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"अयोध्या काण्ड / भाग ५ / रामचरितमानस / तुलसीदास" के अवतरणों में अंतर

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राम सुना दुखु कान न काऊ। जीवनतरु जिमि जोगवइ राऊ॥
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पलक नयन फनि मनि जेहि भाँती। जोगवहिं जननि सकल दिन राती॥
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ते अब फिरत बिपिन पदचारी। कंद मूल फल फूल अहारी॥
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धिग कैकेई अमंगल मूला। भइसि प्रान प्रियतम प्रतिकूला॥
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मैं धिग धिग अघ उदधि अभागी। सबु उतपातु भयउ जेहि लागी॥
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कुल कलंकु करि सृजेउ बिधाताँ। साइँदोह मोहि कीन्ह कुमाताँ॥
 +
सुनि सप्रेम समुझाव निषादू। नाथ करिअ कत बादि बिषादू॥
 +
राम तुम्हहि प्रिय तुम्ह प्रिय रामहि। यह निरजोसु दोसु बिधि बामहि॥
 +
छं0-बिधि बाम की करनी कठिन जेंहिं मातु कीन्ही बावरी।
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तेहि राति पुनि पुनि करहिं प्रभु सादर सरहना रावरी॥
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तुलसी न तुम्ह सो राम प्रीतमु कहतु हौं सौहें किएँ।
 +
परिनाम मंगल जानि अपने आनिए धीरजु हिएँ॥
 +
सो0-अंतरजामी रामु सकुच सप्रेम कृपायतन।
 +
चलिअ करिअ बिश्रामु यह बिचारि दृढ़ आनि मन॥201॥
  
राम सुना दुखु कान न काऊ। जीवनतरु जिमि जोगवइ राऊ।।<br>
+
सखा बचन सुनि उर धरि धीरा। बास चले सुमिरत रघुबीरा॥
पलक नयन फनि मनि जेहि भाँती। जोगवहिं जननि सकल दिन राती।।<br>
+
यह सुधि पाइ नगर नर नारी। चले बिलोकन आरत भारी॥
ते अब फिरत बिपिन पदचारी। कंद मूल फल फूल अहारी।।<br>
+
परदखिना करि करहिं प्रनामा। देहिं कैकइहि खोरि निकामा॥
धिग कैकेई अमंगल मूला। भइसि प्रान प्रियतम प्रतिकूला।।<br>
+
भरी भरि बारि बिलोचन लेंहीं। बाम बिधाताहि दूषन देहीं॥
मैं धिग धिग अघ उदधि अभागी। सबु उतपातु भयउ जेहि लागी।।<br>
+
एक सराहहिं भरत सनेहू। कोउ कह नृपति निबाहेउ नेहू॥
कुल कलंकु करि सृजेउ बिधाताँ। साइँदोह मोहि कीन्ह कुमाताँ।।<br>
+
निंदहिं आपु सराहि निषादहि। को कहि सकइ बिमोह बिषादहि॥
सुनि सप्रेम समुझाव निषादू। नाथ करिअ कत बादि बिषादू।।<br>
+
एहि बिधि राति लोगु सबु जागा। भा भिनुसार गुदारा लागा॥
राम तुम्हहि प्रिय तुम्ह प्रिय रामहि। यह निरजोसु दोसु बिधि बामहि।।<br>
+
गुरहि सुनावँ चढ़ाइ सुहाईं। नईं नाव सब मातु चढ़ाईं॥
छं0-बिधि बाम की करनी कठिन जेंहिं मातु कीन्ही बावरी।<br>
+
दंड चारि महँ भा सबु पारा। उतरि भरत तब सबहि सँभारा॥
तेहि राति पुनि पुनि करहिं प्रभु सादर सरहना रावरी।।<br>
+
दो0-प्रातक्रिया करि मातु पद बंदि गुरहि सिरु नाइ।
तुलसी न तुम्ह सो राम प्रीतमु कहतु हौं सौहें किएँ।<br>
+
आगें किए निषाद गन दीन्हेउ कटकु चलाइ॥202॥
परिनाम मंगल जानि अपने आनिए धीरजु हिएँ।।<br>
+
सो0-अंतरजामी रामु सकुच सप्रेम कृपायतन।<br>
+
चलिअ करिअ बिश्रामु यह बिचारि दृढ़ आनि मन।।201।।<br><br>
+
  
