"हल्दीघाटी / पंचदश सर्ग / श्यामनारायण पाण्डेय" के अवतरणों में अंतर
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| + | बीता पर्वत पर | ||
| + | नीलम घासें लहराई। | ||
| + | कासों की श्वेत ध्वजाएँ | ||
| + | किसने आकर फहराई?॥1॥ | ||
| − | + | नव पारिजात–कलिका का | |
| + | मारूत आलिंगन करता | ||
| + | कम्पित–तन मुसकाती है | ||
| + | वह सुरभि–प्यार ले बहता॥2॥ | ||
| − | + | कर स्नान नियति–रमणी ने¸ | |
| + | नव हरित वसन है पहना। | ||
| + | किससे मिलने को तन में | ||
| + | झिलमिल तारों का गहना॥3॥ | ||
| − | + | पर्वत पर¸ अवनीतल पर¸ | |
| − | + | तरू–तरू के नीलम दल पर¸ | |
| − | + | यह किसका बिछा रजत–तट | |
| − | + | सागर के वक्ष:स्थल पर॥4॥ | |
| − | + | ||
| − | + | वह किसका हृदय निकलकर | |
| − | + | नीरव नभ पर मुसकाता? | |
| − | + | वह कौन सुधा वसुधा पर | |
| − | + | रिमझिम–रिमझिम बरसाता॥5॥ | |
| − | + | ||
| − | + | तारक मोती का गजरा | |
| − | + | है कौन उसे पहनाता? | |
| − | पर्वत पर¸ अवनीतल पर¸ | + | नभ के सुकुमार हृदय पर |
| − | तरू–तरू के नीलम दल पर¸ | + | वह किसको कौन रिझाता ॥6॥ |
| − | यह किसका बिछा रजत–तट | + | |
| − | सागर के वक्ष:स्थल | + | पूजा के लिए किसी की |
| − | वह किसका हृदय निकलकर | + | क्या नभ–सर कमल खिलाता? |
| − | नीरव नभ पर मुसकाता? | + | गुदगुदा सती रजनी को |
| − | वह कौन सुधा वसुधा पर | + | वह कौन छली इतराता॥7॥ |
| − | रिमझिम–रिमझिम | + | |
| − | तारक मोती का गजरा | + | वह झूम–झूमकर किसको |
| − | है कौन उसे पहनाता? | + | नव नीरव–गान सुनाता? |
| − | नभ के सुकुमार हृदय पर | + | क्या शशि तारक मोती से |
| − | वह किसको कौन रिझाता | + | नभ नीलम–थाल सजाता॥8॥ |
| − | पूजा के लिए किसी की | + | |
| − | क्या नभ–सर कमल खिलाता? | + | जब से शशि को पहरे पर |
| − | गुदगुदा सती रजनी को | + | दिनकर सो गया जगाकर¸ |
| − | वह कौन छली | + | कविता–सी कौन छिपी है |
| − | वह झूम–झूमकर किसको | + | यह ओढ़ रूपहली चादर॥9॥ |
| − | नव नीरव–गान सुनाता? | + | |
| − | क्या शशि तारक मोती से | + | क्या चांदी की डोरी से |
| − | नभ नीलम–थाल | + | वह नाप रहा है दूरी? |
| − | जब से शशि को पहरे पर | + | या शेष जगह भू–नभ की |
| − | दिनकर सो गया जगाकर¸ | + | करता ज्योत्स्ना से पूरी॥10॥ |
| − | कविता–सी कौन छिपी है | + | |
| − | यह ओढ़ रूपहली | + | इस उजियाली में जिसमें |
| − | क्या चांदी की डोरी से | + | हँसता है कलित–कलाधर। |
| − | वह नाप रहा है दूरी? | + | है कौन खोजता किसको |
| − | या शेष जगह भू–नभ की | + | जुगनू के दीप जलाकर॥11॥ |
| − | करता ज्योत्स्ना से | + | |
| − | इस उजियाली में जिसमें | + | लहरों से मृदु अधरों का |
