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एक सरल कृतज्ञता में बदल जाती ।
 
एक सरल कृतज्ञता में बदल जाती ।
 
 
 
'''गले तक धरती में'''
 
 
 
 
गले तक धरती में गड़े हुए भी
 
 
सोच रहा हूँ
 
 
कि बँधे हों हाथ और पाँव
 
 
तो आकाश हो जाती है उड़ने की ताक़त
 
 
 
 
जितना बचा हूँ
 
 
उससे भी बचाये रख सकता हूँ यह अभिमान
 
 
कि अगर नाक हूँ
 
 
तो वहाँ तक हूँ जहाँ तक हवा
 
 
मिट्टी की महक को
 
 
हलकोर कर बाँधती
 
 
फूलों की सूक्तियों में
 
 
और फिर खोल देती
 
 
सुगन्धि के न जाने कितने अर्थों को
 
 
हज़ारों मुक्तियों में
 
 
 
 
कि अगर कान हूँ
 
 
तो एक धारावाहिक कथानक की
 
 
सूक्ष्मतम प्रतिध्वनियों में
 
 
सुन सकने का वह पूरा सन्दर्भ हूँ
 
 
जिसमें अनेक प्राथनाएँ और संगीत
 
 
चीखें और हाहाकार
 
 
आश्रित हैं एक केन्द्रीय ग्राह्यता पर
 
 
अगर ज़बान हूँ
 
 
तो दे सकता हूँ ज़बान
 
 
ज़बान के लिए तरसती ख़ामोशियों को –
 
 
शब्द रख सकता हूँ वहाँ
 
 
जहाँ केवल निःशब्द बैचैनी है
 
 
 
 
अगर ओंठ हूँ
 
 
तो रख सकता हूँ मुर्झाते ओठों पर भी
 
 
क्रूरताओं को लज्जित करती
 
 
एक बच्चे की विश्वासी हँसी का बयान
 
 
 
 
अगर आँखें हूँ
 
 
तो तिल-भर जगह में
 
 
भी वह सम्पूर्ण विस्तार हूँ
 
 
जिसमें जगमगा सकती है असंख्य सृष्टियाँ ....
 
 
 
 
गले तक धरती में गड़े हुए भी
 
 
जितनी देर बचा रह पाता है सिर
 
 
उतने समय को ही अगर
 
 
दे सकूँ एक वैकल्पिक शरीर
 
 
तो दुनिया से करोड़ों गुना बड़ा हो सकता है
 
 
एक आदमक़द विचार ।
 
 
 
 
'''भाषा की ध्वस्त पारिस्थितिकी में'''
 
 
 
 
प्लास्टिक के पेड़
 
 
नाइलॉन के फूल
 
 
रबर की चिड़ियाँ
 
 
 
 
टेप पर भूले बिसरे
 
 
लोकगीतों की
 
 
उदास लड़ियाँ.....
 
 
 
 
एक पेड़ जब सूखता
 
 
सब से पहले सूखते
 
 
उसके सब से कोमल हिस्से-
 
 
उसके फूल
 
 
उसकी पत्तियाँ ।
 
 
 
 
एक भाषा जब सूखती
 
 
शब्द खोने लगते अपना कवित्व
 
 
भावों की ताज़गी
 
 
विचारों की सत्यता –
 
 
बढ़ने लगते लोगों के बीच
 
 
अपरिचय के उजाड़ और खाइयाँ ......
 
 
 
 
सोच में हूँ कि सोच के प्रकरण में
 
 
किस तरह कुछ कहा जाय
 
 
कि सब का ध्यान उनकी ओर हो
 
 
जिनका ध्यान सब की ओर है –
 
 
 
 
कि भाषा की ध्वस्त पारिस्थितिकी में
 
 
आग यदि लगी तो पहले वहाँ लगेगी
 
 
जहाँ ठूँठ हो चुकी होंगी
 
 
अपनी ज़मीन से रस खींच सकनेवाली शक्तियाँ ।
 
 
 
 
'''बात सीधी थी पर'''
 
 
 
 
बात सीधी थी पर एक बार
 
 
भाषा के चक्कर में
 
 
ज़रा टेढ़ी फँस गई ।
 
 
 
