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दो चुटिया बाँधे
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साधने की कला–कौशल है
उस अल्हड़ लड़की ने
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ज़िन्दगी की वृताकार वाले में!
अभी-अभी तो
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यह तनी हुई रस्सी पर  
जमीं पर पाँव रखा ही था
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संतुलन बखूबी जानती है  
दुनिया अभी गोल होने की प्रक्रिया में थी
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वह लड़की!
और / पृथ्वी चपटी होती जा रही थी...
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जब वह नपे तुले क़दमों से
उसकी नजरें अभी
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डगमगाती है
पृथ्वी के उन अवांछित फलों पर,
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उस राह पर
ठीक से टिकी भी नहीं थी
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जो टिकी होती है  
जिसे चख लेने पर
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दो बांस के सहारे...
भंग हो जाती है सारी नैतिकताएँ!
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करतब दिखती वह लड़की
ठीक उसी वक़्त
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बाज़ार का वह हिस्सा
उसकी नज़रें
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बन कर रह जाती है
तीर से भी आक्रामक
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जहाँ सपने खरीदे और बेचे जाते हैं
उस क्रांतिकारी नज़र से
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वह चंद सिक्कों में ही
ऐसे विंध गयी
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समेट लेती है  
की उसे वह फल खाना
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अपने हिस्से का बाज़ार...</poem>
याद ही न रहा
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जिसे खाने के लिए वह  
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उतरी थी ज़मीं पर...
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भगत सिंह तो उसी दिन शहीद हो गए थे
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जिस दिन उनकी नजरें
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इस माशूका से मिली थी!
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प्रेम की कोंपलें फूटने से पहले ही
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उन्हें दफना देना
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हमारे देश की प्रथा रही है  
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उन दोनों को भी
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यह रस्म अदायगी करनी पड़ी...
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भगत सिंह जेल के सीखचों से
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निहारते रहे अपनी माशूका का चेहरा
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और वह अल्हड़ लडकी
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पथ्थरों को फेंक–फेंक कर  
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गिनती रही
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उन बेहिस वक़्त की रवायतों को...
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वह आजीवन कुंवारी मासूमा
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जिसका कौमार्य कभी भंग नहीं हुआ
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आज भी कूकती है  
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अमिया के बागों में
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और / भगत सिंह वहीँ उसकी डालों पर
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झूल रहे हैं
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फांसी का फंदा बनाकर...
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कुछ कहानियाँ कभी ख़तम नहीं होती
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और / कुछ प्रेम कवितायें लिखी नहीं दुहराई जाती हैं...
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11:39, 6 मार्च 2018 के समय का अवतरण

साधने की कला–कौशल है
ज़िन्दगी की वृताकार वाले में!
यह तनी हुई रस्सी पर
संतुलन बखूबी जानती है
वह लड़की!
जब वह नपे तुले क़दमों से
डगमगाती है
उस राह पर
जो टिकी होती है
दो बांस के सहारे...
करतब दिखती वह लड़की
बाज़ार का वह हिस्सा
बन कर रह जाती है
जहाँ सपने खरीदे और बेचे जाते हैं
वह चंद सिक्कों में ही
समेट लेती है
अपने हिस्से का बाज़ार...