| − | + | विधु झुक–झुक करता चुम्बन। | |
| − | है कौन खोजता किसको | + | धुल कोई के प्राणों में |
| − | जुगनू के दीप | + | वह बना रहा जग निधुवन॥12॥ |
| − | लहरों से मृदु अधरों का | + | |
| − | विधु झुक–झुक करता चुम्बन। | + | घूंघट–पट खोल शशी से |
| − | धुल कोई के प्राणों में | + | हँसती है कुमुद–किशोरी। |
| − | वह बना रहा जग | + | छवि देख देख बलि जाती |
| − | घूंघट–पट खोल शशी से | + | बेसुध अनिमेष चकोरी॥13॥ |
| − | + | ||
| − | छवि देख देख बलि जाती | + | इन दूबों के टुनगों पर |
| − | बेसुध अनिमेष | + | किसने मोती बिखराये? |
| − | इन दूबों के टुनगों पर | + | या तारे नील–गगन से |
| − | किसने मोती बिखराये? | + | स्वच्छन्द विचरने आये॥14॥ |
| − | या तारे नील–गगन से | + | |
| − | स्वच्छन्द विचरने | + | या बँधी हुई हैं अरि की |
| − | या | + | जिसके कर में हथकड़ियां¸ |
| − | जिसके कर में हथकड़ियां¸ | + | उस पराधीन जननी की |
| − | उस पराधीन जननी की | + | बिखरी आँसू की लड़ियां॥15॥ |
| − | बिखरी | + | |
| − | इस स्मृति से ही राणा के | + | इस स्मृति से ही राणा के |
| − | उर की कलियां मुरझाई। | + | उर की कलियां मुरझाई। |
| − | मेवाड़–भूमि को देखा¸ | + | मेवाड़–भूमि को देखा¸ |
| − | उसकी | + | उसकी आँखें भर आई॥16॥ |
| − | अब समझा साधु सुधाकर | + | |
| − | कर से सहला–सहलाकर। | + | अब समझा साधु सुधाकर |
| − | दुर्दिन में मिटा रहा है | + | कर से सहला–सहलाकर। |
| − | उर–ताप सुधा | + | दुर्दिन में मिटा रहा है |
| − | जननी–रक्षा–हित जितने | + | उर–ताप सुधा बरसाकर॥17॥ |
| − | मेरे रणधीर मरे हैं¸ | + | |
| − | वे ही विस्तृत अम्बर पर | + | जननी–रक्षा–हित जितने |
| − | तारों के मिस बिखरे | + | मेरे रणधीर मरे हैं¸ |
| − | मानव–गौरव–हित मैंने | + | वे ही विस्तृत अम्बर पर |
| − | उन्मत्त लड़ाई छेड़ी। | + | तारों के मिस बिखरे हैं॥18॥ |
| − | अब पड़ी हुई है | + | |
| − | पैरों में अरि की | + | मानव–गौरव–हित मैंने |
| − | पर | + | उन्मत्त लड़ाई छेड़ी। |
| − | मेरी तलवर बनी है¸ | + | अब पड़ी हुई है माँ के |
| − | सीने में घुस जाने को | + | पैरों में अरि की बेड़ी॥19॥ |
| − | भाले की तीव्र अनी | + | |
| − | जब तक नस में शोणित है | + | पर हाँ¸ जब तक हाथों में |
| − | श्वासों का ताना–बाना¸ | + | मेरी तलवर बनी है¸ |
| − | तब तक अरि–दीप बुझाना | + | सीने में घुस जाने को |
| − | है बन–बनकर | + | भाले की तीव्र अनी है॥20॥ |
| − | घासों की रूखी रोटी¸ | + | |
| − | जब तक सोत का पानी। | + | जब तक नस में शोणित है |
| − | तब तक जननी–हित होगी | + | श्वासों का ताना–बाना¸ |
| − | कुबार्नी पर | + | तब तक अरि–दीप बुझाना |