 
उसे पाने की कोशिश में
 
 
भाषा को उलटा पलटा
 
 
तोड़ा मरोड़ा
 
 
घुमाया फिराया
 
 
कि बात या तो बने
 
 
या फिर भाषा से बाहर आये-
 
 
लेकिन इससे भाषा के साथ साथ
 
 
बात और भी पेचीदा होती चली गई ।
 
 
 
 
सारी मुश्किल को धैर्य से समझे बिना
 
 
मैं पेंच को खोलने के बजाय
 
 
उसे बेतरह कसता चला जा रहा था
 
 
क्यों कि इस करतब पर मुझे
 
 
साफ़ सुनायी दे रही थी
 
 
तमाशाबीनों की शाबाशी और वाह वाह ।
 
 
 
 
आख़िरकार वही हुआ जिसका मुझे डर था –
 
 
ज़ोर ज़बरदस्ती से
 
 
बात की चूड़ी मर गई
 
 
और वह भाषा में बेकार घूमने लगी ।
 
 
 
 
हार कर मैंने उसे कील की तरह
 
 
उसी जगह ठोंक दिया ।
 
 
ऊपर से ठीकठाक
 
 
पर अन्दर से
 
 
न तो उसमें कसाव था
 
 
न ताक़त ।
 
 
 
 
बात ने, जो एक शरारती बच्चे की तरह
 
 
मुझसे खेल रही थी,
 
 
मुझे पसीना पोंछती देख कर पूछा –
 
 
“क्या तुमने भाषा को
 
 
सहूलियत से बरतना कभी नहीं सीखा ?”
 
 
 
 
 
 
'''घबरा कर'''
 
 
 
 
वह किसी उम्मीद से मेरी ओर मुड़ा था
 
 
लेकिन घबरा कर वह नहीं मैं उस पर भूँक पड़ा था ।
 
 
 
 
ज़्यादातर कुत्ते
 
 
पागल नहीं होते
 
 
न ज़्यादातर जानवर
 
 
हमलावर
 
 
ज़्यादातर आदमी
 
 
डाकू नहीं होते
 
 
न ज़्यादातर जेबों में चाकू
 
 
 
 
ख़तरनाक तो दो चार ही होते लाखों में
 
 
लेकिन उनका आतंक चौकता रहता हमारी आँखों में ।
 
 
 
 
मैंने जिसे पागल समझ कर
 
 
दुतकार दिया था
 
 
वह मेरे बच्चे को ढूँढ रहा था
 
 
जिसने उसे प्यार दिया था।
 
 
 
 
'''आँकड़ों की बीमारी'''
 
 
 
 
एक बार मुझे आँकड़ों की उल्टियाँ होने लगीं
 
 
गिनते गिनते जब संख्या
 
 
करोड़ों को पार करने लगी
 
 
मैं बेहोश हो गया
 
 
 
 
होश आया तो मैं अस्पताल में था
 
 
खून चढ़ाया जा रहा था
 
 
आँक्सीजन दी जा रही थी
 
 
कि मैं चिल्लाया
 
 
डाक्टर मुझे बुरी तरह हँसी आ रही
 
 
यह हँसानेवाली गैस है शायद
 
 
प्राण बचानेवाली नहीं
 
 
तुम मुझे हँसने पर मजबूर नहीं कर सकते
 
 
इस देश में हर एक को अफ़सोस के साथ जीने का
 
 
पैदाइशी हक़ है वरना
 
 
कोई माने नहीं रखते हमारी आज़ादी और प्रजातंत्र
 
 
 
 
बोलिए नहीं - नर्स ने कहा - बेहद कमज़ोर हैं आप
 
 
बड़ी मुश्किल से क़ाबू में आया है रक्तचाप
 
 
 
 
डाक्टर ने समझाया - आँकड़ों का वाइरस
 
 
बुरी तरह फैल रहा आजकल
 
 
सीधे दिमाग़ पर असर करता
 
 
भाग्यवान हैं आप कि बच गए
 
 
कुछ भी हो सकता था आपको –
 
 
 
 
सन्निपात कि आप बोलते ही चले जाते
 
 
या पक्षाघात कि हमेशा कि लिए बन्द हो जाता
 
 
आपका बोलना
 
 
मस्तिष्क की कोई भी नस फट सकती थी
 
 
इतनी बड़ी संख्या के दबाव से
 
 
हम सब एक नाज़ुक दौर से गुज़र रहे
 
 
तादाद के मामले में उत्तेजना घातक हो सकती है
 
 
आँकड़ों पर कई दवा काम नहीं करती
 
 
शान्ति से काम लें
 
 
अगर बच गए आप तो करोड़ों में एक होंगे .....
 
