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"अयोध्या काण्ड / भाग ४ / रामचरितमानस / तुलसीदास" के अवतरणों में अंतर

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केवट कीन्हि बहुत सेवकाई। सो जामिनि सिंगरौर गवाँई॥
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होत प्रात बट छीरु मगावा। जटा मुकुट निज सीस बनावा॥
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राम सखाँ तब नाव मगाई। प्रिया चढ़ाइ चढ़े रघुराई॥
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लखन बान धनु धरे बनाई। आपु चढ़े प्रभु आयसु पाई॥
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बिकल बिलोकि मोहि रघुबीरा। बोले मधुर बचन धरि धीरा॥
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तात प्रनामु तात सन कहेहु। बार बार पद पंकज गहेहू॥
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करबि पायँ परि बिनय बहोरी। तात करिअ जनि चिंता मोरी॥
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बन मग मंगल कुसल हमारें। कृपा अनुग्रह पुन्य तुम्हारें॥
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छं0- तुम्हरे अनुग्रह तात कानन जात सब सुखु पाइहौं।
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प्रतिपालि आयसु कुसल देखन पाय पुनि फिरि आइहौं॥
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जननीं सकल परितोषि परि परि पायँ करि बिनती घनी।
 +
तुलसी करेहु सोइ जतनु जेहिं कुसली रहहिं कोसल धनी॥
 +
सो0-गुर सन कहब सँदेसु बार बार पद पदुम गहि।
 +
करब सोइ उपदेसु जेहिं न सोच मोहि अवधपति॥151॥
  
केवट कीन्हि बहुत सेवकाई। सो जामिनि सिंगरौर गवाँई।।<br>
+
पुरजन परिजन सकल निहोरी। तात सुनाएहु बिनती मोरी॥
होत प्रात बट छीरु मगावा। जटा मुकुट निज सीस बनावा।।<br>
+
सोइ सब भाँति मोर हितकारी। जातें रह नरनाहु सुखारी॥
राम सखाँ तब नाव मगाई। प्रिया चढ़ाइ चढ़े रघुराई।।<br>
+
कहब सँदेसु भरत के आएँ। नीति न तजिअ राजपदु पाएँ॥
लखन बान धनु धरे बनाई। आपु चढ़े प्रभु आयसु पाई।।<br>
+
पालेहु प्रजहि करम मन बानी। सेएहु मातु सकल सम जानी॥
बिकल बिलोकि मोहि रघुबीरा। बोले मधुर बचन धरि धीरा।।<br>
+
ओर निबाहेहु भायप भाई। करि पितु मातु सुजन सेवकाई॥
तात प्रनामु तात सन कहेहु। बार बार पद पंकज गहेहू।।<br>
+
तात भाँति तेहि राखब राऊ। सोच मोर जेहिं करै न काऊ॥
करबि पायँ परि बिनय बहोरी। तात करिअ जनि चिंता मोरी।।<br>
+
लखन कहे कछु बचन कठोरा। बरजि राम पुनि मोहि निहोरा॥
बन मग मंगल कुसल हमारें। कृपा अनुग्रह पुन्य तुम्हारें।।<br>
+
बार बार निज सपथ देवाई। कहबि न तात लखन लरिकाई॥
<br>
+
दो0-कहि प्रनाम कछु कहन लिय सिय भइ सिथिल सनेह।
छं0- तुम्हरे अनुग्रह तात कानन जात सब सुखु पाइहौं।<br>
+
थकित बचन लोचन सजल पुलक पल्लवित देह॥152॥
प्रतिपालि आयसु कुसल देखन पाय पुनि फिरि आइहौं।।<br>
+
जननीं सकल परितोषि परि परि पायँ करि बिनती घनी।<br>
+
तुलसी करेहु सोइ जतनु जेहिं कुसली रहहिं कोसल धनी।।<br>
+
<br>
+
सो0-गुर सन कहब सँदेसु बार बार पद पदुम गहि।<br>
+
करब सोइ उपदेसु जेहिं न सोच मोहि अवधपति।।151।।<br>
+
<br>
+
पुरजन परिजन सकल निहोरी। तात सुनाएहु बिनती मोरी।।<br>
+
सोइ सब भाँति मोर हितकारी। जातें रह नरनाहु सुखारी।।<br>
+
कहब सँदेसु भरत के आएँ। नीति न तजिअ राजपदु पाएँ।।<br>
+
पालेहु प्रजहि करम मन बानी। सेएहु मातु सकल सम जानी।।<br>
+
ओर निबाहेहु भायप भाई। करि पितु मातु सुजन सेवकाई।।<br>
+
तात भाँति तेहि राखब राऊ। सोच मोर जेहिं करै न काऊ।।<br>
+
लखन कहे कछु बचन कठोरा। बरजि राम पुनि मोहि निहोरा।।<br>
+
बार बार निज सपथ देवाई। कहबि न तात लखन लरिकाई।।<br>
+
<br>
+
दो0-कहि प्रनाम कछु कहन लिय सिय भइ सिथिल सनेह।<br>
+
थकित बचन लोचन सजल पुलक पल्लवित देह।।152।।<br>
+
<br>
+
तेहि अवसर रघुबर रूख पाई। केवट पारहि नाव चलाई।।<br>
+
रघुकुलतिलक चले एहि भाँती। देखउँ ठाढ़ कुलिस धरि छाती।।<br>
+
मैं आपन किमि कहौं कलेसू। जिअत फिरेउँ लेइ राम सँदेसू।।<br>
+
अस कहि सचिव बचन रहि गयऊ। हानि गलानि सोच बस भयऊ।।<br>
+
सुत बचन सुनतहिं नरनाहू। परेउ धरनि उर दारुन दाहू।।<br>
+
तलफत बिषम मोह मन मापा। माजा मनहुँ मीन कहुँ ब्यापा।।<br>
+
करि बिलाप सब रोवहिं रानी। महा बिपति किमि जाइ बखानी।।<br>
+
सुनि बिलाप दुखहू दुखु लागा। धीरजहू कर धीरजु भागा।।<br>
+
<br>
+
दो0-भयउ कोलाहलु अवध अति सुनि नृप राउर सोरु।<br>
+
बिपुल बिहग बन परेउ निसि मानहुँ कुलिस कठोरु।।153।।<br>
+
<br>
+
प्रान कंठगत भयउ भुआलू। मनि बिहीन जनु ब्याकुल ब्यालू।।<br>
+
इद्रीं सकल बिकल भइँ भारी। जनु सर सरसिज बनु बिनु बारी।।<br>
+
कौसल्याँ नृपु दीख मलाना। रबिकुल रबि अँथयउ जियँ जाना।<br>
+
उर धरि धीर राम महतारी। बोली बचन समय अनुसारी।।<br>
+
नाथ समुझि मन करिअ बिचारू। राम बियोग पयोधि अपारू।।<br>
+
करनधार तुम्ह अवध जहाजू। चढ़ेउ सकल प्रिय पथिक समाजू।।<br>
+
धीरजु धरिअ त पाइअ पारू। नाहिं त बूड़िहि सबु परिवारू।।<br>
+
जौं जियँ धरिअ बिनय पिय मोरी। रामु लखनु सिय मिलहिं बहोरी।।<br>
+
<br>
+
दो0–प्रिया बचन मृदु सुनत नृपु चितयउ आँखि उघारि।<br>
+
तलफत मीन मलीन जनु सींचत सीतल बारि।।154।।<br>
+
<br>
+
धरि धीरजु उठी बैठ भुआलू। कहु सुमंत्र कहँ राम कृपालू।।<br>
+
कहाँ लखनु कहँ रामु सनेही। कहँ प्रिय पुत्रबधू बैदेही।।<br>
+
बिलपत राउ बिकल बहु भाँती। भइ जुग सरिस सिराति न राती।।<br>
+
तापस अंध साप सुधि आई। कौसल्यहि सब कथा सुनाई।।<br>
+
भयउ बिकल बरनत इतिहासा। राम रहित धिग जीवन आसा।।<br>
+
सो तनु राखि करब मैं काहा। जेंहि न प्रेम पनु मोर निबाहा।।<br>
+
हा रघुनंदन प्रान पिरीते। तुम्ह बिनु जिअत बहुत दिन बीते।।<br>
+
हा जानकी लखन हा रघुबर। हा पितु हित चित चातक जलधर।<br>
+
<br>
+
दो0-राम राम कहि राम कहि राम राम कहि राम।<br>
+
तनु परिहरि रघुबर बिरहँ राउ गयउ सुरधाम।।155।।<br>
+
<br>
+
जिअन मरन फलु दसरथ पावा। अंड अनेक अमल जसु छावा।।<br>
+
जिअत राम बिधु बदनु निहारा। राम बिरह करि मरनु सँवारा।।<br>
+
सोक बिकल सब रोवहिं रानी। रूपु सील बलु तेजु बखानी।।<br>
+
करहिं बिलाप अनेक प्रकारा। परहीं भूमितल बारहिं बारा।।<br>
+
बिलपहिं बिकल दास अरु दासी। घर घर रुदनु करहिं पुरबासी।।<br>
+
अँथयउ आजु भानुकुल भानू। धरम अवधि गुन रूप निधानू।।<br>
+
गारीं सकल कैकइहि देहीं। नयन बिहीन कीन्ह जग जेहीं।।<br>
+
एहि बिधि बिलपत रैनि बिहानी। आए सकल महामुनि ग्यानी।।<br>
+
<br>
+
दो0-तब बसिष्ठ मुनि समय सम कहि अनेक इतिहास।<br>
+
सोक नेवारेउ सबहि कर निज बिग्यान प्रकास।।156।।<br>
+
<br>
+
तेल नाँव भरि नृप तनु राखा। दूत बोलाइ बहुरि अस भाषा।।<br>
+
धावहु बेगि भरत पहिं जाहू। नृप सुधि कतहुँ कहहु जनि काहू।।<br>
+
एतनेइ कहेहु भरत सन जाई। गुर बोलाई पठयउ दोउ भाई।।<br>
+
सुनि मुनि आयसु धावन धाए। चले बेग बर बाजि लजाए।।<br>
+
अनरथु अवध अरंभेउ जब तें। कुसगुन होहिं भरत कहुँ तब तें।।<br>
+
देखहिं राति भयानक सपना। जागि करहिं कटु कोटि कलपना।।<br>
+
बिप्र जेवाँइ देहिं दिन दाना। सिव अभिषेक करहिं बिधि नाना।।<br>
+
मागहिं हृदयँ महेस मनाई। कुसल मातु पितु परिजन भाई।।<br>
+
<br>
+
दो0-एहि बिधि सोचत भरत मन धावन पहुँचे आइ।<br>
+
गुर अनुसासन श्रवन सुनि चले गनेसु मनाइ।।157।।<br>
+
<br>
+
चले समीर बेग हय हाँके। नाघत सरित सैल बन बाँके।।<br>
+
हृदयँ सोचु बड़ कछु न सोहाई। अस जानहिं जियँ जाउँ उड़ाई।।<br>
+
एक निमेष बरस सम जाई। एहि बिधि भरत नगर निअराई।।<br>
+
असगुन होहिं नगर पैठारा। रटहिं कुभाँति कुखेत करारा।।<br>
+
खर सिआर बोलहिं प्रतिकूला। सुनि सुनि होइ भरत मन सूला।।<br>
+
श्रीहत सर सरिता बन बागा। नगरु बिसेषि भयावनु लागा।।<br>
+
खग मृग हय गय जाहिं न जोए। राम बियोग कुरोग बिगोए।।<br>
+
नगर नारि नर निपट दुखारी। मनहुँ सबन्हि सब संपति हारी।।<br>
+
<br>
+
दो0-पुरजन मिलिहिं न कहहिं कछु गवँहिं जोहारहिं जाहिं।<br>
+
भरत कुसल पूँछि न सकहिं भय बिषाद मन माहिं।।158।।<br>
+
<br>
+
हाट बाट नहिं जाइ निहारी। जनु पुर दहँ दिसि लागि दवारी।।<br>
+
आवत सुत सुनि कैकयनंदिनि। हरषी रबिकुल जलरुह चंदिनि।।<br>
+
सजि आरती मुदित उठि धाई। द्वारेहिं भेंटि भवन लेइ आई।।<br>
+
भरत दुखित परिवारु निहारा। मानहुँ तुहिन बनज बनु मारा।।<br>
+
कैकेई हरषित एहि भाँति। मनहुँ मुदित दव लाइ किराती।।<br>
+
सुतहि ससोच देखि मनु मारें। पूँछति नैहर कुसल हमारें।।<br>
+
सकल कुसल कहि भरत सुनाई। पूँछी निज कुल कुसल भलाई।।<br>
+
कहु कहँ तात कहाँ सब माता। कहँ सिय राम लखन प्रिय भ्राता।।<br>
+
<br>
+
दो0-सुनि सुत बचन सनेहमय कपट नीर भरि नैन।<br>
+
भरत श्रवन मन सूल सम पापिनि बोली बैन।।159।।<br>
+
<br>
+
तात बात मैं सकल सँवारी। भै मंथरा सहाय बिचारी।।<br>
+
कछुक काज बिधि बीच बिगारेउ। भूपति सुरपति पुर पगु धारेउ।।<br>
+
सुनत भरतु भए बिबस बिषादा। जनु सहमेउ करि केहरि नादा।।<br>
+
तात तात हा तात पुकारी। परे भूमितल ब्याकुल भारी।।<br>
+
चलत न देखन पायउँ तोही। तात न रामहि सौंपेहु मोही।।<br>
+
बहुरि धीर धरि उठे सँभारी। कहु पितु मरन हेतु महतारी।।<br>
+
सुनि सुत बचन कहति कैकेई। मरमु पाँछि जनु माहुर देई।।<br>
+
आदिहु तें सब आपनि करनी। कुटिल कठोर मुदित मन बरनी।।<br>
+
<br>
+
दो0-भरतहि बिसरेउ पितु मरन सुनत राम बन गौनु।<br>
+
हेतु अपनपउ जानि जियँ थकित रहे धरि मौनु।।160।।<br>
+
<br>
+
बिकल बिलोकि सुतहि समुझावति। मनहुँ जरे पर लोनु लगावति।।<br>
+
तात राउ नहिं सोचे जोगू। बिढ़इ सुकृत जसु कीन्हेउ भोगू।।<br>
+
जीवत सकल जनम फल पाए। अंत अमरपति सदन सिधाए।।<br>
+
अस अनुमानि सोच परिहरहू। सहित समाज राज पुर करहू।।<br>
+
सुनि सुठि सहमेउ राजकुमारू। पाकें छत जनु लाग अँगारू।।<br>
+
धीरज धरि भरि लेहिं उसासा। पापनि सबहि भाँति कुल नासा।।<br>
+
जौं पै कुरुचि रही अति तोही। जनमत काहे न मारे मोही।।<br>
+
पेड़ काटि तैं पालउ सींचा। मीन जिअन निति बारि उलीचा।।<br>
+
<br>
+
दो0-हंसबंसु दसरथु जनकु राम लखन से भाइ।<br>
+
जननी तूँ जननी भई बिधि सन कछु न बसाइ।।161।।<br>
+
<br>
+
जब तैं कुमति कुमत जियँ ठयऊ। खंड खंड होइ ह्रदउ न गयऊ।।<br>
+
बर मागत मन भइ नहिं पीरा। गरि न जीह मुहँ परेउ न कीरा।।<br>
+
भूपँ प्रतीत तोरि किमि कीन्ही। मरन काल बिधि मति हरि लीन्ही।।<br>
+
बिधिहुँ न नारि हृदय गति जानी। सकल कपट अघ अवगुन खानी।।<br>
+
सरल सुसील धरम रत राऊ। सो किमि जानै तीय सुभाऊ।।<br>
+
अस को जीव जंतु जग माहीं। जेहि रघुनाथ प्रानप्रिय नाहीं।।<br>
+
भे अति अहित रामु तेउ तोही। को तू अहसि सत्य कहु मोही।।<br>
+
जो हसि सो हसि मुहँ मसि लाई। आँखि ओट उठि बैठहिं जाई।।<br>
+
<br>
+
दो0-राम बिरोधी हृदय तें प्रगट कीन्ह बिधि मोहि।<br>
+
मो समान को पातकी बादि कहउँ कछु तोहि।।162।।<br>
+
<br>
+
सुनि सत्रुघुन मातु कुटिलाई। जरहिं गात रिस कछु न बसाई।।<br>
+
तेहि अवसर कुबरी तहँ आई। बसन बिभूषन बिबिध बनाई।।<br>
+
लखि रिस भरेउ लखन लघु भाई। बरत अनल घृत आहुति पाई।।<br>
+
हुमगि लात तकि कूबर मारा। परि मुह भर महि करत पुकारा।।<br>
+
कूबर टूटेउ फूट कपारू। दलित दसन मुख रुधिर प्रचारू।।<br>
+
आह दइअ मैं काह नसावा। करत नीक फलु अनइस पावा।।<br>
+
सुनि रिपुहन लखि नख सिख खोटी। लगे घसीटन धरि धरि झोंटी।।<br>
+
भरत दयानिधि दीन्हि छड़ाई। कौसल्या पहिं गे दोउ भाई।।<br>
+
<br>
+
दो0-मलिन बसन बिबरन बिकल कृस सरीर दुख भार।<br>
+
कनक कलप बर बेलि बन मानहुँ हनी तुसार।।163।।<br>
+
<br>
+
भरतहि देखि मातु उठि धाई। मुरुछित अवनि परी झइँ आई।।<br>
+
देखत भरतु बिकल भए भारी। परे चरन तन दसा बिसारी।।<br>
+
मातु तात कहँ देहि देखाई। कहँ सिय रामु लखनु दोउ भाई।।<br>
+
कैकइ कत जनमी जग माझा। जौं जनमि त भइ काहे न बाँझा।।<br>
+
कुल कलंकु जेहिं जनमेउ मोही। अपजस भाजन प्रियजन द्रोही।।<br>
+
को तिभुवन मोहि सरिस अभागी। गति असि तोरि मातु जेहि लागी।।<br>
+
पितु सुरपुर बन रघुबर केतू। मैं केवल सब अनरथ हेतु।।<br>
+
धिग मोहि भयउँ बेनु बन आगी। दुसह दाह दुख दूषन भागी।।<br>
+
<br>
+
दो0-मातु भरत के बचन मृदु सुनि सुनि उठी सँभारि।।<br>
+
लिए उठाइ लगाइ उर लोचन मोचति बारि।।164।।<br>
+
<br>
+
सरल सुभाय मायँ हियँ लाए। अति हित मनहुँ राम फिरि आए।।<br>
+
भेंटेउ बहुरि लखन लघु भाई। सोकु सनेहु न हृदयँ समाई।।<br>
+
देखि सुभाउ कहत सबु कोई। राम मातु अस काहे न होई।।<br>
+
माताँ भरतु गोद बैठारे। आँसु पौंछि मृदु बचन उचारे।।<br>
+
अजहुँ बच्छ बलि धीरज धरहू। कुसमउ समुझि सोक परिहरहू।।<br>
+
जनि मानहु हियँ हानि गलानी। काल करम गति अघटित जानि।।<br>
+
काहुहि दोसु देहु जनि ताता। भा मोहि सब बिधि बाम बिधाता।।<br>
+
जो एतेहुँ दुख मोहि जिआवा। अजहुँ को जानइ का तेहि भावा।।<br>
+
<br>
+
दो0-पितु आयस भूषन बसन तात तजे रघुबीर।<br>
+
बिसमउ हरषु न हृदयँ कछु पहिरे बलकल चीर। 165।।<br>
+
<br>
+
मुख प्रसन्न मन रंग न रोषू। सब कर सब बिधि करि परितोषू।।<br>
+
चले बिपिन सुनि सिय सँग लागी। रहइ न राम चरन अनुरागी।।<br>
+
सुनतहिं लखनु चले उठि साथा। रहहिं न जतन किए रघुनाथा।।<br>
+
तब रघुपति सबही सिरु नाई। चले संग सिय अरु लघु भाई।।<br>
+
रामु लखनु सिय बनहि सिधाए। गइउँ न संग न प्रान पठाए।।<br>
+
यहु सबु भा इन्ह आँखिन्ह आगें। तउ न तजा तनु जीव अभागें।।<br>
+
मोहि न लाज निज नेहु निहारी। राम सरिस सुत मैं महतारी।।<br>
+
जिऐ मरै भल भूपति जाना। मोर हृदय सत कुलिस समाना।।<br>
+
<br>
+
दो0- कौसल्या के बचन सुनि भरत सहित रनिवास।<br>
+
ब्याकुल बिलपत राजगृह मानहुँ सोक नेवासु।।166।।<br>
+
<br>
+
बिलपहिं बिकल भरत दोउ भाई। कौसल्याँ लिए हृदयँ लगाई।।<br>
+
भाँति अनेक भरतु समुझाए। कहि बिबेकमय बचन सुनाए।।<br>
+
भरतहुँ मातु सकल समुझाईं। कहि पुरान श्रुति कथा सुहाईं।।<br>
+
छल बिहीन सुचि सरल सुबानी। बोले भरत जोरि जुग पानी।।<br>
+
जे अघ मातु पिता सुत मारें। गाइ गोठ महिसुर पुर जारें।।<br>
+
जे अघ तिय बालक बध कीन्हें। मीत महीपति माहुर दीन्हें।।<br>
+
जे पातक उपपातक अहहीं। करम बचन मन भव कबि कहहीं।।<br>
+
ते पातक मोहि होहुँ बिधाता। जौं यहु होइ मोर मत माता।।<br>
+
<br>
+
दो0-जे परिहरि हरि हर चरन भजहिं भूतगन घोर।<br>
+
तेहि कइ गति मोहि देउ बिधि जौं जननी मत मोर।।167।।<br>
+
<br>
+
बेचहिं बेदु धरमु दुहि लेहीं। पिसुन पराय पाप कहि देहीं।।<br>
+
कपटी कुटिल कलहप्रिय क्रोधी। बेद बिदूषक बिस्व बिरोधी।।<br>
+
लोभी लंपट लोलुपचारा। जे ताकहिं परधनु परदारा।।<br>
+
पावौं मैं तिन्ह के गति घोरा। जौं जननी यहु संमत मोरा।।<br>
+
जे नहिं साधुसंग अनुरागे। परमारथ पथ बिमुख अभागे।।<br>
+
जे न भजहिं हरि नरतनु पाई। जिन्हहि न हरि हर सुजसु सोहाई।।<br>
+
तजि श्रुतिपंथु बाम पथ चलहीं। बंचक बिरचि बेष जगु छलहीं।।<br>
+
तिन्ह कै गति मोहि संकर देऊ। जननी जौं यहु जानौं भेऊ।।<br>
+
<br>
+
दो0-मातु भरत के बचन सुनि साँचे सरल सुभायँ।<br>
+
कहति राम प्रिय तात तुम्ह सदा बचन मन कायँ।।168।।<br>
+
<br>
+
राम प्रानहु तें प्रान तुम्हारे। तुम्ह रघुपतिहि प्रानहु तें प्यारे।।<br>
+
बिधु बिष चवै स्त्रवै हिमु आगी। होइ बारिचर बारि बिरागी।।<br>
+
भएँ ग्यानु बरु मिटै न मोहू। तुम्ह रामहि प्रतिकूल न होहू।।<br>
+
मत तुम्हार यहु जो जग कहहीं। सो सपनेहुँ सुख सुगति न लहहीं।।<br>
+
अस कहि मातु भरतु हियँ लाए। थन पय स्त्रवहिं नयन जल छाए।।<br>
+
करत बिलाप बहुत यहि भाँती। बैठेहिं बीति गइ सब राती।।<br>
+
बामदेउ बसिष्ठ तब आए। सचिव महाजन सकल बोलाए।।<br>
+
मुनि बहु भाँति भरत उपदेसे। कहि परमारथ बचन सुदेसे।।<br>
+
<br>
+
दो0-तात हृदयँ धीरजु धरहु करहु जो अवसर आजु।<br>
+
उठे भरत गुर बचन सुनि करन कहेउ सबु साजु।।169।।<br>
+
<br>
+
नृपतनु बेद बिदित अन्हवावा। परम बिचित्र बिमानु बनावा।।<br>
+
गहि पद भरत मातु सब राखी। रहीं रानि दरसन अभिलाषी।।<br>
+
चंदन अगर भार बहु आए। अमित अनेक सुगंध सुहाए।।<br>
+
सरजु तीर रचि चिता बनाई। जनु सुरपुर सोपान सुहाई।।<br>
+
एहि बिधि दाह क्रिया सब कीन्ही। बिधिवत न्हाइ तिलांजुलि दीन्ही।।<br>
+
सोधि सुमृति सब बेद पुराना। कीन्ह भरत दसगात बिधाना।।<br>
+
जहँ जस मुनिबर आयसु दीन्हा। तहँ तस सहस भाँति सबु कीन्हा।।<br>
+
भए बिसुद्ध दिए सब दाना। धेनु बाजि गज बाहन नाना।।<br>
+
<br>
+
दो0-सिंघासन भूषन बसन अन्न धरनि धन धाम।<br>
+
दिए भरत लहि भूमिसुर भे परिपूरन काम।।170।।<br>
+
<br>
+
पितु हित भरत कीन्हि जसि करनी। सो मुख लाख जाइ नहिं बरनी।।<br>
+
सुदिनु सोधि मुनिबर तब आए। सचिव महाजन सकल बोलाए।।<br>
+
बैठे राजसभाँ सब जाई। पठए बोलि भरत दोउ भाई।।<br>
+
भरतु बसिष्ठ निकट बैठारे। नीति धरममय बचन उचारे।।<br>
+
प्रथम कथा सब मुनिबर बरनी। कैकइ कुटिल कीन्हि जसि करनी।।<br>
+
भूप धरमब्रतु सत्य सराहा। जेहिं तनु परिहरि प्रेमु निबाहा।।<br>
+
कहत राम गुन सील सुभाऊ। सजल नयन पुलकेउ मुनिराऊ।।
+
बहुरि लखन सिय प्रीति बखानी। सोक सनेह मगन मुनि ग्यानी।।<br>
+
<br>
+
दो0-सुनहु भरत भावी प्रबल बिलखि कहेउ मुनिनाथ।<br>
+
हानि लाभु जीवन मरनु जसु अपजसु बिधि हाथ।।171।।<br>
+
<br>
+
अस बिचारि केहि देइअ दोसू। ब्यरथ काहि पर कीजिअ रोसू।।<br>
+
तात बिचारु केहि करहु मन माहीं। सोच जोगु दसरथु नृपु नाहीं।।<br>
+
सोचिअ बिप्र जो बेद बिहीना। तजि निज धरमु बिषय लयलीना।।<br>
+
सोचिअ नृपति जो नीति न जाना। जेहि न प्रजा प्रिय प्रान समाना।।<br>
+
सोचिअ बयसु कृपन धनवानू। जो न अतिथि सिव भगति सुजानू।।<br>
+
सोचिअ सूद्रु बिप्र अवमानी। मुखर मानप्रिय ग्यान गुमानी।।<br>
+
सोचिअ पुनि पति बंचक नारी। कुटिल कलहप्रिय इच्छाचारी।।<br>
+
सोचिअ बटु निज ब्रतु परिहरई। जो नहिं गुर आयसु अनुसरई।।<br>
+
<br>
+
दो0-सोचिअ गृही जो मोह बस करइ करम पथ त्याग।<br>
+
सोचिअ जति प्रंपच रत बिगत बिबेक बिराग।।172।।<br>
+
<br>
+
बैखानस सोइ सोचै जोगु। तपु बिहाइ जेहि भावइ भोगू।।<br>
+
सोचिअ पिसुन अकारन क्रोधी। जननि जनक गुर बंधु बिरोधी।।<br>
+
सब बिधि सोचिअ पर अपकारी। निज तनु पोषक निरदय भारी।।<br>
+
सोचनीय सबहि बिधि सोई। जो न छाड़ि छलु हरि जन होई।।<br>
+
सोचनीय नहिं कोसलराऊ। भुवन चारिदस प्रगट प्रभाऊ।।<br>
+
भयउ न अहइ न अब होनिहारा। भूप भरत जस पिता तुम्हारा।।<br>
+
बिधि हरि हरु सुरपति दिसिनाथा। बरनहिं सब दसरथ गुन गाथा।।<br>
+
<br>
+
दो0-कहहु तात केहि भाँति कोउ करिहि बड़ाई तासु।<br>
+
राम लखन तुम्ह सत्रुहन सरिस सुअन सुचि जासु।।173।।<br>
+
<br>
+
सब प्रकार भूपति बड़भागी। बादि बिषादु करिअ तेहि लागी।।<br>
+
यहु सुनि समुझि सोचु परिहरहू। सिर धरि राज रजायसु करहू।।<br>
+
राँय राजपदु तुम्ह कहुँ दीन्हा। पिता बचनु फुर चाहिअ कीन्हा।।<br>
+
तजे रामु जेहिं बचनहि लागी। तनु परिहरेउ राम बिरहागी।।<br>
+
नृपहि बचन प्रिय नहिं प्रिय प्राना। करहु तात पितु बचन प्रवाना।।<br>
+
करहु सीस धरि भूप रजाई। हइ तुम्ह कहँ सब भाँति भलाई।।<br>
+
परसुराम पितु अग्या राखी। मारी मातु लोक सब साखी।।<br>
+
तनय जजातिहि जौबनु दयऊ। पितु अग्याँ अघ अजसु न भयऊ।।<br>
+
<br>
+
दो0-अनुचित उचित बिचारु तजि जे पालहिं पितु बैन।<br>
+
ते भाजन सुख सुजस के बसहिं अमरपति ऐन।।174।।<br>
+
<br>
+
अवसि नरेस बचन फुर करहू। पालहु प्रजा सोकु परिहरहू।।<br>
+
सुरपुर नृप पाइहि परितोषू। तुम्ह कहुँ सुकृत सुजसु नहिं दोषू।।<br>
+
बेद बिदित संमत सबही का। जेहि पितु देइ सो पावइ टीका।।<br>
+
करहु राजु परिहरहु गलानी। मानहु मोर बचन हित जानी।।<br>
+
सुनि सुखु लहब राम बैदेहीं। अनुचित कहब न पंडित केहीं।।<br>
+
कौसल्यादि सकल महतारीं। तेउ प्रजा सुख होहिं सुखारीं।।<br>
+
परम तुम्हार राम कर जानिहि। सो सब बिधि तुम्ह सन भल मानिहि।।<br>
+
सौंपेहु राजु राम कै आएँ। सेवा करेहु सनेह सुहाएँ।।<br>
+
<br>
+
दो0-कीजिअ गुर आयसु अवसि कहहिं सचिव कर जोरि।<br>
+
रघुपति आएँ उचित जस तस तब करब बहोरि।।175।।<br>
+
<br>
+
कौसल्या धरि धीरजु कहई। पूत पथ्य गुर आयसु अहई।।<br>
+
सो आदरिअ करिअ हित मानी। तजिअ बिषादु काल गति जानी।।<br>
+
बन रघुपति सुरपति नरनाहू। तुम्ह एहि भाँति तात कदराहू।।<br>
+
परिजन प्रजा सचिव सब अंबा। तुम्हही सुत सब कहँ अवलंबा।।<br>
+
लखि बिधि बाम कालु कठिनाई। धीरजु धरहु मातु बलि जाई।।<br>
+
सिर धरि गुर आयसु अनुसरहू। प्रजा पालि परिजन दुखु हरहू।।<br>
+
गुर के बचन सचिव अभिनंदनु। सुने भरत हिय हित जनु चंदनु।।<br>
+
सुनी बहोरि मातु मृदु बानी। सील सनेह सरल रस सानी।।<br>
+
<br>
+
छं0-सानी सरल रस मातु बानी सुनि भरत ब्याकुल भए।<br>
+
लोचन सरोरुह स्त्रवत सींचत बिरह उर अंकुर नए।।<br>
+
सो दसा देखत समय तेहि बिसरी सबहि सुधि देह की।<br>
+
तुलसी सराहत सकल सादर सीवँ सहज सनेह की।।<br>
+
<br>
+
सो0-भरतु कमल कर जोरि धीर धुरंधर धीर धरि।<br>
+
बचन अमिअँ जनु बोरि देत उचित उत्तर सबहि।।176।।<br>
+
<br><br>
+
  