| − | राणा ने विधु तारों को | + | है बन–बनकर परवाना॥21॥ |
| − | अपना प्रण–गान सुनाया। | + | |
| − | उसके उस गान वचन को | + | घासों की रूखी रोटी¸ |
| − | गिरि–कण–कण ने | + | जब तक सोत का पानी। |
| − | इतने में अचल–गुहा से | + | तब तक जननी–हित होगी |
| − | शिशु–क्रन्दन की ध्वनि आई? | + | कुबार्नी पर कुबार्नी॥22॥ |
| − | कन्या के क्रन्दन में थी | + | |
| − | करूणा की व्यथा | + | राणा ने विधु तारों को |
| − | उसमें कारागृह से थी | + | अपना प्रण–गान सुनाया। |
| − | जननी की अचिर रिहाई। | + | उसके उस गान वचन को |
| − | या उसमें थी राणा से | + | गिरि–कण–कण ने दुहराया॥23॥ |
| − | + | ||
| − | भालों से¸ तलवारों से¸ | + | इतने में अचल–गुहा से |
| − | तीरों की बौछारों से¸ | + | शिशु–क्रन्दन की ध्वनि आई? |
| − | जिसका न हृदय चंचल था | + | कन्या के क्रन्दन में थी |
| − | वैरी–दल ललकारा | + | करूणा की व्यथा समाई॥24॥ |
| − | दो दिन पर मिलती रोटी | + | |
| − | वह भी तृण की घासों की¸ | + | उसमें कारागृह से थी |
| − | कंकड़–पत्थर की शय्या¸ | + | जननी की अचिर रिहाई। |
| − | परवाह न आवासों | + | या उसमें थी राणा से |
| − | लाशों पर लाशें देखीं¸ | + | माँ की चिर छिपी जुदाई॥25॥ |
| − | घायल कराहते देखे। | + | |
| − | अपनी | + | भालों से¸ तलवारों से¸ |
| − | निज दुर्ग ढाहते | + | तीरों की बौछारों से¸ |
| − | तो भी उस वीर–व्रती का | + | जिसका न हृदय चंचल था |
| − | था अचल हिमालय–सा मन। | + | वैरी–दल ललकारा से॥26॥ |
| − | पर हिम–सा पिघल गया वह | + | |
| − | सुनकर कन्या का | + | दो दिन पर मिलती रोटी |
| − | + | वह भी तृण की घासों की¸ | |
| − | + | कंकड़–पत्थर की शय्या¸ | |
| − | नयनों के पथ से पीड़ा | + | परवाह न आवासों की॥27॥ |
| − | सरिता–सी बहकर | + | |
| − | भूखे–प्यासे–कुम्हालाये | + | लाशों पर लाशें देखीं¸ |
| − | शिशु को गोदी में लेकर। | + | घायल कराहते देखे। |
| − | पूछा¸ | + | अपनी आँखों से अरि को |
| − | करूणा को करूणा देकर्" | + | निज दुर्ग ढाहते देखे॥28॥ |
| − | अपनी तुतली भाषा में | + | |
| − | वह सिसक–सिसककर बोली¸ | + | तो भी उस वीर–व्रती का |
| − | जलती थी भूख तृषा की | + | था अचल हिमालय–सा मन। |
| − | उसके अन्तर में | + | पर हिम–सा पिघल गया वह |
| − | + | सुनकर कन्या का क्रन्दन॥29॥ | |
| − | अब आज भूख की ज्वाला। | + | |
| − | कल छे ही प्याछ लगी है | + | आँसू की पावन गंगा |
| − | हो लहा हिदय | + | आँखों से झर–झर निकली। |
| − | + | नयनों के पथ से पीड़ा | |
| − | मुझको दी थी खाने को¸ | + | सरिता–सी बहकर निकली॥30॥ |
| − | छोते का पानी देकल | + | |
| − | वह बोली भग जाने | + | भूखे–प्यासे–कुम्हालाये |
