"हल्दीघाटी / सप्तदश सर्ग / श्यामनारायण पाण्डेय" के अवतरणों में अंतर
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+ | '''सप्तदश सर्ग: सगफागुन''' | ||
− | + | था शीत भगाने को | |
+ | माधव की उधर तयारी थी। | ||
+ | वैरी निकालने को निकली | ||
+ | राणा की इधर सवारी थी॥1॥ | ||
− | + | थे उधर लाल वन के पलास¸ | |
+ | थी लाल अबीर गुलाल लाल। | ||
+ | थे इधर क्रोध से संगर के | ||
+ | सैनिक के आनन लाल–लाल॥2॥ | ||
− | + | उस ओर काटने चले खेत | |
− | + | कर में किसान हथियार लिये। | |
− | + | अरि–कण्ठ काटने चले वीर | |
− | + | इस ओर प्रखर तलवार लिये॥3॥ | |
− | + | ||
− | + | उस ओर आम पर कोयल ने | |
− | + | जादू भरकर वंशी टेरी। | |
− | + | इस ओर बजाई वीर–व्रती | |
− | उस ओर काटने चले खेत | + | राणा प्रताप ने रण–भेरी॥4॥ |
− | कर में किसान हथियार लिये। | + | |
− | अरि–कण्ठ काटने चले वीर | + | सुनकर भेरी का नाद उधर |
− | इस ओर प्रखर तलवार | + | रण करने को शहबाज चला। |
− | उस ओर आम पर कोयल ने | + | लेकर नंगी तलवार इधर |
− | जादू भरकर वंशी टेरी। | + | रणधीरों का सिरताज चला॥5॥ |
− | इस ओर बजाई वीर–व्रती | + | |
− | राणा प्रताप ने | + | दोनों ने दोनों को देखा¸ |
− | सुनकर भेरी का नाद उधर | + | दोनों की थी उन्नत छाती। |
− | रण करने को शहबाज चला। | + | दोनों की निकली एक साथ |
− | लेकर नंगी तलवार इधर | + | तलवार म्यान से बल खाती॥6॥ |
− | रणधीरों का सिरताज | + | |
− | दोनों ने दोनों को देखा¸ | + | दोनों पग–पग बढ़ चले वीर |
− | दोनों की थी उन्नत छाती। | + | अपनी सेना की राजि लिये। |
− | दोनों की निकली एक साथ | + | कोई गज लिये बढ़ा आगे |
− | तलवार म्यान से बल | + | कोई अपना वर वाजि लिये॥7॥ |
− | दोनों पग–पग बढ़ चले वीर | + | |
− | अपनी सेना की राजि लिये। | + | सुन–सुन मारू के भैरव रव |
− | कोई गज लिये बढ़ा आगे | + | दोनों दल की मुठभेड़ हुई। |
− | कोई अपना वर वाजि | + | हर–हर–हर कर पिल पड़े वीर¸ |
− | सुन–सुन मारू के | + | वैरी की सेना भेंड़ हुई॥8॥ |
− | दोनों दल की मुठभेड़ हुई। | + | |
− | हर–हर–हर कर पिल पड़े वीर¸ | + | उनकी चोटी में आग लगी¸ |
− | वैरी की सेना भेंड़ | + | अरि झुण्ड देखते ही आगे। |
− | उनकी चोटी में आग लगी¸ | + | जागे पिछले रण के कुन्तल¸ |
− | अरि झुण्ड देखते ही आगे। | + | उनके उर के साहस जागे॥9॥ |
− | जागे पिछले रण के कुन्तल¸ | + | |
− | उनके उर के साहस | + | प्रलयंकर संगर–वीरों को |
− | प्रलयंकर संगर–वीरों को | + | जो मुगल मिला वह सभय मिला। |
− | जो मुगल मिला वह सभय मिला। | + | वैरी से हल्दीघाटी का |
− | वैरी से हल्दीघाटी का | + | बदला लेने को समय मिला॥10॥ |
− | बदला लेने को समय | + | |
− | गज के कराल किलकारों से | + | गज के कराल किलकारों से |
− | हय के हिन–हिन हुंकारों से। | + | हय के हिन–हिन हुंकारों से। |
− | बाजों के रव¸ ललकारों से¸ | + | बाजों के रव¸ ललकारों से¸ |