'''मासपारायण, अठारहवाँ विश्राम'''<br><br>
+
तेहि अवसर रघुबर रूख पाई। केवट पारहि नाव चलाई॥
 +
रघुकुलतिलक चले एहि भाँती। देखउँ ठाढ़ कुलिस धरि छाती॥
 +
मैं आपन किमि कहौं कलेसू। जिअत फिरेउँ लेइ राम सँदेसू॥
 +
अस कहि सचिव बचन रहि गयऊ। हानि गलानि सोच बस भयऊ॥
 +
सुत बचन सुनतहिं नरनाहू। परेउ धरनि उर दारुन दाहू॥
 +
तलफत बिषम मोह मन मापा। माजा मनहुँ मीन कहुँ ब्यापा॥
 +
करि बिलाप सब रोवहिं रानी। महा बिपति किमि जाइ बखानी॥
 +
सुनि बिलाप दुखहू दुखु लागा। धीरजहू कर धीरजु भागा॥
 +
दो0-भयउ कोलाहलु अवध अति सुनि नृप राउर सोरु।
 +
बिपुल बिहग बन परेउ निसि मानहुँ कुलिस कठोरु॥153॥
  
मोहि उपदेसु दीन्ह गुर नीका। प्रजा सचिव संमत सबही का।।<br>
+
प्रान कंठगत भयउ भुआलू। मनि बिहीन जनु ब्याकुल ब्यालू॥
मातु उचित धरि आयसु दीन्हा। अवसि सीस धरि चाहउँ कीन्हा।।<br>
+
इद्रीं सकल बिकल भइँ भारी। जनु सर सरसिज बनु बिनु बारी॥
गुर पितु मातु स्वामि हित बानी। सुनि मन मुदित करिअ भलि जानी।।<br>
+
कौसल्याँ नृपु दीख मलाना। रबिकुल रबि अँथयउ जियँ जाना।
उचित कि अनुचित किएँ बिचारू। धरमु जाइ सिर पातक भारू।।<br>
+
उर धरि धीर राम महतारी। बोली बचन समय अनुसारी॥
तुम्ह तौ देहु सरल सिख सोई। जो आचरत मोर भल होई।।<br>
+
नाथ समुझि मन करिअ बिचारू। राम बियोग पयोधि अपारू॥
जद्यपि यह समुझत हउँ नीकें। तदपि होत परितोषु न जी कें।।<br>
+
करनधार तुम्ह अवध जहाजू। चढ़ेउ सकल प्रिय पथिक समाजू॥
अब तुम्ह बिनय मोरि सुनि लेहू। मोहि अनुहरत सिखावनु देहू।।<br>
+
धीरजु धरिअ त पाइअ पारू। नाहिं त बूड़िहि सबु परिवारू॥
ऊतरु देउँ छमब अपराधू। दुखित दोष गुन गनहिं न साधू।।<br>
+
जौं जियँ धरिअ बिनय पिय मोरी। रामु लखनु सिय मिलहिं बहोरी॥
<br>
+
दो0–प्रिया बचन मृदु सुनत नृपु चितयउ आँखि उघारि।
दो0-पितु सुरपुर सिय रामु बन करन कहहु मोहि राजु।<br>
+
तलफत मीन मलीन जनु सींचत सीतल बारि॥154॥
एहि तें जानहु मोर हित कै आपन बड़ काजु।।177।।<br>
+
 
<br>
+
धरि धीरजु उठी बैठ भुआलू। कहु सुमंत्र कहँ राम कृपालू॥
हित हमार सियपति सेवकाई। सो हरि लीन्ह मातु कुटिलाई।।<br>
+
कहाँ लखनु कहँ रामु सनेही। कहँ प्रिय पुत्रबधू बैदेही॥
मैं अनुमानि दीख मन माहीं। आन उपायँ मोर हित नाहीं।।<br>
+
बिलपत राउ बिकल बहु भाँती। भइ जुग सरिस सिराति न राती॥
सोक समाजु राजु केहि लेखें। लखन राम सिय बिनु पद देखें।।<br>
+
तापस अंध साप सुधि आई। कौसल्यहि सब कथा सुनाई॥
बादि बसन बिनु भूषन भारू। बादि बिरति बिनु ब्रह्म बिचारू।।<br>
+
भयउ बिकल बरनत इतिहासा। राम रहित धिग जीवन आसा॥
सरुज सरीर बादि बहु भोगा। बिनु हरिभगति जायँ जप जोगा।।<br>
+
सो तनु राखि करब मैं काहा। जेंहि न प्रेम पनु मोर निबाहा॥
जायँ जीव बिनु देह सुहाई। बादि मोर सबु बिनु रघुराई।।<br>
+
हा रघुनंदन प्रान पिरीते। तुम्ह बिनु जिअत बहुत दिन बीते॥
जाउँ राम पहिं आयसु देहू। एकहिं आँक मोर हित एहू।।<br>
+
हा जानकी लखन हा रघुबर। हा पितु हित चित चातक जलधर।
मोहि नृप करि भल आपन चहहू। सोउ सनेह जड़ता बस कहहू।।<br>
+
दो0-राम राम कहि राम कहि राम राम कहि राम।
<br>
+
तनु परिहरि रघुबर बिरहँ राउ गयउ सुरधाम॥155॥
दो0-कैकेई सुअ कुटिलमति राम बिमुख गतलाज।<br>
+
 
तुम्ह चाहत सुखु मोहबस मोहि से अधम कें राज।।178।।<br>
+
जिअन मरन फलु दसरथ पावा। अंड अनेक अमल जसु छावा॥
<br>
+
जिअत राम बिधु बदनु निहारा। राम बिरह करि मरनु सँवारा॥
कहउँ साँचु सब सुनि पतिआहू। चाहिअ धरमसील नरनाहू।।<br>
+
सोक बिकल सब रोवहिं रानी। रूपु सील बलु तेजु बखानी॥
मोहि राजु हठि देइहहु जबहीं। रसा रसातल जाइहि तबहीं।।<br>
+
करहिं बिलाप अनेक प्रकारा। परहीं भूमितल बारहिं बारा॥
मोहि समान को पाप निवासू। जेहि लगि सीय राम बनबासू।।<br>
+
बिलपहिं बिकल दास अरु दासी। घर घर रुदनु करहिं पुरबासी॥
रायँ राम कहुँ काननु दीन्हा। बिछुरत गमनु अमरपुर कीन्हा।।<br>
+
अँथयउ आजु भानुकुल भानू। धरम अवधि गुन रूप निधानू॥
मैं सठु सब अनरथ कर हेतू। बैठ बात सब सुनउँ सचेतू।।<br>
+
गारीं सकल कैकइहि देहीं। नयन बिहीन कीन्ह जग जेहीं॥
बिनु रघुबीर बिलोकि अबासू। रहे प्रान सहि जग उपहासू।।<br>
+
एहि बिधि बिलपत रैनि बिहानी। आए सकल महामुनि ग्यानी॥
राम पुनीत बिषय रस रूखे। लोलुप भूमि भोग के भूखे।।<br>
+
दो0-तब बसिष्ठ मुनि समय सम कहि अनेक इतिहास।
कहँ लगि कहौं हृदय कठिनाई। निदरि कुलिसु जेहिं लही बड़ाई।।<br>
+
सोक नेवारेउ सबहि कर निज बिग्यान प्रकास॥156॥
<br>
+
 