सखा बचन सुनि उर धरि धीरा। बास चले सुमिरत रघुबीरा।।<br>
+
कियउ निषादनाथु अगुआईं। मातु पालकीं सकल चलाईं॥
यह सुधि पाइ नगर नर नारी। चले बिलोकन आरत भारी।।<br>
+
साथ बोलाइ भाइ लघु दीन्हा। बिप्रन्ह सहित गवनु गुर कीन्हा॥
परदखिना करि करहिं प्रनामा। देहिं कैकइहि खोरि निकामा।।<br>
+
आपु सुरसरिहि कीन्ह प्रनामू। सुमिरे लखन सहित सिय रामू॥
भरी भरि बारि बिलोचन लेंहीं। बाम बिधाताहि दूषन देहीं।।<br>
+
गवने भरत पयोदेहिं पाए। कोतल संग जाहिं डोरिआए॥
एक सराहहिं भरत सनेहू। कोउ कह नृपति निबाहेउ नेहू।।<br>
+
कहहिं सुसेवक बारहिं बारा। होइअ नाथ अस्व असवारा॥
निंदहिं आपु सराहि निषादहि। को कहि सकइ बिमोह बिषादहि।।<br>
+
रामु पयोदेहि पायँ सिधाए। हम कहँ रथ गज बाजि बनाए॥
एहि बिधि राति लोगु सबु जागा। भा भिनुसार गुदारा लागा।।<br>
+
सिर भर जाउँ उचित अस मोरा। सब तें सेवक धरमु कठोरा॥
गुरहि सुनावँ चढ़ाइ सुहाईं। नईं नाव सब मातु चढ़ाईं।।<br>
+
देखि भरत गति सुनि मृदु बानी। सब सेवक गन गरहिं गलानी॥
दंड चारि महँ भा सबु पारा। उतरि भरत तब सबहि सँभारा।।<br>
+
दो0-भरत तीसरे पहर कहँ कीन्ह प्रबेसु प्रयाग।
दो0-प्रातक्रिया करि मातु पद बंदि गुरहि सिरु नाइ।<br>
+
कहत राम सिय राम सिय उमगि उमगि अनुराग॥203॥
आगें किए निषाद गन दीन्हेउ कटकु चलाइ।।202।।<br><br>
+
  
कियउ निषादनाथु अगुआईं। मातु पालकीं सकल चलाईं।।<br>
+
झलका झलकत पायन्ह कैंसें। पंकज कोस ओस कन जैसें॥
साथ बोलाइ भाइ लघु दीन्हा। बिप्रन्ह सहित गवनु गुर कीन्हा।।<br>
+
भरत पयादेहिं आए आजू। भयउ दुखित सुनि सकल समाजू॥
आपु सुरसरिहि कीन्ह प्रनामू। सुमिरे लखन सहित सिय रामू।।<br>
+
खबरि लीन्ह सब लोग नहाए। कीन्ह प्रनामु त्रिबेनिहिं आए॥
गवने भरत पयोदेहिं पाए। कोतल संग जाहिं डोरिआए।।<br>
+
सबिधि सितासित नीर नहाने। दिए दान महिसुर सनमाने॥
कहहिं सुसेवक बारहिं बारा। होइअ नाथ अस्व असवारा।।<br>
+
देखत स्यामल धवल हलोरे। पुलकि सरीर भरत कर जोरे॥
रामु पयोदेहि पायँ सिधाए। हम कहँ रथ गज बाजि बनाए।।<br>
+
सकल काम प्रद तीरथराऊ। बेद बिदित जग प्रगट प्रभाऊ॥
सिर भर जाउँ उचित अस मोरा। सब तें सेवक धरमु कठोरा।।<br>
+
मागउँ भीख त्यागि निज धरमू। आरत काह न करइ कुकरमू॥
देखि भरत गति सुनि मृदु बानी। सब सेवक गन गरहिं गलानी।।<br>
+
अस जियँ जानि सुजान सुदानी। सफल करहिं जग जाचक बानी॥
दो0-भरत तीसरे पहर कहँ कीन्ह प्रबेसु प्रयाग।<br>
+
दो0-अरथ न धरम न काम रुचि गति न चहउँ निरबान।
कहत राम सिय राम सिय उमगि उमगि अनुराग।।203।।<br><br>
+
जनम जनम रति राम पद यह बरदानु न आन॥204॥
  