− | भर गया गगन टंकारों | + | भर गया गगन टंकारों से॥11॥ |
− | पन्नग–समूह में गरूड़–सदृश¸ | + | |
− | तृण में विकराल कृशानु–सदृश। | + | पन्नग–समूह में गरूड़–सदृश¸ |
− | राणा भी रण में कूद पड़ा | + | तृण में विकराल कृशानु–सदृश। |
− | घन अन्धकार में | + | राणा भी रण में कूद पड़ा |
− | राणा–हय की ललकार देख¸ | + | घन अन्धकार में भानु–सदृश॥12॥ |
− | राणा की चल–तलवार देख। | + | |
− | देवीर समर भी | + | राणा–हय की ललकार देख¸ |
− | अविराम वार पर वार | + | राणा की चल–तलवार देख। |
− | क्षण–क्षण प्रताप का गर्जन सुन | + | देवीर समर भी काँप उठा |
− | सुन–सुन भीषण रव बाजों के¸ | + | अविराम वार पर वार देख॥13॥ |
− | अरि कफन | + | |
− | घर में भयभीत बजाजों | + | क्षण–क्षण प्रताप का गर्जन सुन |
− | आगे अरि–मुण्ड चबाता था | + | सुन–सुन भीषण रव बाजों के¸ |
− | राना हय तीखे दांतों से। | + | अरि कफन काँपते थे थर–थर |
− | पीछे मृत–राजि लगाता था | + | घर में भयभीत बजाजों के॥14॥ |
− | वह मार–मार कर लातों | + | |
− | अवनी पर पैर न रखता था | + | आगे अरि–मुण्ड चबाता था |
− | अम्बर पर ही वह घोड़ा था। | + | राना हय तीखे दांतों से। |
− | नभ से उतरा अरि भाग चले¸ | + | पीछे मृत–राजि लगाता था |
− | चेतक का असली जोड़ा | + | वह मार–मार कर लातों से॥15॥ |
− | अरि–दल की सौ–सौ | + | |
− | उस घोड़े को गड़ते देखा। | + | अवनी पर पैर न रखता था |
− | नभ पर देखा¸ भू पर देखा¸ | + | अम्बर पर ही वह घोड़ा था। |
− | वैरी–दल में लड़ते | + | नभ से उतरा अरि भाग चले¸ |
− | वह कभी अचल सा अचल बना¸ | + | चेतक का असली जोड़ा था॥16॥ |
− | वह कभी चपलतर तीर बना। | + | |
− | जम गया कभी¸ वह सिमट गया¸ | + | अरि–दल की सौ–सौ आँखों में |
− | वह दौड़ा¸ उड़ा¸ समीर | + | उस घोड़े को गड़ते देखा। |
− | नाहर समान जंगी गज पर | + | नभ पर देखा¸ भू पर देखा¸ |
− | वह कूद–कूद चढ़ जाता था। | + | वैरी–दल में लड़ते देखा॥17॥ |
− | टापों से अरि को खूंद–खूंद | + | |
− | घोड़ा आगे बढ़ जाता | + | वह कभी अचल सा अचल बना¸ |
− | यदि उसे किसी ने टोक दिया¸ | + | वह कभी चपलतर तीर बना। |
− | वह महाकाल का काल बना। | + | जम गया कभी¸ वह सिमट गया¸ |
− | यदि उसे किसी ने रोक दिया¸ | + | वह दौड़ा¸ उड़ा¸ समीर बना॥18॥ |
− | वह महाव्याल विकराल | + | |
− | राणा को लिये अकेला ही | + | नाहर समान जंगी गज पर |
− | रण में दिखलाई देता था। | + | वह कूद–कूद चढ़ जाता था। |
− | ले–लेकर अरि के प्राणों को | + | टापों से अरि को खूंद–खूंद |
− | चेतक का बदला लेता | + | घोड़ा आगे बढ़ जाता था॥19॥ |
− | राणा उसके ऊपर बैठा | + | |
− | जिस पर सेना दीवानी थी। | + | यदि उसे किसी ने टोक दिया¸ |
− | कर में हल्दीघाटी वाली | + | वह महाकाल का काल बना। |
− | वह ही तलवार पुरानी | + | यदि उसे किसी ने रोक दिया¸ |
− | हय–गज–सवार के सिर को थी¸ | + | वह महाव्याल विकराल बना॥20॥ |
− | वह तमक–तमककर काट रही। | + | |
− | वह रूण्ड–मुण्ड से भूतल को¸ | + | राणा को लिये अकेला ही |