| − | अम्मा छे दूल यहीं पल | + | शिशु को गोदी में लेकर। |
| − | छूकी लोती खाती थी। | + | पूछा¸ "तुम क्यों रोती हो |
| − | जो पहले छुना चुकी | + | करूणा को करूणा देकर्"॥31॥ |
| − | वह देछ–गीत गाती | + | |
| − | छच कहती केवल मैंने | + | अपनी तुतली भाषा में |
| − | एकाध कवल खाया था। | + | वह सिसक–सिसककर बोली¸ |
| − | तब तक बिलाव ले भागा | + | जलती थी भूख तृषा की |
| − | जो इछी लिए आया | + | उसके अन्तर में होली॥32॥ |
| − | छुनती | + | |
| − | मैं प्याली छौनी तेली। | + | 'हा छही न जाती मुझछे |
| − | क्या दया न तुझको आती | + | अब आज भूख की ज्वाला। |
| − | यह दछा देखकल | + | कल छे ही प्याछ लगी है |
| − | लोती थी तो देता था¸ | + | हो लहा हिदय मतवाला॥33॥ |
| − | खाने को मुझे मिठाई। | + | |
| − | अब खाने को लोती तो | + | माँ ने घाछों की लोती |
| − | आती क्यों तुझे | + | मुझको दी थी खाने को¸ |
| − | वह कौन छत्रु है जिछने | + | छोते का पानी देकल |
| − | छेना का नाछ किया है? | + | वह बोली भग जाने को॥34॥ |
| − | तुझको¸ | + | |
| − | जिछने बनबाछ दिया | + | अम्मा छे दूल यहीं पल |
| − | यक छोती छी पैनी छी | + | छूकी लोती खाती थी। |
| − | तलवाल मुझे भी दे दे। | + | जो पहले छुना चुकी हूँ¸ |
| − | मैं उछको माल | + | वह देछ–गीत गाती थी॥35॥ |
| − | छन मुझको लन कलने | + | |
| − | कन्या की बातें सुनकर | + | छच कहती केवल मैंने |
| − | रो पड़ी अचानक रानी। | + | एकाध कवल खाया था। |
| − | राणा की | + | तब तक बिलाव ले भागा |
| − | अविरल बहता था | + | जो इछी लिए आया था॥36॥ |
| − | उस निर्जन में बच्चों ने | + | |
| − | + | छुनती हूँ तू लाजा है | |
| − | लघु–शिशु–विलाप सुन–सुनकर | + | मैं प्याली छौनी तेली। |
| − | धीरज ने धीरज | + | क्या दया न तुझको आती |
| − | वह स्वतन्त्रता कैसी है | + | यह दछा देखकल मेली॥37॥ |
| − | वह कैसी है आजादी। | + | |
| − | जिसके पद पर बच्चों ने | + | लोती थी तो देता था¸ |
| − | अपनी मुक्ता बिखरा | + | खाने को मुझे मिठाई। |
| − | सहने की सीमा होती | + | अब खाने को लोती तो |
| − | सह सका न पीड़ा अन्तर। | + | आती क्यों तुझे लुलाई॥38॥ |
| − | हा¸ सiन्ध–पत्र लिखने को | + | |
| − | वह बैठ गया आसन | + | वह कौन छत्रु है जिछने |
| − | कह | + | छेना का नाछ किया है? |
| − | राणा का थाम लिया कर। | + | तुझको¸ माँ को¸ हम छभको¸ |
| − | बोली अधीर पति से वह | + | जिछने बनबाछ दिया है॥39॥ |
| − | कागद मसिपात्र | + | |
| − | + | यक छोती छी पैनी छी | |
| − | तू जननी–सेवा–रत है। | + | तलवाल मुझे भी दे दे। |
| − | सच कोई मुझसे पूछे | + | मैं उछको माल भगाऊँ |