झलका झलकत पायन्ह कैंसें। पंकज कोस ओस कन जैसें।।<br>
+
जानहुँ रामु कुटिल करि मोही। लोग कहउ गुर साहिब द्रोही॥
भरत पयादेहिं आए आजू। भयउ दुखित सुनि सकल समाजू।।<br>
+
सीता राम चरन रति मोरें। अनुदिन बढ़उ अनुग्रह तोरें॥
खबरि लीन्ह सब लोग नहाए। कीन्ह प्रनामु त्रिबेनिहिं आए।।<br>
+
जलदु जनम भरि सुरति बिसारउ। जाचत जलु पबि पाहन डारउ॥
सबिधि सितासित नीर नहाने। दिए दान महिसुर सनमाने।।<br>
+
चातकु रटनि घटें घटि जाई। बढ़े प्रेमु सब भाँति भलाई॥
देखत स्यामल धवल हलोरे। पुलकि सरीर भरत कर जोरे।।<br>
+
कनकहिं बान चढ़इ जिमि दाहें। तिमि प्रियतम पद नेम निबाहें॥
सकल काम प्रद तीरथराऊ। बेद बिदित जग प्रगट प्रभाऊ।।<br>
+
भरत बचन सुनि माझ त्रिबेनी। भइ मृदु बानि सुमंगल देनी॥
मागउँ भीख त्यागि निज धरमू। आरत काह न करइ कुकरमू।।<br>
+
तात भरत तुम्ह सब बिधि साधू। राम चरन अनुराग अगाधू॥
अस जियँ जानि सुजान सुदानी। सफल करहिं जग जाचक बानी।।<br>
+
बाद गलानि करहु मन माहीं। तुम्ह सम रामहि कोउ प्रिय नाहीं॥
दो0-अरथ न धरम न काम रुचि गति न चहउँ निरबान।<br>
+
दो0-तनु पुलकेउ हियँ हरषु सुनि बेनि बचन अनुकूल।
जनम जनम रति राम पद यह बरदानु न आन।।204।।<br><br>
+
भरत धन्य कहि धन्य सुर हरषित बरषहिं फूल॥205॥
  
जानहुँ रामु कुटिल करि मोही। लोग कहउ गुर साहिब द्रोही।।<br>
+
प्रमुदित तीरथराज निवासी। बैखानस बटु गृही उदासी॥
सीता राम चरन रति मोरें। अनुदिन बढ़उ अनुग्रह तोरें।।<br>
+
कहहिं परसपर मिलि दस पाँचा। भरत सनेह सीलु सुचि साँचा॥
जलदु जनम भरि सुरति बिसारउ। जाचत जलु पबि पाहन डारउ।।<br>
+
सुनत राम गुन ग्राम सुहाए। भरद्वाज मुनिबर पहिं आए॥
चातकु रटनि घटें घटि जाई। बढ़े प्रेमु सब भाँति भलाई।।<br>
+
दंड प्रनामु करत मुनि देखे। मूरतिमंत भाग्य निज लेखे॥
कनकहिं बान चढ़इ जिमि दाहें। तिमि प्रियतम पद नेम निबाहें।।<br>
+
धाइ उठाइ लाइ उर लीन्हे। दीन्हि असीस कृतारथ कीन्हे॥
भरत बचन सुनि माझ त्रिबेनी। भइ मृदु बानि सुमंगल देनी।।<br>
+
आसनु दीन्ह नाइ सिरु बैठे। चहत सकुच गृहँ जनु भजि पैठे॥
तात भरत तुम्ह सब बिधि साधू। राम चरन अनुराग अगाधू।।<br>
+
मुनि पूँछब कछु यह बड़ सोचू। बोले रिषि लखि सीलु सँकोचू॥
बाद गलानि करहु मन माहीं। तुम्ह सम रामहि कोउ प्रिय नाहीं।।<br>
+
सुनहु भरत हम सब सुधि पाई। बिधि करतब पर किछु न बसाई॥
दो0-तनु पुलकेउ हियँ हरषु सुनि बेनि बचन अनुकूल।<br>
+
दो0-तुम्ह गलानि जियँ जनि करहु समुझी मातु करतूति।
भरत धन्य कहि धन्य सुर हरषित बरषहिं फूल।।205।।<br><br>
+
तात कैकइहि दोसु नहिं गई गिरा मति धूति॥206॥
  