− | थी चमक–चमककर पाट | + | रण में दिखलाई देता था। |
− | दुश्मन के अत्याचारों से | + | ले–लेकर अरि के प्राणों को |
− | जो उज़ड़ी भूमि विचारी थी¸ | + | चेतक का बदला लेता था॥21॥ |
− | नित उसे सींचती शोणित से | + | |
− | राणा की कठिन दुधारी | + | राणा उसके ऊपर बैठा |
− | वह बिजली–सी चमकी चम–चम | + | जिस पर सेना दीवानी थी। |
− | फिर मुगल–घटा में लीन हुई। | + | कर में हल्दीघाटी वाली |
− | वह छप–छप–छप करती निकली¸ | + | वह ही तलवार पुरानी थी॥22॥ |
− | फिर चमकी¸ छिपी¸ विलीन | + | |
− | फुफुकार भुजंगिन सी करती | + | हय–गज–सवार के सिर को थी¸ |
− | खच–खच सेना के पार गई। | + | वह तमक–तमककर काट रही। |
− | अरि–कण्ठों से मिलती–जुलती | + | वह रूण्ड–मुण्ड से भूतल को¸ |
− | इस पार गई¸ उस पार | + | थी चमक–चमककर पाट रही॥23॥ |
− | वह पीकर खून उगल देती | + | |
− | मस्ती से रण में घूम–घूम। | + | दुश्मन के अत्याचारों से |
− | अरि–शिर उतारकर खा जाती | + | जो उज़ड़ी भूमि विचारी थी¸ |
− | वह मतवाली सी | + | नित उसे सींचती शोणित से |
− | हाथी–हय–तन के शोणित की | + | राणा की कठिन दुधारी थी॥24॥ |
− | अपने तन में मल कर रोली¸ | + | |
− | वह खेल रही थी संगर में | + | वह बिजली–सी चमकी चम–चम |
− | शहबाज–वाहिनी से | + | फिर मुगल–घटा में लीन हुई। |
− | वह कभी श्वेत¸ अरूणाभ कभी¸ | + | वह छप–छप–छप करती निकली¸ |
− | थी रंग बदलती क्षण–क्षण में। | + | फिर चमकी¸ छिपी¸ विलीन हुई॥25। |
− | गाजर–मुली की तरह काट | + | फुफुकार भुजंगिन सी करती |
− | सिर बिछा दिये रण–प्रांगण | + | खच–खच सेना के पार गई। |
− | यह हाल देख वैरी–सेना | + | अरि–कण्ठों से मिलती–जुलती |
− | देवीर–समर से भाग चली। | + | इस पार गई¸ उस पार गई॥26॥ |
− | राणा प्रताप के वीरों के | + | |
− | उर में हिंसा की आग | + | वह पीकर खून उगल देती |
− | लेकर तलवार अपाइन तक | + | मस्ती से रण में घूम–घूम। |
− | अरि–अनीकिनी का पीछा कर। | + | अरि–शिर उतारकर खा जाती |
− | केसरिया झण्ड़ा गाड़ दिया | + | वह मतवाली सी झूम–झूम॥27॥ |
− | राणा ने अपना गढ़ | + | |
− | फिर नदी–बाढ़ सी चली चमू | + | हाथी–हय–तन के शोणित की |
− | रण–मत्त उमड़ती कुम्भलगढ़। | + | अपने तन में मल कर रोली¸ |
− | तलवार चमकने लगी तुरत | + | वह खेल रही थी संगर में |
− | उस कठिन दुर्ग पर सत्वर | + | शहबाज–वाहिनी से होली॥28॥ |
− | गढ़ के दरवाजे खोल मुगल | + | |
− | थे भग निकले पर फेर लिया¸ | + | वह कभी श्वेत¸ अरूणाभ कभी¸ |
− | अब्दुल के अभिमानी–दल को¸ | + | थी रंग बदलती क्षण–क्षण में। |
− | राणा प्रताप ने | + | गाजर–मुली की तरह काट |
− | इस तरह काट सिर बिछा दिये | + | सिर बिछा दिये रण–प्रांगण में॥29॥ |
− | सैनिक जन ने लेकर कृपान। | + | |
− | यव–मटर काटकर खेतों में¸ | + | यह हाल देख वैरी–सेना |
− | जिस तरह बिछा देते | + | देवीर–समर से भाग चली। |
− | मेवाड़–देश की तलवारें | + | राणा प्रताप के वीरों के |