दो0-कारन तें कारजु कठिन होइ दोसु नहि मोर।<br>
+
तेल नाँव भरि नृप तनु राखा। दूत बोलाइ बहुरि अस भाषा॥
कुलिस अस्थि तें उपल तें लोह कराल कठोर।।179।।<br>
+
धावहु बेगि भरत पहिं जाहू। नृप सुधि कतहुँ कहहु जनि काहू॥
<br>
+
एतनेइ कहेहु भरत सन जाई। गुर बोलाई पठयउ दोउ भाई॥
कैकेई भव तनु अनुरागे। पाँवर प्रान अघाइ अभागे।।<br>
+
सुनि मुनि आयसु धावन धाए। चले बेग बर बाजि लजाए॥
जौं प्रिय बिरहँ प्रान प्रिय लागे। देखब सुनब बहुत अब आगे।।<br>
+
अनरथु अवध अरंभेउ जब तें। कुसगुन होहिं भरत कहुँ तब तें॥
लखन राम सिय कहुँ बनु दीन्हा। पठइ अमरपुर पति हित कीन्हा।।<br>
+
देखहिं राति भयानक सपना। जागि करहिं कटु कोटि कलपना॥
लीन्ह बिधवपन अपजसु आपू। दीन्हेउ प्रजहि सोकु संतापू।।<br>
+
बिप्र जेवाँइ देहिं दिन दाना। सिव अभिषेक करहिं बिधि नाना॥
मोहि दीन्ह सुखु सुजसु सुराजू। कीन्ह कैकेईं सब कर काजू।।<br>
+
मागहिं हृदयँ महेस मनाई। कुसल मातु पितु परिजन भाई॥
एहि तें मोर काह अब नीका। तेहि पर देन कहहु तुम्ह टीका।।<br>
+
दो0-एहि बिधि सोचत भरत मन धावन पहुँचे आइ।
कैकई जठर जनमि जग माहीं। यह मोहि कहँ कछु अनुचित नाहीं।।<br>
+
गुर अनुसासन श्रवन सुनि चले गनेसु मनाइ॥157॥
मोरि बात सब बिधिहिं बनाई। प्रजा पाँच कत करहु सहाई।।<br>
+
 
<br>
+
चले समीर बेग हय हाँके। नाघत सरित सैल बन बाँके॥
दो0-ग्रह ग्रहीत पुनि बात बस तेहि पुनि बीछी मार।<br>
+
हृदयँ सोचु बड़ कछु न सोहाई। अस जानहिं जियँ जाउँ उड़ाई॥
तेहि पिआइअ बारुनी कहहु काह उपचार।।180।।<br>
+
एक निमेष बरस सम जाई। एहि बिधि भरत नगर निअराई॥
<br>
+
असगुन होहिं नगर पैठारा। रटहिं कुभाँति कुखेत करारा॥
कैकइ सुअन जोगु जग जोई। चतुर बिरंचि दीन्ह मोहि सोई।।<br>
+
खर सिआर बोलहिं प्रतिकूला। सुनि सुनि होइ भरत मन सूला॥
दसरथ तनय राम लघु भाई। दीन्हि मोहि बिधि बादि बड़ाई।।<br>
+
श्रीहत सर सरिता बन बागा। नगरु बिसेषि भयावनु लागा॥
तुम्ह सब कहहु कढ़ावन टीका। राय रजायसु सब कहँ नीका।।<br>
+
खग मृग हय गय जाहिं न जोए। राम बियोग कुरोग बिगोए॥
उतरु देउँ केहि बिधि केहि केही। कहहु सुखेन जथा रुचि जेही।।<br>
+
नगर नारि नर निपट दुखारी। मनहुँ सबन्हि सब संपति हारी॥
मोहि कुमातु समेत बिहाई। कहहु कहिहि के कीन्ह भलाई।।<br>
+
दो0-पुरजन मिलिहिं न कहहिं कछु गवँहिं जोहारहिं जाहिं।
मो बिनु को सचराचर माहीं। जेहि सिय रामु प्रानप्रिय नाहीं।।<br>
+
भरत कुसल पूँछि न सकहिं भय बिषाद मन माहिं॥158॥
परम हानि सब कहँ बड़ लाहू। अदिनु मोर नहि दूषन काहू।।<br>
+
 
संसय सील प्रेम बस अहहू। सबुइ उचित सब जो कछु कहहू।।<br>
+
हाट बाट नहिं जाइ निहारी। जनु पुर दहँ दिसि लागि दवारी॥
<br>
+
आवत सुत सुनि कैकयनंदिनि। हरषी रबिकुल जलरुह चंदिनि॥
दो0-राम मातु सुठि सरलचित मो पर प्रेमु बिसेषि।<br>
+
सजि आरती मुदित उठि धाई। द्वारेहिं भेंटि भवन लेइ आई॥
कहइ सुभाय सनेह बस मोरि दीनता देखि।।181।<br>
+
भरत दुखित परिवारु निहारा। मानहुँ तुहिन बनज बनु मारा॥
<br>
+
कैकेई हरषित एहि भाँति। मनहुँ मुदित दव लाइ किराती॥
गुर बिबेक सागर जगु जाना। जिन्हहि बिस्व कर बदर समाना।।<br>
+
सुतहि ससोच देखि मनु मारें। पूँछति नैहर कुसल हमारें॥
मो कहँ तिलक साज सज सोऊ। भएँ बिधि बिमुख बिमुख सबु कोऊ।।<br>
+
सकल कुसल कहि भरत सुनाई। पूँछी निज कुल कुसल भलाई॥
परिहरि रामु सीय जग माहीं। कोउ न कहिहि मोर मत नाहीं।।<br>
+
कहु कहँ तात कहाँ सब माता। कहँ सिय राम लखन प्रिय भ्राता॥
सो मैं सुनब सहब सुखु मानी। अंतहुँ कीच तहाँ जहँ पानी।।<br>
+
दो0-सुनि सुत बचन सनेहमय कपट नीर भरि नैन।
डरु न मोहि जग कहिहि कि पोचू। परलोकहु कर नाहिन सोचू।।<br>
+
भरत श्रवन मन सूल सम पापिनि बोली बैन॥159॥
एकइ उर बस दुसह दवारी। मोहि लगि भे सिय रामु दुखारी।।<br>
+
 
जीवन लाहु लखन भल पावा। सबु तजि राम चरन मनु लावा।।<br>
+
तात बात मैं सकल सँवारी। भै मंथरा सहाय बिचारी॥
मोर जनम रघुबर बन लागी। झूठ काह पछिताउँ अभागी।।<br>
+
कछुक काज बिधि बीच बिगारेउ। भूपति सुरपति पुर पगु धारेउ॥
<br>
+
सुनत भरतु भए बिबस बिषादा। जनु सहमेउ करि केहरि नादा॥
दो0-आपनि दारुन दीनता कहउँ सबहि सिरु नाइ।<br>
+
तात तात हा तात पुकारी। परे भूमितल ब्याकुल भारी॥
देखें बिनु रघुनाथ पद जिय कै जरनि न जाइ।।182।।<br>
+
चलत न देखन पायउँ तोही। तात न रामहि सौंपेहु मोही॥
<br>
+
बहुरि धीर धरि उठे सँभारी। कहु पितु मरन हेतु महतारी॥
आन उपाउ मोहि नहि सूझा। को जिय कै रघुबर बिनु बूझा।।<br>
+
सुनि सुत बचन कहति कैकेई। मरमु पाँछि जनु माहुर देई॥
एकहिं आँक इहइ मन माहीं। प्रातकाल चलिहउँ प्रभु पाहीं।।<br>
+
आदिहु तें सब आपनि करनी। कुटिल कठोर मुदित मन बरनी॥
जद्यपि मैं अनभल अपराधी। भै मोहि कारन सकल उपाधी।।<br>
+
दो0-भरतहि बिसरेउ पितु मरन सुनत राम बन गौनु।
तदपि सरन सनमुख मोहि देखी। छमि सब करिहहिं कृपा बिसेषी।।<br>
+
हेतु अपनपउ जानि जियँ थकित रहे धरि मौनु॥160॥
सील सकुच सुठि सरल सुभाऊ। कृपा सनेह सदन रघुराऊ।।<br>
+
 
अरिहुक अनभल कीन्ह न रामा। मैं सिसु सेवक जद्यपि बामा।।<br>
+
बिकल बिलोकि सुतहि समुझावति। मनहुँ जरे पर लोनु लगावति॥
तुम्ह पै पाँच मोर भल मानी। आयसु आसिष देहु सुबानी।।<br>
+
तात राउ नहिं सोचे जोगू। बिढ़इ सुकृत जसु कीन्हेउ भोगू॥
जेहिं सुनि बिनय मोहि जनु जानी। आवहिं बहुरि रामु रजधानी।।<br>
+
जीवत सकल जनम फल पाए। अंत अमरपति सदन सिधाए॥
<br>
+
अस अनुमानि सोच परिहरहू। सहित समाज राज पुर करहू॥
दो0-जद्यपि जनमु कुमातु तें मैं सठु सदा सदोस।<br>
+
सुनि सुठि सहमेउ राजकुमारू। पाकें छत जनु लाग अँगारू॥
आपन जानि न त्यागिहहिं मोहि रघुबीर भरोस।।183।।<br>
+
धीरज धरि भरि लेहिं उसासा। पापनि सबहि भाँति कुल नासा॥
<br>
+
जौं पै कुरुचि रही अति तोही। जनमत काहे न मारे मोही॥
भरत बचन सब कहँ प्रिय लागे। राम सनेह सुधाँ जनु पागे।।<br>
+
पेड़ काटि तैं पालउ सींचा। मीन जिअन निति बारि उलीचा॥
लोग बियोग बिषम बिष दागे। मंत्र सबीज सुनत जनु जागे।।<br>
+
दो0-हंसबंसु दसरथु जनकु राम लखन से भाइ।
मातु सचिव गुर पुर नर नारी। सकल सनेहँ बिकल भए भारी।।<br>
+
जननी तूँ जननी भई बिधि सन कछु न बसाइ॥161॥
भरतहि कहहि सराहि सराही। राम प्रेम मूरति तनु आही।।<br>
+
 
तात भरत अस काहे न कहहू। प्रान समान राम प्रिय अहहू।।<br>
+
जब तैं कुमति कुमत जियँ ठयऊ। खंड खंड होइ ह्रदउ न गयऊ॥
जो पावँरु अपनी जड़ताई। तुम्हहि सुगाइ मातु कुटिलाई।।<br>
+
बर मागत मन भइ नहिं पीरा। गरि न जीह मुहँ परेउ न कीरा॥
सो सठु कोटिक पुरुष समेता। बसिहि कलप सत नरक निकेता।।<br>
+
भूपँ प्रतीत तोरि किमि कीन्ही। मरन काल बिधि मति हरि लीन्ही॥
अहि अघ अवगुन नहि मनि गहई। हरइ गरल दुख दारिद दहई।।<br>
+
बिधिहुँ न नारि हृदय गति जानी। सकल कपट अघ अवगुन खानी॥
<br>
+
सरल सुसील धरम रत राऊ। सो किमि जानै तीय सुभाऊ॥
दो0-अवसि चलिअ बन रामु जहँ भरत मंत्रु भल कीन्ह।<br>
+
अस को जीव जंतु जग माहीं। जेहि रघुनाथ प्रानप्रिय नाहीं॥
सोक सिंधु बूड़त सबहि तुम्ह अवलंबनु दीन्ह।।184।।<br>
+
भे अति अहित रामु तेउ तोही। को तू अहसि सत्य कहु मोही॥
<br>
+
जो हसि सो हसि मुहँ मसि लाई। आँखि ओट उठि बैठहिं जाई॥
भा सब कें मन मोदु न थोरा। जनु घन धुनि सुनि चातक मोरा।।<br>
+
दो0-राम बिरोधी हृदय तें प्रगट कीन्ह बिधि मोहि।
चलत प्रात लखि निरनउ नीके। भरतु प्रानप्रिय भे सबही के।।<br>
+
मो समान को पातकी बादि कहउँ कछु तोहि॥162॥
मुनिहि बंदि भरतहि सिरु नाई। चले सकल घर बिदा कराई।।<br>
+
 
धन्य भरत जीवनु जग माहीं। सीलु सनेहु सराहत जाहीं।।<br>
+
सुनि सत्रुघुन मातु कुटिलाई। जरहिं गात रिस कछु न बसाई॥
कहहि परसपर भा बड़ काजू। सकल चलै कर साजहिं साजू।।<br>
+
तेहि अवसर कुबरी तहँ आई। बसन बिभूषन बिबिध बनाई॥
जेहि राखहिं रहु घर रखवारी। सो जानइ जनु गरदनि मारी।।<br>
+
लखि रिस भरेउ लखन लघु भाई। बरत अनल घृत आहुति पाई॥
कोउ कह रहन कहिअ नहिं काहू। को न चहइ जग जीवन लाहू।।<br>
+
हुमगि लात तकि कूबर मारा। परि मुह भर महि करत पुकारा॥
<br>
+
कूबर टूटेउ फूट कपारू। दलित दसन मुख रुधिर प्रचारू॥
दो0-जरउ सो संपति सदन सुखु सुहद मातु पितु भाइ।<br>
+
आह दइअ मैं काह नसावा। करत नीक फलु अनइस पावा॥
सनमुख होत जो राम पद करै न सहस सहाइ।।185।।<br>
+
सुनि रिपुहन लखि नख सिख खोटी। लगे घसीटन धरि धरि झोंटी॥
<br>
+
भरत दयानिधि दीन्हि छड़ाई। कौसल्या पहिं गे दोउ भाई॥
घर घर साजहिं बाहन नाना। हरषु हृदयँ परभात पयाना।।<br>
+
दो0-मलिन बसन बिबरन बिकल कृस सरीर दुख भार।
भरत जाइ घर कीन्ह बिचारू। नगरु बाजि गज भवन भँडारू।।<br>
+
कनक कलप बर बेलि बन मानहुँ हनी तुसार॥163॥
संपति सब रघुपति कै आही। जौ बिनु जतन चलौं तजि ताही।।<br>
+
 
तौ परिनाम न मोरि भलाई। पाप सिरोमनि साइँ दोहाई।।<br>
+
भरतहि देखि मातु उठि धाई। मुरुछित अवनि परी झइँ आई॥
करइ स्वामि हित सेवकु सोई। दूषन कोटि देइ किन कोई।।<br>
+
देखत भरतु बिकल भए भारी। परे चरन तन दसा बिसारी॥
अस बिचारि सुचि सेवक बोले। जे सपनेहुँ निज धरम न डोले।।<br>
+
मातु तात कहँ देहि देखाई। कहँ सिय रामु लखनु दोउ भाई॥
कहि सबु मरमु धरमु भल भाषा। जो जेहि लायक सो तेहिं राखा।।<br>
+
कैकइ कत जनमी जग माझा। जौं जनमि त भइ काहे न बाँझा॥
करि सबु जतनु राखि रखवारे। राम मातु पहिं भरतु सिधारे।।<br>
+
कुल कलंकु जेहिं जनमेउ मोही। अपजस भाजन प्रियजन द्रोही॥
<br>
+
को तिभुवन मोहि सरिस अभागी। गति असि तोरि मातु जेहि लागी॥
दो0-आरत जननी जानि सब भरत सनेह सुजान।<br>
+
पितु सुरपुर बन रघुबर केतू। मैं केवल सब अनरथ हेतु॥
कहेउ बनावन पालकीं सजन सुखासन जान।।186।।<br>
+
धिग मोहि भयउँ बेनु बन आगी। दुसह दाह दुख दूषन भागी॥
<br>
+
दो0-मातु भरत के बचन मृदु सुनि सुनि उठी सँभारि॥
चक्क चक्कि जिमि पुर नर नारी। चहत प्रात उर आरत भारी।।<br>
+
लिए उठाइ लगाइ उर लोचन मोचति बारि॥164॥
जागत सब निसि भयउ बिहाना। भरत बोलाए सचिव सुजाना।।<br>
+
 
कहेउ लेहु सबु तिलक समाजू। बनहिं देब मुनि रामहिं राजू।।<br>
+
सरल सुभाय मायँ हियँ लाए। अति हित मनहुँ राम फिरि आए॥
बेगि चलहु सुनि सचिव जोहारे। तुरत तुरग रथ नाग सँवारे।।<br>
+
भेंटेउ बहुरि लखन लघु भाई। सोकु सनेहु न हृदयँ समाई॥
अरुंधती अरु अगिनि समाऊ। रथ चढ़ि चले प्रथम मुनिराऊ।।<br>
+
देखि सुभाउ कहत सबु कोई। राम मातु अस काहे न होई॥
बिप्र बृंद चढ़ि बाहन नाना। चले सकल तप तेज निधाना।।<br>
+
माताँ भरतु गोद बैठारे। आँसु पौंछि मृदु बचन उचारे॥
नगर लोग सब सजि सजि जाना। चित्रकूट कहँ कीन्ह पयाना।।<br>
+
अजहुँ बच्छ बलि धीरज धरहू। कुसमउ समुझि सोक परिहरहू॥
सिबिका सुभग न जाहिं बखानी। चढ़ि चढ़ि चलत भई सब रानी।।<br>
+
जनि मानहु हियँ हानि गलानी। काल करम गति अघटित जानि॥
<br>
+
काहुहि दोसु देहु जनि ताता। भा मोहि सब बिधि बाम बिधाता॥
दो0-सौंपि नगर सुचि सेवकनि सादर सकल चलाइ।<br>
+
जो एतेहुँ दुख मोहि जिआवा। अजहुँ को जानइ का तेहि भावा॥
सुमिरि राम सिय चरन तब चले भरत दोउ भाइ।।187।।<br>
+
दो0-पितु आयस भूषन बसन तात तजे रघुबीर।
<br>
+
बिसमउ हरषु न हृदयँ कछु पहिरे बलकल चीर। 165॥
राम दरस बस सब नर नारी। जनु करि करिनि चले तकि बारी।।<br>
+
 
बन सिय रामु समुझि मन माहीं। सानुज भरत पयादेहिं जाहीं।।<br>
+
मुख प्रसन्न मन रंग न रोषू। सब कर सब बिधि करि परितोषू॥
देखि सनेहु लोग अनुरागे। उतरि चले हय गय रथ त्यागे।।<br>
+
चले बिपिन सुनि सिय सँग लागी। रहइ न राम चरन अनुरागी॥
जाइ समीप राखि निज डोली। राम मातु मृदु बानी बोली।।<br>
+
सुनतहिं लखनु चले उठि साथा। रहहिं न जतन किए रघुनाथा॥
तात चढ़हु रथ बलि महतारी। होइहि प्रिय परिवारु दुखारी।।<br>
+
तब रघुपति सबही सिरु नाई। चले संग सिय अरु लघु भाई॥
तुम्हरें चलत चलिहि सबु लोगू। सकल सोक कृस नहिं मग जोगू।।<br>
+
रामु लखनु सिय बनहि सिधाए। गइउँ न संग न प्रान पठाए॥
सिर धरि बचन चरन सिरु नाई। रथ चढ़ि चलत भए दोउ भाई।।<br>
+
यहु सबु भा इन्ह आँखिन्ह आगें। तउ न तजा तनु जीव अभागें॥
तमसा प्रथम दिवस करि बासू। दूसर गोमति तीर निवासू।।<br>
+
मोहि न लाज निज नेहु निहारी। राम सरिस सुत मैं महतारी॥
<br>
+
जिऐ मरै भल भूपति जाना। मोर हृदय सत कुलिस समाना॥
दो0-पय अहार फल असन एक निसि भोजन एक लोग।<br>
+
दो0- कौसल्या के बचन सुनि भरत सहित रनिवास।
करत राम हित नेम ब्रत परिहरि भूषन भोग।।188।।<br>
+
ब्याकुल बिलपत राजगृह मानहुँ सोक नेवासु॥166॥
<br>
+
 