| − | तो तू ही तू भारत | + | छन मुझको लन कलने दे॥40॥ |
| − | तू प्राण सनातन का है | + | |
| − | मानवता का जीवन है। | + | कन्या की बातें सुनकर |
| − | तू सतियों का अंचल है | + | रो पड़ी अचानक रानी। |
| − | तू पावनता का धन | + | राणा की आँखों से भी |
| − | यदि तू ही कायर बनकर | + | अविरल बहता था पानी॥41॥ |
| − | वैरी सiन्ध करेगा। | + | |
| − | तो कौन भला भारत का | + | उस निर्जन में बच्चों ने |
| − | बोझा माथे पर | + | माँ–माँ कह–कहकर रोया। |
| − | लुट गये लाल गोदी के | + | लघु–शिशु–विलाप सुन–सुनकर |
| − | तेरे अनुगामी होकर। | + | धीरज ने धीरज खोया॥42॥ |
| − | कितनी विधवाएं रोतीं | + | |
| − | अपने प्रियतम को | + | वह स्वतन्त्रता कैसी है |
| − | आज़ादी का लालच दे | + | वह कैसी है आजादी। |
| − | झाला का प्रान लिया है। | + | जिसके पद पर बच्चों ने |
| − | चेतक–सा वाजि गंवाकर | + | अपनी मुक्ता बिखरा दी॥43॥ |
| − | पूरा अरमान किया | + | |
| − | तू | + | सहने की सीमा होती |
| − | कह कितना है अधिकारी? | + | सह सका न पीड़ा अन्तर। |
| − | जब बन्दी | + | हा¸ सiन्ध–पत्र लिखने को |
| − | अब तक | + | वह बैठ गया आसन पर॥44॥ |
| − | थक गया समर से तो तब¸ | + | |
| − | रक्षा का भार मुझे दे। | + | कह 'सावधान्' रानी ने |
| − | मैं चण्डी–सी बन जाऊं | + | राणा का थाम लिया कर। |
| − | अपनी तलवार मुझे | + | बोली अधीर पति से वह |
| − | मधुमय कटु बातें सुनकर | + | कागद मसिपात्र छिपाकर॥45॥ |
| − | देखा ऊपर अकुलाकर¸ | + | |
| − | कायरता पर | + | "तू भारत का गौरव है¸ |
| − | तारों के साथ | + | तू जननी–सेवा–रत है। |
| − | झाला सम्मुख मुसकाता | + | सच कोई मुझसे पूछे |
| − | चेतक धिक्कार रहा है। | + | तो तू ही तू भारत है॥46॥ |
| − | असि चाह रही कन्या भी | + | |
| − | तू | + | तू प्राण सनातन का है |
| − | मर मिटे वीर जितने थे¸ | + | मानवता का जीवन है। |
| − | वे एक–एक कर आते। | + | तू सतियों का अंचल है |
| − | रानी की जय–जय करते¸ | + | तू पावनता का धन है॥47॥ |
| − | उससे हैं | + | |
| − | हो उठा विकल उर–नभ का | + | यदि तू ही कायर बनकर |
| − | हट गया मोह–धन काला। | + | वैरी सiन्ध करेगा। |
| − | देखा वह ही रानी है | + | तो कौन भला भारत का |
| − | वह ही अपनी | + | बोझा माथे पर लेगा॥48॥ |
| − | बोला वह अपने कर में | + | |
| − | रमणी कर थाम | + | लुट गये लाल गोदी के |
| − | हो गया निहाल जगत में¸ | + | तेरे अनुगामी होकर। |
| − | मैं तुम सी रानी | + | कितनी विधवाएं रोतीं |
| − | इतने में वैरी–सेना ने | + | अपने प्रियतम को खोकर॥49॥ |
| − | राणा को | + | |
| − | पर्वत पर हाहाकार मचा | + | आज़ादी का लालच दे |
| − | तलवारें झनकी बल | + | झाला का प्रान लिया है। |
