"हल्दीघाटी / दशम सर्ग / श्यामनारायण पाण्डेय" के अवतरणों में अंतर
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+ | <poem> | ||
+ | दशम सर्ग: सगनाना | ||
+ | तरू–वेलि–लता–मय | ||
+ | पर्वत पर निर्जन वन था। | ||
+ | निशि वसती थी झुरमुट में | ||
+ | वह इतना घोर सघन था॥1॥ | ||
− | + | पत्तों से छन–छनकर थी | |
+ | आती दिनकर की लेखा। | ||
+ | वह भूतल पर बनती थी | ||
+ | पतली–सी स्वर्णिम रेखा॥2॥ | ||
− | + | लोनी–लोनी लतिका पर | |
− | + | अविराम कुसुम खिलते थे। | |
− | + | बहता था मारूत¸ तरू–दल | |
− | + | धीरे–धीरे हिलते थे॥3॥ | |
− | + | ||
− | + | नीलम–पल्लव की छवि से | |
− | + | थी ललित मंजरी–काया। | |
− | + | सोती थी तृण–शय्या पर | |
− | लोनी–लोनी लतिका पर | + | कोमल रसाल की छाया॥4॥ |
− | अविराम कुसुम खिलते थे। | + | |
− | बहता था मारूत¸ तरू–दल | + | मधु पिला–पिला तरू–तरू को |
− | धीरे–धीरे हिलते | + | थी बना रही मतवाला। |
− | नीलम–पल्लव की छवि से | + | मधु–स्नेह–वलित बाला सी |
− | थी ललित मंजरी–काया। | + | थी नव मधूक की माला॥5॥ |
− | सोती थी तृण–शय्या पर | + | |
− | कोमल रसाल की | + | खिलती शिरीष की कलियां |
− | मधु पिला–पिला तरू–तरू को | + | संगीत मधुर झुन–रून–झुन। |
− | थी बना रही मतवाला। | + | तरू–मिस वन झूम रहा था |
− | मधु–स्नेह–वलित बाला सी | + | खग–कुल–स्वर–लहरी सुन–सुन॥6॥ |
− | थी नव मधूक की | + | |
− | खिलती शिरीष की कलियां | + | मां झूला झूल रही थी |
− | संगीत मधुर झुन–रून–झुन। | + | नीमों के मृदु झूलों पर। |
− | तरू–मिस वन झूम रहा था | + | बलिदान–गान गाते थे |
− | खग–कुल–स्वर–लहरी | + | मधुकर बैठे फूलों पर॥7॥ |
− | मां झूला झूल रही थी | + | |
− | नीमों के मृदु झूलों पर। | + | थी नव–दल की हरियाली |
− | बलिदान–गान गाते थे | + | वट–छाया मोद–भरी थी¸ |
− | मधुकर बैठे फूलों | + | नव अरूण–अरूण गोदों से |
− | थी नव–दल की हरियाली | + | पीपल की गोद भरी थी॥8॥ |
− | वट–छाया मोद–भरी थी¸ | + | |
− | नव अरूण–अरूण गोदों से | + | कमनीय कुसुम खिल–खिलकर |
− | पीपल की गोद भरी | + | टहनी पर झूल रहे थे। |
− | कमनीय कुसुम खिल–खिलकर | + | खग बैठे थे मन मारे |
− | टहनी पर झूल रहे थे। | + | सेमल–तरू फूल रहे थे॥9॥ |
− | खग बैठे थे मन मारे | + | |
− | सेमल–तरू फूल रहे | + | इस तरह अनेक विटप थे |
− | इस तरह अनेक विटप थे | + | थी सुमन–सुरभि की माया। |
− | थी सुमन–सुरभि की माया। | + | सुकुमार–प्रकृति ने जिनकी |
− | सुकुमार–प्रकृति ने जिनकी | + | थी रची मनोहर काया॥10॥ |
− | थी रची मनोहर | + | |
− | बादल ने उनको सींचा | + | बादल ने उनको सींचा |
− | दिनकर–कर ने गरमी दी। | + | दिनकर–कर ने गरमी दी। |
− | धीरे–धीरे सहलाकर¸ | + | धीरे–धीरे सहलाकर¸ |
