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− | '''पद 271 से 280 तक'''
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− | (276)
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− | कहा न कियो, कहाँ ल गयो, सीस कहि न नायो?
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− | राम रावरे बिन भये जन जनमि-जनमि जग दुख दसहू दिसि पायो।1।
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− | आस -बिबस खास दाा ह्वै नीच प्रभुनि जनायो।
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− | हाहा करि दीनता कही द्वार -द्वार बार-बार, परी न छार, मुख बायो।2।
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− | असन-बसन बिनु बावरो जहँ-तहँ उठि धायो।
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− | महिमा मान प्रिय प्रानते तजि खोलि खलनि आगे, खिनु-खिनु पेट खलायो।
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− | नाथ! हाथ कछु नाहि लग्यो, लालच ललचायो।
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− | साँच कहौं, नाच कौन सो जो, न मोहि लोभ लघु हौं निरलज्ज नचाायो।4।
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− | श्रवण-नयन-मृग मन लगे, सब थल पतितायो।
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− | मूड़ मारि, हिय हारिकै, हित हेरि हहरि अब चरन-सरन तकि आयो।5।
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− | दसरथके! समरथ तुहीं, त्रिभुवन जसु गायो।
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− | तुलसी नमत अवलोकिये, बाँह-बोल बलि दै बिरूदावली बुलायो।6।
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− | (277)
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− | श्राम राम राय! बिनु रावरे मेरे केा हितु साँचो?
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− | स्वामी-सहित सबसों कहौं, सुनि-गुनि बिसेषि कोउ रेख दूसरी खाँचो।1।
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− | देह-जीव-जोगके सखा मृषा टाँचन टाँचो।
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− | किये बिचार सार कदलि ज्यों, मनि कनकसंग लघु लसत बीच बिचा काँचो।
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− | ‘बिनय-पत्रिका’ दीनकी बापु! टापु ही बाँचो।
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− | हिये हेरि तुलसी लिखी, सेा सुभाय सही कहि बहुरि पूँछिये पाँचों।3।
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− | (278)
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− | पनव-सुवन! रिपु-दवन! भरतलाल! लखन! दीनकी।
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− | निज निज अवसर सुधि किये, बलि जाउँ, दास-आस पूजि है खासखीनकी।1।
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− | राज-द्वार भली सब कहै साधु-समीचीनकी।
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− | सुकृत-सुजस, साहिब-कृपा, स्वारथ-परमारथ, गति भये गति-बिहीनकी।2।
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− | समय सँभारि सुधारिबी तुुलसी मलीनकी।
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− | प्रीति-रीति समुझाइबी रतपाल कृपालुहि परमिति पराधीनकी।3।
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− | (279)
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− | मारूति-मन, रूचि भरतकी लखि लषन कही है।
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− | कलिकालहु नाथ! नम सों परतीत प्रीति एक किंकरकी निबही है।1।
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− | सकल सभा सुति लै उठी, जानी रीति रही है।
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− | कृपा गरीब निवाजकी, देखत गरीबको साहब बाँह गही है।2।
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− | बिहंसि राम कह्यो ‘सत्य है, सुधि मैं हूँ लही है’।
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− | मुदित माथ नावत, बनी तुलसी अनाथकी,
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− | परी रधुनाथ/(रघुनाथ हाथ) सही है।3।
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