− | अरि–रक्त–स्नान से निखर पड़ीं। | + | उर में हिंसा की आग जली॥30॥ |
− | कोई जन भी जीता न बचा | + | |
− | लाशों पर लाशें बिखर | + | लेकर तलवार अपाइन तक |
− | जय पाकर फिर कुम्हलगढ़ पर | + | अरि–अनीकिनी का पीछा कर। |
− | राणा का झंडा फहर उठा। | + | केसरिया झण्ड़ा गाड़ दिया |
− | वह चपल लगा देने ताड़न¸ | + | राणा ने अपना गढ़ पाकर॥31॥ |
− | अरि का सिंहासन थहर | + | |
− | फिर बढ़ी आग की तरह प्रबल | + | फिर नदी–बाढ़ सी चली चमू |
− | राणा प्रताप की जन–सेना। | + | रण–मत्त उमड़ती कुम्भलगढ़। |
− | गढ़ पर गढ़ ले–ले बढ़ती थी | + | तलवार चमकने लगी तुरत |
− | वह | + | उस कठिन दुर्ग पर सत्वर चढ़॥32॥ |
− | वह एक साल ही के भीतर | + | |
− | अपने सब दुर्ग किले लेकर¸ | + | गढ़ के दरवाजे खोल मुगल |
− | रणधीर–वाहिनी गरज उठी | + | थे भग निकले पर फेर लिया¸ |
− | वैरी–उर को चिन्ता | + | अब्दुल के अभिमानी–दल को¸ |
− | मेवाड़ | + | राणा प्रताप ने घेर लिया॥33॥ |
− | जय–ध्वजा किले पर फहराई। | + | |
− | मां धूल पोंछकर राणा की | + | इस तरह काट सिर बिछा दिये |
− | सामोद फूल–सी | + | सैनिक जन ने लेकर कृपान। |
− | घर–घर नव बन्दनवार | + | यव–मटर काटकर खेतों में¸ |
− | बाजे शहनाई के बाजे। | + | जिस तरह बिछा देते किसान॥34॥ |
− | जल भरे कलश दरवाजों पर | + | |
− | आये सब राजे | + | मेवाड़–देश की तलवारें |
− | मंगल के मधुर स–राग गीत | + | अरि–रक्त–स्नान से निखर पड़ीं। |
− | मिल–मिलकर सतियों ने गाये। | + | कोई जन भी जीता न बचा |
− | गाकर गायक ने विजय–गान | + | लाशों पर लाशें बिखर पड़ीं॥35॥ |
− | श्रोता जन पर मधु | + | |
− | कवियों ने अपनी कविता में | + | जय पाकर फिर कुम्हलगढ़ पर |
− | राणा के यश का गान किया। | + | राणा का झंडा फहर उठा। |
− | भूपों ने मस्तक नवा–नवा | + | वह चपल लगा देने ताड़न¸ |
− | सिंहासन का सम्मान | + | अरि का सिंहासन थहर उठा॥36॥ |
− | धन दिया गया भिखमंगों को | + | |
− | अविराम भोज पर भोज हुआ। | + | फिर बढ़ी आग की तरह प्रबल |
− | दीनों को नूतन वस्त्र मिले¸ | + | राणा प्रताप की जन–सेना। |
− | वर्षों तक उत्सव रोज | + | गढ़ पर गढ़ ले–ले बढ़ती थी |
− | हे विश्ववन्द्य¸ हे करूणाकर¸ | + | वह आँधी–सी सन–सन सेना॥37॥ |
− | तेरी लीला | + | |
− | मिलती न विजय¸ यदि राणा का | + | वह एक साल ही के भीतर |
− | होता न कहीं तू | + | अपने सब दुर्ग किले लेकर¸ |
− | तू क्षिति में¸ पावक में¸ जल में¸ | + | रणधीर–वाहिनी गरज उठी |
− | नभ में¸ मारूत में वर्तमान¸ | + | वैरी–उर को चिन्ता देकर॥38॥ |
− | तू अजपा में¸ जग की सांसें | + | |
− | कहती | + | मेवाड़ हँसा¸ फिर राणा ने |
− | इस पुस्तक का अक्षर–अक्षर¸ | + | जय–ध्वजा किले पर फहराई। |
− | प्रभु¸ तेरा ही अभिराम–धाम। | + | मां धूल पोंछकर राणा की |
− | हल्दीघाटी का वर्ण–वर्ण¸ | + | सामोद फूल–सी मुसकाई॥39॥ |
− | कह रहा निरन्तर | + | |
− | पहले सृजन के एक¸ पीछे¸ | + | घर–घर नव बन्दनवार बँधे¸ |
− | तीन¸ तू अभिराम है। | + | बाजे शहनाई के बाजे। |
