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"हल्दीघाटी / त्रयोदश सर्ग / श्यामनारायण पाण्डेय" के अवतरणों में अंतर

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'''त्रयोदश सर्ग: सगजो'''
  
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राणा को लेकर अविराम¸
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रूक जा¸ रूक जा¸ ऐ तलवार¸ <Br/>
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पीछे से सुन तार पुकार¸ <Br/>
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राणा उसको वैरी जान¸ <Br/>
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पीछे से सुन तार पुकार¸
काल बन गया कुन्तल तान। <Br/>
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फिरकर देखा एक सवार।
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हय से उतर पड़ा तत्काल¸
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राणा उसको वैरी जान¸
गर्दन में लटकी तलवार¸ <Br/>
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उतर वहीं घोड़े को छोड़¸ <Br/>
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पैरों पर गिर पड़ा विनीत¸ <Br/>
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बहती है आँसू की धार।
"करूणा कर तू करूणागार¸ <Br/>
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पैरों पर गिर पड़ा विनीत¸
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गले लगाया सजल–समोद। <Br/>
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दे मेरे अपराध बिसार।
मिलता था जो रज में प्रेम¸ <Br/>
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"तेरे कर में हैं तलवार्"॥19॥
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बही हवा मन्थर अनुकूल। <Br/>
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यह कह–कहकर बारंबार¸
दोनों के सिर पर अविराम¸ <Br/>
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सिसकी भरने लगा अपार।
पेड़ों ने बरसाये फूल।।22।। <Br/><Br/>
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राणा भी भूला संसार¸
कल–कल छल–छल भर स्वर–तान¸ <Br/>
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उमड़ा उर में बन्धु दुलार॥20॥
कहकर कुल–गौरव–अभिमान। <Br/>
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बही हवा मन्थर अनुकूल।
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दोनों के सिर पर अविराम¸
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पेड़ों ने बरसाये फूल॥22॥
चेतक था व्रण–व्यथित अधीर।।25।। <Br/><Br/>
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करता धावों पर दृग–कोर¸ <Br/>
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कहकर कुल–गौरव–अभिमान।
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उनके निर्मल यश का गाना॥23॥
लोट–लोट सह व्यथा महान््¸ <Br/>
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यश का फहरा अमर–निशान। <Br/>
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तब तक चेतक कर चीत्कार¸
राणा–गोदी में रख शीश <Br/>
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गिरा धर पर देह बिसार।
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लगा लोटने बारम्बार¸
घहरी दुख की घटा नवीन¸ <Br/>
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बहने लगी रक्त की धार॥24॥
राणा बना विकल बल–हीन। <Br/>
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लगा तलफने बारंबार <Br/>
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बरछे–असि–भाले गम्भीर¸
जैसे जल–वियोग से मीन।।28।। <Br/><Br/>
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"हां! चेतक¸ तू पलकें खोल¸ <Br/>
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जर्जर उसका सकल शरीर¸
कुछ तो उठकर मुझसे बोल। <Br/>
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चेतक था व्रण–व्यथित अधीर॥25॥
मुझको तू न बना असहाय <Br/>
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करता धावों पर दृग–कोर¸
मिला बन्धु जो खोकर काल <Br/>
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कभी मचाता दुख से शोर।
तो तेरा चेतक¸ यह हाल! <Br/>
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कभी देख राणा की ओर¸
हा चेतक¸ हा चेतक¸ हाय्"¸ <Br/>
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रो देता¸ हो प्रेम–विभोर॥26॥
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"अभी न तू तुझसे मुख मोड़¸ <Br/>
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लोट–लोट सह व्यथा महान्¸
न तू इस तरह नाता तोड़। <Br/>
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यश का फहरा अमर–निशान।
इस भव–सागर–बीच अपार <Br/>
+
राणा–गोदी में रख शीश
दुख सहने के लिए न छोड़।।31।। <Br/><Br/>
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चेतक ने कर दिया पयान॥27॥
बैरी को देना परिताप¸ <Br/>
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गज–मस्तक पर तेरी टाप। <Br/>
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घहरी दुख की घटा नवीन¸
फिर यह तेरी निद्रा देख <Br/>
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राणा बना विकल बल–हीन।
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लगा तलफने बारंबार
हाय¸ पतन में तेरा पात¸ <Br/>
