"हल्दीघाटी / षष्ठ सर्ग / श्यामनारायण पाण्डेय" के अवतरणों में अंतर
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+ | <poem> | ||
+ | षष्ठ सर्ग: सगनीलम | ||
+ | मणि के बन्दनवार¸ | ||
+ | उनमें चांदी के मृदु तार। | ||
+ | जातरूप के बने किवार | ||
+ | सजे कुसुम से हीरक–द्वार॥1॥ | ||
− | + | दिल्ली के उज्जवल हर द्वार¸ | |
+ | चमचम कंचन कलश अपार। | ||
+ | जलमय कुश–पल्लव सहकार | ||
+ | शोभित उन पर कुसुमित हार॥2॥ | ||
− | + | लटक रहे थे तोरण–जाल¸ | |
− | + | बजती शहनाई हर काल। | |
− | + | उछल रहे थे सुन स्वर ताल¸ | |
− | + | पथ पर छोटे–छोटे बाल॥3॥ | |
− | + | ||
− | + | बजते झांझ नगारे ढोल¸ | |
− | + | गायक गाते थे उर खोल। | |
− | + | जय जय नगर रहा था बोल¸ | |
− | लटक रहे थे तोरण–जाल¸ | + | विजय–ध्वजा उड़ती अनमोल॥4॥ |
− | बजती शहनाई हर काल। | + | |
− | उछल रहे थे सुन स्वर ताल¸ | + | घोड़े हाथी सजे सवार¸ |
− | पथ पर छोटे–छोटे | + | सेना सजी¸ सजा दरबार। |
− | बजते झांझ नगारे ढोल¸ | + | गरज गरज तोपें अविराम |
− | गायक गाते थे उर खोल। | + | छूट रही थीं बारंबार॥5॥ |
− | जय जय नगर रहा था बोल¸ | + | |
− | विजय–ध्वजा उड़ती | + | झण्डा हिलता अभय समान |
− | घोड़े हाथी सजे सवार¸ | + | मादक स्वर से स्वागत–गान। |
− | सेना सजी¸ सजा दरबार। | + | छाया था जय का अभिमान |
− | गरज गरज तोपें अविराम | + | भू था अमल गगन अम्लान॥6॥ |
− | छूट रही थीं | + | |
− | झण्डा हिलता अभय समान | + | दिल्ली का विस्तृत उद्यान |
− | मादक स्वर से स्वागत–गान। | + | विहँस उठा ले सुरभि–निधान। |
− | छाया था जय का अभिमान | + | था मंगल का स्वर्ण–विहान |
− | भू था अमल गगन | + | पर अतिशय चिन्तित था मान॥7॥ |
− | दिल्ली का विस्तृत उद्यान | + | |
− | + | सुनकर शोलापुर की हार | |
− | था मंगल का स्वर्ण–विहान | + | एक विशेष लगा दरबार। |
− | पर अतिशय चिन्तित था | + | आये दरबारी सरदार |
− | सुनकर शोलापुर की हार | + | पहनेगा अकबर जय–हार॥8॥ |
− | एक विशेष लगा दरबार। | + | |
− | आये दरबारी सरदार | + | बैठा भूप सहित अभिमान |
− | पहनेगा अकबर | + | पर न अभी तक आया मान। |
− | बैठा भूप सहित अभिमान | + | दुख से कहता था सुल्तान – |
− | पर न अभी तक आया मान। | + | 'कहाँ रह गया मान महान्'॥9॥ |
− | दुख से कहता था सुल्तान – | + | |
− | + | तब तक चिन्तित आया मान | |
− | तब तक चिन्तित आया मान | + | किया सभी ने उठ सम्मान। |
− | किया सभी ने उठ सम्मान। | + | थोड़ा सा उठकर सुल्तान |
− | थोड़ा सा उठकर सुल्तान | + | बोला 'आओ¸ बैठो मान्'॥10॥ |
− | बोला | + | |
− | की अपनी छाती उत्तान | + | की अपनी छाती उत्तान |
− | अब आई मुख पर मुस्कान। | + | अब आई मुख पर मुस्कान। |
− | किन्तु मान–मुख पर दे ध्यान | + | किन्तु मान–मुख पर दे ध्यान |
− | भय से बोल उठा | + | भय से बोल उठा सुल्तान॥11॥ |
− | + | ||
− | शोलापुर के विजयी मान! | + | "ऐ मेरे उर के अभिमान¸ |