− | तू विष्णु है¸ तू शम्भु है¸ | + | जल भरे कलश दरवाजों पर |
− | तू विधि¸ अनन्त प्रणाम | + | आये सब राजे महराजे॥40॥ |
− | जल में अजन्मा¸ तव करों से | + | |
− | बीज बिखराया गया। | + | मंगल के मधुर स–राग गीत |
− | इससे चराचर सृजन–कतातू | + | मिल–मिलकर सतियों ने गाये। |
− | सदा गाया | + | गाकर गायक ने विजय–गान |
− | तू हार–सूत्र समान सब में | + | श्रोता जन पर मधु बरसाये॥41॥ |
− | एक सा रहता सदा! | + | |
− | तू सृष्टि करता¸ पालता¸ | + | कवियों ने अपनी कविता में |
− | संहार करता | + | राणा के यश का गान किया। |
− | स्त्री–पुरूष तन के भाग दो¸ | + | भूपों ने मस्तक नवा–नवा |
− | फल सकल करूणा–दृष्टि के। | + | सिंहासन का सम्मान किया॥42॥ |
− | वे ही बने माता पिता | + | |
− | उत्पत्ति–वाली सृष्टि | + | धन दिया गया भिखमंगों को |
− | तेरी निशा जो दिवस सोने | + | अविराम भोज पर भोज हुआ। |
− | जागने के हैं बने¸ | + | दीनों को नूतन वस्त्र मिले¸ |
− | वे प्राणियों के प्रलय हैं¸ | + | वर्षों तक उत्सव रोज हुआ॥43॥ |
− | उत्पत्ति–क्रम से हैं | + | |
− | तू विश्व–योनि¸ अयोनि है¸ | + | हे विश्ववन्द्य¸ हे करूणाकर¸ |
− | तू विश्व का पालक प्रभो! | + | तेरी लीला अद्भुत अपार। |
− | तू विश्व–आदि अनादि है¸ | + | मिलती न विजय¸ यदि राणा का |
− | तू विश्व–संचालक प्रभो! | + | होता न कहीं तू मददगार॥44॥ |
− | तू जानता निज को तथा | + | |
− | निज सृष्टि है करता | + | तू क्षिति में¸ पावक में¸ जल में¸ |
− | तू शक्त है अतएव अपने | + | नभ में¸ मारूत में वर्तमान¸ |
− | आपको हरता | + | तू अजपा में¸ जग की सांसें |
− | द्रव¸ कठिन¸ इन्दि`य–ग्राह्य और | + | कहती सोहँ तू है महान्॥45॥ |
− | अग्राह्य¸ लघु¸ गुरू युक्त है। | + | |
− | आणिमादिमय है कार्य¸ कारण¸ | + | इस पुस्तक का अक्षर–अक्षर¸ |
− | और उनसे मुक्त | + | प्रभु¸ तेरा ही अभिराम–धाम। |
− | आरम्भ होता तीन स्वर से | + | हल्दीघाटी का वर्ण–वर्ण¸ |
− | तू वही ओंकार है। | + | कह रहा निरन्तर राम–राम॥46॥ |
− | फल–कर्म जिनका स्वर्ग–मख है | + | |
− | तू वही अविकार | + | पहले सृजन के एक¸ पीछे¸ |
− | जो प्रकृति में रत हैं तुझे वे | + | तीन¸ तू अभिराम है। |
− | तत्व–वेत्ता कह रहे। | + | तू विष्णु है¸ तू शम्भु है¸ |
− | फिर प्रकृति–द्रष्टा भी तुझी को¸ | + | तू विधि¸ अनन्त प्रणाम है॥47॥ |
− | ब्रह्म–वेत्ता कह | + | |
− | तू पितृगण का भी पिता है¸ | + | जल में अजन्मा¸ तव करों से |
− | राम–राम हरे हरे। | + | बीज बिखराया गया। |
− | दक्षादि का भी सृष्टि–कर्ता | + | इससे चराचर सृजन–कतातू |
− | और पर से भी | + | सदा गाया गया॥48॥ |
− | तू हव्य¸ होता¸ भोग्य¸ भोक्ता¸ | + | |
− | तू सनातन है प्रभो! | + | तू हार–सूत्र समान सब में |
− | तू वेद्य¸ ज्ञाता¸ ध्येय¸ ध्याता¸ | + | एक सा रहता सदा! |
− | तू पुरातन है प्रभो! | + | तू सृष्टि करता¸ पालता¸ |
− | हे राम¸ हे अभिराम¸ | + | संहार करता सर्वदा॥49॥ |