प्रमुदित तीरथराज निवासी। बैखानस बटु गृही उदासी।।<br>
+
यहउ कहत भल कहिहि न कोऊ। लोकु बेद बुध संमत दोऊ॥
कहहिं परसपर मिलि दस पाँचा। भरत सनेह सीलु सुचि साँचा।।<br>
+
तात तुम्हार बिमल जसु गाई। पाइहि लोकउ बेदु बड़ाई॥
सुनत राम गुन ग्राम सुहाए। भरद्वाज मुनिबर पहिं आए।।<br>
+
लोक बेद संमत सबु कहई। जेहि पितु देइ राजु सो लहई॥
दंड प्रनामु करत मुनि देखे। मूरतिमंत भाग्य निज लेखे।।<br>
+
राउ सत्यब्रत तुम्हहि बोलाई। देत राजु सुखु धरमु बड़ाई॥
धाइ उठाइ लाइ उर लीन्हे। दीन्हि असीस कृतारथ कीन्हे।।<br>
+
राम गवनु बन अनरथ मूला। जो सुनि सकल बिस्व भइ सूला॥
आसनु दीन्ह नाइ सिरु बैठे। चहत सकुच गृहँ जनु भजि पैठे।।<br>
+
सो भावी बस रानि अयानी। करि कुचालि अंतहुँ पछितानी॥
मुनि पूँछब कछु यह बड़ सोचू। बोले रिषि लखि सीलु सँकोचू।।<br>
+
तहँउँ तुम्हार अलप अपराधू। कहै सो अधम अयान असाधू॥
सुनहु भरत हम सब सुधि पाई। बिधि करतब पर किछु बसाई।।<br>
+
करतेहु राजु त तुम्हहि दोषू। रामहि होत सुनत संतोषू॥
दो0-तुम्ह गलानि जियँ जनि करहु समुझी मातु करतूति।<br>
+
दो0-अब अति कीन्हेहु भरत भल तुम्हहि उचित मत एहु।
तात कैकइहि दोसु नहिं गई गिरा मति धूति।।206।।<br><br>
+
सकल सुमंगल मूल जग रघुबर चरन सनेहु॥207॥
  
यहउ कहत भल कहिहि न कोऊ। लोकु बेद बुध संमत दोऊ।।<br>
+
सो तुम्हार धनु जीवनु प्राना। भूरिभाग को तुम्हहि समाना॥
तात तुम्हार बिमल जसु गाई। पाइहि लोकउ बेदु बड़ाई।।<br>
+
यह तम्हार आचरजु न ताता। दसरथ सुअन राम प्रिय भ्राता॥
लोक बेद संमत सबु कहई। जेहि पितु देइ राजु सो लहई।।<br>
+
सुनहु भरत रघुबर मन माहीं। पेम पात्रु तुम्ह सम कोउ नाहीं॥
राउ सत्यब्रत तुम्हहि बोलाई। देत राजु सुखु धरमु बड़ाई।।<br>
+
लखन राम सीतहि अति प्रीती। निसि सब तुम्हहि सराहत बीती॥
राम गवनु बन अनरथ मूला। जो सुनि सकल बिस्व भइ सूला।।<br>
+
जाना मरमु नहात प्रयागा। मगन होहिं तुम्हरें अनुरागा॥
सो भावी बस रानि अयानी। करि कुचालि अंतहुँ पछितानी।।<br>
+
तुम्ह पर अस सनेहु रघुबर कें। सुख जीवन जग जस जड़ नर कें॥
तहँउँ तुम्हार अलप अपराधू। कहै सो अधम अयान असाधू।।<br>
+
यह अधिक रघुबीर बड़ाई। प्रनत कुटुंब पाल रघुराई॥
करतेहु राजु त तुम्हहि दोषू। रामहि होत सुनत संतोषू।।<br>
+
तुम्ह तौ भरत मोर मत एहू। धरें देह जनु राम सनेहू॥
दो0-अब अति कीन्हेहु भरत भल तुम्हहि उचित मत एहु।<br>
+
दो0-तुम्ह कहँ भरत कलंक यह हम सब कहँ उपदेसु।
सकल सुमंगल मूल जग रघुबर चरन सनेहु।।207।।<br><br>
+
राम भगति रस सिद्धि हित भा यह समउ गनेसु॥208॥
  
