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"मुजरा देख रहे हैं / यतींद्रनाथ राही" के अवतरणों में अंतर

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कंठ सूखा है धरा का
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सूरदास जी
एक सावन चाहिए
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बैठ झरोखे
 +
मुजरा देख रहे हैं
  
शयनकक्षों में तुम्हारे
+
किसकी खाट खड़ी चौराहे
हैं अँधेरे
+
बरसे किस पर डन्डे
क्या हुआ?
+
मन्दिर में भगवान सो रहे
आँख, खिड़की की लगी है
+
भोगा लिप्त हैं पन्डे
कान हैं दीवार के
+
कौन ले गया भर जेबों में
आइने तुमको नहीं स्वीकार
+
सड़कें-ताल-पोखरे
मत देखों इन्हें
+
नंगे नाच रहे हैं किसके
जानते हालात हम
+
ये बिगड़ैल छोकरे
इस पार से उस पार के
+
काले मुँह
टोपियाँ कोई पहन लो
+
बिक गए थोक में
नाम
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खुदरा देख रहे हैं
कोई ओढ़ लो
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दंश धर रहे हैं छाती पर
सिर्फ हमको आदमी का
+
पाले थे जो विषधर
पाक दामन चाहिये।
+
रोज़ नयी दीवार खड़ी है
 +
गाज गिरी है घर पर
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कहीं धुआँ है
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कहीं आग है
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विश में बुझी हवाएँ
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आगे-पीछे हर नुक्कड़ पर
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धमकाती शंकाएँ
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पावन संस्कृतियों का बखिया
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उधड़ा देख रहे हैं।
  
इन जुबानों की
+
उधर पड़ोसी की गुर्राहट
लगामें
+
इधर शांति-पारायण
थाम लो तो ठीक है
+
खुली हवा के लिये
लोग कहने लग गए हैं
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तरसते हैं
आदमी बदज़ात है
+
घुटते वातायन
फेक दोगे तुम किसे?
+
दुष्ट-दलन कर मानवता के
इन मछलियों को
+
रक्शण की मर्यादा
ताल को ?
+
धरी अधर पर कभी बाँसुरी
कीच में ही यदि खिलाओ तुम कमल
+
कभी चक्र भी साधा
तो बात है।
+
शान्त सिन्धु में
कर्म इसके और उसके
+
आज ज्वार फिर
कौन परखेगा यहां
+
उभरा देख रहे हैं।
न्याय अन्धा
+
सत्य का चेहरा
+
सनातन चाहिये।
+
 
+
आदतें ही कुछ बुरी हैं
+
बाँसुरी सुनते रहे
+
ज़िन्दगी भर प्यार के ही
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गीत गाए हैं
+
दायरों में बँध कभी
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जीना नहीं सीखा
+
हौंसलों ने पर्वतों के
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सिर झुकाए हैं
+
खींच कर हम गगन भी
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धर दें तुम्हारी गोद में
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गाँव का घर
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नेह-लीपा
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एक आँगन चाहिये!
+
 
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15:38, 12 अक्टूबर 2017 के समय का अवतरण

सूरदास जी
बैठ झरोखे
मुजरा देख रहे हैं

किसकी खाट खड़ी चौराहे
बरसे किस पर डन्डे
मन्दिर में भगवान सो रहे
भोगा लिप्त हैं पन्डे
कौन ले गया भर जेबों में
सड़कें-ताल-पोखरे
नंगे नाच रहे हैं किसके
ये बिगड़ैल छोकरे
काले मुँह
बिक गए थोक में
 खुदरा देख रहे हैं
दंश धर रहे हैं छाती पर
पाले थे जो विषधर
रोज़ नयी दीवार खड़ी है
गाज गिरी है घर पर
कहीं धुआँ है
कहीं आग है
विश में बुझी हवाएँ
आगे-पीछे हर नुक्कड़ पर
धमकाती शंकाएँ
पावन संस्कृतियों का बखिया
उधड़ा देख रहे हैं।

उधर पड़ोसी की गुर्राहट
इधर शांति-पारायण
खुली हवा के लिये
तरसते हैं
घुटते वातायन
दुष्ट-दलन कर मानवता के
रक्शण की मर्यादा
धरी अधर पर कभी बाँसुरी
कभी चक्र भी साधा
शान्त सिन्धु में
आज ज्वार फिर
उभरा देख रहे हैं।