 
 
 
अचानक मुझे लगा
 
 
ख़तरों से सावधान कराते की संकेत-चिह्न में
 
 
बदल गई थी डाक्टर की सूरत
 
 
और मैं आँकड़ों का काटा
 
 
चीख़ता चला जा रहा था
 
 
कि हम आँकड़े नहीं आदमी हैं
 
 
 
 
'''किसी पवित्र इच्छा की घड़ी में'''
 
 
 
 
व्यक्ति को
 
 
विकार की ही तरह पढ़ना
 
 
जीवन का अशुद्ध पाठ है।
 
 
 
 
वह एक नाज़ुक स्पन्द है
 
 
समाज की नसों में बन्द
 
 
जिसे हम किसी अच्छे विचार
 
 
या पवित्र इच्छा की घड़ी में भी
 
 
पढ़ सकते हैं ।
 
 
 
 
समाज के लक्षणों को
 
 
पहचानने की एक लय
 
 
व्यक्ति भी है,
 
 
अवमूल्यित नहीं
 
 
पूरा तरह सम्मानित
 
 
उसकी स्वयंता
 
 
अपने मनुष्य होने के सौभाग्य को
 
 
ईश्वर तक प्रमाणित हुई !
 
 
 
 
 
 
'''दूसरी तरफ़ उसकी उपस्थिति'''
 
 
 
 
 
 
वहाँ वह भी था
 
 
जैसे किसी सच्चे और सुहृद
 
 
शब्द की हिम्मतों में बँधी हुई
 
 
एक ढीक कोशिश.......
 
 
 
 
जब भी परिचित संदर्भों से कट कर
 
 
वह अलग जा पड़ता तब वही नहीं
 
 
वह सब भी सूना हो जाता
 
 
जिनमें वह नहीं होता ।
 
 
 
 
उसकी अनुपस्थिति से
 
 
कहीं कोई फ़र्क न पड़ता किसी भी माने में,
 
 
लेकिन किसी तरफ़ उसकी उपस्थिति मात्र से
 
 
एक संतुलन बन जाता उधर
 
 
जिधर पंक्तियाँ होती, चाहे वह नहीं ।
 
 
 
 
 
 
'''उनके पश्चात्'''
 
 
 
 
कुछ घटता चला जाता है मुझमें
 
 
उनके न रहने से जो थे मेरे साथ
 
 
 
 
मैं क्या कह सकता हूँ उनके बारे में, अब
 
 
कुछ भी कहना एक धीमी मौत सहना है।
 
 
 
 
हे दयालु अकस्मात्
 
 
ये मेरे दिन हैं ?
 
 
या उनकी रात ?
 
 
 
 
मैं हूँ कि मेरी जगह कोई और
 
 
कर रहा उनके किये धरे पर ग़ौर ?
 
 
मैं और मेरी दुनिया, जैसे
 
 
कुछ बचा रह गया हो उनका ही
 
 
उनके पश्चात्
 
 
 
 
ऐसा क्या हो सकता है
 
 
उनका कृतित्व-
 
 
उनका अमरत्व -
 
 
उनका मनुष्यत्व-
 
 
ऐसा कुछ सान्त्वनीय ऐसा कुछ अर्थवान
 
 
जो न हो केवल एक देह का अवसान ?
 
 
 
 
ऐसा क्या कहा जा सकता है
 
 
किसी के बारे में
 
 
जिसमें न हो उसके न-होने की याद ?
 
 
 
 
सौ साल बाद
 
 
परस्पर सहयोग से प्रकाशित एक स्मारिका,
 
 
पारंपरिक सौजन्य से आयोजित एक शोकसभा :
 
 
 
 
किसी पुस्तक की पीठ पर
 
 
एक विवर्ण मुखाकृति
 
 
विज्ञापित
 
 
एक अविश्वसनीय मुस्कान !
 
