भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"मंजिल / विश्वनाथप्रसाद तिवारी" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विश्वनाथप्रसाद तिवारी |संग्रह= }}सूरज डूब रहा ह...)
 
पंक्ति 3: पंक्ति 3:
 
|रचनाकार=विश्वनाथप्रसाद तिवारी  
 
|रचनाकार=विश्वनाथप्रसाद तिवारी  
 
|संग्रह=
 
|संग्रह=
}}सूरज डूब रहा है
+
}}
 
+
<poem>
 +
सूरज डूब रहा है
 
और अँधेरा घिरने वाला है  
 
और अँधेरा घिरने वाला है  
 
 
  
 
मेरे आगे जो रास्ता है  
 
मेरे आगे जो रास्ता है  
 
 
काँटे बिखरे हैं उस पर  
 
काँटे बिखरे हैं उस पर  
 
 
क्या करूँ मैं ?  
 
क्या करूँ मैं ?  
 
 
  
 
बचा कर निकल जाऊँ इन्हें, बगल से  
 
बचा कर निकल जाऊँ इन्हें, बगल से  
 
 
या चला जाऊँ छलाँग, इनके पार  
 
या चला जाऊँ छलाँग, इनके पार  
 
 
क्या करूँ मैं ?  
 
क्या करूँ मैं ?  
 
 
  
 
शायद आख़िरी यात्री हूँ  
 
शायद आख़िरी यात्री हूँ  
 
 
आज की साँझ  
 
आज की साँझ  
 
 
संभव है कोई आ रहा हो  
 
संभव है कोई आ रहा हो  
 
 
मेरे भी बाद  
 
मेरे भी बाद  
 
 
उसे दिखेंगे नहीं अँधेरे में, ये काँटे  
 
उसे दिखेंगे नहीं अँधेरे में, ये काँटे  
 
 
क्या करूँ मैं ?  
 
क्या करूँ मैं ?  
 
 
  
 
रुक जाऊँ काँटो के पहले  
 
रुक जाऊँ काँटो के पहले  
 
 
सचेत करने के लिए आने वालों को  
 
सचेत करने के लिए आने वालों को  
 
 
या चुन कर हटा दूँ राह से इन्हें  
 
या चुन कर हटा दूँ राह से इन्हें  
 
 
क्या करूँ मैं ?  
 
क्या करूँ मैं ?  
 
 
  
 
मेरी मंजिल दूर है, प्रभु  
 
मेरी मंजिल दूर है, प्रभु  
 
 
मगर  
 
मगर  
 
 
क्या यह मेरी मंजिल नहीं ?
 
क्या यह मेरी मंजिल नहीं ?
 +
</poem>

23:27, 12 जनवरी 2012 का अवतरण

सूरज डूब रहा है
और अँधेरा घिरने वाला है

मेरे आगे जो रास्ता है
काँटे बिखरे हैं उस पर
क्या करूँ मैं ?

बचा कर निकल जाऊँ इन्हें, बगल से
या चला जाऊँ छलाँग, इनके पार
क्या करूँ मैं ?

शायद आख़िरी यात्री हूँ
आज की साँझ
संभव है कोई आ रहा हो
मेरे भी बाद
उसे दिखेंगे नहीं अँधेरे में, ये काँटे
क्या करूँ मैं ?

रुक जाऊँ काँटो के पहले
सचेत करने के लिए आने वालों को
या चुन कर हटा दूँ राह से इन्हें
क्या करूँ मैं ?

मेरी मंजिल दूर है, प्रभु
मगर
क्या यह मेरी मंजिल नहीं ?