− | मारूत ने जीवन–श्री | + | मारूत ने जीवन–श्री दी॥11। |
− | मीठे मीठे फल खाते | + | मीठे मीठे फल खाते |
− | शाखामृग शाखा पर थे। | + | शाखामृग शाखा पर थे। |
− | शक देख–देख होता था | + | शक देख–देख होता था |
− | वे वानर थे वा नर | + | वे वानर थे वा नर थे॥12॥ |
− | फल कुतर–कुतर खाती थीं | + | |
− | तरू पर बैठी गिलहरियां। | + | फल कुतर–कुतर खाती थीं |
− | पंचम–स्वर में गा उठतीं | + | तरू पर बैठी गिलहरियां। |
− | रह–रहकर वन की | + | पंचम–स्वर में गा उठतीं |
− | चह–चह–चह फुदक–फुदककर | + | रह–रहकर वन की परियां॥13॥ |
− | डाली से उस डाली पर। | + | |
− | गाते थे पक्षी होकर | + | चह–चह–चह फुदक–फुदककर |
− | न्योछावर वनमाली | + | डाली से उस डाली पर। |
− | चरकर¸ पगुराती मां को | + | गाते थे पक्षी होकर |
− | दे सींग ढकेल रहे थे। | + | न्योछावर वनमाली पर॥14॥ |
− | कोमल–कोमल घासों पर | + | |
− | मृग–छौने खेल रहे | + | चरकर¸ पगुराती मां को |
− | अधखुले नयन हरिणी के | + | दे सींग ढकेल रहे थे। |
− | मृदु–काय हरिण खुजलाते। | + | कोमल–कोमल घासों पर |
− | झाड़ी में उलझ–उलझ कर | + | मृग–छौने खेल रहे थे॥15॥ |
− | + | ||
− | वन धेनु–दूध पीते थे | + | अधखुले नयन हरिणी के |
− | लैरू दुम हिला–हिला कर। | + | मृदु–काय हरिण खुजलाते। |
− | मां उनको चाट रही थीं | + | झाड़ी में उलझ–उलझ कर |
− | तन से तन | + | बारहसिंघो झुंझलाते॥16॥ |
− | चीते नन्हें शिशु ले–ले | + | |
− | चलते मन्थर चालों से। | + | वन धेनु–दूध पीते थे |
− | क्रीड़ा करते थे नाहर | + | लैरू दुम हिला–हिला कर। |
− | अपने लघु–लघु बालों | + | मां उनको चाट रही थीं |
− | झरनों का पानी लेकर | + | तन से तन मिला–मिलाकर॥17॥ |
− | गज छिड़क रहे मतवाले। | + | |
− | मानो जल बरस रहे हों | + | चीते नन्हें शिशु ले–ले |
− | सावन–घन | + | चलते मन्थर चालों से। |
− | + | क्रीड़ा करते थे नाहर | |
− | आ¸ नहा–नहा नालों से। | + | अपने लघु–लघु बालों से॥18॥ |
− | थे केलि भील भी करते | + | |
− | भालों से¸ करवालों | + | झरनों का पानी लेकर |
− | नव हरी–हरी दूबों पर | + | गज छिड़क रहे मतवाले। |
− | बैठा था भीलों का दल। | + | मानो जल बरस रहे हों |
− | निर्मल समीप ही | + | सावन–घन काले–काले॥19॥ |
− | बहता था¸ कल–कल | + | |
− | ले सहचर मान शिविर से | + | भौंसे भू खोद रहे थे |
− | निझर्र के तीरे–तीरे। | + | आ¸ नहा–नहा नालों से। |
− | अनिमेष देखता आया | + | थे केलि भील भी करते |
− | वन की छवि | + | भालों से¸ करवालों से॥20॥ |
− | उसने भीलों को देखा | + | |
− | उसको देखा भीलों ने। | + | नव हरी–हरी दूबों पर |
− | तन में बिजली–सी दौड़ी | + | बैठा था भीलों का दल। |
− | वन लगा भयावह | + | निर्मल समीप ही निर्झर |
− | शोणित–मय कर देने को | + | बहता था¸ कल–कल छल–छल॥21। |