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जैसे जल–वियोग से मीन॥28॥
क्षत पर कठिन लवण–आघात। <Br/>
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हा¸ उठ जा¸ तू मेरे बन्धु¸ <Br/>
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"हाँ! चेतक¸ तू पलकें खोल¸
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कुछ तो उठकर मुझसे बोल।
चला गया गज रामप्रसाद¸ <Br/>
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मुझको तू न बना असहाय
तू भी चला बना आजाद। <Br/>
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मत बन मुझसे निठुर अबोल॥29॥
हा¸ मेरा अब राजस्थान <Br/>
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दिन पर दिन होगा बरबाद।।34।। <Br/><Br/>
+
मिला बन्धु जो खोकर काल
किस पर देश करे अभिमान¸ <Br/>
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तो तेरा चेतक¸ यह हाल!
किस पर छाती हो उत्तान। <Br/>
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हा चेतक¸ हा चेतक¸ हाय्"¸
भाला मौन¸ मौन असि म्यान¸ <Br/>
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कहकर चिपक गया तत्काल॥30॥
इस पर कुछ तो कर तू ध्यान।।35।। <Br/><Br/>
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लेकर क्या होगा अब राज¸ <Br/>
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"अभी न तू तुझसे मुख मोड़¸
क्या मेरे जीवन का काज?" <Br/>
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न तू इस तरह नाता तोड़।
पाठक¸ तू भी रो दे आज <Br/>
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इस भव–सागर–बीच अपार
रोता है भारत–सिरताज।।36।। <Br/><Br/>
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दुख सहने के लिए न छोड़॥31॥
तड़प–तड़प अपने नभ–गेह <Br/>
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आंसू बहा रहा था मेह। <Br/>
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बैरी को देना परिताप¸
देख महाराणा का हाल <Br/>
+
गज–मस्तक पर तेरी टाप।
बिजली व्याकुल¸ कम्पित देह।।37।। <Br/><Br/>
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फिर यह तेरी निद्रा देख
घुल–घुल¸ पिघल–पिघलकर प्राण¸ <Br/>
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विष–सा चढ़ता है संताप॥32॥
आंसू बन–बनकर पाषाण। <Br/>
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निझर्र–मिस बहता था हाय <Br/>
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हाय¸ पतन में तेरा पात¸
हा¸ पर्वत भी था मि`यमाण।।38।। <Br/><Br/>
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क्षत पर कठिन लवण–आघात।
क्षण भर ही तक था अज्ञान¸ <Br/>
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हा¸ उठ जा¸ तू मेरे बन्धु¸
चमक उठा फिर उर में ज्ञान। <Br/>
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पल–पल बढ़ती आती रात॥33॥
दिया शक्त ने अपना वाजि¸ <Br/>
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चढ़कर आगे बढ़ा महान््।।39।। <Br/><Br/>
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चला गया गज रामप्रसाद¸
जहां गड़ा चेतक–कंकाल¸ <Br/>
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तू भी चला बना आजाद।
हुई जहां की भूमि निहाल। <Br/>
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हा¸ मेरा अब राजस्थान
बहीं देव–मन्दिर के पास¸ <Br/>
+
दिन पर दिन होगा बरबाद॥34॥
चबूतरा बन गया विशाल।।40।। <Br/><Br/>
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होता धन–यौवन का हास¸ <Br/>
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किस पर देश करे अभिमान¸
पर है यश का अमर–विहास। <Br/>
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इस पर कुछ तो कर तू ध्यान॥35॥
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सीखें हम होना कुबार्न। <Br/>
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चेतक सम लें वाजि खरीद¸ <Br/>
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क्या मेरे जीवन का काज?"
जननी–पद पर हों बलिदान।।42।। <Br/><Br/>
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पाठक¸ तू भी रो दे आज
आओ खोज निकाले यन्त्र <Br/>
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रोता है भारत–सिरताज॥36॥
जिससे रहें न हम परतन्त्र। <Br/>
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सड़ती थीं बिखरी लाशें। <Br/>
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बदबू करती थीं लाशें।।44।। <Br/><Br/>
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चेतक सम लें वाजि खरीद¸
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जननी–पद पर हों बलिदान॥42॥
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आओ खोज निकाले यन्त्र
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जिससे रहें न हम परतन्त्र।
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बन जायें स्वाधीन–स्वतन्त्र॥43॥
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हल्दीघाटी–अवनी पर
 +
सड़ती थीं बिखरी लाशें।
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होती थी घृणा घृणा को¸
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बदबू करती थीं लाशें॥44॥
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10:48, 12 अगस्त 2016 के समय का अवतरण

