"सुबह के पक्ष में / योगेंद्र कृष्णा" के अवतरणों में अंतर
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) |
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हमारे इस शहर में | हमारे इस शहर में | ||
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जबतक कि मैं | जबतक कि मैं | ||
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तिनके-तिनके सहेजी अनगढ़ एक दुनिया | तिनके-तिनके सहेजी अनगढ़ एक दुनिया | ||
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जबतक कि | जबतक कि | ||
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एक फूल से दूसरे फूल तक | एक फूल से दूसरे फूल तक | ||
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घिसट रही होती है | घिसट रही होती है | ||
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एक और सुबह की तलाश में | एक और सुबह की तलाश में | ||
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और जबतक कि मैं | और जबतक कि मैं | ||
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रिस-रिस कर बह जाता है शब्दों से पानी | रिस-रिस कर बह जाता है शब्दों से पानी | ||
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और सुबह तक | और सुबह तक | ||
सूखे पत्तों की तरह बजते हैं शब्द | सूखे पत्तों की तरह बजते हैं शब्द |
14:53, 9 जून 2008 के समय का अवतरण
जबतक कि मैं
एक सांस लेकर
दूसरी छोड़ रहा होता हूं
ठीक इसी अंतराल में
हो चुके होते हैं कई-कई हादसे
हमारे इस शहर में
जबतक कि मैं
सुबह की चाय के साथ
ले रहा होता हूं
राहत की एक लंबी सांस
अपहृत हो चुका होता है
पूरा का पूरा एक लोकतंत्र
ठीक मेरे पड़ोस में...
अपनी जड़ों से बेदखल हो चुकी होती है
तिनके-तिनके सहेजी अनगढ़ एक दुनिया
जबतक कि
शाही बाग का वह अदना-सा माली
तपती गर्मियों में छिड़कता है पानी
एक फूल से दूसरे फूल तक
घिसट रही होती है
उसकी अपनी दुनिया
एक अंधे कुएं से
दूसरे कुएं तक
सिर पर गागर और
गोद में बच्चा उठाए
कई कई बेचैन रतजगों के बाद
एक और सुबह की तलाश में
और जबतक कि मैं
उनकी दुनिया में
पानीदार सुबह की संभावनाओं
के पक्ष में रचता हूं
अपनी ही दुनिया के विरुद्ध
अपनी कविता का अंतिम कोई बयान
रिस-रिस कर बह जाता है शब्दों से पानी
और सुबह तक
सूखे पत्तों की तरह बजते हैं शब्द