 
 
 
 
 
'''यक़ीनों की जल्दबाज़ी से'''
 
 
 
 
एक बार ख़बर उड़ी
 
 
कि कविता अब कविता नहीं रही
 
 
और यूँ फैली
 
 
कि कविता अब नहीं रही !
 
 
 
 
यक़ीन करनेवालों ने यक़ीन कर लिया
 
 
कि कविता मर गई,
 
 
लेकिन शक़ करने वालों ने शक़ किया
 
 
कि ऐसा हो ही नहीं सकता
 
 
और इस तरह बच गई कविता की जान
 
 
 
 
ऐसा पहली बार नहीं हुआ
 
 
कि यक़ीनों की जल्दबाज़ी से
 
 
महज़ एक शक़ ने बचा लिया हो
 
 
किसी बेगुनाह को ।
 
 
 
 
'''कविता'''
 
 
 
 
कविता वक्तव्य नहीं गवाह है
 
 
कभी हमारे सामने
 
 
कभी हमसे पहले
 
 
कभी हमारे बाद
 
 
 
 
कोई चाहे भी तो रोक नहीं सकता
 
 
भाषा में उसका बयान
 
 
जिसका पूरा मतलब है सचाई
 
 
जिसका पूरी कोशिश है बेहतर इन्सान
 
 
 
 
उसे कोई हड़बड़ी नहीं
 
 
कि वह इश्तहारों की तरह चिपके
 
 
जुलूसों की तरह निकले
 
 
नारों की तरह लगे
 
 
और चुनावों की तरह जीते
 
 
 
 
वह आदमी की भाषा में
 
 
कहीं किसी तरह ज़िन्दा रहे, बस
 
 
 
 
'''कविता की ज़रूरत'''
 
 
 
 
 
 
बहुत कुछ दे सकती है कविता
 
 
क्यों कि बहुत कुछ हो सकती है कविता
 
 
ज़िन्दगी में
 
 
 
 
अगर हम जगह दें उसे
 
 
जैसे फलों को जगह देते हैं पेड़
 
 
जैसे तारों को जगह देती है रात
 
 
 
 
हम बचाये रख सकते हैं उसके लिए
 
 
अपने अन्दर कहीं
 
 
ऐसा एक कोना
 
 
जहाँ ज़मीन और आसमान
 
 
जहाँ आदमी और भगवान के बीच दूरी
 
 
कम से कम हो ।
 
 
 
 
वैसे कोई चाहे तो जी सकता है
 
 
एक नितान्त कवितारहित ज़िन्दगी
 
 
कर सकता है
 
 
कवितारहित प्रेम
 
 
 
 
 
 
कविः कुंवर नारायण की कविताएँ
 
 
प्रस्तुतिः जयप्रकाश मानस
 

19:56, 8 सितम्बर 2006 का अवतरण

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*~*~*~*~*~*~* यहाँ से नीचे आप कविताएँ जोड सकते हैं ~*~*~*~*~*~*~*~*~


शब्दों की तरफ़ से

कभी कभी शब्दों की तरफ़ से भी

दुनिया को देखता हूँ ।


किसी भी शब्द को

एक आतशी शीशे की तरह

जब भी घुमाता हूँ आदमी, चीज़ों या सितारों की ओर

मुझे उसके पीछे

एक अर्थ दिखाई देता

जो उस शब्द से कहीं बड़ा होता है


ऐसे तमाम अर्थों को जब

आपस में इस तरह जोड़ना चाहता हूँ

कि उनके योग से जो भाषा बने

उसमें द्विविधाओं और द्वाभाओं के

सन्देहात्मक क्षितिज न हों, तब-


सरल और स्पष्ट

(कुटिल और क्लिष्ट की विभाषाओं में टूट कर)

अकसर इतनी द्रुतगति से अपने रास्तों को बदलते

कि वहाँ विभाजित स्वार्थों के जाल बिछे दिखते

जहाँ अर्थपूर्ण संधियों को होना चाहिए ।


00000000000


एक यात्रा के दौरान


(एक)


