¸
बन जायें स्वाधीन–स्वतन्त्र॥43॥
हल्दीघाटी–अवनी पर
सड़ती थीं बिखरी लाशें।
होती थी घृणा घृणा को¸
बदबू करती थीं लाशें॥44॥