| − | तब तक आये रणधीर भील | + | चेतक–सा वाजि गंवाकर |
| − | अपने कर में हथियार लिये। | + | पूरा अरमान किया है॥50॥ |
| − | पा उनकी मदद छिपा राणा | + | |
| − | अपना भूखा परिवार | + | तू सन्धि–पत्र लिखने का |
| + | कह कितना है अधिकारी? | ||
| + | जब बन्दी माँ के दृग से | ||
| + | अब तक आँसू है जारी॥51॥ | ||
| + | |||
| + | थक गया समर से तो तब¸ | ||
| + | रक्षा का भार मुझे दे। | ||
| + | मैं चण्डी–सी बन जाऊं | ||
| + | अपनी तलवार मुझे दे।"॥52॥ | ||
| + | |||
| + | मधुमय कटु बातें सुनकर | ||
| + | देखा ऊपर अकुलाकर¸ | ||
| + | कायरता पर हँसता था | ||
| + | तारों के साथ निशाकर॥53॥ | ||
| + | |||
| + | झाला सम्मुख मुसकाता | ||
| + | चेतक धिक्कार रहा है। | ||
| + | असि चाह रही कन्या भी | ||
| + | तू आँसू ढार रहा है॥54॥ | ||
| + | |||
| + | मर मिटे वीर जितने थे¸ | ||
| + | वे एक–एक कर आते। | ||
| + | रानी की जय–जय करते¸ | ||
| + | उससे हैं आँख चुराते॥55॥ | ||
| + | |||
| + | हो उठा विकल उर–नभ का | ||
| + | हट गया मोह–धन काला। | ||
| + | देखा वह ही रानी है | ||
| + | वह ही अपनी तृण–शाला॥56॥ | ||
| + | |||
| + | बोला वह अपने कर में | ||
| + | रमणी कर थाम "क्षमा कर¸ | ||
| + | हो गया निहाल जगत में¸ | ||
| + | मैं तुम सी रानी पाकर।"॥57॥ | ||
| + | |||
| + | इतने में वैरी–सेना ने | ||
| + | राणा को घेर लिया आकर। | ||
| + | पर्वत पर हाहाकार मचा | ||
| + | तलवारें झनकी बल खाकर॥58॥ | ||
| + | |||
| + | तब तक आये रणधीर भील | ||
| + | अपने कर में हथियार लिये। | ||
| + | पा उनकी मदद छिपा राणा | ||
| + | अपना भूखा परिवार लिये॥59॥ | ||
| + | </poem> | ||
11:05, 12 अगस्त 2016 के समय का अवतरण
पंचदश सर्ग: सगपावस
बीता पर्वत पर
नीलम घासें लहराई।
कासों की श्वेत ध्वजाएँ
किसने आकर फहराई?॥1॥
नव पारिजात–कलिका का
मारूत आलिंगन करता
कम्पित–तन मुसकाती है
वह सुरभि–प्यार ले बहता॥2॥
कर स्नान नियति–रमणी ने¸
नव हरित वसन है पहना।
किससे मिलने को तन में
झिलमिल तारों का गहना॥3॥
पर्वत पर¸ अवनीतल पर¸
तरू–तरू के नीलम दल पर¸
यह किसका बिछा रजत–तट
सागर के वक्ष:स्थल पर॥4॥
वह किसका हृदय निकलकर
नीरव नभ पर मुसकाता?
वह कौन सुधा वसुधा पर
रिमझिम–रिमझिम बरसाता॥5॥
तारक मोती का गजरा
है कौन उसे पहनाता?
नभ के सुकुमार हृदय पर
वह किसको कौन रिझाता ॥6॥
पूजा के लिए किसी की
क्या नभ–सर कमल खिलाता?
गुदगुदा सती रजनी को
वह कौन छली इतराता॥7॥
वह झूम–झूमकर किसको
नव नीरव–गान सुनाता?
क्या शशि तारक मोती से
नभ नीलम–थाल सजाता॥8॥
जब से शशि को पहरे पर
दिनकर सो गया जगाकर¸
कविता–सी कौन छिपी है
यह ओढ़ रूपहली चादर॥9॥
क्या चांदी की डोरी से
वह नाप रहा है दूरी?