सफ़र से पहले अकसर

रेल-सी लम्बी एक सरसराहट

मेरी रीढ़ पर रेंग जाया करती है।


याद आने लगते कुछ बढ़ते फ़ासले-

जैसे जनता और सरकार के बीच, जैसे उसूलों और व्यवहार के बीच,

जैसे सम्पत्ति और विपत्ति के बीच,

जैसे गति और प्रगति के बीच


घेरने लगती कुछ असह्य नज़दीकियाँ-


जैसे दृढ़ता और विचलन के बीच,

जैसे तेज़ी और फिसलन के बीच,

जैसे सफ़ाई और गन्दगी के बीच,

जैसे मौत और जिन्दगी के बीच ।


याद आते छोटे-छोटे स्टेशनों पर फैले

बीमार रोशनी के मैले मरियल उजाले,

गाड़ी छूटने का बौखलाहट–भरा वक़्त,

आरक्षण-चार्ट की अन्तिम कार्बन-कापी,

याद आती ट्रेन के इस छोर से उस छोर तक

बदहवास दौड़ती जनता अपने बीवी, बच्चों,

सामान, कुली और जेब को एक साथ संभाले....


(दो)


सुबह चार बजे मुझे एक ट्रेन पकड़ना है।

मुझे एक यात्रा पर जाना है।

मुझे काम पर जाना है।


मुझे कहाँ जाना है

दशरथ की पत्नियों के प्रपंच से बच कर ?

मुझ तरह तरह के कामों के पीछे

कहाँ कहाँ जाना है ?

कहाँ नहीं जाना है ?


(तीन)


एक गहरे विवाद में

फँस गया है मेरा कर्तव्य-बोध :


ट्रेन ही नहीं एक रॉकेट भी

पकड़ना है मुझे अन्तरिक्ष के लिए

ताकि एक डब्बे में ठसाठस भरा

मेरा ग़रीब देश भी

कह सके सगर्व कि देखो

हम एक साधारण आदमी भी

पहुँचा दिए गए चाँद पर


पृथ्वी के आकर्षण के विरुद्ध

आकाश की ओर ले जानेवाले ज्ञान के

हम आदिम आचार्य हैं ।

हमारी पवित्र धरती पर

आमंत्रित देवताओं के विमान :


न जाने कितनी बार हमने

स्थापित किए हैं गगनचुम्बी उँचाइयों के कीर्तिमान !


पर आज

गृहदशा और ग्रहदशा दोनों

कुछ ऐसे प्रतिकूल

कि सातों दिन दिशाशूल :

करते प्रस्थान

रख कर हथेली पर जान

चलते ज़मीन पर देखते आसमान,

काल-तत्व खींचातान : एक आँख

हाथ की घड़ी पर

दूसरी आँख संकट की घड़ी पर ।

न पकड़ से छूटता पुराना सामान,

न पकड़ में आता छूटता वर्तमान।


(चार)


घटनाचक्र की तरह घूमते पहिये :

वह भी एक नाटकीय प्रवेश होता है

चलती ट्रेन पकड़ने वक़्त, जब एक पाँव


छूटती ट्रेन पर और दूसरा

छूटते प्लेटफ़ार्म पर होता है

सरकते साँप-सी एक गति

दो क़दमों के बीच की फिसलती जगह में,

जब मौत को एक ही झटके में लाँघ कर

हम डब्बे में निरापद हो जाना चाहते हैं :


वह एक नया शुभारम्भ होता है किसी यात्रा का

भागती ट्रेन में दोनो पांव जब

एक ही समय में एक ही जगह होते हैं,

जब कोई ख़तरा नहीं नज़र आता

दो गतियों के बीच एक तीसरी संभावना का ।

भविष्य के प्रति आश्वस्त

एक बार फिर जब हम

दुश्चिन्तामुक्त समय में - स्थिर चित्त -

केवल जेब में रख्खे टिकट को सोचते हैं,

उसके या अपने कहीं गिर जाने को नहीं ।


(पाँच)


कभी कभी दूसरों का साथ होना मात्र

हमें कृतज्ञ करता

दूसरों के साथ होने मात्र के प्रति,

किसी का सीट बराबर जगह दे देना भी

हमें विश्वास दिलाता कि दुनिया बहुत बड़ी है,

जब अटैची पर एक हल्की-सी पकड़ भी

ज़िंदगी पर पकड़ मालूम होती है,

और दूसरों के लिए चिन्ता

अपने लिए चिन्ताओं से मुक्ति.....


