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"अस्वीकार / तरुण" के अवतरणों में अंतर

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अभिमन्यु को तो मैं तब कहता अभिमन्यु-
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जीवन है स्वीकार न मुझको सीधी खिंची लकीर-सा,
जब तोड़ सकता होता, भेद सकता होता यदि वह, एक परम भयावह-
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चाहे वह झंकार भरा नूतन सितार का तार हो!
जालों, तारों, काँटों का जटिल ग्रन्थिल चक्रव्यूह-
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गोलाकार क्षितिज रेखा सा भी जीवन लूँगा नहीं-
अभियन्ता जिसका-इंटैलिजैंट उच्चकुर्सीधर समूह!
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चाहे वह वन वल्लरियों-सा सुन्दर घूंघरदार हो!
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जीवन लूँगा मैं तो आँधी, नद्दी या तूफ़ान-सा,
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जिसमें तड़पन हो, ज्वाला हो, गुंजन, मेघ-मलार हो!
  
प्रतिष्ठित है सम्भ्रान्त, व्हाइट कॉलर! मुखौटेदार चेहरे, कितने
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1956
कुतुब की लाट से कई मंजिले, तने।
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गर्दनें! अकड़ से फूली एअरकंडीशनी अफसरशाही,
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गुटरगूँ करते कबूतरों की-सी, धूपछाँही।
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सैट आँखों में चश्माभेदी दृष्टियाँ,
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अण्डाकार खोपड़ियों में करतीं साजिश की सृष्टियाँ!
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बगुलों की पाँखों से सफ़ेदपोश, अपनी महिमा में दीन!
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अजगरी बैठकें साधे, बहुरूपिये, पेटू, उच्चपदासीन!
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हावड़ा के पुल से, पानी में भीगे जूट के-से,.........जाल-
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फैले हैं जिनके मस्तिष्कों में विशाल!
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मुक्त करे भोले व्यक्ति को, मुक्त करे जो पीड़ित समाज,
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तोड़े, भेदे आज के चक्रव्यूह को जाँ-बाज-
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मैं तो उसी को कहूँगा ताजा अभिमन्यु आज!
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13:34, 20 मार्च 2017 के समय का अवतरण

जीवन है स्वीकार न मुझको सीधी खिंची लकीर-सा,
चाहे वह झंकार भरा नूतन सितार का तार हो!
गोलाकार क्षितिज रेखा सा भी जीवन लूँगा नहीं-
चाहे वह वन वल्लरियों-सा सुन्दर घूंघरदार हो!
जीवन लूँगा मैं तो आँधी, नद्दी या तूफ़ान-सा,
जिसमें तड़पन हो, ज्वाला हो, गुंजन, मेघ-मलार हो!

1956