सई तीर बसि चले बिहाने। सृंगबेरपुर सब निअराने।।<br>
+
बिलपहिं बिकल भरत दोउ भाई। कौसल्याँ लिए हृदयँ लगाई॥
समाचार सब सुने निषादा। हृदयँ बिचार करइ सबिषादा।।<br>
+
भाँति अनेक भरतु समुझाए। कहि बिबेकमय बचन सुनाए॥
कारन कवन भरतु बन जाहीं। है कछु कपट भाउ मन माहीं।।<br>
+
भरतहुँ मातु सकल समुझाईं। कहि पुरान श्रुति कथा सुहाईं॥
जौं पै जियँ न होति कुटिलाई। तौ कत लीन्ह संग कटकाई।।<br>
+
छल बिहीन सुचि सरल सुबानी। बोले भरत जोरि जुग पानी॥
जानहिं सानुज रामहि मारी। करउँ अकंटक राजु सुखारी।।<br>
+
जे अघ मातु पिता सुत मारें। गाइ गोठ महिसुर पुर जारें॥
भरत न राजनीति उर आनी। तब कलंकु अब जीवन हानी।।<br>
+
जे अघ तिय बालक बध कीन्हें। मीत महीपति माहुर दीन्हें॥
सकल सुरासुर जुरहिं जुझारा। रामहि समर न जीतनिहारा।।<br>
+
जे पातक उपपातक अहहीं। करम बचन मन भव कबि कहहीं॥
का आचरजु भरतु अस करहीं। नहिं बिष बेलि अमिअ फल फरहीं।।<br>
+
ते पातक मोहि होहुँ बिधाता। जौं यहु होइ मोर मत माता॥
<br>
+
दो0-जे परिहरि हरि हर चरन भजहिं भूतगन घोर।
दो0-अस बिचारि गुहँ ग्याति सन कहेउ सजग सब होहु।<br>
+
तेहि कइ गति मोहि देउ बिधि जौं जननी मत मोर॥167॥
हथवाँसहु बोरहु तरनि कीजिअ घाटारोहु।।189।।<br>
+
 
<br>
+
बेचहिं बेदु धरमु दुहि लेहीं। पिसुन पराय पाप कहि देहीं॥
होहु सँजोइल रोकहु घाटा। ठाटहु सकल मरै के ठाटा।।<br>
+
कपटी कुटिल कलहप्रिय क्रोधी। बेद बिदूषक बिस्व बिरोधी॥
सनमुख लोह भरत सन लेऊँ। जिअत न सुरसरि उतरन देऊँ।।<br>
+
लोभी लंपट लोलुपचारा। जे ताकहिं परधनु परदारा॥
समर मरनु पुनि सुरसरि तीरा। राम काजु छनभंगु सरीरा।।<br>
+
पावौं मैं तिन्ह के गति घोरा। जौं जननी यहु संमत मोरा॥
भरत भाइ नृपु मै जन नीचू। बड़ें भाग असि पाइअ मीचू।।<br>
+
जे नहिं साधुसंग अनुरागे। परमारथ पथ बिमुख अभागे॥
स्वामि काज करिहउँ रन रारी। जस धवलिहउँ भुवन दस चारी।।<br>
+
जे न भजहिं हरि नरतनु पाई। जिन्हहि न हरि हर सुजसु सोहाई॥
तजउँ प्रान रघुनाथ निहोरें। दुहूँ हाथ मुद मोदक मोरें।।<br>
+
तजि श्रुतिपंथु बाम पथ चलहीं। बंचक बिरचि बेष जगु छलहीं॥
साधु समाज न जाकर लेखा। राम भगत महुँ जासु न रेखा।।<br>
+
तिन्ह कै गति मोहि संकर देऊ। जननी जौं यहु जानौं भेऊ॥
जायँ जिअत जग सो महि भारू। जननी जौबन बिटप कुठारू।।<br>
+
दो0-मातु भरत के बचन सुनि साँचे सरल सुभायँ।
<br>
+
कहति राम प्रिय तात तुम्ह सदा बचन मन कायँ॥168॥
दो0-बिगत बिषाद निषादपति सबहि बढ़ाइ उछाहु।<br>
+
 
सुमिरि राम मागेउ तुरत तरकस धनुष सनाहु।।190।।<br>
+
राम प्रानहु तें प्रान तुम्हारे। तुम्ह रघुपतिहि प्रानहु तें प्यारे॥
<br>
+
बिधु बिष चवै स्त्रवै हिमु आगी। होइ बारिचर बारि बिरागी॥
बेगहु भाइहु सजहु सँजोऊ। सुनि रजाइ कदराइ न कोऊ।।<br>
+
भएँ ग्यानु बरु मिटै न मोहू। तुम्ह रामहि प्रतिकूल न होहू॥
भलेहिं नाथ सब कहहिं सहरषा। एकहिं एक बढ़ावइ करषा।।<br>
+
मत तुम्हार यहु जो जग कहहीं। सो सपनेहुँ सुख सुगति न लहहीं॥
चले निषाद जोहारि जोहारी। सूर सकल रन रूचइ रारी।।<br>
+
अस कहि मातु भरतु हियँ लाए। थन पय स्त्रवहिं नयन जल छाए॥
सुमिरि राम पद पंकज पनहीं। भाथीं बाँधि चढ़ाइन्हि धनहीं।।<br>
+
करत बिलाप बहुत यहि भाँती। बैठेहिं बीति गइ सब राती॥
अँगरी पहिरि कूँड़ि सिर धरहीं। फरसा बाँस सेल सम करहीं।।<br>
+
बामदेउ बसिष्ठ तब आए। सचिव महाजन सकल बोलाए॥
एक कुसल अति ओड़न खाँड़े। कूदहि गगन मनहुँ छिति छाँड़े।।<br>
+
मुनि बहु भाँति भरत उपदेसे। कहि परमारथ बचन सुदेसे॥
निज निज साजु समाजु बनाई। गुह राउतहि जोहारे जाई।।<br>
+
दो0-तात हृदयँ धीरजु धरहु करहु जो अवसर आजु।
देखि सुभट सब लायक जाने। लै लै नाम सकल सनमाने।।<br>
+
उठे भरत गुर बचन सुनि करन कहेउ सबु साजु॥169॥
<br>
+
 
दो0-भाइहु लावहु धोख जनि आजु काज बड़ मोहि।<br>
+
नृपतनु बेद बिदित अन्हवावा। परम बिचित्र बिमानु बनावा॥
सुनि सरोष बोले सुभट बीर अधीर न होहि।।191।।<br>
+
गहि पद भरत मातु सब राखी। रहीं रानि दरसन अभिलाषी॥
<br>
+
चंदन अगर भार बहु आए। अमित अनेक सुगंध सुहाए॥
राम प्रताप नाथ बल तोरे। करहिं कटकु बिनु भट बिनु घोरे।।<br>
+
सरजु तीर रचि चिता बनाई। जनु सुरपुर सोपान सुहाई॥
जीवत पाउ न पाछें धरहीं। रुंड मुंडमय मेदिनि करहीं।।<br>
+
एहि बिधि दाह क्रिया सब कीन्ही। बिधिवत न्हाइ तिलांजुलि दीन्ही॥
दीख निषादनाथ भल टोलू। कहेउ बजाउ जुझाऊ ढोलू।।<br>
+
सोधि सुमृति सब बेद पुराना। कीन्ह भरत दसगात बिधाना॥
एतना कहत छींक भइ बाँए। कहेउ सगुनिअन्ह खेत सुहाए।।<br>
+
जहँ जस मुनिबर आयसु दीन्हा। तहँ तस सहस भाँति सबु कीन्हा॥
बूढ़ु एकु कह सगुन बिचारी। भरतहि मिलिअ न होइहि रारी।।<br>
+
भए बिसुद्ध दिए सब दाना। धेनु बाजि गज बाहन नाना॥
रामहि भरतु मनावन जाहीं। सगुन कहइ अस बिग्रहु नाहीं।।<br>
+
दो0-सिंघासन भूषन बसन अन्न धरनि धन धाम।
सुनि गुह कहइ नीक कह बूढ़ा। सहसा करि पछिताहिं बिमूढ़ा।।<br>
+
दिए भरत लहि भूमिसुर भे परिपूरन काम॥170॥
भरत सुभाउ सीलु बिनु बूझें। बड़ि हित हानि जानि बिनु जूझें।।<br>
+
 
<br>
+
पितु हित भरत कीन्हि जसि करनी। सो मुख लाख जाइ नहिं बरनी॥
दो0-गहहु घाट भट समिटि सब लेउँ मरम मिलि जाइ।<br>
+
सुदिनु सोधि मुनिबर तब आए। सचिव महाजन सकल बोलाए॥
बूझि मित्र अरि मध्य गति तस तब करिहउँ आइ।।192।।<br>
+
बैठे राजसभाँ सब जाई। पठए बोलि भरत दोउ भाई॥
<br>
+
भरतु बसिष्ठ निकट बैठारे। नीति धरममय बचन उचारे॥
लखन सनेहु सुभायँ सुहाएँ। बैरु प्रीति नहिं दुरइँ दुराएँ।।<br>
+
प्रथम कथा सब मुनिबर बरनी। कैकइ कुटिल कीन्हि जसि करनी॥
अस कहि भेंट सँजोवन लागे। कंद मूल फल खग मृग मागे।।<br>
+
भूप धरमब्रतु सत्य सराहा। जेहिं तनु परिहरि प्रेमु निबाहा॥
मीन पीन पाठीन पुराने। भरि भरि भार कहारन्ह आने।।<br>
+
कहत राम गुन सील सुभाऊ। सजल नयन पुलकेउ मुनिराऊ॥
मिलन साजु सजि मिलन सिधाए। मंगल मूल सगुन सुभ पाए।।<br>
+
बहुरि लखन सिय प्रीति बखानी। सोक सनेह मगन मुनि ग्यानी॥
देखि दूरि तें कहि निज नामू। कीन्ह मुनीसहि दंड प्रनामू।।<br>
+
दो0-सुनहु भरत भावी प्रबल बिलखि कहेउ मुनिनाथ।
जानि रामप्रिय दीन्हि असीसा। भरतहि कहेउ बुझाइ मुनीसा।।<br>
+
हानि लाभु जीवन मरनु जसु अपजसु बिधि हाथ॥171॥
राम सखा सुनि संदनु त्यागा। चले उतरि उमगत अनुरागा।।<br>
+
 
गाउँ जाति गुहँ नाउँ सुनाई। कीन्ह जोहारु माथ महि लाई।।<br>
+
अस बिचारि केहि देइअ दोसू। ब्यरथ काहि पर कीजिअ रोसू॥
<br>
+
तात बिचारु केहि करहु मन माहीं। सोच जोगु दसरथु नृपु नाहीं॥
दो0-करत दंडवत देखि तेहि भरत लीन्ह उर लाइ।<br>
+
सोचिअ बिप्र जो बेद बिहीना। तजि निज धरमु बिषय लयलीना॥
मनहुँ लखन सन भेंट भइ प्रेम न हृदयँ समाइ।।193।।<br>
+
सोचिअ नृपति जो नीति न जाना। जेहि न प्रजा प्रिय प्रान समाना॥
<br>
+
सोचिअ बयसु कृपन धनवानू। जो न अतिथि सिव भगति सुजानू॥
भेंटत भरतु ताहि अति प्रीती। लोग सिहाहिं प्रेम कै रीती।।<br>
+
सोचिअ सूद्रु बिप्र अवमानी। मुखर मानप्रिय ग्यान गुमानी॥
धन्य धन्य धुनि मंगल मूला। सुर सराहि तेहि बरिसहिं फूला।।<br>
+
सोचिअ पुनि पति बंचक नारी। कुटिल कलहप्रिय इच्छाचारी॥
लोक बेद सब भाँतिहिं नीचा। जासु छाँह छुइ लेइअ सींचा।।<br>
+
सोचिअ बटु निज ब्रतु परिहरई। जो नहिं गुर आयसु अनुसरई॥
तेहि भरि अंक राम लघु भ्राता। मिलत पुलक परिपूरित गाता।।<br>
+
दो0-सोचिअ गृही जो मोह बस करइ करम पथ त्याग।
राम राम कहि जे जमुहाहीं। तिन्हहि न पाप पुंज समुहाहीं।।<br>
+
सोचिअ जति प्रंपच रत बिगत बिबेक बिराग॥172॥
यह तौ राम लाइ उर लीन्हा। कुल समेत जगु पावन कीन्हा।।<br>
+
 
करमनास जलु सुरसरि परई। तेहि को कहहु सीस नहिं धरई।।<br>
+
बैखानस सोइ सोचै जोगु। तपु बिहाइ जेहि भावइ भोगू॥
उलटा नामु जपत जगु जाना। बालमीकि भए ब्रह्म समाना।।<br>
+
सोचिअ पिसुन अकारन क्रोधी। जननि जनक गुर बंधु बिरोधी॥
<br>
+
सब बिधि सोचिअ पर अपकारी। निज तनु पोषक निरदय भारी॥
दो0-स्वपच सबर खस जमन जड़ पावँर कोल किरात।<br>
+
सोचनीय सबहि बिधि सोई। जो न छाड़ि छलु हरि जन होई॥
रामु कहत पावन परम होत भुवन बिख्यात।।194।।<br>
+
सोचनीय नहिं कोसलराऊ। भुवन चारिदस प्रगट प्रभाऊ॥
<br>
+
भयउ न अहइ न अब होनिहारा। भूप भरत जस पिता तुम्हारा॥
नहिं अचिरजु जुग जुग चलि आई। केहि न दीन्हि रघुबीर बड़ाई।।<br>
+
बिधि हरि हरु सुरपति दिसिनाथा। बरनहिं सब दसरथ गुन गाथा॥
राम नाम महिमा सुर कहहीं। सुनि सुनि अवधलोग सुखु लहहीं।।<br>
+
दो0-कहहु तात केहि भाँति कोउ करिहि बड़ाई तासु।
रामसखहि मिलि भरत सप्रेमा। पूँछी कुसल सुमंगल खेमा।।<br>
+
राम लखन तुम्ह सत्रुहन सरिस सुअन सुचि जासु॥173॥
देखि भरत कर सील सनेहू। भा निषाद तेहि समय बिदेहू।।<br>
+
 
सकुच सनेहु मोदु मन बाढ़ा। भरतहि चितवत एकटक ठाढ़ा।।<br>
+
सब प्रकार भूपति बड़भागी। बादि बिषादु करिअ तेहि लागी॥
धरि धीरजु पद बंदि बहोरी। बिनय सप्रेम करत कर जोरी।।<br>
+
यहु सुनि समुझि सोचु परिहरहू। सिर धरि राज रजायसु करहू॥
कुसल मूल पद पंकज पेखी। मैं तिहुँ काल कुसल निज लेखी।।<br>
+
राँय राजपदु तुम्ह कहुँ दीन्हा। पिता बचनु फुर चाहिअ कीन्हा॥
अब प्रभु परम अनुग्रह तोरें। सहित कोटि कुल मंगल मोरें।।<br>
+
तजे रामु जेहिं बचनहि लागी। तनु परिहरेउ राम बिरहागी॥
<br>
+
नृपहि बचन प्रिय नहिं प्रिय प्राना। करहु तात पितु बचन प्रवाना॥
दो0-समुझि मोरि करतूति कुलु प्रभु महिमा जियँ जोइ।<br>
+
करहु सीस धरि भूप रजाई। हइ तुम्ह कहँ सब भाँति भलाई॥
जो न भजइ रघुबीर पद जग बिधि बंचित सोइ।।195।।<br>
+
परसुराम पितु अग्या राखी। मारी मातु लोक सब साखी॥
<br>
+
तनय जजातिहि जौबनु दयऊ। पितु अग्याँ अघ अजसु न भयऊ॥
कपटी कायर कुमति कुजाती। लोक बेद बाहेर सब भाँती।।<br>
+
दो0-अनुचित उचित बिचारु तजि जे पालहिं पितु बैन।
राम कीन्ह आपन जबही तें। भयउँ भुवन भूषन तबही तें।।<br>
+
ते भाजन सुख सुजस के बसहिं अमरपति ऐन॥174॥
देखि प्रीति सुनि बिनय सुहाई। मिलेउ बहोरि भरत लघु भाई।।<br>
+
 
कहि निषाद निज नाम सुबानीं। सादर सकल जोहारीं रानीं।।<br>
+
अवसि नरेस बचन फुर करहू। पालहु प्रजा सोकु परिहरहू॥
जानि लखन सम देहिं असीसा। जिअहु सुखी सय लाख बरीसा।।<br>
+
सुरपुर नृप पाइहि परितोषू। तुम्ह कहुँ सुकृत सुजसु नहिं दोषू॥
निरखि निषादु नगर नर नारी। भए सुखी जनु लखनु निहारी।।<br>
+
बेद बिदित संमत सबही का। जेहि पितु देइ सो पावइ टीका॥
कहहिं लहेउ एहिं जीवन लाहू। भेंटेउ रामभद्र भरि बाहू।।<br>
+
करहु राजु परिहरहु गलानी। मानहु मोर बचन हित जानी॥
सुनि निषादु निज भाग बड़ाई। प्रमुदित मन लइ चलेउ लेवाई।।<br>
+
सुनि सुखु लहब राम बैदेहीं। अनुचित कहब न पंडित केहीं॥
<br>
+
कौसल्यादि सकल महतारीं। तेउ प्रजा सुख होहिं सुखारीं॥
दो0-सनकारे सेवक सकल चले स्वामि रुख पाइ।<br>
+
परम तुम्हार राम कर जानिहि। सो सब बिधि तुम्ह सन भल मानिहि॥
घर तरु तर सर बाग बन बास बनाएन्हि जाइ।।196।।<br>
+
सौंपेहु राजु राम कै आएँ। सेवा करेहु सनेह सुहाएँ॥
<br>
+
दो0-कीजिअ गुर आयसु अवसि कहहिं सचिव कर जोरि।
सृंगबेरपुर भरत दीख जब। भे सनेहँ सब अंग सिथिल तब।।<br>
+
रघुपति आएँ उचित जस तस तब करब बहोरि॥175॥
सोहत दिएँ निषादहि लागू। जनु तनु धरें बिनय अनुरागू।।<br>
+
 