त्रयोदश सर्ग: सगजो

कुछ बचे सिपाही शेष¸
हट जाने का दे आदेश।
अपने भी हट गया नरेश¸
वह मेवाड़–गगन–राकेश॥1॥

बनकर महाकाल का काल¸
जूझ पड़ा अरि से तत्काल।
उसके हाथों में विकराल¸
मरते दम तक थी करवाल॥2॥

उसपर तन–मन–धन बलिहार
झाला धन्य¸ धन्य परिवार।
राणा ने कह–कह शत–बार¸
कुल को दिया अमर अधिकार॥3॥

हाय¸ ग्वालियर का सिरताज¸
सेनप रामसिंह अधिराज।
उसका जगमग जगमग ताज¸
शोणित–रज–लुiण्ठत है आज॥4॥

राजे–महराजे–सरदार¸
जो मिट गये लिये तलवार।
उनके तर्पण में अविकार¸
आँखों से आँसू की धार॥5॥

बढ़ता जाता विकल अपार
घोड़े पर हो व्यथित सवार।
सोच रहा था बारम्बार¸
कैसे हो माँ का उद्धार॥6॥

मैंने किया मुगल–बलिदान¸
लोहू से लोहित मैदान।
बचकर निकल गया पर मान¸
पूरा हो न सका अरमान॥7॥

कैसे बचे देश–सम्मान
कैसे बचा रहे अभिमान!
कैसे हो भू का उत्थान¸
मेरे एकलिंग भगवान॥8॥

स्वतन्त्रता का झगड़ा तान¸
कब गरजेगा राजस्थान!
उधर उड़ रहा था वह वाजि¸
स्वामी–रक्षा का कर ध्यान॥9॥

उसको नद–नाले–चट्टान¸
सकते रोक न वन–वीरान।
राणा को लेकर अविराम¸
उसको बढ़ने का था ध्यान॥10॥

पड़ी अचानक नदी अपार¸
घोड़ा कैसे उतरे पार।
राणा ने सोचा इस पार¸
तब तक चेतक था उस पार॥11॥

शक्तसिंह भी ले तलवार
करने आया था संहार।
पर उमड़ा राणा को देख
भाई–भाई का मधु प्यार॥12॥

चेतक के पीछे दो काल¸
पड़े हुए थे ले असि ढाल।
उसने पथ में उनको मार¸
की अपनी पावन करवाल॥13॥

आगे बढ़कर भुजा पसार¸
बोला आँखों से जल ढार।
रूक जा¸ रूक जा¸ ऐ तलवार¸
नीला–घोड़ारा असवार॥14॥

पीछे से सुन तार पुकार¸
फिरकर देखा एक सवार।
हय से उतर पड़ा तत्काल¸
लेकर हाथों में तलवार॥15॥

राणा उसको वैरी जान¸
काल बन गया कुन्तल तान।
बोला "कर लें शोणित पान¸
आ¸ तुझको भी दें बलिदान्"॥16॥

पर देखा झर–झर अविकार
बहती है आँसू की धार।
गर्दन में लटकी तलवार¸
घोड़े पर है शक्त सवार॥17॥

उतर वहीं घोड़े को छोड़¸
चला शक्त कम्पित कर जोड़।
पैरों पर गिर पड़ा विनीत¸
बोला धीरज बन्धन तोड़॥18॥

"करूणा कर तू करूणागार¸
दे मेरे अपराध बिसार।
या मेरा दे गला उतार¸
"तेरे कर में हैं तलवार्"॥19॥

यह कह–कहकर बारंबार¸
सिसकी भरने लगा अपार।
राणा भी भूला संसार¸
उमड़ा उर में बन्धु दुलार॥20॥

उसे उठाकर लेकर गोद¸
गले लगाया सजल–समोद।
मिलता था जो रज में प्रेम¸
किया उसे सुरभित–सामोद॥21॥

लेकर वन्य–कुसुम की धूल¸
बही हवा मन्थर अनुकूल।
दोनों के सिर पर अविराम¸
पेड़ों ने बरसाये फूल॥22॥

