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"ज़मीं-ओ-आसमाँ मुमकिन है / इक़बाल" के अवतरणों में अंतर

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मुमकिन है के तु जिसको समझता है बहाराँ<br>
 
मुमकिन है के तु जिसको समझता है बहाराँ<br>

01:31, 2 जून 2008 के समय का अवतरण


मुमकिन है के तु जिसको समझता है बहाराँ
औरों की निगाहों में वो मौसम हो ख़िज़ाँ का

है सिल-सिला एहवाल का हर लहजा दगरगूँ
अए सालेक-रह फ़िक्र न कर सूदो-ज़याँ का

शायद के ज़मीँ है वो किसी और जहाँ की
तू जिसको समझता है फ़लक अपने जहाँ का