एहि बिधि भरत सेनु सबु संगा। दीखि जाइ जग पावनि गंगा।।<br>
+
कौसल्या धरि धीरजु कहई। पूत पथ्य गुर आयसु अहई॥
रामघाट कहँ कीन्ह प्रनामू। भा मनु मगनु मिले जनु रामू।।<br>
+
सो आदरिअ करिअ हित मानी। तजिअ बिषादु काल गति जानी॥
करहिं प्रनाम नगर नर नारी। मुदित ब्रह्ममय बारि निहारी।।<br>
+
बन रघुपति सुरपति नरनाहू। तुम्ह एहि भाँति तात कदराहू॥
करि मज्जनु मागहिं कर जोरी। रामचंद्र पद प्रीति न थोरी।।<br>
+
परिजन प्रजा सचिव सब अंबा। तुम्हही सुत सब कहँ अवलंबा॥
भरत कहेउ सुरसरि तव रेनू। सकल सुखद सेवक सुरधेनू।।<br>
+
लखि बिधि बाम कालु कठिनाई। धीरजु धरहु मातु बलि जाई॥
जोरि पानि बर मागउँ एहू। सीय राम पद सहज सनेहू।।<br>
+
सिर धरि गुर आयसु अनुसरहू। प्रजा पालि परिजन दुखु हरहू॥
<br>
+
गुर के बचन सचिव अभिनंदनु। सुने भरत हिय हित जनु चंदनु॥
दो0-एहि बिधि मज्जनु भरतु करि गुर अनुसासन पाइ।<br>
+
सुनी बहोरि मातु मृदु बानी। सील सनेह सरल रस सानी॥
मातु नहानीं जानि सब डेरा चले लवाइ।।197।।<br>
+
छं0-सानी सरल रस मातु बानी सुनि भरत ब्याकुल भए।
<br>
+
लोचन सरोरुह स्त्रवत सींचत बिरह उर अंकुर नए॥
जहँ तहँ लोगन्ह डेरा कीन्हा। भरत सोधु सबही कर लीन्हा।।<br>
+
सो दसा देखत समय तेहि बिसरी सबहि सुधि देह की।
सुर सेवा करि आयसु पाई। राम मातु पहिं गे दोउ भाई।।<br>
+
तुलसी सराहत सकल सादर सीवँ सहज सनेह की॥
चरन चाँपि कहि कहि मृदु बानी। जननीं सकल भरत सनमानी।।<br>
+
सो0-भरतु कमल कर जोरि धीर धुरंधर धीर धरि।
भाइहि सौंपि मातु सेवकाई। आपु निषादहि लीन्ह बोलाई।।<br>
+
बचन अमिअँ जनु बोरि देत उचित उत्तर सबहि॥176॥
चले सखा कर सों कर जोरें। सिथिल सरीर सनेह न थोरें।।<br>
+
 
पूँछत सखहि सो ठाउँ देखाऊ। नेकु नयन मन जरनि जुड़ाऊ।।<br>
+
मासपारायण, अठारहवाँ विश्राम
जहँ सिय रामु लखनु निसि सोए। कहत भरे जल लोचन कोए।।<br>
+
 
भरत बचन सुनि भयउ बिषादू। तुरत तहाँ लइ गयउ निषादू।।<br>
+
मोहि उपदेसु दीन्ह गुर नीका। प्रजा सचिव संमत सबही का॥
<br>
+
मातु उचित धरि आयसु दीन्हा। अवसि सीस धरि चाहउँ कीन्हा॥
दो0-जहँ सिंसुपा पुनीत तर रघुबर किय बिश्रामु।<br>
+
गुर पितु मातु स्वामि हित बानी। सुनि मन मुदित करिअ भलि जानी॥
अति सनेहँ सादर भरत कीन्हेउ दंड प्रनामु।।198।।<br>
+
उचित कि अनुचित किएँ बिचारू। धरमु जाइ सिर पातक भारू॥
<br>
+
तुम्ह तौ देहु सरल सिख सोई। जो आचरत मोर भल होई॥
कुस साँथरी निहारि सुहाई। कीन्ह प्रनामु प्रदच्छिन जाई।।<br>
+
जद्यपि यह समुझत हउँ नीकें। तदपि होत परितोषु न जी कें॥
चरन रेख रज आँखिन्ह लाई। बनइ न कहत प्रीति अधिकाई।।<br>
+
अब तुम्ह बिनय मोरि सुनि लेहू। मोहि अनुहरत सिखावनु देहू॥
कनक बिंदु दुइ चारिक देखे। राखे सीस सीय सम लेखे।।<br>
+
ऊतरु देउँ छमब अपराधू। दुखित दोष गुन गनहिं न साधू॥
सजल बिलोचन हृदयँ गलानी। कहत सखा सन बचन सुबानी।।<br>
+
दो0-पितु सुरपुर सिय रामु बन करन कहहु मोहि राजु।
श्रीहत सीय बिरहँ दुतिहीना। जथा अवध नर नारि बिलीना।।<br>
+
एहि तें जानहु मोर हित कै आपन बड़ काजु॥177॥
पिता जनक देउँ पटतर केही। करतल भोगु जोगु जग जेही।।<br>
+
 
ससुर भानुकुल भानु भुआलू। जेहि सिहात अमरावतिपालू।।<br>
+
हित हमार सियपति सेवकाई। सो हरि लीन्ह मातु कुटिलाई॥
प्राननाथु रघुनाथ गोसाई। जो बड़ होत सो राम बड़ाई।।<br>
+
मैं अनुमानि दीख मन माहीं। आन उपायँ मोर हित नाहीं॥
<br>
+
सोक समाजु राजु केहि लेखें। लखन राम सिय बिनु पद देखें॥
दो0-पति देवता सुतीय मनि सीय साँथरी देखि।<br>
+
बादि बसन बिनु भूषन भारू। बादि बिरति बिनु ब्रह्म बिचारू॥
बिहरत ह्रदउ न हहरि हर पबि तें कठिन बिसेषि।।199।।<br>
+
सरुज सरीर बादि बहु भोगा। बिनु हरिभगति जायँ जप जोगा॥
<br>
+
जायँ जीव बिनु देह सुहाई। बादि मोर सबु बिनु रघुराई॥
लालन जोगु लखन लघु लोने। भे न भाइ अस अहहिं न होने।।<br>
+
जाउँ राम पहिं आयसु देहू। एकहिं आँक मोर हित एहू॥
पुरजन प्रिय पितु मातु दुलारे। सिय रघुबरहि प्रानपिआरे।।<br>
+
मोहि नृप करि भल आपन चहहू। सोउ सनेह जड़ता बस कहहू॥
मृदु मूरति सुकुमार सुभाऊ। तात बाउ तन लाग न काऊ।।<br>
+
दो0-कैकेई सुअ कुटिलमति राम बिमुख गतलाज।
ते बन सहहिं बिपति सब भाँती। निदरे कोटि कुलिस एहिं छाती।।<br>
+
तुम्ह चाहत सुखु मोहबस मोहि से अधम कें राज॥178॥
राम जनमि जगु कीन्ह उजागर। रूप सील सुख सब गुन सागर।।<br>
+
 
पुरजन परिजन गुर पितु माता। राम सुभाउ सबहि सुखदाता।।<br>
+
कहउँ साँचु सब सुनि पतिआहू। चाहिअ धरमसील नरनाहू॥
बैरिउ राम बड़ाई करहीं। बोलनि मिलनि बिनय मन हरहीं।।<br>
+
मोहि राजु हठि देइहहु जबहीं। रसा रसातल जाइहि तबहीं॥
सारद कोटि कोटि सत सेषा। करि न सकहिं प्रभु गुन गन लेखा।।<br>
+
मोहि समान को पाप निवासू। जेहि लगि सीय राम बनबासू॥
<br>
+
रायँ राम कहुँ काननु दीन्हा। बिछुरत गमनु अमरपुर कीन्हा॥
दो0-सुखस्वरुप रघुबंसमनि मंगल मोद निधान।<br>
+
मैं सठु सब अनरथ कर हेतू। बैठ बात सब सुनउँ सचेतू॥
ते सोवत कुस डासि महि बिधि गति अति बलवान।।200।।<br><br>
+
बिनु रघुबीर बिलोकि अबासू। रहे प्रान सहि जग उपहासू॥
 +
राम पुनीत बिषय रस रूखे। लोलुप भूमि भोग के भूखे॥
 +
कहँ लगि कहौं हृदय कठिनाई। निदरि कुलिसु जेहिं लही बड़ाई॥
 +
दो0-कारन तें कारजु कठिन होइ दोसु नहि मोर।
 +
कुलिस अस्थि तें उपल तें लोह कराल कठोर॥179॥
 +
 
 +
कैकेई भव तनु अनुरागे। पाँवर प्रान अघाइ अभागे॥
 +
जौं प्रिय बिरहँ प्रान प्रिय लागे। देखब सुनब बहुत अब आगे॥
 +
लखन राम सिय कहुँ बनु दीन्हा। पठइ अमरपुर पति हित कीन्हा॥
 +
लीन्ह बिधवपन अपजसु आपू। दीन्हेउ प्रजहि सोकु संतापू॥
 +
मोहि दीन्ह सुखु सुजसु सुराजू। कीन्ह कैकेईं सब कर काजू॥
 +
एहि तें मोर काह अब नीका। तेहि पर देन कहहु तुम्ह टीका॥
 +
कैकई जठर जनमि जग माहीं। यह मोहि कहँ कछु अनुचित नाहीं॥
 +
मोरि बात सब बिधिहिं बनाई। प्रजा पाँच कत करहु सहाई॥
 +
दो0-ग्रह ग्रहीत पुनि बात बस तेहि पुनि बीछी मार।
 +
तेहि पिआइअ बारुनी कहहु काह उपचार॥180॥
 +
 
 +
कैकइ सुअन जोगु जग जोई। चतुर बिरंचि दीन्ह मोहि सोई॥
 +
दसरथ तनय राम लघु भाई। दीन्हि मोहि बिधि बादि बड़ाई॥
 +
तुम्ह सब कहहु कढ़ावन टीका। राय रजायसु सब कहँ नीका॥
 +
उतरु देउँ केहि बिधि केहि केही। कहहु सुखेन जथा रुचि जेही॥
 +
मोहि कुमातु समेत बिहाई। कहहु कहिहि के कीन्ह भलाई॥
 +
मो बिनु को सचराचर माहीं। जेहि सिय रामु प्रानप्रिय नाहीं॥
 +
परम हानि सब कहँ बड़ लाहू। अदिनु मोर नहि दूषन काहू॥
 +
संसय सील प्रेम बस अहहू। सबुइ उचित सब जो कछु कहहू॥
 +
दो0-राम मातु सुठि सरलचित मो पर प्रेमु बिसेषि।
 +
कहइ सुभाय सनेह बस मोरि दीनता देखि॥181।
 +
 
 +
गुर बिबेक सागर जगु जाना। जिन्हहि बिस्व कर बदर समाना॥
 +
मो कहँ तिलक साज सज सोऊ। भएँ बिधि बिमुख बिमुख सबु कोऊ॥
 +
परिहरि रामु सीय जग माहीं। कोउ न कहिहि मोर मत नाहीं॥
 +
सो मैं सुनब सहब सुखु मानी। अंतहुँ कीच तहाँ जहँ पानी॥
 +
डरु न मोहि जग कहिहि कि पोचू। परलोकहु कर नाहिन सोचू॥
 +
एकइ उर बस दुसह दवारी। मोहि लगि भे सिय रामु दुखारी॥
 +
जीवन लाहु लखन भल पावा। सबु तजि राम चरन मनु लावा॥
 +
मोर जनम रघुबर बन लागी। झूठ काह पछिताउँ अभागी॥
 +
दो0-आपनि दारुन दीनता कहउँ सबहि सिरु नाइ।
 +
देखें बिनु रघुनाथ पद जिय कै जरनि न जाइ॥182॥
 +
 
 +
आन उपाउ मोहि नहि सूझा। को जिय कै रघुबर बिनु बूझा॥
 +
एकहिं आँक इहइ मन माहीं। प्रातकाल चलिहउँ प्रभु पाहीं॥
 +
जद्यपि मैं अनभल अपराधी। भै मोहि कारन सकल उपाधी॥
 +
तदपि सरन सनमुख मोहि देखी। छमि सब करिहहिं कृपा बिसेषी॥
 +
सील सकुच सुठि सरल सुभाऊ। कृपा सनेह सदन रघुराऊ॥
 +
अरिहुक अनभल कीन्ह न रामा। मैं सिसु सेवक जद्यपि बामा॥
 +
तुम्ह पै पाँच मोर भल मानी। आयसु आसिष देहु सुबानी॥
 +
जेहिं सुनि बिनय मोहि जनु जानी। आवहिं बहुरि रामु रजधानी॥
 +
दो0-जद्यपि जनमु कुमातु तें मैं सठु सदा सदोस।
 +
आपन जानि न त्यागिहहिं मोहि रघुबीर भरोस॥183॥
 +
 
 +
भरत बचन सब कहँ प्रिय लागे। राम सनेह सुधाँ जनु पागे॥
 +
लोग बियोग बिषम बिष दागे। मंत्र सबीज सुनत जनु जागे॥
 +
मातु सचिव गुर पुर नर नारी। सकल सनेहँ बिकल भए भारी॥
 +
भरतहि कहहि सराहि सराही। राम प्रेम मूरति तनु आही॥
 +
तात भरत अस काहे न कहहू। प्रान समान राम प्रिय अहहू॥
 +
जो पावँरु अपनी जड़ताई। तुम्हहि सुगाइ मातु कुटिलाई॥
 +
सो सठु कोटिक पुरुष समेता। बसिहि कलप सत नरक निकेता॥
 +
अहि अघ अवगुन नहि मनि गहई। हरइ गरल दुख दारिद दहई॥
 +
दो0-अवसि चलिअ बन रामु जहँ भरत मंत्रु भल कीन्ह।
 +
सोक सिंधु बूड़त सबहि तुम्ह अवलंबनु दीन्ह॥184॥
 +
 
 +
भा सब कें मन मोदु न थोरा। जनु घन धुनि सुनि चातक मोरा॥
 +
चलत प्रात लखि निरनउ नीके। भरतु प्रानप्रिय भे सबही के॥
 +
मुनिहि बंदि भरतहि सिरु नाई। चले सकल घर बिदा कराई॥
 +
धन्य भरत जीवनु जग माहीं। सीलु सनेहु सराहत जाहीं॥
 +
कहहि परसपर भा बड़ काजू। सकल चलै कर साजहिं साजू॥
 +
जेहि राखहिं रहु घर रखवारी। सो जानइ जनु गरदनि मारी॥
 +
कोउ कह रहन कहिअ नहिं काहू। को न चहइ जग जीवन लाहू॥
 +
दो0-जरउ सो संपति सदन सुखु सुहद मातु पितु भाइ।
 +
सनमुख होत जो राम पद करै न सहस सहाइ॥185॥
 +
 
 +
घर घर साजहिं बाहन नाना। हरषु हृदयँ परभात पयाना॥
 +
भरत जाइ घर कीन्ह बिचारू। नगरु बाजि गज भवन भँडारू॥
 +
संपति सब रघुपति कै आही। जौ बिनु जतन चलौं तजि ताही॥
 +
तौ परिनाम न मोरि भलाई। पाप सिरोमनि साइँ दोहाई॥
 +
करइ स्वामि हित सेवकु सोई। दूषन कोटि देइ किन कोई॥
 +
अस बिचारि सुचि सेवक बोले। जे सपनेहुँ निज धरम न डोले॥
 +
कहि सबु मरमु धरमु भल भाषा। जो जेहि लायक सो तेहिं राखा॥
 +
करि सबु जतनु राखि रखवारे। राम मातु पहिं भरतु सिधारे॥
 +
दो0-आरत जननी जानि सब भरत सनेह सुजान।
 +
कहेउ बनावन पालकीं सजन सुखासन जान॥186॥
 +
 
 +
चक्क चक्कि जिमि पुर नर नारी। चहत प्रात उर आरत भारी॥
 +
जागत सब निसि भयउ बिहाना। भरत बोलाए सचिव सुजाना॥
 +
कहेउ लेहु सबु तिलक समाजू। बनहिं देब मुनि रामहिं राजू॥
 +
बेगि चलहु सुनि सचिव जोहारे। तुरत तुरग रथ नाग सँवारे॥
 +
अरुंधती अरु अगिनि समाऊ। रथ चढ़ि चले प्रथम मुनिराऊ॥
 +
बिप्र बृंद चढ़ि बाहन नाना। चले सकल तप तेज निधाना॥
 +
नगर लोग सब सजि सजि जाना। चित्रकूट कहँ कीन्ह पयाना॥
 +
सिबिका सुभग न जाहिं बखानी। चढ़ि चढ़ि चलत भई सब रानी॥
 +
दो0-सौंपि नगर सुचि सेवकनि सादर सकल चलाइ।
 +
सुमिरि राम सिय चरन तब चले भरत दोउ भाइ॥187॥
 +
 
 +
राम दरस बस सब नर नारी। जनु करि करिनि चले तकि बारी॥
 +
बन सिय रामु समुझि मन माहीं। सानुज भरत पयादेहिं जाहीं॥
 +
देखि सनेहु लोग अनुरागे। उतरि चले हय गय रथ त्यागे॥
 +
जाइ समीप राखि निज डोली। राम मातु मृदु बानी बोली॥
 +
तात चढ़हु रथ बलि महतारी। होइहि प्रिय परिवारु दुखारी॥
 +
तुम्हरें चलत चलिहि सबु लोगू। सकल सोक कृस नहिं मग जोगू॥
 +
सिर धरि बचन चरन सिरु नाई। रथ चढ़ि चलत भए दोउ भाई॥
 +
तमसा प्रथम दिवस करि बासू। दूसर गोमति तीर निवासू॥
 +
दो0-पय अहार फल असन एक निसि भोजन एक लोग।
 +
करत राम हित नेम ब्रत परिहरि भूषन भोग॥188॥
 +
 
 +
सई तीर बसि चले बिहाने। सृंगबेरपुर सब निअराने॥
 +
समाचार सब सुने निषादा। हृदयँ बिचार करइ सबिषादा॥
 +
कारन कवन भरतु बन जाहीं। है कछु कपट भाउ मन माहीं॥
 +
जौं पै जियँ न होति कुटिलाई। तौ कत लीन्ह संग कटकाई॥
 +
जानहिं सानुज रामहि मारी। करउँ अकंटक राजु सुखारी॥
 +
भरत न राजनीति उर आनी। तब कलंकु अब जीवन हानी॥
 +
सकल सुरासुर जुरहिं जुझारा। रामहि समर न जीतनिहारा॥
 +
का आचरजु भरतु अस करहीं। नहिं बिष बेलि अमिअ फल फरहीं॥
 +
दो0-अस बिचारि गुहँ ग्याति सन कहेउ सजग सब होहु।
 +
हथवाँसहु बोरहु तरनि कीजिअ घाटारोहु॥189॥
 +
 
 +
होहु सँजोइल रोकहु घाटा। ठाटहु सकल मरै के ठाटा॥
 +
सनमुख लोह भरत सन लेऊँ। जिअत न सुरसरि उतरन देऊँ॥
 +
समर मरनु पुनि सुरसरि तीरा। राम काजु छनभंगु सरीरा॥
 +
भरत भाइ नृपु मै जन नीचू। बड़ें भाग असि पाइअ मीचू॥
 +
स्वामि काज करिहउँ रन रारी। जस धवलिहउँ भुवन दस चारी॥
 +
तजउँ प्रान रघुनाथ निहोरें। दुहूँ हाथ मुद मोदक मोरें॥
 +
साधु समाज न जाकर लेखा। राम भगत महुँ जासु न रेखा॥
 +
जायँ जिअत जग सो महि भारू। जननी जौबन बिटप कुठारू॥
 +
दो0-बिगत बिषाद निषादपति सबहि बढ़ाइ उछाहु।
 +
सुमिरि राम मागेउ तुरत तरकस धनुष सनाहु॥190॥
 +
 
 +
बेगहु भाइहु सजहु सँजोऊ। सुनि रजाइ कदराइ न कोऊ॥
 +
भलेहिं नाथ सब कहहिं सहरषा। एकहिं एक बढ़ावइ करषा॥
 +
चले निषाद जोहारि जोहारी। सूर सकल रन रूचइ रारी॥
 +
सुमिरि राम पद पंकज पनहीं। भाथीं बाँधि चढ़ाइन्हि धनहीं॥
 +
अँगरी पहिरि कूँड़ि सिर धरहीं। फरसा बाँस सेल सम करहीं॥
 +
एक कुसल अति ओड़न खाँड़े। कूदहि गगन मनहुँ छिति छाँड़े॥
 +
निज निज साजु समाजु बनाई। गुह राउतहि जोहारे जाई॥
 +
देखि सुभट सब लायक जाने। लै लै नाम सकल सनमाने॥
 +
दो0-भाइहु लावहु धोख जनि आजु काज बड़ मोहि।
 +
सुनि सरोष बोले सुभट बीर अधीर न होहि॥191॥
 +
 