कल–कल छल–छल भर स्वर–तान¸
कहकर कुल–गौरव–अभिमान।
नाले ने गाया स–तरंग¸
उनके निर्मल यश का गाना॥23॥

तब तक चेतक कर चीत्कार¸
गिरा धर पर देह बिसार।
लगा लोटने बारम्बार¸
बहने लगी रक्त की धार॥24॥

बरछे–असि–भाले गम्भीर¸
तन में लगे हुए थे तीर।
जर्जर उसका सकल शरीर¸
चेतक था व्रण–व्यथित अधीर॥25॥

करता धावों पर दृग–कोर¸
कभी मचाता दुख से शोर।
कभी देख राणा की ओर¸
रो देता¸ हो प्रेम–विभोर॥26॥

लोट–लोट सह व्यथा महान्¸
यश का फहरा अमर–निशान।
राणा–गोदी में रख शीश
चेतक ने कर दिया पयान॥27॥

घहरी दुख की घटा नवीन¸
राणा बना विकल बल–हीन।
लगा तलफने बारंबार
जैसे जल–वियोग से मीन॥28॥

"हाँ! चेतक¸ तू पलकें खोल¸
कुछ तो उठकर मुझसे बोल।
मुझको तू न बना असहाय
मत बन मुझसे निठुर अबोल॥29॥

मिला बन्धु जो खोकर काल
तो तेरा चेतक¸ यह हाल!
हा चेतक¸ हा चेतक¸ हाय्"¸
कहकर चिपक गया तत्काल॥30॥

"अभी न तू तुझसे मुख मोड़¸
न तू इस तरह नाता तोड़।
इस भव–सागर–बीच अपार
दुख सहने के लिए न छोड़॥31॥

बैरी को देना परिताप¸
गज–मस्तक पर तेरी टाप।
फिर यह तेरी निद्रा देख
विष–सा चढ़ता है संताप॥32॥

हाय¸ पतन में तेरा पात¸
क्षत पर कठिन लवण–आघात।
हा¸ उठ जा¸ तू मेरे बन्धु¸
पल–पल बढ़ती आती रात॥33॥

चला गया गज रामप्रसाद¸
तू भी चला बना आजाद।
हा¸ मेरा अब राजस्थान
दिन पर दिन होगा बरबाद॥34॥

किस पर देश करे अभिमान¸
किस पर छाती हो उत्तान।
भाला मौन¸ मौन असि म्यान¸
इस पर कुछ तो कर तू ध्यान॥35॥

लेकर क्या होगा अब राज¸
क्या मेरे जीवन का काज?"
पाठक¸ तू भी रो दे आज
रोता है भारत–सिरताज॥36॥

तड़प–तड़प अपने नभ–गेह
आँसू बहा रहा था मेह।
देख महाराणा का हाल
बिजली व्याकुल¸ कम्पित देह॥37॥

घुल–घुल¸ पिघल–पिघलकर प्राण¸
आँसू बन–बनकर पाषाण।
निझर्र–मिस बहता था हाय
हा¸ पर्वत भी था मि`यमाण॥38॥

क्षण भर ही तक था अज्ञान¸
चमक उठा फिर उर में ज्ञान।
दिया शक्त ने अपना वाजि¸
चढ़कर आगे बढ़ा महान्॥39॥

जहाँ गड़ा चेतक–कंकाल¸
हुई जहाँ की भूमि निहाल।
बहीं देव–मन्दिर के पास¸
चबूतरा बन गया विशाल॥40॥

होता धन–यौवन का हास¸
पर है यश का अमर–विहास।
राणा रहा न¸ वाजि–विलास¸
पर उनसे उज्ज्वल इतिहास॥41॥

बनकर राणा सदृश महान
सीखें हम होना कुबार्न।
चेतक सम लें वाजि खरीद¸
जननी–पद पर हों बलिदान॥42॥

आओ खोज निकाले यन्त्र
जिससे रहें न हम परतन्त्र।
फूँके कान–कान में मन्त्र¸
बन जायें स्वाधीन–स्वतन्त्र॥43॥

हल्दीघाटी–अवनी पर
सड़ती थीं बिखरी लाशें।
होती थी घृणा घृणा को¸
बदबू करती थीं लाशें॥44॥