− | है किस ओर बता दे ध्यान¸ | + | शोलापुर के विजयी मान! |
− | क्यों तेरा मुख–मण्डल | + | है किस ओर बता दे ध्यान¸ |
− | तेरे स्वागत में मधु–गान | + | क्यों तेरा मुख–मण्डल म्लान॥12॥ |
− | जगह जगह पर तने वितान। | + | |
− | क्या दुख है बतला दे मान¸ | + | तेरे स्वागत में मधु–गान |
− | तुझ पर यह दिल्ली | + | जगह जगह पर तने वितान। |
− | अकबर के सुन प्रश्न उदार | + | क्या दुख है बतला दे मान¸ |
− | देख सभासद–जन के प्यार। | + | तुझ पर यह दिल्ली कुर्बान।"॥13॥ |
− | लगी ढरकने बारम्बार | + | |
− | + | अकबर के सुन प्रश्न उदार | |
− | दुख के उठे विषम | + | देख सभासद–जन के प्यार। |
− | सोच–सोच अपना अपकार। | + | लगी ढरकने बारम्बार |
− | लगा सिसकने मान अपार | + | आँखों से आँसू की धार॥14॥ |
− | थर–थर | + | |
− | घोर अवज्ञा का कर ध्यान | + | दुख के उठे विषम उद्गार |
− | बोला सिसक–सिसक कर मान– | + | सोच–सोच अपना अपकार। |
− | + | लगा सिसकने मान अपार | |
− | ऐसा हो मेरा अपमान्" | + | थर–थर काँप उठा दरबार॥15॥ |
− | सबने कहा | + | |
− | मानसिंह तेरा अपमान! | + | घोर अवज्ञा का कर ध्यान |
− | + | बोला सिसक–सिसक कर मान– | |
− | सरदारो! मेरा | + | "तेरे जीते–जी सुल्तान! |
− | कहकर रोने लगा अपार¸ | + | ऐसा हो मेरा अपमान्"॥16॥ |
− | विकल हो रहा था दरबार। | + | |
− | रोते ही बोला – | + | सबने कहा "अरे¸ अपमान! |
− | असहनीय मेरा | + | मानसिंह तेरा अपमान!" |
− | ले सिंहासन का सन्देश¸ | + | "हाँ¸ हाँ मेरा ही अपमान¸ |
− | सिर पर तेरा ले आदेश। | + | सरदारो! मेरा अपमान।"॥17॥ |
− | गया निकट मेवाड़–नरेश¸ | + | |
− | यही व्यथा है¸ यह ही | + | कहकर रोने लगा अपार¸ |
− | + | विकल हो रहा था दरबार। | |
− | क्षण–क्षण राणा का फटकार– | + | रोते ही बोला – "सरकार¸ |
− | + | असहनीय मेरा अपकार॥18॥ | |
− | तुझको जीवन भर | + | |
− | तेरे दर्शन से संताप | + | ले सिंहासन का सन्देश¸ |
− | तुझको छूने से ही पाप। | + | सिर पर तेरा ले आदेश। |
− | हिन्दू–जनता का परिताप | + | गया निकट मेवाड़–नरेश¸ |
− | तू है अम्बर–कुल पर | + | यही व्यथा है¸ यह ही क्लेश॥19॥ |
− | स्वामी है अकबर सुल्तान | + | |
− | तेरे साथी मुगल पठान। | + | आँखों में लेकर अंगार |
− | राणा से तेरा सम्मान | + | क्षण–क्षण राणा का फटकार– |
− | कभी न हो सकता है | + | 'तुझको खुले नरक के द्वार |
− | करता भोजन से इनकार | + | तुझको जीवन भर धिक्कार॥20॥ |
− | अथवा कुत्ते सम स्वीकार। | + | |
− | इसका आज न तनिक विचार | + | तेरे दर्शन से संताप |
− | तुझको लानत सौ सौ | + | तुझको छूने से ही पाप। |
− | + | हिन्दू–जनता का परिताप | |
− | तू अपने कुल का | + | तू है अम्बर–कुल पर शाप॥21॥ |
− | इस पर यदि उठती तलवार | + | |
− | राणा लड़ने को | + | स्वामी है अकबर सुल्तान |
− | उसका छोटा सा सरदार | + | तेरे साथी मुगल पठान। |
− | मुझे द्वार से दे दुत्कार। | + | राणा से तेरा सम्मान |