 +
राम प्रताप नाथ बल तोरे। करहिं कटकु बिनु भट बिनु घोरे॥
 +
जीवत पाउ न पाछें धरहीं। रुंड मुंडमय मेदिनि करहीं॥
 +
दीख निषादनाथ भल टोलू। कहेउ बजाउ जुझाऊ ढोलू॥
 +
एतना कहत छींक भइ बाँए। कहेउ सगुनिअन्ह खेत सुहाए॥
 +
बूढ़ु एकु कह सगुन बिचारी। भरतहि मिलिअ न होइहि रारी॥
 +
रामहि भरतु मनावन जाहीं। सगुन कहइ अस बिग्रहु नाहीं॥
 +
सुनि गुह कहइ नीक कह बूढ़ा। सहसा करि पछिताहिं बिमूढ़ा॥
 +
भरत सुभाउ सीलु बिनु बूझें। बड़ि हित हानि जानि बिनु जूझें॥
 +
दो0-गहहु घाट भट समिटि सब लेउँ मरम मिलि जाइ।
 +
बूझि मित्र अरि मध्य गति तस तब करिहउँ आइ॥192॥
 +
 
 +
लखन सनेहु सुभायँ सुहाएँ। बैरु प्रीति नहिं दुरइँ दुराएँ॥
 +
अस कहि भेंट सँजोवन लागे। कंद मूल फल खग मृग मागे॥
 +
मीन पीन पाठीन पुराने। भरि भरि भार कहारन्ह आने॥
 +
मिलन साजु सजि मिलन सिधाए। मंगल मूल सगुन सुभ पाए॥
 +
देखि दूरि तें कहि निज नामू। कीन्ह मुनीसहि दंड प्रनामू॥
 +
जानि रामप्रिय दीन्हि असीसा। भरतहि कहेउ बुझाइ मुनीसा॥
 +
राम सखा सुनि संदनु त्यागा। चले उतरि उमगत अनुरागा॥
 +
गाउँ जाति गुहँ नाउँ सुनाई। कीन्ह जोहारु माथ महि लाई॥
 +
दो0-करत दंडवत देखि तेहि भरत लीन्ह उर लाइ।
 +
मनहुँ लखन सन भेंट भइ प्रेम न हृदयँ समाइ॥193॥
 +
 
 +
भेंटत भरतु ताहि अति प्रीती। लोग सिहाहिं प्रेम कै रीती॥
 +
धन्य धन्य धुनि मंगल मूला। सुर सराहि तेहि बरिसहिं फूला॥
 +
लोक बेद सब भाँतिहिं नीचा। जासु छाँह छुइ लेइअ सींचा॥
 +
तेहि भरि अंक राम लघु भ्राता। मिलत पुलक परिपूरित गाता॥
 +
राम राम कहि जे जमुहाहीं। तिन्हहि न पाप पुंज समुहाहीं॥
 +
यह तौ राम लाइ उर लीन्हा। कुल समेत जगु पावन कीन्हा॥
 +
करमनास जलु सुरसरि परई। तेहि को कहहु सीस नहिं धरई॥
 +
उलटा नामु जपत जगु जाना। बालमीकि भए ब्रह्म समाना॥
 +
दो0-स्वपच सबर खस जमन जड़ पावँर कोल किरात।
 +
रामु कहत पावन परम होत भुवन बिख्यात॥194॥
 +
 
 +
नहिं अचिरजु जुग जुग चलि आई। केहि न दीन्हि रघुबीर बड़ाई॥
 +
राम नाम महिमा सुर कहहीं। सुनि सुनि अवधलोग सुखु लहहीं॥
 +
रामसखहि मिलि भरत सप्रेमा। पूँछी कुसल सुमंगल खेमा॥
 +
देखि भरत कर सील सनेहू। भा निषाद तेहि समय बिदेहू॥
 +
सकुच सनेहु मोदु मन बाढ़ा। भरतहि चितवत एकटक ठाढ़ा॥
 +
धरि धीरजु पद बंदि बहोरी। बिनय सप्रेम करत कर जोरी॥
 +
कुसल मूल पद पंकज पेखी। मैं तिहुँ काल कुसल निज लेखी॥
 +
अब प्रभु परम अनुग्रह तोरें। सहित कोटि कुल मंगल मोरें॥
 +
दो0-समुझि मोरि करतूति कुलु प्रभु महिमा जियँ जोइ।
 +
जो न भजइ रघुबीर पद जग बिधि बंचित सोइ॥195॥
 +
 
 +
कपटी कायर कुमति कुजाती। लोक बेद बाहेर सब भाँती॥
 +
राम कीन्ह आपन जबही तें। भयउँ भुवन भूषन तबही तें॥
 +
देखि प्रीति सुनि बिनय सुहाई। मिलेउ बहोरि भरत लघु भाई॥
 +
कहि निषाद निज नाम सुबानीं। सादर सकल जोहारीं रानीं॥
 +
जानि लखन सम देहिं असीसा। जिअहु सुखी सय लाख बरीसा॥
 +
निरखि निषादु नगर नर नारी। भए सुखी जनु लखनु निहारी॥
 +
कहहिं लहेउ एहिं जीवन लाहू। भेंटेउ रामभद्र भरि बाहू॥
 +
सुनि निषादु निज भाग बड़ाई। प्रमुदित मन लइ चलेउ लेवाई॥
 +
दो0-सनकारे सेवक सकल चले स्वामि रुख पाइ।
 +
घर तरु तर सर बाग बन बास बनाएन्हि जाइ॥196॥
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सृंगबेरपुर भरत दीख जब। भे सनेहँ सब अंग सिथिल तब॥
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सोहत दिएँ निषादहि लागू। जनु तनु धरें बिनय अनुरागू॥
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एहि बिधि भरत सेनु सबु संगा। दीखि जाइ जग पावनि गंगा॥
 +
रामघाट कहँ कीन्ह प्रनामू। भा मनु मगनु मिले जनु रामू॥
 +
करहिं प्रनाम नगर नर नारी। मुदित ब्रह्ममय बारि निहारी॥
 +
करि मज्जनु मागहिं कर जोरी। रामचंद्र पद प्रीति न थोरी॥
 +
भरत कहेउ सुरसरि तव रेनू। सकल सुखद सेवक सुरधेनू॥
 +
जोरि पानि बर मागउँ एहू। सीय राम पद सहज सनेहू॥
 +
दो0-एहि बिधि मज्जनु भरतु करि गुर अनुसासन पाइ।
 +
मातु नहानीं जानि सब डेरा चले लवाइ॥197॥
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जहँ तहँ लोगन्ह डेरा कीन्हा। भरत सोधु सबही कर लीन्हा॥
 +
सुर सेवा करि आयसु पाई। राम मातु पहिं गे दोउ भाई॥
 +
चरन चाँपि कहि कहि मृदु बानी। जननीं सकल भरत सनमानी॥
 +
भाइहि सौंपि मातु सेवकाई। आपु निषादहि लीन्ह बोलाई॥
 +
चले सखा कर सों कर जोरें। सिथिल सरीर सनेह न थोरें॥
 +
पूँछत सखहि सो ठाउँ देखाऊ। नेकु नयन मन जरनि जुड़ाऊ॥
 +
जहँ सिय रामु लखनु निसि सोए। कहत भरे जल लोचन कोए॥
 +
भरत बचन सुनि भयउ बिषादू। तुरत तहाँ लइ गयउ निषादू॥
 +
दो0-जहँ सिंसुपा पुनीत तर रघुबर किय बिश्रामु।
 +
अति सनेहँ सादर भरत कीन्हेउ दंड प्रनामु॥198॥
 +
 
 +
कुस साँथरीíनिहारि सुहाई। कीन्ह प्रनामु प्रदच्छिन जाई॥
 +
चरन रेख रज आँखिन्ह लाई। बनइ न कहत प्रीति अधिकाई॥
 +
कनक बिंदु दुइ चारिक देखे। राखे सीस सीय सम लेखे॥
 +
सजल बिलोचन हृदयँ गलानी। कहत सखा सन बचन सुबानी॥
 +
श्रीहत सीय बिरहँ दुतिहीना। जथा अवध नर नारि बिलीना॥
 +
पिता जनक देउँ पटतर केही। करतल भोगु जोगु जग जेही॥
 +
ससुर भानुकुल भानु भुआलू। जेहि सिहात अमरावतिपालू॥
 +
प्राननाथु रघुनाथ गोसाई। जो बड़ होत सो राम बड़ाई॥
 +
दो0-पति देवता सुतीय मनि सीय साँथरी देखि।
 +
बिहरत ह्रदउ न हहरि हर पबि तें कठिन बिसेषि॥199॥
 +
 
 +
लालन जोगु लखन लघु लोने। भे न भाइ अस अहहिं न होने॥
 +
पुरजन प्रिय पितु मातु दुलारे। सिय रघुबरहि प्रानपिआरे॥
 +
मृदु मूरति सुकुमार सुभाऊ। तात बाउ तन लाग न काऊ॥
 +
ते बन सहहिं बिपति सब भाँती। निदरे कोटि कुलिस एहिं छाती॥
 +
राम जनमि जगु कीन्ह उजागर। रूप सील सुख सब गुन सागर॥
 +
पुरजन परिजन गुर पितु माता। राम सुभाउ सबहि सुखदाता॥
 +
बैरिउ राम बड़ाई करहीं। बोलनि मिलनि बिनय मन हरहीं॥
 +
सारद कोटि कोटि सत सेषा। करि न सकहिं प्रभु गुन गन लेखा॥
 +
दो0-सुखस्वरुप रघुबंसमनि मंगल मोद निधान।
 +
ते सोवत कुस डासि महि बिधि गति अति बलवान॥200॥
 +
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12:12, 11 अप्रैल 2017 के समय का अवतरण

केवट कीन्हि बहुत सेवकाई। सो जामिनि सिंगरौर गवाँई॥
होत प्रात बट छीरु मगावा। जटा मुकुट निज सीस बनावा॥
राम सखाँ तब नाव मगाई। प्रिया चढ़ाइ चढ़े रघुराई॥
लखन बान धनु धरे बनाई। आपु चढ़े प्रभु आयसु पाई॥
बिकल बिलोकि मोहि रघुबीरा। बोले मधुर बचन धरि धीरा॥
तात प्रनामु तात सन कहेहु। बार बार पद पंकज गहेहू॥
करबि पायँ परि बिनय बहोरी। तात करिअ जनि चिंता मोरी॥
बन मग मंगल कुसल हमारें। कृपा अनुग्रह पुन्य तुम्हारें॥
छं0- तुम्हरे अनुग्रह तात कानन जात सब सुखु पाइहौं।
प्रतिपालि आयसु कुसल देखन पाय पुनि फिरि आइहौं॥
जननीं सकल परितोषि परि परि पायँ करि बिनती घनी।
तुलसी करेहु सोइ जतनु जेहिं कुसली रहहिं कोसल धनी॥
सो0-गुर सन कहब सँदेसु बार बार पद पदुम गहि।
करब सोइ उपदेसु जेहिं न सोच मोहि अवधपति॥151॥

पुरजन परिजन सकल निहोरी। तात सुनाएहु बिनती मोरी॥
सोइ सब भाँति मोर हितकारी। जातें रह नरनाहु सुखारी॥
कहब सँदेसु भरत के आएँ। नीति न तजिअ राजपदु पाएँ॥
पालेहु प्रजहि करम मन बानी। सेएहु मातु सकल सम जानी॥
ओर निबाहेहु भायप भाई। करि पितु मातु सुजन सेवकाई॥
तात भाँति तेहि राखब राऊ। सोच मोर जेहिं करै न काऊ॥
लखन कहे कछु बचन कठोरा। बरजि राम पुनि मोहि निहोरा॥
बार बार निज सपथ देवाई। कहबि न तात लखन लरिकाई॥
दो0-कहि प्रनाम कछु कहन लिय सिय भइ सिथिल सनेह।
थकित बचन लोचन सजल पुलक पल्लवित देह॥152॥

तेहि अवसर रघुबर रूख पाई। केवट पारहि नाव चलाई॥
रघुकुलतिलक चले एहि भाँती। देखउँ ठाढ़ कुलिस धरि छाती॥
मैं आपन किमि कहौं कलेसू। जिअत फिरेउँ लेइ राम सँदेसू॥
अस कहि सचिव बचन रहि गयऊ। हानि गलानि सोच बस भयऊ॥
सुत बचन सुनतहिं नरनाहू। परेउ धरनि उर दारुन दाहू॥
तलफत बिषम मोह मन मापा। माजा मनहुँ मीन कहुँ ब्यापा॥
करि बिलाप सब रोवहिं रानी। महा बिपति किमि जाइ बखानी॥
सुनि बिलाप दुखहू दुखु लागा। धीरजहू कर धीरजु भागा॥
दो0-भयउ कोलाहलु अवध अति सुनि नृप राउर सोरु।
बिपुल बिहग बन परेउ निसि मानहुँ कुलिस कठोरु॥153॥

प्रान कंठगत भयउ भुआलू। मनि बिहीन जनु ब्याकुल ब्यालू॥
इद्रीं सकल बिकल भइँ भारी। जनु सर सरसिज बनु बिनु बारी॥
कौसल्याँ नृपु दीख मलाना। रबिकुल रबि अँथयउ जियँ जाना।
उर धरि धीर राम महतारी। बोली बचन समय अनुसारी॥
नाथ समुझि मन करिअ बिचारू। राम बियोग पयोधि अपारू॥
करनधार तुम्ह अवध जहाजू। चढ़ेउ सकल प्रिय पथिक समाजू॥
धीरजु धरिअ त पाइअ पारू। नाहिं त बूड़िहि सबु परिवारू॥
जौं जियँ धरिअ बिनय पिय मोरी। रामु लखनु सिय मिलहिं बहोरी॥
दो0–प्रिया बचन मृदु सुनत नृपु चितयउ आँखि उघारि।
तलफत मीन मलीन जनु सींचत सीतल बारि॥154॥

धरि धीरजु उठी बैठ भुआलू। कहु सुमंत्र कहँ राम कृपालू॥
कहाँ लखनु कहँ रामु सनेही। कहँ प्रिय पुत्रबधू बैदेही॥
बिलपत राउ बिकल बहु भाँती। भइ जुग सरिस सिराति न राती॥
तापस अंध साप सुधि आई। कौसल्यहि सब कथा सुनाई॥
भयउ बिकल बरनत इतिहासा। राम रहित धिग जीवन आसा॥
सो तनु राखि करब मैं काहा। जेंहि न प्रेम पनु मोर निबाहा॥
हा रघुनंदन प्रान पिरीते। तुम्ह बिनु जिअत बहुत दिन बीते॥
हा जानकी लखन हा रघुबर। हा पितु हित चित चातक जलधर।
दो0-राम राम कहि राम कहि राम राम कहि राम।
तनु परिहरि रघुबर बिरहँ राउ गयउ सुरधाम॥155॥

जिअन मरन फलु दसरथ पावा। अंड अनेक अमल जसु छावा॥
जिअत राम बिधु बदनु निहारा। राम बिरह करि मरनु सँवारा॥
सोक बिकल सब रोवहिं रानी। रूपु सील बलु तेजु बखानी॥
करहिं बिलाप अनेक प्रकारा। परहीं भूमितल बारहिं बारा॥
बिलपहिं बिकल दास अरु दासी। घर घर रुदनु करहिं पुरबासी॥
अँथयउ आजु भानुकुल भानू। धरम अवधि गुन रूप निधानू॥
गारीं सकल कैकइहि देहीं। नयन बिहीन कीन्ह जग जेहीं॥
एहि बिधि बिलपत रैनि बिहानी। आए सकल महामुनि ग्यानी॥
दो0-तब बसिष्ठ मुनि समय सम कहि अनेक इतिहास।
सोक नेवारेउ सबहि कर निज बिग्यान प्रकास॥156॥

तेल नाँव भरि नृप तनु राखा। दूत बोलाइ बहुरि अस भाषा॥
धावहु बेगि भरत पहिं जाहू। नृप सुधि कतहुँ कहहु जनि काहू॥
एतनेइ कहेहु भरत सन जाई। गुर बोलाई पठयउ दोउ भाई॥
सुनि मुनि आयसु धावन धाए। चले बेग बर बाजि लजाए॥
अनरथु अवध अरंभेउ जब तें। कुसगुन होहिं भरत कहुँ तब तें॥
देखहिं राति भयानक सपना। जागि करहिं कटु कोटि कलपना॥
बिप्र जेवाँइ देहिं दिन दाना। सिव अभिषेक करहिं बिधि नाना॥
मागहिं हृदयँ महेस मनाई। कुसल मातु पितु परिजन भाई॥
दो0-एहि बिधि सोचत भरत मन धावन पहुँचे आइ।
गुर अनुसासन श्रवन सुनि चले गनेसु मनाइ॥157॥

चले समीर बेग हय हाँके। नाघत सरित सैल बन बाँके॥
हृदयँ सोचु बड़ कछु न सोहाई। अस जानहिं जियँ जाउँ उड़ाई॥
एक निमेष बरस सम जाई। एहि बिधि भरत नगर निअराई॥
असगुन होहिं नगर पैठारा। रटहिं कुभाँति कुखेत करारा॥
खर सिआर बोलहिं प्रतिकूला। सुनि सुनि होइ भरत मन सूला॥
श्रीहत सर सरिता बन बागा। नगरु बिसेषि भयावनु लागा॥
खग मृग हय गय जाहिं न जोए। राम बियोग कुरोग बिगोए॥
नगर नारि नर निपट दुखारी। मनहुँ सबन्हि सब संपति हारी॥
दो0-पुरजन मिलिहिं न कहहिं कछु गवँहिं जोहारहिं जाहिं।
भरत कुसल पूँछि न सकहिं भय बिषाद मन माहिं॥158॥

हाट बाट नहिं जाइ निहारी। जनु पुर दहँ दिसि लागि दवारी॥
आवत सुत सुनि कैकयनंदिनि। हरषी रबिकुल जलरुह चंदिनि॥
सजि आरती मुदित उठि धाई। द्वारेहिं भेंटि भवन लेइ आई॥
भरत दुखित परिवारु निहारा। मानहुँ तुहिन बनज बनु मारा॥
कैकेई हरषित एहि भाँति। मनहुँ मुदित दव लाइ किराती॥
सुतहि ससोच देखि मनु मारें। पूँछति नैहर कुसल हमारें॥
सकल कुसल कहि भरत सुनाई। पूँछी निज कुल कुसल भलाई॥
कहु कहँ तात कहाँ सब माता। कहँ सिय राम लखन प्रिय भ्राता॥
दो0-सुनि सुत बचन सनेहमय कपट नीर भरि नैन।
भरत श्रवन मन सूल सम पापिनि बोली बैन॥159॥

तात बात मैं सकल सँवारी। भै मंथरा सहाय बिचारी॥
कछुक काज बिधि बीच बिगारेउ। भूपति सुरपति पुर पगु धारेउ॥
सुनत भरतु भए बिबस बिषादा। जनु सहमेउ करि केहरि नादा॥
तात तात हा तात पुकारी। परे भूमितल ब्याकुल भारी॥
चलत न देखन पायउँ तोही। तात न रामहि सौंपेहु मोही॥
बहुरि धीर धरि उठे सँभारी। कहु पितु मरन हेतु महतारी॥
सुनि सुत बचन कहति कैकेई। मरमु पाँछि जनु माहुर देई॥
आदिहु तें सब आपनि करनी। कुटिल कठोर मुदित मन बरनी॥
दो0-भरतहि बिसरेउ पितु मरन सुनत राम बन गौनु।
हेतु अपनपउ जानि जियँ थकित रहे धरि मौनु॥160॥

