भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"वृन्द के दोहे / भाग २" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
छो
 
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
[[नीति के दोहे / वृन्द]] <br>
+
{{KKGlobal}}
 +
{{KKRachna
 +
|रचनाकार=वृन्द
 +
}}
 +
[[Category:दोहे]]
  
 +
'''नीति के दोहे''' <br>
  
{{KKGlobal}}<br>
+
[[वृन्द के दोहे / भाग १]]<br><br>
  
 +
जैसो गुन दीनों दई, तैसो रूप निबन्ध ।<br>
 +
ये दोनों कहँ पाइये, सोनों और सुगन्ध  ॥ 11<br>
  
[[वृन्द]] <br>
+
अपनी-अपनी गरज सब, बोलत करत निहोर ।<br>
 +
बिन गरजै बोले नहीं, गिरवर हू को मोर ॥ 12<br><br>
  
 +
जैसे बंधन प्रेम कौ, तैसो बन्ध न और ।<br>
 +
काठहिं भेदै कमल को, छेद न निकलै भौंर ॥ 13<br><br>
  
[[दोहे]] <br>
+
स्वारथ के सबहिं सगे,बिन स्वारथ कोउ नाहिं ।<br>
 +
सेवै पंछी सरस तरु, निरस भए उड़ि जाहिं ॥ 14<br><br>
  
 +
मूढ़ तहाँ ही मानिये, जहाँ न पंडित  होय ।<br>
 +
दीपक को रवि के उदै, बात न पूछै कोय ॥ 15<br><br>
  
[[वृन्द]] <br>
 
  
 +
बिन स्वारथ कैसे  सहे, कोऊ करुवे बैन ।<br>
 +
लात खाय पुचकारिये, होय दुधारू धैन ॥ 16<br><br>
  
~*~*~*~*~*~*~*~~*~*~*~*~*~*~*~
 
  
{{KKGlobal}}<br>
+
होय बुराई तें बुरो, यह कीनों करतार ।<br>
 +
खाड़ खनैगो और को, ताको कूप तयार ॥ 17<br><br>
  
जैसो गुन दीनों दई ,तैसो रूप निबन्ध ।<br>
 
  
ये दोनों कहँ पाइये ,सोनों और सुगन्ध  11<br>
+
जाको जहाँ स्वारथ सधै, सोई ताहि सुहात ।<br>
 +
चोर न प्यारी चाँदनी, जैसे कारी रात 18<br><br>
  
  
अपनी-अपनी गरज सब , बोलत करत निहोर ।<br>
+
अति सरल न हूजियो, देखो  ज्यौं बनराय <br>
 +
सीधे-सीधे छेदिये, बाँको तरु बच जाय ॥ 19<br><br>
  
बिन गरजै बोले नहीं ,गिरवर हू को मोर ॥12<br>
 
  
 
+
कन –कन जोरै मन जुरै, काढ़ै निबरै सोय ।<br>
जैसे बंधन प्रेम कौ ,तैसो बन्ध न और ।<br>
+
बूँद –बूँद ज्यों घट भरै, टपकत रीतै तोय ॥ 20<br><br>
 
+
काठहिं भेदै कमल को ,छेद न निकलै भौंर ॥13<br>
+
 
+
 
+
स्वारथ के सबहिं सगे  ,बिन स्वारथ कोउ नाहिं ।<br>
+
 
+
सेवै पंछी सरस तरु  , निरस भए उड़ि जाहिं ॥ 14<br>
+
 
+
 
+
मूढ़ तहाँ ही मानिये ,जहाँ न पंडित  होय ।<br>
+
 
+
दीपक को रवि के उदै , बात न पूछै कोय ॥ 15<br>
+
 
+
 
+
बिन स्वारथ कैसे  सहे , कोऊ करुवे बैन ।<br>
+
 
+
लात खाय पुचकारिये ,होय दुधारू धैन ॥16<br>
+
 
+
 
+
होय बुराई तें बुरो , यह कीनों करतार ।<br>
+
 
+
खाड़ खनैगो और को , ताको कूप तयार ॥17<br>
+
 
+
 
+
जाको जहाँ स्वारथ सधै ,सोई ताहि सुहात ।<br>
+
 
+
चोर न प्यारी चाँदनी  ,जैसे कारी रात ॥18<br>
+
 
+
 
+
अति सरल न हूजियो  ,देखो  ज्यौं बनराय ।<br>
+
 
+
सीधे-सीधे छेदिये , बाँको तरु बच जाय ॥19<br>
+
 
+
 
+
कन –कन जोरै मन जुरै ,काढ़ै निबरै सोय ।<br>
+
 
+
बूँद –बूँद ज्यों घट भरै ,टपकत रीतै तोय ॥ 20<br>
+

20:37, 18 जून 2007 के समय का अवतरण

नीति के दोहे

वृन्द के दोहे / भाग १

जैसो गुन दीनों दई, तैसो रूप निबन्ध ।
ये दोनों कहँ पाइये, सोनों और सुगन्ध ॥ 11

अपनी-अपनी गरज सब, बोलत करत निहोर ।
बिन गरजै बोले नहीं, गिरवर हू को मोर ॥ 12

जैसे बंधन प्रेम कौ, तैसो बन्ध न और ।
काठहिं भेदै कमल को, छेद न निकलै भौंर ॥ 13

स्वारथ के सबहिं सगे,बिन स्वारथ कोउ नाहिं ।
सेवै पंछी सरस तरु, निरस भए उड़ि जाहिं ॥ 14

मूढ़ तहाँ ही मानिये, जहाँ न पंडित होय ।
दीपक को रवि के उदै, बात न पूछै कोय ॥ 15


बिन स्वारथ कैसे सहे, कोऊ करुवे बैन ।
लात खाय पुचकारिये, होय दुधारू धैन ॥ 16


होय बुराई तें बुरो, यह कीनों करतार ।
खाड़ खनैगो और को, ताको कूप तयार ॥ 17


जाको जहाँ स्वारथ सधै, सोई ताहि सुहात ।
चोर न प्यारी चाँदनी, जैसे कारी रात ॥ 18


अति सरल न हूजियो, देखो ज्यौं बनराय ।
सीधे-सीधे छेदिये, बाँको तरु बच जाय ॥ 19


कन –कन जोरै मन जुरै, काढ़ै निबरै सोय ।
बूँद –बूँद ज्यों घट भरै, टपकत रीतै तोय ॥ 20