(छह)


कुछ आवाज़ें ।

कोई किसी को लेने आया है ।


कुछ और आवाज़ें ।

कोई किसी को छोड़ने आया है।

किसी का कुछ छूट गया है।

छूटते स्टेशन पर

छूटे वक़्त की हड़बड़ी में ।


अब एक बज रहा स्टेशन की घड़ी में ।


(सात)


क्यों किसी की सन्दूक का कोना

अचानक मेरी पिण्डली में गड़ने लगा ?

क्यों मेरे सिर के ठीक ऊपर टिका

गिरने-गिरने को वह बिस्तर अखरने लगा ?

कौन हैं वे ?

क्यों मेरी चिन्ताओं का एक कोना

उनसे भरने लगा ?-


मेरी एक ओर बैठा वह

विक्षिप्त –सा युवक,

मेरी दूसरी ओर वह चिन्तित स्त्री,

अपने बच्चेको छाती से चिपकाये

दोनों के बीच मैं कौन हूँ --

केवल एक आरक्षित जगह का दावेदार ?

वह स्त्री और वह बच्चा


क्यों नहीं दो मनुष्यों के बीच

एक पूर्णतः सुरक्षित संसार ?


क्यों यह निरन्तर आने जाने का क्रम

अनाश्वस्त करता -

और उस पूरी व्यवस्था को ध्वस्त

जिस हम किसी तरह

दो स्टेशनों के बीच मान लेते हैं ?

जो अनायास मिलता और छूट जाता

क्यों ऐसा

मानो कुछ बनता और टूट जाता ?


(आठ)


शायद मैं ऊँघ कर

लुढ़क गया था एक स्वप्न में -


एक प्राचीन शिलालेख के अधमिटे अक्षर

पढ़ते हुए चकित हूँ कि इतना सब समय

कैसे समा गया दो ही तारीख़ों के बीच

कैसे अट गया एक ही पट पर

एक जन्म

एक विवरण

एक मृत्यु

और वह एक उपदेश-से दिखते

अमूर्त अछोर आकाश का अटूट विस्तार

जिसमे न कहीं किसी तरफ़

ले जाते रास्ते

न कहीं किसी तरफ़ बुलाते संकेत,

केवल एक अदृश्य हाथ

अपने ही लिखे को कभी कहता स्वप्न

कभी कहता संसार......


अचानक वह ट्रेन जिसमें रखा हुआ था मैं

और खिलौने की तरह छोटी हो गई,

और एक बच्चे की हथेलियाँ इतनी बड़ी

कि उस पर रेल-रेल खेलने लगे फ़ासले

बना कर छोटे बड़े घर, पहाड़, मैदान, नदी, नाले .....

उसकी क़लाई में बंधी पृथ्वी

अकस्मात् बज उठी जैसे घुँघरू

रेल की सीटी .....


(नौ)


शायद उसी वक़्त मैंने

गिरते देका था ट्रेन से दो पांवों की

और चौंक कर उठ बैठा था ।

पैताने दो पांव-

क्यों हैं यहां ? क्या करूं इनका ?


सोच रात है अभी,

सुबह उतार लूँगा इन्हें

अपने सामान के साथ ।

सुबह हुई तो देखा

कन्धों पर ढो रहे थे मुझे

किसी और के पाँव ।


हफ़्ते.....महीने....साल....


बीत गए पल भर में,

“पिता ? तुम ? यहां ?”


“मुझे चाहिए मेरे पाँव,....वापस करो उन्हें ।”

“नहीं,वे मेरे हैं : मैं

उन पर आश्रित हूँ।

और मेरा परिवार :

मैं उन्हें नहीं दे सकता तुम्हें !”


वे हँसने लगे, एक बेजान असंगत हँसी ।

कभी कभी किसी विषम घड़ी में हम

जी डालते हैं एक पूरा जीवन - एक पूरी मृत्यु --

एक पूरा सन्देह कि कौन चल रहा है

किसके पाँवों पर ?


(दस)


नींद खुल गई थी

शायद किसी बच्चे के रोने से

या किसी माँ के परेशान होने से

या किसी के अपनी जगह से उठने से

या ट्रेन की गति के धीमी पड़ने से

या शायद उस हड़कम्प से जो

स्टेशन पास आने पर मचता है.....