बिकल बिलोकि सुतहि समुझावति। मनहुँ जरे पर लोनु लगावति॥
तात राउ नहिं सोचे जोगू। बिढ़इ सुकृत जसु कीन्हेउ भोगू॥
जीवत सकल जनम फल पाए। अंत अमरपति सदन सिधाए॥
अस अनुमानि सोच परिहरहू। सहित समाज राज पुर करहू॥
सुनि सुठि सहमेउ राजकुमारू। पाकें छत जनु लाग अँगारू॥
धीरज धरि भरि लेहिं उसासा। पापनि सबहि भाँति कुल नासा॥
जौं पै कुरुचि रही अति तोही। जनमत काहे न मारे मोही॥
पेड़ काटि तैं पालउ सींचा। मीन जिअन निति बारि उलीचा॥
दो0-हंसबंसु दसरथु जनकु राम लखन से भाइ।
जननी तूँ जननी भई बिधि सन कछु न बसाइ॥161॥

जब तैं कुमति कुमत जियँ ठयऊ। खंड खंड होइ ह्रदउ न गयऊ॥
बर मागत मन भइ नहिं पीरा। गरि न जीह मुहँ परेउ न कीरा॥
भूपँ प्रतीत तोरि किमि कीन्ही। मरन काल बिधि मति हरि लीन्ही॥
बिधिहुँ न नारि हृदय गति जानी। सकल कपट अघ अवगुन खानी॥
सरल सुसील धरम रत राऊ। सो किमि जानै तीय सुभाऊ॥
अस को जीव जंतु जग माहीं। जेहि रघुनाथ प्रानप्रिय नाहीं॥
भे अति अहित रामु तेउ तोही। को तू अहसि सत्य कहु मोही॥
जो हसि सो हसि मुहँ मसि लाई। आँखि ओट उठि बैठहिं जाई॥
दो0-राम बिरोधी हृदय तें प्रगट कीन्ह बिधि मोहि।
मो समान को पातकी बादि कहउँ कछु तोहि॥162॥

सुनि सत्रुघुन मातु कुटिलाई। जरहिं गात रिस कछु न बसाई॥
तेहि अवसर कुबरी तहँ आई। बसन बिभूषन बिबिध बनाई॥
लखि रिस भरेउ लखन लघु भाई। बरत अनल घृत आहुति पाई॥
हुमगि लात तकि कूबर मारा। परि मुह भर महि करत पुकारा॥
कूबर टूटेउ फूट कपारू। दलित दसन मुख रुधिर प्रचारू॥
आह दइअ मैं काह नसावा। करत नीक फलु अनइस पावा॥
सुनि रिपुहन लखि नख सिख खोटी। लगे घसीटन धरि धरि झोंटी॥
भरत दयानिधि दीन्हि छड़ाई। कौसल्या पहिं गे दोउ भाई॥
दो0-मलिन बसन बिबरन बिकल कृस सरीर दुख भार।
कनक कलप बर बेलि बन मानहुँ हनी तुसार॥163॥

भरतहि देखि मातु उठि धाई। मुरुछित अवनि परी झइँ आई॥
देखत भरतु बिकल भए भारी। परे चरन तन दसा बिसारी॥
मातु तात कहँ देहि देखाई। कहँ सिय रामु लखनु दोउ भाई॥
कैकइ कत जनमी जग माझा। जौं जनमि त भइ काहे न बाँझा॥
कुल कलंकु जेहिं जनमेउ मोही। अपजस भाजन प्रियजन द्रोही॥
को तिभुवन मोहि सरिस अभागी। गति असि तोरि मातु जेहि लागी॥
पितु सुरपुर बन रघुबर केतू। मैं केवल सब अनरथ हेतु॥
धिग मोहि भयउँ बेनु बन आगी। दुसह दाह दुख दूषन भागी॥
दो0-मातु भरत के बचन मृदु सुनि सुनि उठी सँभारि॥
लिए उठाइ लगाइ उर लोचन मोचति बारि॥164॥

सरल सुभाय मायँ हियँ लाए। अति हित मनहुँ राम फिरि आए॥
भेंटेउ बहुरि लखन लघु भाई। सोकु सनेहु न हृदयँ समाई॥
देखि सुभाउ कहत सबु कोई। राम मातु अस काहे न होई॥
माताँ भरतु गोद बैठारे। आँसु पौंछि मृदु बचन उचारे॥
अजहुँ बच्छ बलि धीरज धरहू। कुसमउ समुझि सोक परिहरहू॥
जनि मानहु हियँ हानि गलानी। काल करम गति अघटित जानि॥
काहुहि दोसु देहु जनि ताता। भा मोहि सब बिधि बाम बिधाता॥
जो एतेहुँ दुख मोहि जिआवा। अजहुँ को जानइ का तेहि भावा॥
दो0-पितु आयस भूषन बसन तात तजे रघुबीर।
बिसमउ हरषु न हृदयँ कछु पहिरे बलकल चीर। 165॥

मुख प्रसन्न मन रंग न रोषू। सब कर सब बिधि करि परितोषू॥
चले बिपिन सुनि सिय सँग लागी। रहइ न राम चरन अनुरागी॥
सुनतहिं लखनु चले उठि साथा। रहहिं न जतन किए रघुनाथा॥
तब रघुपति सबही सिरु नाई। चले संग सिय अरु लघु भाई॥
रामु लखनु सिय बनहि सिधाए। गइउँ न संग न प्रान पठाए॥
यहु सबु भा इन्ह आँखिन्ह आगें। तउ न तजा तनु जीव अभागें॥
मोहि न लाज निज नेहु निहारी। राम सरिस सुत मैं महतारी॥
जिऐ मरै भल भूपति जाना। मोर हृदय सत कुलिस समाना॥
दो0- कौसल्या के बचन सुनि भरत सहित रनिवास।
ब्याकुल बिलपत राजगृह मानहुँ सोक नेवासु॥166॥

बिलपहिं बिकल भरत दोउ भाई। कौसल्याँ लिए हृदयँ लगाई॥
भाँति अनेक भरतु समुझाए। कहि बिबेकमय बचन सुनाए॥
भरतहुँ मातु सकल समुझाईं। कहि पुरान श्रुति कथा सुहाईं॥
छल बिहीन सुचि सरल सुबानी। बोले भरत जोरि जुग पानी॥
जे अघ मातु पिता सुत मारें। गाइ गोठ महिसुर पुर जारें॥
जे अघ तिय बालक बध कीन्हें। मीत महीपति माहुर दीन्हें॥
जे पातक उपपातक अहहीं। करम बचन मन भव कबि कहहीं॥
ते पातक मोहि होहुँ बिधाता। जौं यहु होइ मोर मत माता॥
दो0-जे परिहरि हरि हर चरन भजहिं भूतगन घोर।
तेहि कइ गति मोहि देउ बिधि जौं जननी मत मोर॥167॥

बेचहिं बेदु धरमु दुहि लेहीं। पिसुन पराय पाप कहि देहीं॥
कपटी कुटिल कलहप्रिय क्रोधी। बेद बिदूषक बिस्व बिरोधी॥
लोभी लंपट लोलुपचारा। जे ताकहिं परधनु परदारा॥
पावौं मैं तिन्ह के गति घोरा। जौं जननी यहु संमत मोरा॥
जे नहिं साधुसंग अनुरागे। परमारथ पथ बिमुख अभागे॥
जे न भजहिं हरि नरतनु पाई। जिन्हहि न हरि हर सुजसु सोहाई॥
तजि श्रुतिपंथु बाम पथ चलहीं। बंचक बिरचि बेष जगु छलहीं॥
तिन्ह कै गति मोहि संकर देऊ। जननी जौं यहु जानौं भेऊ॥
दो0-मातु भरत के बचन सुनि साँचे सरल सुभायँ।
कहति राम प्रिय तात तुम्ह सदा बचन मन कायँ॥168॥

राम प्रानहु तें प्रान तुम्हारे। तुम्ह रघुपतिहि प्रानहु तें प्यारे॥
बिधु बिष चवै स्त्रवै हिमु आगी। होइ बारिचर बारि बिरागी॥
भएँ ग्यानु बरु मिटै न मोहू। तुम्ह रामहि प्रतिकूल न होहू॥
मत तुम्हार यहु जो जग कहहीं। सो सपनेहुँ सुख सुगति न लहहीं॥
अस कहि मातु भरतु हियँ लाए। थन पय स्त्रवहिं नयन जल छाए॥
करत बिलाप बहुत यहि भाँती। बैठेहिं बीति गइ सब राती॥
बामदेउ बसिष्ठ तब आए। सचिव महाजन सकल बोलाए॥
मुनि बहु भाँति भरत उपदेसे। कहि परमारथ बचन सुदेसे॥
दो0-तात हृदयँ धीरजु धरहु करहु जो अवसर आजु।
उठे भरत गुर बचन सुनि करन कहेउ सबु साजु॥169॥

नृपतनु बेद बिदित अन्हवावा। परम बिचित्र बिमानु बनावा॥
गहि पद भरत मातु सब राखी। रहीं रानि दरसन अभिलाषी॥
चंदन अगर भार बहु आए। अमित अनेक सुगंध सुहाए॥
सरजु तीर रचि चिता बनाई। जनु सुरपुर सोपान सुहाई॥
एहि बिधि दाह क्रिया सब कीन्ही। बिधिवत न्हाइ तिलांजुलि दीन्ही॥
सोधि सुमृति सब बेद पुराना। कीन्ह भरत दसगात बिधाना॥
जहँ जस मुनिबर आयसु दीन्हा। तहँ तस सहस भाँति सबु कीन्हा॥
भए बिसुद्ध दिए सब दाना। धेनु बाजि गज बाहन नाना॥
दो0-सिंघासन भूषन बसन अन्न धरनि धन धाम।
दिए भरत लहि भूमिसुर भे परिपूरन काम॥170॥

पितु हित भरत कीन्हि जसि करनी। सो मुख लाख जाइ नहिं बरनी॥
सुदिनु सोधि मुनिबर तब आए। सचिव महाजन सकल बोलाए॥
बैठे राजसभाँ सब जाई। पठए बोलि भरत दोउ भाई॥
भरतु बसिष्ठ निकट बैठारे। नीति धरममय बचन उचारे॥
प्रथम कथा सब मुनिबर बरनी। कैकइ कुटिल कीन्हि जसि करनी॥
भूप धरमब्रतु सत्य सराहा। जेहिं तनु परिहरि प्रेमु निबाहा॥
कहत राम गुन सील सुभाऊ। सजल नयन पुलकेउ मुनिराऊ॥
बहुरि लखन सिय प्रीति बखानी। सोक सनेह मगन मुनि ग्यानी॥
दो0-सुनहु भरत भावी प्रबल बिलखि कहेउ मुनिनाथ।
हानि लाभु जीवन मरनु जसु अपजसु बिधि हाथ॥171॥

अस बिचारि केहि देइअ दोसू। ब्यरथ काहि पर कीजिअ रोसू॥
तात बिचारु केहि करहु मन माहीं। सोच जोगु दसरथु नृपु नाहीं॥
सोचिअ बिप्र जो बेद बिहीना। तजि निज धरमु बिषय लयलीना॥
सोचिअ नृपति जो नीति न जाना। जेहि न प्रजा प्रिय प्रान समाना॥
सोचिअ बयसु कृपन धनवानू। जो न अतिथि सिव भगति सुजानू॥
सोचिअ सूद्रु बिप्र अवमानी। मुखर मानप्रिय ग्यान गुमानी॥
सोचिअ पुनि पति बंचक नारी। कुटिल कलहप्रिय इच्छाचारी॥
सोचिअ बटु निज ब्रतु परिहरई। जो नहिं गुर आयसु अनुसरई॥
दो0-सोचिअ गृही जो मोह बस करइ करम पथ त्याग।
सोचिअ जति प्रंपच रत बिगत बिबेक बिराग॥172॥

बैखानस सोइ सोचै जोगु। तपु बिहाइ जेहि भावइ भोगू॥
सोचिअ पिसुन अकारन क्रोधी। जननि जनक गुर बंधु बिरोधी॥
सब बिधि सोचिअ पर अपकारी। निज तनु पोषक निरदय भारी॥
सोचनीय सबहि बिधि सोई। जो न छाड़ि छलु हरि जन होई॥
सोचनीय नहिं कोसलराऊ। भुवन चारिदस प्रगट प्रभाऊ॥
भयउ न अहइ न अब होनिहारा। भूप भरत जस पिता तुम्हारा॥
बिधि हरि हरु सुरपति दिसिनाथा। बरनहिं सब दसरथ गुन गाथा॥
दो0-कहहु तात केहि भाँति कोउ करिहि बड़ाई तासु।
राम लखन तुम्ह सत्रुहन सरिस सुअन सुचि जासु॥173॥

सब प्रकार भूपति बड़भागी। बादि बिषादु करिअ तेहि लागी॥
यहु सुनि समुझि सोचु परिहरहू। सिर धरि राज रजायसु करहू॥
राँय राजपदु तुम्ह कहुँ दीन्हा। पिता बचनु फुर चाहिअ कीन्हा॥
तजे रामु जेहिं बचनहि लागी। तनु परिहरेउ राम बिरहागी॥
नृपहि बचन प्रिय नहिं प्रिय प्राना। करहु तात पितु बचन प्रवाना॥
करहु सीस धरि भूप रजाई। हइ तुम्ह कहँ सब भाँति भलाई॥
परसुराम पितु अग्या राखी। मारी मातु लोक सब साखी॥
तनय जजातिहि जौबनु दयऊ। पितु अग्याँ अघ अजसु न भयऊ॥
दो0-अनुचित उचित बिचारु तजि जे पालहिं पितु बैन।
ते भाजन सुख सुजस के बसहिं अमरपति ऐन॥174॥

अवसि नरेस बचन फुर करहू। पालहु प्रजा सोकु परिहरहू॥
सुरपुर नृप पाइहि परितोषू। तुम्ह कहुँ सुकृत सुजसु नहिं दोषू॥
बेद बिदित संमत सबही का। जेहि पितु देइ सो पावइ टीका॥
करहु राजु परिहरहु गलानी। मानहु मोर बचन हित जानी॥
सुनि सुखु लहब राम बैदेहीं। अनुचित कहब न पंडित केहीं॥
कौसल्यादि सकल महतारीं। तेउ प्रजा सुख होहिं सुखारीं॥
परम तुम्हार राम कर जानिहि। सो सब बिधि तुम्ह सन भल मानिहि॥
सौंपेहु राजु राम कै आएँ। सेवा करेहु सनेह सुहाएँ॥
दो0-कीजिअ गुर आयसु अवसि कहहिं सचिव कर जोरि।
रघुपति आएँ उचित जस तस तब करब बहोरि॥175॥

कौसल्या धरि धीरजु कहई। पूत पथ्य गुर आयसु अहई॥
सो आदरिअ करिअ हित मानी। तजिअ बिषादु काल गति जानी॥
बन रघुपति सुरपति नरनाहू। तुम्ह एहि भाँति तात कदराहू॥
परिजन प्रजा सचिव सब अंबा। तुम्हही सुत सब कहँ अवलंबा॥
लखि बिधि बाम कालु कठिनाई। धीरजु धरहु मातु बलि जाई॥
सिर धरि गुर आयसु अनुसरहू। प्रजा पालि परिजन दुखु हरहू॥
गुर के बचन सचिव अभिनंदनु। सुने भरत हिय हित जनु चंदनु॥
सुनी बहोरि मातु मृदु बानी। सील सनेह सरल रस सानी॥
छं0-सानी सरल रस मातु बानी सुनि भरत ब्याकुल भए।
लोचन सरोरुह स्त्रवत सींचत बिरह उर अंकुर नए॥
सो दसा देखत समय तेहि बिसरी सबहि सुधि देह की।
तुलसी सराहत सकल सादर सीवँ सहज सनेह की॥
सो0-भरतु कमल कर जोरि धीर धुरंधर धीर धरि।
बचन अमिअँ जनु बोरि देत उचित उत्तर सबहि॥176॥

मासपारायण, अठारहवाँ विश्राम

मोहि उपदेसु दीन्ह गुर नीका। प्रजा सचिव संमत सबही का॥
मातु उचित धरि आयसु दीन्हा। अवसि सीस धरि चाहउँ कीन्हा॥
गुर पितु मातु स्वामि हित बानी। सुनि मन मुदित करिअ भलि जानी॥
उचित कि अनुचित किएँ बिचारू। धरमु जाइ सिर पातक भारू॥
तुम्ह तौ देहु सरल सिख सोई। जो आचरत मोर भल होई॥
जद्यपि यह समुझत हउँ नीकें। तदपि होत परितोषु न जी कें॥
अब तुम्ह बिनय मोरि सुनि लेहू। मोहि अनुहरत सिखावनु देहू॥
ऊतरु देउँ छमब अपराधू। दुखित दोष गुन गनहिं न साधू॥
दो0-पितु सुरपुर सिय रामु बन करन कहहु मोहि राजु।
एहि तें जानहु मोर हित कै आपन बड़ काजु॥177॥

हित हमार सियपति सेवकाई। सो हरि लीन्ह मातु कुटिलाई॥
मैं अनुमानि दीख मन माहीं। आन उपायँ मोर हित नाहीं॥
सोक समाजु राजु केहि लेखें। लखन राम सिय बिनु पद देखें॥
बादि बसन बिनु भूषन भारू। बादि बिरति बिनु ब्रह्म बिचारू॥
सरुज सरीर बादि बहु भोगा। बिनु हरिभगति जायँ जप जोगा॥
जायँ जीव बिनु देह सुहाई। बादि मोर सबु बिनु रघुराई॥
जाउँ राम पहिं आयसु देहू। एकहिं आँक मोर हित एहू॥
मोहि नृप करि भल आपन चहहू। सोउ सनेह जड़ता बस कहहू॥
दो0-कैकेई सुअ कुटिलमति राम बिमुख गतलाज।
तुम्ह चाहत सुखु मोहबस मोहि से अधम कें राज॥178॥

कहउँ साँचु सब सुनि पतिआहू। चाहिअ धरमसील नरनाहू॥
मोहि राजु हठि देइहहु जबहीं। रसा रसातल जाइहि तबहीं॥
मोहि समान को पाप निवासू। जेहि लगि सीय राम बनबासू॥
रायँ राम कहुँ काननु दीन्हा। बिछुरत गमनु अमरपुर कीन्हा॥
मैं सठु सब अनरथ कर हेतू। बैठ बात सब सुनउँ सचेतू॥
बिनु रघुबीर बिलोकि अबासू। रहे प्रान सहि जग उपहासू॥
राम पुनीत बिषय रस रूखे। लोलुप भूमि भोग के भूखे॥
कहँ लगि कहौं हृदय कठिनाई। निदरि कुलिसु जेहिं लही बड़ाई॥
दो0-कारन तें कारजु कठिन होइ दोसु नहि मोर।
कुलिस अस्थि तें उपल तें लोह कराल कठोर॥179॥

कैकेई भव तनु अनुरागे। पाँवर प्रान अघाइ अभागे॥
जौं प्रिय बिरहँ प्रान प्रिय लागे। देखब सुनब बहुत अब आगे॥
लखन राम सिय कहुँ बनु दीन्हा। पठइ अमरपुर पति हित कीन्हा॥
लीन्ह बिधवपन अपजसु आपू। दीन्हेउ प्रजहि सोकु संतापू॥
मोहि दीन्ह सुखु सुजसु सुराजू। कीन्ह कैकेईं सब कर काजू॥
एहि तें मोर काह अब नीका। तेहि पर देन कहहु तुम्ह टीका॥
कैकई जठर जनमि जग माहीं। यह मोहि कहँ कछु अनुचित नाहीं॥
मोरि बात सब बिधिहिं बनाई। प्रजा पाँच कत करहु सहाई॥
दो0-ग्रह ग्रहीत पुनि बात बस तेहि पुनि बीछी मार।
तेहि पिआइअ बारुनी कहहु काह उपचार॥180॥