− | तू कृतकृत्य कर अवतार से। | + | |
− | दबती निरन्तर जा रही है | + | स्त्री–पुरूष तन के भाग दो¸ |
− | मेदिनी अघ–भार | + | फल सकल करूणा–दृष्टि के। |
− | राणा–सदृश तू शक्ति दे¸ | + | वे ही बने माता पिता |
− | जननी–चरण–अनुरक्ति दे। | + | उत्पत्ति–वाली सृष्टि के॥50॥ |
− | या देश–सेवा के लिए | + | |
− | झाला–सदृश ही भक्ति | + | तेरी निशा जो दिवस सोने |
+ | जागने के हैं बने¸ | ||
+ | वे प्राणियों के प्रलय हैं¸ | ||
+ | उत्पत्ति–क्रम से हैं बने॥51॥ | ||
+ | |||
+ | तू विश्व–योनि¸ अयोनि है¸ | ||
+ | तू विश्व का पालक प्रभो! | ||
+ | तू विश्व–आदि अनादि है¸ | ||
+ | तू विश्व–संचालक प्रभो!॥52॥ | ||
+ | |||
+ | तू जानता निज को तथा | ||
+ | निज सृष्टि है करता स्वयम्। | ||
+ | तू शक्त है अतएव अपने | ||
+ | आपको हरता स्वयम्॥53॥ | ||
+ | |||
+ | द्रव¸ कठिन¸ इन्दि`य–ग्राह्य और | ||
+ | अग्राह्य¸ लघु¸ गुरू युक्त है। | ||
+ | आणिमादिमय है कार्य¸ कारण¸ | ||
+ | और उनसे मुक्त है॥54॥ | ||
+ | |||
+ | आरम्भ होता तीन स्वर से | ||
+ | तू वही ओंकार है। | ||
+ | फल–कर्म जिनका स्वर्ग–मख है | ||
+ | तू वही अविकार है॥55॥ | ||
+ | |||
+ | जो प्रकृति में रत हैं तुझे वे | ||
+ | तत्व–वेत्ता कह रहे। | ||
+ | फिर प्रकृति–द्रष्टा भी तुझी को¸ | ||
+ | ब्रह्म–वेत्ता कह रहे॥56॥ | ||
+ | |||
+ | तू पितृगण का भी पिता है¸ | ||
+ | राम–राम हरे हरे। | ||
+ | दक्षादि का भी सृष्टि–कर्ता | ||
+ | और पर से भी परे॥57॥ | ||
+ | |||
+ | तू हव्य¸ होता¸ भोग्य¸ भोक्ता¸ | ||
+ | तू सनातन है प्रभो! | ||
+ | तू वेद्य¸ ज्ञाता¸ ध्येय¸ ध्याता¸ | ||
+ | तू पुरातन है प्रभो!॥58॥ | ||
+ | |||
+ | हे राम¸ हे अभिराम¸ | ||
+ | तू कृतकृत्य कर अवतार से। | ||
+ | दबती निरन्तर जा रही है | ||
+ | मेदिनी अघ–भार से॥59॥ | ||
+ | |||
+ | राणा–सदृश तू शक्ति दे¸ | ||
+ | जननी–चरण–अनुरक्ति दे। | ||
+ | या देश–सेवा के लिए | ||
+ | झाला–सदृश ही भक्ति दे॥60॥ | ||
+ | </poem> |
04:18, 13 अगस्त 2016 के समय का अवतरण
सप्तदश सर्ग: सगफागुन
था शीत भगाने को
माधव की उधर तयारी थी।
वैरी निकालने को निकली
राणा की इधर सवारी थी॥1॥
थे उधर लाल वन के पलास¸
थी लाल अबीर गुलाल लाल।
थे इधर क्रोध से संगर के
सैनिक के आनन लाल–लाल॥2॥
उस ओर काटने चले खेत
कर में किसान हथियार लिये।
अरि–कण्ठ काटने चले वीर
इस ओर प्रखर तलवार लिये॥3॥
उस ओर आम पर कोयल ने
जादू भरकर वंशी टेरी।
इस ओर बजाई वीर–व्रती
राणा प्रताप ने रण–भेरी॥4॥
सुनकर भेरी का नाद उधर
रण करने को शहबाज चला।
लेकर नंगी तलवार इधर
रणधीरों का सिरताज चला॥5॥
दोनों ने दोनों को देखा¸
दोनों की थी उन्नत छाती।
दोनों की निकली एक साथ
तलवार म्यान से बल खाती॥6॥
दोनों पग–पग बढ़ चले वीर
अपनी सेना की राजि लिये।
कोई गज लिये बढ़ा आगे
कोई अपना वर वाजि लिये॥7॥
सुन–सुन मारू के भैरव रव
दोनों दल की मुठभेड़ हुई।
हर–हर–हर कर पिल पड़े वीर¸
वैरी की सेना भेंड़ हुई॥8॥
