"पटकथा / पृष्ठ 8 / धूमिल" के अवतरणों में अंतर
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− | भूख और भूख की आड़ में | + | भूख और भूख की आड़ में |
− | चबायी गयी चीजों का अक्स | + | चबायी गयी चीजों का अक्स |
− | उनके दाँतों पर ढूँढना | + | उनके दाँतों पर ढूँढना |
− | बेकार है। समाजवाद | + | बेकार है। |
− | उनकी जुबान पर अपनी सुरक्षा का | + | समाजवाद |
− | एक आधुनिक मुहावरा है। | + | उनकी जुबान पर अपनी सुरक्षा का |
− | मगर मैं जानता हूँ कि मेरे देश का समाजवाद | + | एक आधुनिक मुहावरा है। |
− | मालगोदाम में लटकती हुई | + | मगर मैं जानता हूँ कि मेरे देश का समाजवाद |
− | उन बाल्टियों की तरह है जिस पर ‘आग’ लिखा है | + | मालगोदाम में लटकती हुई |
− | और उनमें बालू और पानी भरा है। | + | उन बाल्टियों की तरह है जिस पर ‘आग’ लिखा है |
− | यहाँ जनता एक गाड़ी है | + | और उनमें बालू और पानी भरा है। |
− | एक ही संविधान के नीचे | + | यहाँ जनता एक गाड़ी है |
− | भूख से रिरियाती हुई फैली हथेली का नाम | + | एक ही संविधान के नीचे |
− | ‘दया’ है | + | भूख से रिरियाती हुई फैली हथेली का नाम |
− | और भूख में | + | ‘दया’ है |
− | तनी हुई मुट्ठी का नाम नक्सलबाड़ी है। | + | और भूख में |
− | मुझसे कहा गया कि संसद | + | तनी हुई मुट्ठी का नाम नक्सलबाड़ी है। |
− | देश की धड़कन को | + | मुझसे कहा गया कि संसद |
− | प्रतिबिंबित करने वाला दर्पण है | + | देश की धड़कन को |
− | जनता को | + | प्रतिबिंबित करने वाला दर्पण है |
− | जनता के विचारों का | + | जनता को |
− | नैतिक समर्पण है | + | जनता के विचारों का |
− | लेकिन क्या यह सच है? | + | नैतिक समर्पण है |
− | या यह सच है कि | + | लेकिन क्या यह सच है? |
− | अपने यहां संसद - | + | या यह सच है कि |
− | तेली की वह घानी है | + | अपने यहां संसद - |
− | जिसमें आधा तेल है | + | तेली की वह घानी है |
− | और आधा पानी है | + | जिसमें आधा तेल है |
− | और यदि यह सच नहीं है | + | और आधा पानी है |
− | तो यहाँ एक ईमानदार आदमी को | + | और यदि यह सच नहीं है |
− | अपनी ईमानदारी का मलाल क्यों है? | + | तो यहाँ एक ईमानदार आदमी को |
− | जिसने सत्य कह दिया है | + | अपनी ईमानदारी का मलाल क्यों है? |
− | उसका बुरा हाल क्यों है? | + | जिसने सत्य कह दिया है |
− | मैं अक्सर अपने-आपसे सवाल | + | उसका बुरा हाल क्यों है? |
− | करता हूँ जिसका मेरे पास | + | मैं अक्सर अपने-आपसे सवाल |
− | कोई उत्तर नहीं है | + | करता हूँ जिसका मेरे पास |
− | और आज तक – | + | कोई उत्तर नहीं है |
− | नींद और नींद के बीच का जंगल काटते हुये | + | और आज तक – |
− | मैंने कई रातें जागकर गुजार दी हैं | + | नींद और नींद के बीच का जंगल काटते हुये |
− | हफ्ते पर हफ्ते तह किये हैं। ऊब के | + | मैंने कई रातें जागकर गुजार दी हैं |
− | निर्मम अकेले और बेहद अनमने क्षण | + | हफ्ते पर हफ्ते तह किये हैं। |
− | जिये हैं। | + | ऊब के |
− | मेरे सामने वही चिरपरिचित अन्धकार है | + | निर्मम अकेले और बेहद अनमने क्षण |
− | संशय की अनिश्चयग्रस्त ठण्डी मुद्रायें हैं | + | जिये हैं। |
− | हर तरफ शब्दभेदी सन्नाटा है। | + | मेरे सामने वही चिरपरिचित अन्धकार है |
− | दरिद्र की व्यथा की तरह | + | संशय की अनिश्चयग्रस्त ठण्डी मुद्रायें हैं |
− | उचाट और कूँथता हुआ। घृणा में | + | हर तरफ शब्दभेदी सन्नाटा है। |
− | डूबा हुआ सारा का सारा देश | + | दरिद्र की व्यथा की तरह |
− | पहले की तरह आज भी | + | उचाट और कूँथता हुआ। |
− | मेरा कारागार है। | + | घृणा में |
+ | डूबा हुआ सारा का सारा देश | ||
+ | पहले की तरह आज भी | ||
+ | मेरा कारागार है।</poem> |
21:43, 18 फ़रवरी 2022 का अवतरण
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भूख और भूख की आड़ में
चबायी गयी चीजों का अक्स
उनके दाँतों पर ढूँढना
बेकार है।
समाजवाद
उनकी जुबान पर अपनी सुरक्षा का
एक आधुनिक मुहावरा है।
मगर मैं जानता हूँ कि मेरे देश का समाजवाद
मालगोदाम में लटकती हुई
उन बाल्टियों की तरह है जिस पर ‘आग’ लिखा है
और उनमें बालू और पानी भरा है।
यहाँ जनता एक गाड़ी है
एक ही संविधान के नीचे
भूख से रिरियाती हुई फैली हथेली का नाम
‘दया’ है
और भूख में
तनी हुई मुट्ठी का नाम नक्सलबाड़ी है।
मुझसे कहा गया कि संसद
देश की धड़कन को
प्रतिबिंबित करने वाला दर्पण है
जनता को
जनता के विचारों का
नैतिक समर्पण है
लेकिन क्या यह सच है?
या यह सच है कि
अपने यहां संसद -
तेली की वह घानी है
जिसमें आधा तेल है
और आधा पानी है
और यदि यह सच नहीं है
तो यहाँ एक ईमानदार आदमी को
अपनी ईमानदारी का मलाल क्यों है?
जिसने सत्य कह दिया है
उसका बुरा हाल क्यों है?
मैं अक्सर अपने-आपसे सवाल
करता हूँ जिसका मेरे पास
कोई उत्तर नहीं है
और आज तक –
नींद और नींद के बीच का जंगल काटते हुये
मैंने कई रातें जागकर गुजार दी हैं
हफ्ते पर हफ्ते तह किये हैं।
ऊब के
निर्मम अकेले और बेहद अनमने क्षण
जिये हैं।
मेरे सामने वही चिरपरिचित अन्धकार है
संशय की अनिश्चयग्रस्त ठण्डी मुद्रायें हैं
हर तरफ शब्दभेदी सन्नाटा है।
दरिद्र की व्यथा की तरह
उचाट और कूँथता हुआ।
घृणा में
डूबा हुआ सारा का सारा देश
पहले की तरह आज भी
मेरा कारागार है।