कैकइ सुअन जोगु जग जोई। चतुर बिरंचि दीन्ह मोहि सोई॥
दसरथ तनय राम लघु भाई। दीन्हि मोहि बिधि बादि बड़ाई॥
तुम्ह सब कहहु कढ़ावन टीका। राय रजायसु सब कहँ नीका॥
उतरु देउँ केहि बिधि केहि केही। कहहु सुखेन जथा रुचि जेही॥
मोहि कुमातु समेत बिहाई। कहहु कहिहि के कीन्ह भलाई॥
मो बिनु को सचराचर माहीं। जेहि सिय रामु प्रानप्रिय नाहीं॥
परम हानि सब कहँ बड़ लाहू। अदिनु मोर नहि दूषन काहू॥
संसय सील प्रेम बस अहहू। सबुइ उचित सब जो कछु कहहू॥
दो0-राम मातु सुठि सरलचित मो पर प्रेमु बिसेषि।
कहइ सुभाय सनेह बस मोरि दीनता देखि॥181।

गुर बिबेक सागर जगु जाना। जिन्हहि बिस्व कर बदर समाना॥
मो कहँ तिलक साज सज सोऊ। भएँ बिधि बिमुख बिमुख सबु कोऊ॥
परिहरि रामु सीय जग माहीं। कोउ न कहिहि मोर मत नाहीं॥
सो मैं सुनब सहब सुखु मानी। अंतहुँ कीच तहाँ जहँ पानी॥
डरु न मोहि जग कहिहि कि पोचू। परलोकहु कर नाहिन सोचू॥
एकइ उर बस दुसह दवारी। मोहि लगि भे सिय रामु दुखारी॥
जीवन लाहु लखन भल पावा। सबु तजि राम चरन मनु लावा॥
मोर जनम रघुबर बन लागी। झूठ काह पछिताउँ अभागी॥
दो0-आपनि दारुन दीनता कहउँ सबहि सिरु नाइ।
देखें बिनु रघुनाथ पद जिय कै जरनि न जाइ॥182॥

आन उपाउ मोहि नहि सूझा। को जिय कै रघुबर बिनु बूझा॥
एकहिं आँक इहइ मन माहीं। प्रातकाल चलिहउँ प्रभु पाहीं॥
जद्यपि मैं अनभल अपराधी। भै मोहि कारन सकल उपाधी॥
तदपि सरन सनमुख मोहि देखी। छमि सब करिहहिं कृपा बिसेषी॥
सील सकुच सुठि सरल सुभाऊ। कृपा सनेह सदन रघुराऊ॥
अरिहुक अनभल कीन्ह न रामा। मैं सिसु सेवक जद्यपि बामा॥
तुम्ह पै पाँच मोर भल मानी। आयसु आसिष देहु सुबानी॥
जेहिं सुनि बिनय मोहि जनु जानी। आवहिं बहुरि रामु रजधानी॥
दो0-जद्यपि जनमु कुमातु तें मैं सठु सदा सदोस।
आपन जानि न त्यागिहहिं मोहि रघुबीर भरोस॥183॥

भरत बचन सब कहँ प्रिय लागे। राम सनेह सुधाँ जनु पागे॥
लोग बियोग बिषम बिष दागे। मंत्र सबीज सुनत जनु जागे॥
मातु सचिव गुर पुर नर नारी। सकल सनेहँ बिकल भए भारी॥
भरतहि कहहि सराहि सराही। राम प्रेम मूरति तनु आही॥
तात भरत अस काहे न कहहू। प्रान समान राम प्रिय अहहू॥
जो पावँरु अपनी जड़ताई। तुम्हहि सुगाइ मातु कुटिलाई॥
सो सठु कोटिक पुरुष समेता। बसिहि कलप सत नरक निकेता॥
अहि अघ अवगुन नहि मनि गहई। हरइ गरल दुख दारिद दहई॥
दो0-अवसि चलिअ बन रामु जहँ भरत मंत्रु भल कीन्ह।
सोक सिंधु बूड़त सबहि तुम्ह अवलंबनु दीन्ह॥184॥

भा सब कें मन मोदु न थोरा। जनु घन धुनि सुनि चातक मोरा॥
चलत प्रात लखि निरनउ नीके। भरतु प्रानप्रिय भे सबही के॥
मुनिहि बंदि भरतहि सिरु नाई। चले सकल घर बिदा कराई॥
धन्य भरत जीवनु जग माहीं। सीलु सनेहु सराहत जाहीं॥
कहहि परसपर भा बड़ काजू। सकल चलै कर साजहिं साजू॥
जेहि राखहिं रहु घर रखवारी। सो जानइ जनु गरदनि मारी॥
कोउ कह रहन कहिअ नहिं काहू। को न चहइ जग जीवन लाहू॥
दो0-जरउ सो संपति सदन सुखु सुहद मातु पितु भाइ।
सनमुख होत जो राम पद करै न सहस सहाइ॥185॥

घर घर साजहिं बाहन नाना। हरषु हृदयँ परभात पयाना॥
भरत जाइ घर कीन्ह बिचारू। नगरु बाजि गज भवन भँडारू॥
संपति सब रघुपति कै आही। जौ बिनु जतन चलौं तजि ताही॥
तौ परिनाम न मोरि भलाई। पाप सिरोमनि साइँ दोहाई॥
करइ स्वामि हित सेवकु सोई। दूषन कोटि देइ किन कोई॥
अस बिचारि सुचि सेवक बोले। जे सपनेहुँ निज धरम न डोले॥
कहि सबु मरमु धरमु भल भाषा। जो जेहि लायक सो तेहिं राखा॥
करि सबु जतनु राखि रखवारे। राम मातु पहिं भरतु सिधारे॥
दो0-आरत जननी जानि सब भरत सनेह सुजान।
कहेउ बनावन पालकीं सजन सुखासन जान॥186॥

चक्क चक्कि जिमि पुर नर नारी। चहत प्रात उर आरत भारी॥
जागत सब निसि भयउ बिहाना। भरत बोलाए सचिव सुजाना॥
कहेउ लेहु सबु तिलक समाजू। बनहिं देब मुनि रामहिं राजू॥
बेगि चलहु सुनि सचिव जोहारे। तुरत तुरग रथ नाग सँवारे॥
अरुंधती अरु अगिनि समाऊ। रथ चढ़ि चले प्रथम मुनिराऊ॥
बिप्र बृंद चढ़ि बाहन नाना। चले सकल तप तेज निधाना॥
नगर लोग सब सजि सजि जाना। चित्रकूट कहँ कीन्ह पयाना॥
सिबिका सुभग न जाहिं बखानी। चढ़ि चढ़ि चलत भई सब रानी॥
दो0-सौंपि नगर सुचि सेवकनि सादर सकल चलाइ।
सुमिरि राम सिय चरन तब चले भरत दोउ भाइ॥187॥

राम दरस बस सब नर नारी। जनु करि करिनि चले तकि बारी॥
बन सिय रामु समुझि मन माहीं। सानुज भरत पयादेहिं जाहीं॥
देखि सनेहु लोग अनुरागे। उतरि चले हय गय रथ त्यागे॥
जाइ समीप राखि निज डोली। राम मातु मृदु बानी बोली॥
तात चढ़हु रथ बलि महतारी। होइहि प्रिय परिवारु दुखारी॥
तुम्हरें चलत चलिहि सबु लोगू। सकल सोक कृस नहिं मग जोगू॥
सिर धरि बचन चरन सिरु नाई। रथ चढ़ि चलत भए दोउ भाई॥
तमसा प्रथम दिवस करि बासू। दूसर गोमति तीर निवासू॥
दो0-पय अहार फल असन एक निसि भोजन एक लोग।
करत राम हित नेम ब्रत परिहरि भूषन भोग॥188॥

सई तीर बसि चले बिहाने। सृंगबेरपुर सब निअराने॥
समाचार सब सुने निषादा। हृदयँ बिचार करइ सबिषादा॥
कारन कवन भरतु बन जाहीं। है कछु कपट भाउ मन माहीं॥
जौं पै जियँ न होति कुटिलाई। तौ कत लीन्ह संग कटकाई॥
जानहिं सानुज रामहि मारी। करउँ अकंटक राजु सुखारी॥
भरत न राजनीति उर आनी। तब कलंकु अब जीवन हानी॥
सकल सुरासुर जुरहिं जुझारा। रामहि समर न जीतनिहारा॥
का आचरजु भरतु अस करहीं। नहिं बिष बेलि अमिअ फल फरहीं॥
दो0-अस बिचारि गुहँ ग्याति सन कहेउ सजग सब होहु।
हथवाँसहु बोरहु तरनि कीजिअ घाटारोहु॥189॥

होहु सँजोइल रोकहु घाटा। ठाटहु सकल मरै के ठाटा॥
सनमुख लोह भरत सन लेऊँ। जिअत न सुरसरि उतरन देऊँ॥
समर मरनु पुनि सुरसरि तीरा। राम काजु छनभंगु सरीरा॥
भरत भाइ नृपु मै जन नीचू। बड़ें भाग असि पाइअ मीचू॥
स्वामि काज करिहउँ रन रारी। जस धवलिहउँ भुवन दस चारी॥
तजउँ प्रान रघुनाथ निहोरें। दुहूँ हाथ मुद मोदक मोरें॥
साधु समाज न जाकर लेखा। राम भगत महुँ जासु न रेखा॥
जायँ जिअत जग सो महि भारू। जननी जौबन बिटप कुठारू॥
दो0-बिगत बिषाद निषादपति सबहि बढ़ाइ उछाहु।
सुमिरि राम मागेउ तुरत तरकस धनुष सनाहु॥190॥

बेगहु भाइहु सजहु सँजोऊ। सुनि रजाइ कदराइ न कोऊ॥
भलेहिं नाथ सब कहहिं सहरषा। एकहिं एक बढ़ावइ करषा॥
चले निषाद जोहारि जोहारी। सूर सकल रन रूचइ रारी॥
सुमिरि राम पद पंकज पनहीं। भाथीं बाँधि चढ़ाइन्हि धनहीं॥
अँगरी पहिरि कूँड़ि सिर धरहीं। फरसा बाँस सेल सम करहीं॥
एक कुसल अति ओड़न खाँड़े। कूदहि गगन मनहुँ छिति छाँड़े॥
निज निज साजु समाजु बनाई। गुह राउतहि जोहारे जाई॥
देखि सुभट सब लायक जाने। लै लै नाम सकल सनमाने॥
दो0-भाइहु लावहु धोख जनि आजु काज बड़ मोहि।
सुनि सरोष बोले सुभट बीर अधीर न होहि॥191॥

राम प्रताप नाथ बल तोरे। करहिं कटकु बिनु भट बिनु घोरे॥
जीवत पाउ न पाछें धरहीं। रुंड मुंडमय मेदिनि करहीं॥
दीख निषादनाथ भल टोलू। कहेउ बजाउ जुझाऊ ढोलू॥
एतना कहत छींक भइ बाँए। कहेउ सगुनिअन्ह खेत सुहाए॥
बूढ़ु एकु कह सगुन बिचारी। भरतहि मिलिअ न होइहि रारी॥
रामहि भरतु मनावन जाहीं। सगुन कहइ अस बिग्रहु नाहीं॥
सुनि गुह कहइ नीक कह बूढ़ा। सहसा करि पछिताहिं बिमूढ़ा॥
भरत सुभाउ सीलु बिनु बूझें। बड़ि हित हानि जानि बिनु जूझें॥
दो0-गहहु घाट भट समिटि सब लेउँ मरम मिलि जाइ।
बूझि मित्र अरि मध्य गति तस तब करिहउँ आइ॥192॥

लखन सनेहु सुभायँ सुहाएँ। बैरु प्रीति नहिं दुरइँ दुराएँ॥
अस कहि भेंट सँजोवन लागे। कंद मूल फल खग मृग मागे॥
मीन पीन पाठीन पुराने। भरि भरि भार कहारन्ह आने॥
मिलन साजु सजि मिलन सिधाए। मंगल मूल सगुन सुभ पाए॥
देखि दूरि तें कहि निज नामू। कीन्ह मुनीसहि दंड प्रनामू॥
जानि रामप्रिय दीन्हि असीसा। भरतहि कहेउ बुझाइ मुनीसा॥
राम सखा सुनि संदनु त्यागा। चले उतरि उमगत अनुरागा॥
गाउँ जाति गुहँ नाउँ सुनाई। कीन्ह जोहारु माथ महि लाई॥
दो0-करत दंडवत देखि तेहि भरत लीन्ह उर लाइ।
मनहुँ लखन सन भेंट भइ प्रेम न हृदयँ समाइ॥193॥

भेंटत भरतु ताहि अति प्रीती। लोग सिहाहिं प्रेम कै रीती॥
धन्य धन्य धुनि मंगल मूला। सुर सराहि तेहि बरिसहिं फूला॥
लोक बेद सब भाँतिहिं नीचा। जासु छाँह छुइ लेइअ सींचा॥
तेहि भरि अंक राम लघु भ्राता। मिलत पुलक परिपूरित गाता॥
राम राम कहि जे जमुहाहीं। तिन्हहि न पाप पुंज समुहाहीं॥
यह तौ राम लाइ उर लीन्हा। कुल समेत जगु पावन कीन्हा॥
करमनास जलु सुरसरि परई। तेहि को कहहु सीस नहिं धरई॥
उलटा नामु जपत जगु जाना। बालमीकि भए ब्रह्म समाना॥
दो0-स्वपच सबर खस जमन जड़ पावँर कोल किरात।
रामु कहत पावन परम होत भुवन बिख्यात॥194॥

नहिं अचिरजु जुग जुग चलि आई। केहि न दीन्हि रघुबीर बड़ाई॥
राम नाम महिमा सुर कहहीं। सुनि सुनि अवधलोग सुखु लहहीं॥
रामसखहि मिलि भरत सप्रेमा। पूँछी कुसल सुमंगल खेमा॥
देखि भरत कर सील सनेहू। भा निषाद तेहि समय बिदेहू॥
सकुच सनेहु मोदु मन बाढ़ा। भरतहि चितवत एकटक ठाढ़ा॥
धरि धीरजु पद बंदि बहोरी। बिनय सप्रेम करत कर जोरी॥
कुसल मूल पद पंकज पेखी। मैं तिहुँ काल कुसल निज लेखी॥
अब प्रभु परम अनुग्रह तोरें। सहित कोटि कुल मंगल मोरें॥
दो0-समुझि मोरि करतूति कुलु प्रभु महिमा जियँ जोइ।
जो न भजइ रघुबीर पद जग बिधि बंचित सोइ॥195॥

कपटी कायर कुमति कुजाती। लोक बेद बाहेर सब भाँती॥
राम कीन्ह आपन जबही तें। भयउँ भुवन भूषन तबही तें॥
देखि प्रीति सुनि बिनय सुहाई। मिलेउ बहोरि भरत लघु भाई॥
कहि निषाद निज नाम सुबानीं। सादर सकल जोहारीं रानीं॥
जानि लखन सम देहिं असीसा। जिअहु सुखी सय लाख बरीसा॥
निरखि निषादु नगर नर नारी। भए सुखी जनु लखनु निहारी॥
कहहिं लहेउ एहिं जीवन लाहू। भेंटेउ रामभद्र भरि बाहू॥
सुनि निषादु निज भाग बड़ाई। प्रमुदित मन लइ चलेउ लेवाई॥
दो0-सनकारे सेवक सकल चले स्वामि रुख पाइ।
घर तरु तर सर बाग बन बास बनाएन्हि जाइ॥196॥

सृंगबेरपुर भरत दीख जब। भे सनेहँ सब अंग सिथिल तब॥
सोहत दिएँ निषादहि लागू। जनु तनु धरें बिनय अनुरागू॥
एहि बिधि भरत सेनु सबु संगा। दीखि जाइ जग पावनि गंगा॥
रामघाट कहँ कीन्ह प्रनामू। भा मनु मगनु मिले जनु रामू॥
करहिं प्रनाम नगर नर नारी। मुदित ब्रह्ममय बारि निहारी॥
करि मज्जनु मागहिं कर जोरी। रामचंद्र पद प्रीति न थोरी॥
भरत कहेउ सुरसरि तव रेनू। सकल सुखद सेवक सुरधेनू॥
जोरि पानि बर मागउँ एहू। सीय राम पद सहज सनेहू॥
दो0-एहि बिधि मज्जनु भरतु करि गुर अनुसासन पाइ।
मातु नहानीं जानि सब डेरा चले लवाइ॥197॥

जहँ तहँ लोगन्ह डेरा कीन्हा। भरत सोधु सबही कर लीन्हा॥
सुर सेवा करि आयसु पाई। राम मातु पहिं गे दोउ भाई॥
चरन चाँपि कहि कहि मृदु बानी। जननीं सकल भरत सनमानी॥
भाइहि सौंपि मातु सेवकाई। आपु निषादहि लीन्ह बोलाई॥
चले सखा कर सों कर जोरें। सिथिल सरीर सनेह न थोरें॥
पूँछत सखहि सो ठाउँ देखाऊ। नेकु नयन मन जरनि जुड़ाऊ॥
जहँ सिय रामु लखनु निसि सोए। कहत भरे जल लोचन कोए॥
भरत बचन सुनि भयउ बिषादू। तुरत तहाँ लइ गयउ निषादू॥
दो0-जहँ सिंसुपा पुनीत तर रघुबर किय बिश्रामु।
अति सनेहँ सादर भरत कीन्हेउ दंड प्रनामु॥198॥

कुस साँथरीíनिहारि सुहाई। कीन्ह प्रनामु प्रदच्छिन जाई॥
चरन रेख रज आँखिन्ह लाई। बनइ न कहत प्रीति अधिकाई॥
कनक बिंदु दुइ चारिक देखे। राखे सीस सीय सम लेखे॥
सजल बिलोचन हृदयँ गलानी। कहत सखा सन बचन सुबानी॥
श्रीहत सीय बिरहँ दुतिहीना। जथा अवध नर नारि बिलीना॥
पिता जनक देउँ पटतर केही। करतल भोगु जोगु जग जेही॥
ससुर भानुकुल भानु भुआलू। जेहि सिहात अमरावतिपालू॥
प्राननाथु रघुनाथ गोसाई। जो बड़ होत सो राम बड़ाई॥
दो0-पति देवता सुतीय मनि सीय साँथरी देखि।
बिहरत ह्रदउ न हहरि हर पबि तें कठिन बिसेषि॥199॥

लालन जोगु लखन लघु लोने। भे न भाइ अस अहहिं न होने॥
पुरजन प्रिय पितु मातु दुलारे। सिय रघुबरहि प्रानपिआरे॥
मृदु मूरति सुकुमार सुभाऊ। तात बाउ तन लाग न काऊ॥
ते बन सहहिं बिपति सब भाँती। निदरे कोटि कुलिस एहिं छाती॥
राम जनमि जगु कीन्ह उजागर। रूप सील सुख सब गुन सागर॥
पुरजन परिजन गुर पितु माता। राम सुभाउ सबहि सुखदाता॥
बैरिउ राम बड़ाई करहीं। बोलनि मिलनि बिनय मन हरहीं॥
सारद कोटि कोटि सत सेषा। करि न सकहिं प्रभु गुन गन लेखा॥
दो0-सुखस्वरुप रघुबंसमनि मंगल मोद निधान।
ते सोवत कुस डासि महि बिधि गति अति बलवान॥200॥