− | कितना है मेरा अपकार | + | कभी न हो सकता है मान॥22॥ |
− | यही बात खलती हर | + | |
− | शेष कहा जो उसने आज¸ | + | करता भोजन से इनकार |
− | कहने में लगती है लाज। | + | अथवा कुत्ते सम स्वीकार। |
− | उसे समझ ले तू सिरताज | + | इसका आज न तनिक विचार |
− | और बन्धु यह | + | तुझको लानत सौ सौ बार॥23॥ |
− | वर्णन के थे शब्द ज्वलन्त | + | |
− | बढ़े अचानक ताप अनन्त। | + | म्लेच्छ–वंश का तू सरदार¸ |
− | सब ने कहा यकायक हन्त | + | तू अपने कुल का अंगार।' |
− | अब मेवाड़ देश का | + | इस पर यदि उठती तलवार |
− | बैठे थे जो यवन अमीर | + | राणा लड़ने को तैयार॥24॥ |
− | लगा हृदय में उनके तीर। | + | |
− | अकबर का हिल गया शरीर | + | उसका छोटा सा सरदार |
− | सिंहासन हो गया | + | मुझे द्वार से दे दुत्कार। |
− | + | कितना है मेरा अपकार | |
− | उर में लगी आग विकराल। | + | यही बात खलती हर बार॥25॥ |
− | + | ||
− | भभक उठा अकबर | + | शेष कहा जो उसने आज¸ |
− | कहा | + | कहने में लगती है लाज। |
− | सह सकता न मान–संताप | + | उसे समझ ले तू सिरताज |
− | बढ़ा हृदय का मेरे ताप | + | और बन्धु यह यवन–समाज।"॥26॥ |
− | आन रहे¸ या रहे | + | |
− | वीरो! अरि को दो ललकार¸ | + | वर्णन के थे शब्द ज्वलन्त |
− | उठो¸ उठा लो भीम कटार। | + | बढ़े अचानक ताप अनन्त। |
− | घुसा–घुसा अपनी तलवार¸ | + | सब ने कहा यकायक हन्त |
− | कर दो सीने के उस | + | अब मेवाड़ देश का अन्त॥27॥ |
− | महा महा भीषण रण ठान | + | |
− | ऐ भारत के मुगल पठान! | + | बैठे थे जो यवन अमीर |
− | रख लो सिंहासन की शान¸ | + | लगा हृदय में उनके तीर। |
− | कर दो अब मेवाड़ | + | अकबर का हिल गया शरीर |
− | है न तिरस्कृत केवल मान¸ | + | सिंहासन हो गया अधीर॥28॥ |
− | मुगल–राज का भी अपमान। | + | |
− | रख लो मेरी अपनी आन | + | कहाँ पहनता वह जयमाल |
− | कर लो हृदय–रक्त का | + | उर में लगी आग विकराल। |
− | ले लो सेना एक विशाल | + | आँखें कर लोहे सम लाल |
− | मान¸ उठा लो कर से ढाल। | + | भभक उठा अकबर तत्काल॥29॥ |
− | शक्तसिंह¸ ले लो करवाल | + | |
− | बदला लेने का है | + | कहा –'न रह सकता चुपचाप¸ |
− | सरदारों¸ अब करो न देर | + | सह सकता न मान–संताप |
− | हाथों में ले लो शमशेर। | + | बढ़ा हृदय का मेरे ताप |
− | वीरो¸ लो अरिदल को घ्ोर | + | आन रहे¸ या रहे प्रताप॥30॥ |
− | कर दो काट–काटकर | + | |
− | क्षण भर में निकले हथियार | + | वीरो! अरि को दो ललकार¸ |
− | बिजली सी चमकी तलवार। | + | उठो¸ उठा लो भीम कटार। |
− | घोड़े¸ हाथी सजे अपार | + | घुसा–घुसा अपनी तलवार¸ |
− | रण का भीषणतम | + | कर दो सीने के उस पार॥31॥ |
− | ले सेना होकर उत्तान | + | |
− | ले करवाल–कटार–कमान। | + | महा महा भीषण रण ठान |
− | चला चुकाने बदला मान | + | ऐ भारत के मुगल पठान! |
− | हल्दीघाटी के | + | रख लो सिंहासन की शान¸ |
− | मानसिंह का था प्रस्थान | + | कर दो अब मेवाड़ मसान॥32॥ |