− | वन–वीथी बलिदानों से। | + | ले सहचर मान शिविर से |
− | भीलों ने भाले ताने | + | निझर्र के तीरे–तीरे। |
− | असि निकल पड़ी म्यानों | + | अनिमेष देखता आया |
− | जय–जय केसरिया बाबा | + | वन की छवि धीरे–धीरे॥22॥ |
− | जय एकलिंग की बोले। | + | |
− | जय महादेव की ध्वनि से | + | उसने भीलों को देखा |
− | पर्वत के कण–कण | + | उसको देखा भीलों ने। |
− | ललकार मान को | + | तन में बिजली–सी दौड़ी |
− | हथकड़ी पिन्हा देने को। | + | वन लगा भयावह होने॥23॥ |
− | तरकस से तीर निकाले | + | |
− | अरि से लोहा लेने | + | शोणित–मय कर देने को |
− | वैरी को मिट जाने में | + | वन–वीथी बलिदानों से। |
− | अब थी क्षण भर की देरी। | + | भीलों ने भाले ताने |
− | तब तक बज उठी अचानक | + | असि निकल पड़ी म्यानों से॥24॥ |
− | राणा प्रताप की | + | |
− | वह अपनी लघु–सेना ले | + | जय–जय केसरिया बाबा |
− | मस्ती से घूम रहा था। | + | जय एकलिंग की बोले। |
− | रण–भेरी बजा–बजाकर | + | जय महादेव की ध्वनि से |
− | दीवाना झूम रहा | + | पर्वत के कण–कण डोले॥25॥ |
− | लेकर केसरिया झण्डा | + | |
− | वह वीर–गान था गाता। | + | ललकार मान को घोरा |
− | पीछे सेना दुहराती | + | हथकड़ी पिन्हा देने को। |
− | सारा वन था | + | तरकस से तीर निकाले |
− | गाकर जब | + | अरि से लोहा लेने को॥26॥ |
− | देखा अरि को बन्धन में। | + | |
− | विस्मय–चिन्ता की ज्वाला | + | वैरी को मिट जाने में |
− | भभकी राणा के मन | + | अब थी क्षण भर की देरी। |
− | लज्जा का बोझा सिर पर | + | तब तक बज उठी अचानक |
− | नत मस्तक अभिमानी था। | + | राणा प्रताप की भेरी॥27॥ |
− | राणा को देख अचानक | + | |
− | वैरी पानी–पानी | + | वह अपनी लघु–सेना ले |
− | दौड़ा अपने हाथों से | + | मस्ती से घूम रहा था। |
− | जाकर अरि–बन्धन खोला। | + | रण–भेरी बजा–बजाकर |
− | वह वीर–व्रती नर–नाहर | + | दीवाना झूम रहा था॥28॥ |
− | विस्मित भीलों से | + | |
− | + | लेकर केसरिया झण्डा | |
− | यह मानव–धर्म नहीं है। | + | वह वीर–गान था गाता। |
− | जननी–सपूत रण–कोविद | + | पीछे सेना दुहराती |
− | योधा का कर्म नहीं | + | सारा वन था हहराता॥29॥ |
− | अरि को भी धोखा देना | + | |
− | शूरों की रीति नहीं है। | + | गाकर जब आँखें फेरी |
− | छल से उनको वश करना | + | देखा अरि को बन्धन में। |
− | यह मेरी नीति नहीं | + | विस्मय–चिन्ता की ज्वाला |
− | अब से भी झुक–झुककर तुम | + | भभकी राणा के मन में॥30॥ |
− | सत्कार समेत बिदा दो। | + | |
− | कर क्षमा–याचना इनको | + | लज्जा का बोझा सिर पर |
− | गल–हार समेत बिदा | + | नत मस्तक अभिमानी था। |
− | आदेश मान भीलों ने | + | राणा को देख अचानक |
− | सादर की मान–बिदाई। | + | वैरी पानी–पानी था॥31॥ |
− | ले चला घट पीड़ा की | + | |
− | जो थी उर–नभ पर | + | दौड़ा अपने हाथों से |
