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"काठ की हांडी / त्रिलोचन" के अवतरणों में अंतर
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चढ़ती नहीं दुबारा कभी काठ की हांडी | चढ़ती नहीं दुबारा कभी काठ की हांडी |
19:19, 5 जनवरी 2008 के समय का अवतरण
चढ़ती नहीं दुबारा कभी काठ की हांडी
एक बार में उसका सब-कुछ हो जाता है,
चमक बढ़ाती और कड़ा रखती है मांडी
कपड़े में जब पानी उसको धो जाता है
तब असलियत दिखाई देती है, अधिया की
खेती और पुआर की अगिन आँखों को ही
भरमाती है, धोखाधड़ी, अनर्थ-क्रिया की
होती हैं पचास पर्तें । मैं इसका मोही
कभी नहीं था, यहाँ आदमी हरदम नंगा
दिखलाई देता है, चोरी-सीनाज़ोरी
साथ-साथ मिलती है, निष्कलंकता गंगा
उठा-उठा कर दिखलाती जिह्वा झकझोरी
आस्था जीवन में विश्वास बढ़ाता है जो
वही बटाई में जाता है खंड-खंड हो ।