− | सत्य–अहिंसा का बलिदान। | + | |
− | कितना हृदय–विदारक ध्यान | + | है न तिरस्कृत केवल मान¸ |
− | शत–शत पीड़ा का | + | मुगल–राज का भी अपमान। |
+ | रख लो मेरी अपनी आन | ||
+ | कर लो हृदय–रक्त का पान॥33॥ | ||
+ | |||
+ | ले लो सेना एक विशाल | ||
+ | मान¸ उठा लो कर से ढाल। | ||
+ | शक्तसिंह¸ ले लो करवाल | ||
+ | बदला लेने का है काल॥34॥ | ||
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+ | सरदारों¸ अब करो न देर | ||
+ | हाथों में ले लो शमशेर। | ||
+ | वीरो¸ लो अरिदल को घ्ोर | ||
+ | कर दो काट–काटकर ढेर।"॥35॥ | ||
+ | |||
+ | क्षण भर में निकले हथियार | ||
+ | बिजली सी चमकी तलवार। | ||
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+ | रण का भीषणतम हुंकार॥36॥ | ||
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+ | ले सेना होकर उत्तान | ||
+ | ले करवाल–कटार–कमान। | ||
+ | चला चुकाने बदला मान | ||
+ | हल्दीघाटी के मैदान॥37॥ | ||
+ | |||
+ | मानसिंह का था प्रस्थान | ||
+ | सत्य–अहिंसा का बलिदान। | ||
+ | कितना हृदय–विदारक ध्यान | ||
+ | शत–शत पीड़ा का उत्थान॥38॥ | ||
+ | </poem> |
09:46, 12 अगस्त 2016 के समय का अवतरण
षष्ठ सर्ग: सगनीलम
मणि के बन्दनवार¸
उनमें चांदी के मृदु तार।
जातरूप के बने किवार
सजे कुसुम से हीरक–द्वार॥1॥
दिल्ली के उज्जवल हर द्वार¸
चमचम कंचन कलश अपार।
जलमय कुश–पल्लव सहकार
शोभित उन पर कुसुमित हार॥2॥
लटक रहे थे तोरण–जाल¸
बजती शहनाई हर काल।
उछल रहे थे सुन स्वर ताल¸
पथ पर छोटे–छोटे बाल॥3॥
बजते झांझ नगारे ढोल¸
गायक गाते थे उर खोल।
जय जय नगर रहा था बोल¸
विजय–ध्वजा उड़ती अनमोल॥4॥
घोड़े हाथी सजे सवार¸
सेना सजी¸ सजा दरबार।
गरज गरज तोपें अविराम
छूट रही थीं बारंबार॥5॥
झण्डा हिलता अभय समान
मादक स्वर से स्वागत–गान।
छाया था जय का अभिमान
भू था अमल गगन अम्लान॥6॥
दिल्ली का विस्तृत उद्यान
विहँस उठा ले सुरभि–निधान।
था मंगल का स्वर्ण–विहान
पर अतिशय चिन्तित था मान॥7॥
सुनकर शोलापुर की हार
एक विशेष लगा दरबार।
आये दरबारी सरदार
पहनेगा अकबर जय–हार॥8॥
बैठा भूप सहित अभिमान
पर न अभी तक आया मान।
दुख से कहता था सुल्तान –
'कहाँ रह गया मान महान्'॥9॥
तब तक चिन्तित आया मान
किया सभी ने उठ सम्मान।
थोड़ा सा उठकर सुल्तान
बोला 'आओ¸ बैठो मान्'॥10॥
की अपनी छाती उत्तान
अब आई मुख पर मुस्कान।
किन्तु मान–मुख पर दे ध्यान
भय से बोल उठा सुल्तान॥11॥
"ऐ मेरे उर के अभिमान¸
शोलापुर के विजयी मान!
है किस ओर बता दे ध्यान¸
क्यों तेरा मुख–मण्डल म्लान॥12॥
तेरे स्वागत में मधु–गान
जगह जगह पर तने वितान।
क्या दुख है बतला दे मान¸
तुझ पर यह दिल्ली कुर्बान।"॥13॥
अकबर के सुन प्रश्न उदार
देख सभासद–जन के प्यार।
लगी ढरकने बारम्बार
आँखों से आँसू की धार॥14॥
दुख के उठे विषम उद्गार
सोच–सोच अपना अपकार।
लगा सिसकने मान अपार
थर–थर काँप उठा दरबार॥15॥
घोर अवज्ञा का कर ध्यान
बोला सिसक–सिसक कर मान–
"तेरे जीते–जी सुल्तान!