− | भीलों से बातें करता | + | जाकर अरि–बन्धन खोला। |
− | सेना का व्यूह बनाकर। | + | वह वीर–व्रती नर–नाहर |
− | राणा भी चला शिविर को | + | विस्मित भीलों से बोला॥32॥ |
− | अपना गौरव | + | |
− | था मान सोचता¸ दुख देता | + | "मेवाड़ देश के भीलो¸ |
− | भीलों का अत्याचार मुझे। | + | यह मानव–धर्म नहीं है। |
− | अब कल तक चमकानी होगी | + | जननी–सपूत रण–कोविद |
− | वह बिजली–सी तलवार | + | योधा का कर्म नहीं है।"॥33॥ |
− | है त्रपा–भार से दबा रहा | + | |
− | राणा का मृदु–व्यवहार मुझे। | + | अरि को भी धोखा देना |
− | कल मेरी भयद बजेगी ही। | + | शूरों की रीति नहीं है। |
− | रण–विजय मिले या हार | + | छल से उनको वश करना |
+ | यह मेरी नीति नहीं है॥34॥ | ||
+ | |||
+ | अब से भी झुक–झुककर तुम | ||
+ | सत्कार समेत बिदा दो। | ||
+ | कर क्षमा–याचना इनको | ||
+ | गल–हार समेत बिदा दो।"॥35॥ | ||
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+ | आदेश मान भीलों ने | ||
+ | सादर की मान–बिदाई। | ||
+ | ले चला घट पीड़ा की | ||
+ | जो थी उर–नभ पर छाई॥36॥ | ||
+ | |||
+ | भीलों से बातें करता | ||
+ | सेना का व्यूह बनाकर। | ||
+ | राणा भी चला शिविर को | ||
+ | अपना गौरव दिखलाकर॥37॥ | ||
+ | |||
+ | था मान सोचता¸ दुख देता | ||
+ | भीलों का अत्याचार मुझे। | ||
+ | अब कल तक चमकानी होगी | ||
+ | वह बिजली–सी तलवार मुझे॥38॥ | ||
+ | |||
+ | है त्रपा–भार से दबा रहा | ||
+ | राणा का मृदु–व्यवहार मुझे। | ||
+ | कल मेरी भयद बजेगी ही। | ||
+ | रण–विजय मिले या हार मुझे॥39॥ | ||
+ | </poem> |
10:30, 12 अगस्त 2016 के समय का अवतरण
दशम सर्ग: सगनाना
तरू–वेलि–लता–मय
पर्वत पर निर्जन वन था।
निशि वसती थी झुरमुट में
वह इतना घोर सघन था॥1॥
पत्तों से छन–छनकर थी
आती दिनकर की लेखा।
वह भूतल पर बनती थी
पतली–सी स्वर्णिम रेखा॥2॥
लोनी–लोनी लतिका पर
अविराम कुसुम खिलते थे।
बहता था मारूत¸ तरू–दल
धीरे–धीरे हिलते थे॥3॥
नीलम–पल्लव की छवि से
थी ललित मंजरी–काया।
सोती थी तृण–शय्या पर
कोमल रसाल की छाया॥4॥
मधु पिला–पिला तरू–तरू को
थी बना रही मतवाला।
मधु–स्नेह–वलित बाला सी
थी नव मधूक की माला॥5॥
खिलती शिरीष की कलियां
संगीत मधुर झुन–रून–झुन।
तरू–मिस वन झूम रहा था
खग–कुल–स्वर–लहरी सुन–सुन॥6॥
मां झूला झूल रही थी
नीमों के मृदु झूलों पर।
बलिदान–गान गाते थे
मधुकर बैठे फूलों पर॥7॥
थी नव–दल की हरियाली
वट–छाया मोद–भरी थी¸
नव अरूण–अरूण गोदों से
पीपल की गोद भरी थी॥8॥
कमनीय कुसुम खिल–खिलकर
टहनी पर झूल रहे थे।
खग बैठे थे मन मारे
सेमल–तरू फूल रहे थे॥9॥
इस तरह अनेक विटप थे
थी सुमन–सुरभि की माया।
सुकुमार–प्रकृति ने जिनकी
थी रची मनोहर काया॥10॥
बादल ने उनको सींचा
दिनकर–कर ने गरमी दी।
धीरे–धीरे सहलाकर¸
मारूत ने जीवन–श्री दी॥11।
मीठे मीठे फल खाते