उनकी चोटी में आग लगी¸
अरि झुण्ड देखते ही आगे।
जागे पिछले रण के कुन्तल¸
उनके उर के साहस जागे॥9॥
प्रलयंकर संगर–वीरों को
जो मुगल मिला वह सभय मिला।
वैरी से हल्दीघाटी का
बदला लेने को समय मिला॥10॥
गज के कराल किलकारों से
हय के हिन–हिन हुंकारों से।
बाजों के रव¸ ललकारों से¸
भर गया गगन टंकारों से॥11॥
पन्नग–समूह में गरूड़–सदृश¸
तृण में विकराल कृशानु–सदृश।
राणा भी रण में कूद पड़ा
घन अन्धकार में भानु–सदृश॥12॥
राणा–हय की ललकार देख¸
राणा की चल–तलवार देख।
देवीर समर भी काँप उठा
अविराम वार पर वार देख॥13॥
क्षण–क्षण प्रताप का गर्जन सुन
सुन–सुन भीषण रव बाजों के¸
अरि कफन काँपते थे थर–थर
घर में भयभीत बजाजों के॥14॥
आगे अरि–मुण्ड चबाता था
राना हय तीखे दांतों से।
पीछे मृत–राजि लगाता था
वह मार–मार कर लातों से॥15॥
अवनी पर पैर न रखता था
अम्बर पर ही वह घोड़ा था।
नभ से उतरा अरि भाग चले¸
चेतक का असली जोड़ा था॥16॥
अरि–दल की सौ–सौ आँखों में
उस घोड़े को गड़ते देखा।
नभ पर देखा¸ भू पर देखा¸
वैरी–दल में लड़ते देखा॥17॥
वह कभी अचल सा अचल बना¸
वह कभी चपलतर तीर बना।
जम गया कभी¸ वह सिमट गया¸
वह दौड़ा¸ उड़ा¸ समीर बना॥18॥
नाहर समान जंगी गज पर
वह कूद–कूद चढ़ जाता था।
टापों से अरि को खूंद–खूंद
घोड़ा आगे बढ़ जाता था॥19॥
यदि उसे किसी ने टोक दिया¸
वह महाकाल का काल बना।
यदि उसे किसी ने रोक दिया¸
वह महाव्याल विकराल बना॥20॥
राणा को लिये अकेला ही
रण में दिखलाई देता था।
ले–लेकर अरि के प्राणों को
चेतक का बदला लेता था॥21॥
राणा उसके ऊपर बैठा
जिस पर सेना दीवानी थी।
कर में हल्दीघाटी वाली
वह ही तलवार पुरानी थी॥22॥
हय–गज–सवार के सिर को थी¸
वह तमक–तमककर काट रही।
वह रूण्ड–मुण्ड से भूतल को¸
थी चमक–चमककर पाट रही॥23॥
दुश्मन के अत्याचारों से
जो उज़ड़ी भूमि विचारी थी¸
नित उसे सींचती शोणित से
राणा की कठिन दुधारी थी॥24॥
वह बिजली–सी चमकी चम–चम
फिर मुगल–घटा में लीन हुई।
वह छप–छप–छप करती निकली¸
फिर चमकी¸ छिपी¸ विलीन हुई॥25।
फुफुकार भुजंगिन सी करती
खच–खच सेना के पार गई।
अरि–कण्ठों से मिलती–जुलती
इस पार गई¸ उस पार गई॥26॥
वह पीकर खून उगल देती
मस्ती से रण में घूम–घूम।
अरि–शिर उतारकर खा जाती
वह मतवाली सी झूम–झूम॥27॥
हाथी–हय–तन के शोणित की
अपने तन में मल कर रोली¸
वह खेल रही थी संगर में
शहबाज–वाहिनी से होली॥28॥
वह कभी श्वेत¸ अरूणाभ कभी¸
थी रंग बदलती क्षण–क्षण में।
गाजर–मुली की तरह काट
सिर बिछा दिये रण–प्रांगण में॥29॥
यह हाल देख वैरी–सेना
देवीर–समर से भाग चली।
राणा प्रताप के वीरों के
उर में हिंसा की आग जली॥30॥
लेकर तलवार अपाइन तक
अरि–अनीकिनी का पीछा कर।
केसरिया झण्ड़ा गाड़ दिया
राणा ने अपना गढ़ पाकर॥31॥
फिर नदी–बाढ़ सी चली चमू
रण–मत्त उमड़ती कुम्भलगढ़।
तलवार चमकने लगी तुरत
उस कठिन दुर्ग पर सत्वर चढ़॥32॥
गढ़ के दरवाजे खोल मुगल
थे भग निकले पर फेर लिया¸
अब्दुल के अभिमानी–दल को¸
राणा प्रताप ने घेर लिया॥33॥
इस तरह काट सिर बिछा दिये
सैनिक जन ने लेकर कृपान।
यव–मटर काटकर खेतों में¸