या शेष जगह भू–नभ की
करता ज्योत्स्ना से पूरी॥10॥
इस उजियाली में जिसमें
हँसता है कलित–कलाधर।
है कौन खोजता किसको
जुगनू के दीप जलाकर॥11॥
लहरों से मृदु अधरों का
विधु झुक–झुक करता चुम्बन।
धुल कोई के प्राणों में
वह बना रहा जग निधुवन॥12॥
घूंघट–पट खोल शशी से
हँसती है कुमुद–किशोरी।
छवि देख देख बलि जाती
बेसुध अनिमेष चकोरी॥13॥
इन दूबों के टुनगों पर
किसने मोती बिखराये?
या तारे नील–गगन से
स्वच्छन्द विचरने आये॥14॥
या बँधी हुई हैं अरि की
जिसके कर में हथकड़ियां¸
उस पराधीन जननी की
बिखरी आँसू की लड़ियां॥15॥
इस स्मृति से ही राणा के
उर की कलियां मुरझाई।
मेवाड़–भूमि को देखा¸
उसकी आँखें भर आई॥16॥
अब समझा साधु सुधाकर
कर से सहला–सहलाकर।
दुर्दिन में मिटा रहा है
उर–ताप सुधा बरसाकर॥17॥
जननी–रक्षा–हित जितने
मेरे रणधीर मरे हैं¸
वे ही विस्तृत अम्बर पर
तारों के मिस बिखरे हैं॥18॥
मानव–गौरव–हित मैंने
उन्मत्त लड़ाई छेड़ी।
अब पड़ी हुई है माँ के
पैरों में अरि की बेड़ी॥19॥
पर हाँ¸ जब तक हाथों में
मेरी तलवर बनी है¸
सीने में घुस जाने को
भाले की तीव्र अनी है॥20॥
जब तक नस में शोणित है
श्वासों का ताना–बाना¸
तब तक अरि–दीप बुझाना
है बन–बनकर परवाना॥21॥
घासों की रूखी रोटी¸
जब तक सोत का पानी।
तब तक जननी–हित होगी
कुबार्नी पर कुबार्नी॥22॥
राणा ने विधु तारों को
अपना प्रण–गान सुनाया।
उसके उस गान वचन को
गिरि–कण–कण ने दुहराया॥23॥
इतने में अचल–गुहा से
शिशु–क्रन्दन की ध्वनि आई?
कन्या के क्रन्दन में थी
करूणा की व्यथा समाई॥24॥
उसमें कारागृह से थी
जननी की अचिर रिहाई।
या उसमें थी राणा से
माँ की चिर छिपी जुदाई॥25॥
भालों से¸ तलवारों से¸
तीरों की बौछारों से¸
जिसका न हृदय चंचल था
वैरी–दल ललकारा से॥26॥
दो दिन पर मिलती रोटी
वह भी तृण की घासों की¸
कंकड़–पत्थर की शय्या¸
परवाह न आवासों की॥27॥
लाशों पर लाशें देखीं¸
घायल कराहते देखे।
अपनी आँखों से अरि को
निज दुर्ग ढाहते देखे॥28॥
तो भी उस वीर–व्रती का
था अचल हिमालय–सा मन।
पर हिम–सा पिघल गया वह
सुनकर कन्या का क्रन्दन॥29॥
आँसू की पावन गंगा
आँखों से झर–झर निकली।
नयनों के पथ से पीड़ा
सरिता–सी बहकर निकली॥30॥
भूखे–प्यासे–कुम्हालाये
शिशु को गोदी में लेकर।
पूछा¸ "तुम क्यों रोती हो
करूणा को करूणा देकर्"॥31॥
अपनी तुतली भाषा में
वह सिसक–सिसककर बोली¸
जलती थी भूख तृषा की
उसके अन्तर में होली॥32॥
'हा छही न जाती मुझछे
अब आज भूख की ज्वाला।
कल छे ही प्याछ लगी है
हो लहा हिदय मतवाला॥33॥
माँ ने घाछों की लोती
मुझको दी थी खाने को¸
छोते का पानी देकल
वह बोली भग जाने को॥34॥
अम्मा छे दूल यहीं पल
छूकी लोती खाती थी।
जो पहले छुना चुकी हूँ¸
वह देछ–गीत गाती थी॥35॥
छच कहती केवल मैंने
एकाध कवल खाया था।
तब तक बिलाव ले भागा
जो इछी लिए आया था॥36॥
छुनती हूँ तू लाजा है
मैं प्याली छौनी तेली।
क्या दया न तुझको आती
यह दछा देखकल मेली॥37॥
लोती थी तो देता था¸
खाने को मुझे मिठाई।
अब खाने को लोती तो
आती क्यों तुझे लुलाई॥38॥
वह कौन छत्रु है जिछने
छेना का नाछ किया है?
