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"हकीकत / अब तुम्हारे हवाले है वतन साथियों" के अवतरणों में अंतर

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कर चले हम फिदा, जान्-ओ-तन् साथीयों ...
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कर चले हम फ़िदा, जान-ओ-तन साथीयों
अब तुम्हारे हवाले, वतन साथीयों ...
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अब तुम्हारे हवाले वतन साथीयों ...
  
कर चले हम फिदा, जान्-ओ-तन् साथीयों
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सांस थमती गई, नब्ज जमती गई,
अब तुम्हारे हवाले, वतन साथीयों - (2)
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फिर भी बढ़ते कदम को ना रुकने दिया
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कट गये सर हमारे तो कुछ ग़म नहीं
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सर हिमालय का हमने न झुकने दिया
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मरते मरते रहा बाँकपन साथीयों
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अब तुम्हारे हवाले वतन साथीयों ...
  
सांस थम थी गई, नब्ज जम् तो गई,
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जिन्दा रहने के मौसम बहुत हैं मगर
फिर भी बडते कदम् को ना रुक णे दिया,
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जान देने की रुत रोज आती नहीं
कट् गये सर हमारे, तो कुछ गम् नहीं,
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हुस्न और इश्क दोनो को रुसवा करे
सर् हिमालय क हमने न झुक ने दिया,
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वो जवानी जो खूँ में नहाती नहीं
मरते मरते राहा बांकपन् साथीयों,
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बाँध लो अपने सर पर कफ़न साथीयों
अब तुम्हारे हवाले, वतन साथीयों ...
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अब तुम्हारे हवाले वतन साथीयों ...
  
कर चले हम फिदा, जान्-ओ-तन् साथीयों
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राह कुर्बानियों की ना वीरान हो
अब तुम्हारे हवाले, वतन साथीयों - (2)
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तुम सजाते ही रहना नये काफ़िले
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फ़तह का जश्न इस जश्न के बाद है
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जिन्दगी मौत से मिल रही है गले
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आज धरती बनी है दुल्हन साथीयों
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अब तुम्हारे हवाले वतन साथीयों ...
  
जिन्दा रेहेने के मौसम, बहुत है मगर,
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खेंच दो अपने खूँ से जमीं पर लकीर
जान् देने की रुत् रोज् आती नहीं,
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इस तरफ आने पाये ना रावण कोई
हुस्न् और इश्क् दोनो को रुसवा करें,
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तोड़ दो हाथ अगर हाथ उठने लगे
वो जवानी जो खून् मे नाहाती नहीं,
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छूने पाये ना सीता का दामन कोई
आज धरती बनी है दुल्हन साथीयों ...
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राम भी तुम तुम्हीं लक्ष्मण साथीयों
 
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अब तुम्हारे हवाले वतन साथीयों ...
कर चले हम फिदा, जान्-ओ-तन् साथीयों
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अब तुम्हारे हवाले, वतन साथीयों - (2)
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राह् कुर्बानियों कि ना वीरान हो,
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तुम सजाते ही रेहन नये काफिले,
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फतेह् का जशन इस् जशन के बाद् है,
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जिन्दगी मौत से मिल रही है गले,
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बदलो अपने सर से कफन् साथीयों ...
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कर चले हम फिदा, जान्-ओ-तन् साथीयों
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अब तुम्हारे हवाले, वतन साथीयों - (2)
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खेंच् दो अपने खून् से जमीं पर लकीर,
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इस तरह् आने ना पाये ना रावन कोई,
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तोड दो हाथ अगर् हाथ उठ्ने लगे,
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छुने पाये ना सिता का दामन् कोई,
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रम भी तुम, तुम्हि लक्ष्मन साथीयों ...
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कर चले हम फिदा, जान्-ओ-तन् साथीयों
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अब तुम्हारे हवाले, वतन साथीयों
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अब तुम्हारे हवाले, वतन साथीयों
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अब तुम्हारे हवाले, वतन साथीयों
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02:00, 20 मार्च 2010 के समय का अवतरण

रचनाकार: कैफी आज़मी                 

कर चले हम फ़िदा, जान-ओ-तन साथीयों
अब तुम्हारे हवाले वतन साथीयों ...

सांस थमती गई, नब्ज जमती गई,
फिर भी बढ़ते कदम को ना रुकने दिया
कट गये सर हमारे तो कुछ ग़म नहीं
सर हिमालय का हमने न झुकने दिया
मरते मरते रहा बाँकपन साथीयों
अब तुम्हारे हवाले वतन साथीयों ...

जिन्दा रहने के मौसम बहुत हैं मगर
जान देने की रुत रोज आती नहीं
हुस्न और इश्क दोनो को रुसवा करे
वो जवानी जो खूँ में नहाती नहीं
बाँध लो अपने सर पर कफ़न साथीयों
अब तुम्हारे हवाले वतन साथीयों ...

राह कुर्बानियों की ना वीरान हो
तुम सजाते ही रहना नये काफ़िले
फ़तह का जश्न इस जश्न के बाद है
जिन्दगी मौत से मिल रही है गले
आज धरती बनी है दुल्हन साथीयों
अब तुम्हारे हवाले वतन साथीयों ...

खेंच दो अपने खूँ से जमीं पर लकीर
इस तरफ आने पाये ना रावण कोई
तोड़ दो हाथ अगर हाथ उठने लगे
छूने पाये ना सीता का दामन कोई
राम भी तुम तुम्हीं लक्ष्मण साथीयों
अब तुम्हारे हवाले वतन साथीयों ...