ऐसा हो मेरा अपमान्"॥16॥
सबने कहा "अरे¸ अपमान!
मानसिंह तेरा अपमान!"
"हाँ¸ हाँ मेरा ही अपमान¸
सरदारो! मेरा अपमान।"॥17॥
कहकर रोने लगा अपार¸
विकल हो रहा था दरबार।
रोते ही बोला – "सरकार¸
असहनीय मेरा अपकार॥18॥
ले सिंहासन का सन्देश¸
सिर पर तेरा ले आदेश।
गया निकट मेवाड़–नरेश¸
यही व्यथा है¸ यह ही क्लेश॥19॥
आँखों में लेकर अंगार
क्षण–क्षण राणा का फटकार–
'तुझको खुले नरक के द्वार
तुझको जीवन भर धिक्कार॥20॥
तेरे दर्शन से संताप
तुझको छूने से ही पाप।
हिन्दू–जनता का परिताप
तू है अम्बर–कुल पर शाप॥21॥
स्वामी है अकबर सुल्तान
तेरे साथी मुगल पठान।
राणा से तेरा सम्मान
कभी न हो सकता है मान॥22॥
करता भोजन से इनकार
अथवा कुत्ते सम स्वीकार।
इसका आज न तनिक विचार
तुझको लानत सौ सौ बार॥23॥
म्लेच्छ–वंश का तू सरदार¸
तू अपने कुल का अंगार।'
इस पर यदि उठती तलवार
राणा लड़ने को तैयार॥24॥
उसका छोटा सा सरदार
मुझे द्वार से दे दुत्कार।
कितना है मेरा अपकार
यही बात खलती हर बार॥25॥
शेष कहा जो उसने आज¸
कहने में लगती है लाज।
उसे समझ ले तू सिरताज
और बन्धु यह यवन–समाज।"॥26॥
वर्णन के थे शब्द ज्वलन्त
बढ़े अचानक ताप अनन्त।
सब ने कहा यकायक हन्त
अब मेवाड़ देश का अन्त॥27॥
बैठे थे जो यवन अमीर
लगा हृदय में उनके तीर।
अकबर का हिल गया शरीर
सिंहासन हो गया अधीर॥28॥
कहाँ पहनता वह जयमाल
उर में लगी आग विकराल।
आँखें कर लोहे सम लाल
भभक उठा अकबर तत्काल॥29॥
कहा –'न रह सकता चुपचाप¸
सह सकता न मान–संताप
बढ़ा हृदय का मेरे ताप
आन रहे¸ या रहे प्रताप॥30॥
वीरो! अरि को दो ललकार¸
उठो¸ उठा लो भीम कटार।
घुसा–घुसा अपनी तलवार¸
कर दो सीने के उस पार॥31॥
महा महा भीषण रण ठान
ऐ भारत के मुगल पठान!
रख लो सिंहासन की शान¸
कर दो अब मेवाड़ मसान॥32॥
है न तिरस्कृत केवल मान¸
मुगल–राज का भी अपमान।
रख लो मेरी अपनी आन
कर लो हृदय–रक्त का पान॥33॥
ले लो सेना एक विशाल
मान¸ उठा लो कर से ढाल।
शक्तसिंह¸ ले लो करवाल
बदला लेने का है काल॥34॥
सरदारों¸ अब करो न देर
हाथों में ले लो शमशेर।
वीरो¸ लो अरिदल को घ्ोर
कर दो काट–काटकर ढेर।"॥35॥
क्षण भर में निकले हथियार
बिजली सी चमकी तलवार।
घोड़े¸ हाथी सजे अपार
रण का भीषणतम हुंकार॥36॥
ले सेना होकर उत्तान
ले करवाल–कटार–कमान।
चला चुकाने बदला मान
हल्दीघाटी के मैदान॥37॥
मानसिंह का था प्रस्थान
सत्य–अहिंसा का बलिदान।
कितना हृदय–विदारक ध्यान
शत–शत पीड़ा का उत्थान॥38॥