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"गीत तेरे होंठ पर / राकेश खंडेलवाल" के अवतरणों में अंतर

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गीत तेरे होंठ पर खुद ही मचलने लग पड़ें आ<br>
 
गीत तेरे होंठ पर खुद ही मचलने लग पड़ें आ<br>
 
इसलिये हर भाष्य को व्यवहार मैं देने लगा हूँ<br><br>
 
इसलिये हर भाष्य को व्यवहार मैं देने लगा हूँ<br><br>

16:50, 24 मई 2009 के समय का अवतरण

गीत तेरे होंठ पर खुद ही मचलने लग पड़ें आ
इसलिये हर भाष्य को व्यवहार मैं देने लगा हूँ

देव पूजा की सलौनी छाँह के नग्मे सजाकर
काँपती खुशबू किसी के नर्म ख्यालों से चुराकर
मैं हूँ कॄत संकल्प छूने को नई संभावनायें
शब्द का श्रन्गार करता जा रहा हूँ गुनगुनाकर

अब नयन के अक्षरों में ढल सके भाषा हॄदय की
इसलिये स्वर को नया आकार मैं देने लगा हूँ

रूप हो जो आ नयन में खुद-ब-खुद ही झिलमिलाये
प्रीत हो, मन के समंदर ज्वार आ प्रतिपल उठाये
बात जो संप्रेषणा का कोई भी माध्यम न माँगे
और आशा रात को जो दीप बन कर जगमगाये

भावना के निर्झरों पर बाँध कोई लग न पाये
इसलिये हर भाव को इज़हार मैं देने लगा हूँ

मंदिरों की आरती को कंठ में अपने बसाकर
ज्योति के दीपक सरीखा मैं हॄदय अपना जला कर
मन्नतों की चादरों में आस्था अपनी लपेटे
घूमता हूँ ज़िन्दगी के बाग में कलियाँ खिलाकर

मंज़िलों की राह में भटके नहीं कोई मुसाफ़िर
इसलियी हर राह को विस्तार मैं देने लगा हूँ