तुझको¸ माँ को¸ हम छभको¸
जिछने बनबाछ दिया है॥39॥
यक छोती छी पैनी छी
तलवाल मुझे भी दे दे।
मैं उछको माल भगाऊँ
छन मुझको लन कलने दे॥40॥
कन्या की बातें सुनकर
रो पड़ी अचानक रानी।
राणा की आँखों से भी
अविरल बहता था पानी॥41॥
उस निर्जन में बच्चों ने
माँ–माँ कह–कहकर रोया।
लघु–शिशु–विलाप सुन–सुनकर
धीरज ने धीरज खोया॥42॥
वह स्वतन्त्रता कैसी है
वह कैसी है आजादी।
जिसके पद पर बच्चों ने
अपनी मुक्ता बिखरा दी॥43॥
सहने की सीमा होती
सह सका न पीड़ा अन्तर।
हा¸ सiन्ध–पत्र लिखने को
वह बैठ गया आसन पर॥44॥
कह 'सावधान्' रानी ने
राणा का थाम लिया कर।
बोली अधीर पति से वह
कागद मसिपात्र छिपाकर॥45॥
"तू भारत का गौरव है¸
तू जननी–सेवा–रत है।
सच कोई मुझसे पूछे
तो तू ही तू भारत है॥46॥
तू प्राण सनातन का है
मानवता का जीवन है।
तू सतियों का अंचल है
तू पावनता का धन है॥47॥
यदि तू ही कायर बनकर
वैरी सiन्ध करेगा।
तो कौन भला भारत का
बोझा माथे पर लेगा॥48॥
लुट गये लाल गोदी के
तेरे अनुगामी होकर।
कितनी विधवाएं रोतीं
अपने प्रियतम को खोकर॥49॥
आज़ादी का लालच दे
झाला का प्रान लिया है।
चेतक–सा वाजि गंवाकर
पूरा अरमान किया है॥50॥
तू सन्धि–पत्र लिखने का
कह कितना है अधिकारी?
जब बन्दी माँ के दृग से
अब तक आँसू है जारी॥51॥
थक गया समर से तो तब¸
रक्षा का भार मुझे दे।
मैं चण्डी–सी बन जाऊं
अपनी तलवार मुझे दे।"॥52॥
मधुमय कटु बातें सुनकर
देखा ऊपर अकुलाकर¸
कायरता पर हँसता था
तारों के साथ निशाकर॥53॥
झाला सम्मुख मुसकाता
चेतक धिक्कार रहा है।
असि चाह रही कन्या भी
तू आँसू ढार रहा है॥54॥
मर मिटे वीर जितने थे¸
वे एक–एक कर आते।
रानी की जय–जय करते¸
उससे हैं आँख चुराते॥55॥
हो उठा विकल उर–नभ का
हट गया मोह–धन काला।
देखा वह ही रानी है
वह ही अपनी तृण–शाला॥56॥
बोला वह अपने कर में
रमणी कर थाम "क्षमा कर¸
हो गया निहाल जगत में¸
मैं तुम सी रानी पाकर।"॥57॥
इतने में वैरी–सेना ने
राणा को घेर लिया आकर।
पर्वत पर हाहाकार मचा
तलवारें झनकी बल खाकर॥58॥
तब तक आये रणधीर भील
अपने कर में हथियार लिये।
पा उनकी मदद छिपा राणा
अपना भूखा परिवार लिये॥59॥