शाखामृग शाखा पर थे।
शक देख–देख होता था
वे वानर थे वा नर थे॥12॥
फल कुतर–कुतर खाती थीं
तरू पर बैठी गिलहरियां।
पंचम–स्वर में गा उठतीं
रह–रहकर वन की परियां॥13॥
चह–चह–चह फुदक–फुदककर
डाली से उस डाली पर।
गाते थे पक्षी होकर
न्योछावर वनमाली पर॥14॥
चरकर¸ पगुराती मां को
दे सींग ढकेल रहे थे।
कोमल–कोमल घासों पर
मृग–छौने खेल रहे थे॥15॥
अधखुले नयन हरिणी के
मृदु–काय हरिण खुजलाते।
झाड़ी में उलझ–उलझ कर
बारहसिंघो झुंझलाते॥16॥
वन धेनु–दूध पीते थे
लैरू दुम हिला–हिला कर।
मां उनको चाट रही थीं
तन से तन मिला–मिलाकर॥17॥
चीते नन्हें शिशु ले–ले
चलते मन्थर चालों से।
क्रीड़ा करते थे नाहर
अपने लघु–लघु बालों से॥18॥
झरनों का पानी लेकर
गज छिड़क रहे मतवाले।
मानो जल बरस रहे हों
सावन–घन काले–काले॥19॥
भौंसे भू खोद रहे थे
आ¸ नहा–नहा नालों से।
थे केलि भील भी करते
भालों से¸ करवालों से॥20॥
नव हरी–हरी दूबों पर
बैठा था भीलों का दल।
निर्मल समीप ही निर्झर
बहता था¸ कल–कल छल–छल॥21।
ले सहचर मान शिविर से
निझर्र के तीरे–तीरे।
अनिमेष देखता आया
वन की छवि धीरे–धीरे॥22॥
उसने भीलों को देखा
उसको देखा भीलों ने।
तन में बिजली–सी दौड़ी
वन लगा भयावह होने॥23॥
शोणित–मय कर देने को
वन–वीथी बलिदानों से।
भीलों ने भाले ताने
असि निकल पड़ी म्यानों से॥24॥
जय–जय केसरिया बाबा
जय एकलिंग की बोले।
जय महादेव की ध्वनि से
पर्वत के कण–कण डोले॥25॥
ललकार मान को घोरा
हथकड़ी पिन्हा देने को।
तरकस से तीर निकाले
अरि से लोहा लेने को॥26॥
वैरी को मिट जाने में
अब थी क्षण भर की देरी।
तब तक बज उठी अचानक
राणा प्रताप की भेरी॥27॥
वह अपनी लघु–सेना ले
मस्ती से घूम रहा था।
रण–भेरी बजा–बजाकर
दीवाना झूम रहा था॥28॥
लेकर केसरिया झण्डा
वह वीर–गान था गाता।
पीछे सेना दुहराती
सारा वन था हहराता॥29॥
गाकर जब आँखें फेरी
देखा अरि को बन्धन में।
विस्मय–चिन्ता की ज्वाला
भभकी राणा के मन में॥30॥
लज्जा का बोझा सिर पर
नत मस्तक अभिमानी था।
राणा को देख अचानक
वैरी पानी–पानी था॥31॥
दौड़ा अपने हाथों से
जाकर अरि–बन्धन खोला।
वह वीर–व्रती नर–नाहर
विस्मित भीलों से बोला॥32॥
"मेवाड़ देश के भीलो¸
यह मानव–धर्म नहीं है।
जननी–सपूत रण–कोविद
योधा का कर्म नहीं है।"॥33॥
अरि को भी धोखा देना
शूरों की रीति नहीं है।
छल से उनको वश करना
यह मेरी नीति नहीं है॥34॥
अब से भी झुक–झुककर तुम
सत्कार समेत बिदा दो।
कर क्षमा–याचना इनको
गल–हार समेत बिदा दो।"॥35॥
आदेश मान भीलों ने
सादर की मान–बिदाई।
ले चला घट पीड़ा की
जो थी उर–नभ पर छाई॥36॥
भीलों से बातें करता
सेना का व्यूह बनाकर।
राणा भी चला शिविर को
अपना गौरव दिखलाकर॥37॥
था मान सोचता¸ दुख देता
भीलों का अत्याचार मुझे।
अब कल तक चमकानी होगी
वह बिजली–सी तलवार मुझे॥38॥
है त्रपा–भार से दबा रहा
राणा का मृदु–व्यवहार मुझे।
कल मेरी भयद बजेगी ही।
रण–विजय मिले या हार मुझे॥39॥