बाहर अँधेरा ।

भीतर इतना सब

एक मामूली-सी रोशनी में भी जगमग

जागता और जगाता हुआ ।

एक छोटा–सा प्लेटफ़ॉर्म सरक कर पास आता

सुबह की रोशनी में,

डब्बे में चढ़ते उतरते लोगों का ताँता


कोई जगह ख़ाली करता

कोई जगह बनाता ।


(ग्यारह)


बाहर किसी घसीट लिखावट में

लिखे गए परिचित यात्रा-वृत्तान्त के

फरकराते दृश्यों को बिना पढ़े

पन्नों पर पन्ने उलटती चली जाती रफ़्तार :

विवरण कहीं कहीं रोचक

प्लॉट अव्यवस्थित, उथले विचार, उबाऊ विस्तार !


भीतर एक डब्बे में खचाखच भरा

एक टुकड़ा भारतीय समाज

मानो कहानियों, फिल्मों, कॉमिक्स, अख़बार आदि से

लेकर बनाये गये चरित्रों का कोलाज ।


(बारह)


यहाँ और वहाँ के बीच

कहीं किसी उजाड़ जगह

अनिश्चित काल के लिए

खड़ी हो गई है ट्रेन ।

दूर तक फैली ऊबड़खाबड़ पहाड़ियाँ,

जगह जगह टेसू और बबूल की झाड़ियाँ,

काँस औऱ जँगली घास के झाड़झंखाड़,

जहाँ तहाँ बरसाती पानी के तलाब .....

वह सब जो चल रहा था

अचानक अकारण अमय कहीं रुक गया है

आशंका और उतावली के किसी असह्य बिन्दु पर ।


कुछ हुआ है जो नहीं होना चाहिए था

जो अकसर होता रहता है जीवन में ।

कौन थे वे जो होकर भी नहीं होते ?

ऐसा क्यों हुआ ? वैसा क्यों नहीं हुआ

जैसा होना चाहिए था ?

सवालों के एक उफान के बाद

अलग अलग अनुमानों में निथर कर

बैठ गई हैं उत्सुकताएँ ।


फिर चल पड़ती है ट्रेन एक धक्के से

घसीटती हुई अपने साथ

उस शेष को भी जो घटित होगा

कुछ समय बाद

कहीं और

किसी अन्य यहाँ और वहाँ के बीच


(तेरह)


धीमी पड़ती चाल ।

अगले ठहराव पर

उतर जाना है मुझे ।

एक सिहरन-सी दौड़ जाती नसों में ।


पहली बार वहाँ जा रहा हूँ ।

हो सकता है कोई लेने आये, या कोई नहीं

केवल एक सपाट प्लटफॉर्म मिले,

बर्फीली ठंढक, अँधेरे और अनिश्चय का


घना कोहरा : इतनी रात गये

एक बिल्कुल नयी जगह से नयी तरह

संबंध बनाता हुआ एक अजनबी ।


एक ख़ामोश-सी तैयारी है मेरे आसपास

जैसे यह मेरा घर था

और अब मैं उसे छोड़कर कहीं और जा रहा हूँ ।


(चौदह)


कुछ लोग मुझे लेने आये हैं ।

मैं उन्हें नहीं जानता :

जैसे कुछ लोग मुझे छोड़ने आये थे

जिन्हें मैं जानता था ।


ट्रेन जा चुकी है

एक अस्थायी भागदौड़ और अव्यवस्था बाद

प्लेटफ़ॉर्म फिर एक सन्नाटे में जम गया है ।


(पन्द्रह)


आश्चर्य ! वह स्त्री और बच्चा भी

अकेले खड़े हैं उधर ।


क्या मैं कुछ कर सकता हूँ उनके लिए ?

स्त्री मुझे निरीह आँखों से देखती है -

“वो आते होंगे, मेरे लिए भी ......”


कुछ दूर चल कर

ठहर गया हूं –

उसके लिए ?

या अपने लिए ?

देखता हूं उसकी आंखों में

जो घिर आई थी एक दुश्चिन्ता-सी

एक सरल कृतज्ञता में बदल जाती ।