जिस तरह बिछा देते किसान॥34॥
मेवाड़–देश की तलवारें
अरि–रक्त–स्नान से निखर पड़ीं।
कोई जन भी जीता न बचा
लाशों पर लाशें बिखर पड़ीं॥35॥
जय पाकर फिर कुम्हलगढ़ पर
राणा का झंडा फहर उठा।
वह चपल लगा देने ताड़न¸
अरि का सिंहासन थहर उठा॥36॥
फिर बढ़ी आग की तरह प्रबल
राणा प्रताप की जन–सेना।
गढ़ पर गढ़ ले–ले बढ़ती थी
वह आँधी–सी सन–सन सेना॥37॥
वह एक साल ही के भीतर
अपने सब दुर्ग किले लेकर¸
रणधीर–वाहिनी गरज उठी
वैरी–उर को चिन्ता देकर॥38॥
मेवाड़ हँसा¸ फिर राणा ने
जय–ध्वजा किले पर फहराई।
मां धूल पोंछकर राणा की
सामोद फूल–सी मुसकाई॥39॥
घर–घर नव बन्दनवार बँधे¸
बाजे शहनाई के बाजे।
जल भरे कलश दरवाजों पर
आये सब राजे महराजे॥40॥
मंगल के मधुर स–राग गीत
मिल–मिलकर सतियों ने गाये।
गाकर गायक ने विजय–गान
श्रोता जन पर मधु बरसाये॥41॥
कवियों ने अपनी कविता में
राणा के यश का गान किया।
भूपों ने मस्तक नवा–नवा
सिंहासन का सम्मान किया॥42॥
धन दिया गया भिखमंगों को
अविराम भोज पर भोज हुआ।
दीनों को नूतन वस्त्र मिले¸
वर्षों तक उत्सव रोज हुआ॥43॥
हे विश्ववन्द्य¸ हे करूणाकर¸
तेरी लीला अद्भुत अपार।
मिलती न विजय¸ यदि राणा का
होता न कहीं तू मददगार॥44॥
तू क्षिति में¸ पावक में¸ जल में¸
नभ में¸ मारूत में वर्तमान¸
तू अजपा में¸ जग की सांसें
कहती सोहँ तू है महान्॥45॥
इस पुस्तक का अक्षर–अक्षर¸
प्रभु¸ तेरा ही अभिराम–धाम।
हल्दीघाटी का वर्ण–वर्ण¸
कह रहा निरन्तर राम–राम॥46॥
पहले सृजन के एक¸ पीछे¸
तीन¸ तू अभिराम है।
तू विष्णु है¸ तू शम्भु है¸
तू विधि¸ अनन्त प्रणाम है॥47॥
जल में अजन्मा¸ तव करों से
बीज बिखराया गया।
इससे चराचर सृजन–कतातू
सदा गाया गया॥48॥
तू हार–सूत्र समान सब में
एक सा रहता सदा!
तू सृष्टि करता¸ पालता¸
संहार करता सर्वदा॥49॥
स्त्री–पुरूष तन के भाग दो¸
फल सकल करूणा–दृष्टि के।
वे ही बने माता पिता
उत्पत्ति–वाली सृष्टि के॥50॥
तेरी निशा जो दिवस सोने
जागने के हैं बने¸
वे प्राणियों के प्रलय हैं¸
उत्पत्ति–क्रम से हैं बने॥51॥
तू विश्व–योनि¸ अयोनि है¸
तू विश्व का पालक प्रभो!
तू विश्व–आदि अनादि है¸
तू विश्व–संचालक प्रभो!॥52॥
तू जानता निज को तथा
निज सृष्टि है करता स्वयम्।
तू शक्त है अतएव अपने
आपको हरता स्वयम्॥53॥
द्रव¸ कठिन¸ इन्दि`य–ग्राह्य और
अग्राह्य¸ लघु¸ गुरू युक्त है।
आणिमादिमय है कार्य¸ कारण¸
और उनसे मुक्त है॥54॥
आरम्भ होता तीन स्वर से
तू वही ओंकार है।
फल–कर्म जिनका स्वर्ग–मख है
तू वही अविकार है॥55॥
जो प्रकृति में रत हैं तुझे वे
तत्व–वेत्ता कह रहे।
फिर प्रकृति–द्रष्टा भी तुझी को¸
ब्रह्म–वेत्ता कह रहे॥56॥
तू पितृगण का भी पिता है¸
राम–राम हरे हरे।
दक्षादि का भी सृष्टि–कर्ता
और पर से भी परे॥57॥
तू हव्य¸ होता¸ भोग्य¸ भोक्ता¸
तू सनातन है प्रभो!
तू वेद्य¸ ज्ञाता¸ ध्येय¸ ध्याता¸
तू पुरातन है प्रभो!॥58॥
हे राम¸ हे अभिराम¸
तू कृतकृत्य कर अवतार से।
दबती निरन्तर जा रही है
मेदिनी अघ–भार से॥59॥
राणा–सदृश तू शक्ति दे¸
जननी–चरण–अनुरक्ति दे।
या देश–सेवा के लिए
झाला–सदृश ही भक्ति दे॥60॥