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"मंत्र 6-10 / ईशावास्य उपनिषद / मृदुल कीर्ति" के अवतरणों में अंतर

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:::यस्मिन्सर्वाणि भूतानि आत्मैवाभूद विजानतः।<br>
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यस्मिन्सर्वाणि भूतानि आत्मैवाभूद विजानतः।<br>
:::तत्र को मोहः कः शोकः एकत्वमनुपश्यतः ॥७॥<br>
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तत्र को मोहः कः शोकः एकत्वमनुपश्यतः ॥७॥<br>
 
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:::सर्वत्र  भगवत  दृष्टि  अथ  जब प्राणी  को प्राप्तव्य  हो,<br>
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सर्वत्र  भगवत  दृष्टि  अथ  जब प्राणी  को प्राप्तव्य  हो,<br>
:::प्रति  प्राणी  में  एक मात्र,  श्री  परमात्मा  ज्ञातव्य  हो।<br>
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प्रति  प्राणी  में  एक मात्र,  श्री  परमात्मा  ज्ञातव्य  हो।<br>
:::फिर  शोक  मोह  विकार  मन  के  शेष  उसके  विशेष  हों,<br>
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फिर  शोक  मोह  विकार  मन  के  शेष  उसके  विशेष  हों,<br>
:::एकमेव  हो  उसे  ब्रह्म  दर्शन,  शेष    दृश्य  निःशेष  हों॥ [७] <br><br>
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एकमेव  हो  उसे  ब्रह्म  दर्शन,  शेष    दृश्य  निःशेष  हों॥ [७] <br><br>
 
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:::अन्धं तमः प्रविशन्ति ये विद्यामुपासते।<br>
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अन्धं तमः प्रविशन्ति ये विद्यामुपासते।<br>
:::ततो भूय इव ते तमो य उ विद्याया रताः ॥९॥<br>
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ततो भूय इव ते तमो य उ विद्याया रताः ॥९॥<br>
 
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:::अभ्यर्थना  करते  अविद्या की, जो वे  घन      तिमिर  में,<br>
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अभ्यर्थना  करते  अविद्या की, जो वे  घन      तिमिर  में,<br>
:::अज्ञान में  हैं  प्रवेश  करते, भटकते  तम  अजिर      में।<br>
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अज्ञान में  हैं  प्रवेश  करते, भटकते  तम  अजिर      में।<br>
:::और  वे  तो जो कि ज्ञान  के, मिथ्याभिमान  में  मत्त  हैं,<br>
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और  वे  तो जो कि ज्ञान  के, मिथ्याभिमान  में  मत्त  हैं,<br>
:::हैं  निम्न  उनसे जो अविद्या, मद  के  तम      उन्मत्त  हैं॥ [९]<br><br>
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हैं  निम्न  उनसे जो अविद्या, मद  के  तम      उन्मत्त  हैं॥ [९]<br><br>
 
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18:20, 5 दिसम्बर 2008 के समय का अवतरण

यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मनेवानुपश्यति।
सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजुगुप्सते ॥६॥

प्रतिबिम्ब जो परमात्मा का प्राणियों में कर सके,
फिर वह घृणा संसार में कैसे किसी से कर सके।
सर्वत्र दर्शन परम प्रभु का, फिर सहज संभाव्य है,
अथ स्नेह पथ से परम प्रभु, प्रति प्राणी में प्राप्तव्य है॥ [६]

यस्मिन्सर्वाणि भूतानि आत्मैवाभूद विजानतः।
तत्र को मोहः कः शोकः एकत्वमनुपश्यतः ॥७॥

सर्वत्र भगवत दृष्टि अथ जब प्राणी को प्राप्तव्य हो,
प्रति प्राणी में एक मात्र, श्री परमात्मा ज्ञातव्य हो।
फिर शोक मोह विकार मन के शेष उसके विशेष हों,
एकमेव हो उसे ब्रह्म दर्शन, शेष दृश्य निःशेष हों॥ [७]

स पर्यगाच्छक्रमकायव्रणम स्नाविर शुद्धमपापविद्धम।
कविर्मनीषी परिभुः स्वयंभूर्याथातत्थ्यतो र्थान व्यदधाच्छाश्वतीभ्यहः समाभ्यः ॥८॥

प्रभु पाच्भौतिक, सूक्ष्म, देह विहीन शुद्ध प्रवीण है,
सर्वज्ञ सर्वोपरि स्वयं भू, सर्व दोष विहीन है।
वही कर्म फल दाता विभाजक, द्रव्य रचनाकार है,
उसको सुलभ, जिसे ब्रह्म प्रति प्रति प्राणी में साकार है॥ [८]

अन्धं तमः प्रविशन्ति ये विद्यामुपासते।
ततो भूय इव ते तमो य उ विद्याया रताः ॥९॥

अभ्यर्थना करते अविद्या की, जो वे घन तिमिर में,
अज्ञान में हैं प्रवेश करते, भटकते तम अजिर में।
और वे तो जो कि ज्ञान के, मिथ्याभिमान में मत्त हैं,
हैं निम्न उनसे जो अविद्या, मद के तम उन्मत्त हैं॥ [९]

अन्यदेवाहुर्विद्यया न्यदेवाहुर्विद्यया।
इति शुश्रुम धीराणां ये नस्तद्विचचक्षिरे ॥१०॥

क्षय क्षणिक, क्षण, क्षय माण, क्षण भंगुर जगत से विरक्ति हो,
यही ज्ञान का है यथार्थ रूप कि, ब्रह्म से बस भक्ति हो।
कर्तव्य कर्म प्रधान, पहल की भावना, निःशेष हो,
यही धीर पुरुषों के वचन, यही कर्म रूप विशेष हो॥ [१०]