सो तुम्हार धनु जीवनु प्राना। भूरिभाग को तुम्हहि समाना।।<br>
+
नव बिधु बिमल तात जसु तोरा। रघुबर किंकर कुमुद चकोरा॥
यह तम्हार आचरजु ताता। दसरथ सुअन राम प्रिय भ्राता।।<br>
+
उदित सदा अँथइहि कबहूँ ना। घटिहि जग नभ दिन दिन दूना॥
सुनहु भरत रघुबर मन माहीं। पेम पात्रु तुम्ह सम कोउ नाहीं।।<br>
+
कोक तिलोक प्रीति अति करिही। प्रभु प्रताप रबि छबिहि न हरिही॥
लखन राम सीतहि अति प्रीती। निसि सब तुम्हहि सराहत बीती।।<br>
+
निसि दिन सुखद सदा सब काहू। ग्रसिहि न कैकइ करतबु राहू॥
जाना मरमु नहात प्रयागा। मगन होहिं तुम्हरें अनुरागा।।<br>
+
पूरन राम सुपेम पियूषा। गुर अवमान दोष नहिं दूषा॥
तुम्ह पर अस सनेहु रघुबर कें। सुख जीवन जग जस जड़ नर कें।।<br>
+
राम भगत अब अमिअँ अघाहूँ। कीन्हेहु सुलभ सुधा बसुधाहूँ॥
यह अधिक रघुबीर बड़ाई। प्रनत कुटुंब पाल रघुराई।।<br>
+
भूप भगीरथ सुरसरि आनी। सुमिरत सकल सुंमगल खानी॥
तुम्ह तौ भरत मोर मत एहू। धरें देह जनु राम सनेहू।।<br>
+
दसरथ गुन गन बरनि जाहीं। अधिकु कहा जेहि सम जग नाहीं॥
दो0-तुम्ह कहँ भरत कलंक यह हम सब कहँ उपदेसु।<br>
+
दो0-जासु सनेह सकोच बस राम प्रगट भए आइ॥
राम भगति रस सिद्धि हित भा यह समउ गनेसु।।208।।<br><br>
+
जे हर हिय नयननि कबहुँ निरखे नहीं अघाइ॥209॥
  
नव बिधु बिमल तात जसु तोरा। रघुबर किंकर कुमुद चकोरा।।<br>
+
कीरति बिधु तुम्ह कीन्ह अनूपा। जहँ बस राम पेम मृगरूपा॥
उदित सदा अँथइहि कबहूँ ना। घटिहि जग नभ दिन दिन दूना।।<br>
+
तात गलानि करहु जियँ जाएँ। डरहु दरिद्रहि पारसु पाएँ॥॥
कोक तिलोक प्रीति अति करिही। प्रभु प्रताप रबि छबिहि न हरिही।।<br>
+
सुनहु भरत हम झूठ कहहीं। उदासीन तापस बन रहहीं॥
निसि दिन सुखद सदा सब काहू। ग्रसिहि न कैकइ करतबु राहू।।<br>
+
सब साधन कर सुफल सुहावा। लखन राम सिय दरसनु पावा॥
पूरन राम सुपेम पियूषा। गुर अवमान दोष नहिं दूषा।।<br>
+
तेहि फल कर फलु दरस तुम्हारा। सहित पयाग सुभाग हमारा॥
राम भगत अब अमिअँ अघाहूँ। कीन्हेहु सुलभ सुधा बसुधाहूँ।।<br>
+
भरत धन्य तुम्ह जसु जगु जयऊ। कहि अस पेम मगन पुनि भयऊ॥
भूप भगीरथ सुरसरि आनी। सुमिरत सकल सुंमगल खानी।।<br>
+
सुनि मुनि बचन सभासद हरषे। साधु सराहि सुमन सुर बरषे॥
दसरथ गुन गन बरनि न जाहीं। अधिकु कहा जेहि सम जग नाहीं।।<br>
+
धन्य धन्य धुनि गगन पयागा। सुनि सुनि भरतु मगन अनुरागा॥
दो0-जासु सनेह सकोच बस राम प्रगट भए आइ।।<br>
+
दो0-पुलक गात हियँ रामु सिय सजल सरोरुह नैन।
जे हर हिय नयननि कबहुँ निरखे नहीं अघाइ।।209।।<br><br>
+
करि प्रनामु मुनि मंडलिहि बोले गदगद बैन॥210॥
  
कीरति बिधु तुम्ह कीन्ह अनूपा। जहँ बस राम पेम मृगरूपा।।<br>
+
मुनि समाजु अरु तीरथराजू। साँचिहुँ सपथ अघाइ अकाजू॥
तात गलानि करहु जियँ जाएँ। डरहु दरिद्रहि पारसु पाएँ।।<br>
+
एहिं थल जौं किछु कहिअ बनाई। एहि सम अधिक न अघ अधमाई॥
सुनहु भरत हम झूठ कहहीं। उदासीन तापस बन रहहीं।।<br>
+
तुम्ह सर्बग्य कहउँ सतिभाऊ। उर अंतरजामी रघुराऊ॥
सब साधन कर सुफल सुहावा। लखन राम सिय दरसनु पावा।।<br>
+
मोहि न मातु करतब कर सोचू। नहिं दुखु जियँ जगु जानिहि पोचू॥
तेहि फल कर फलु दरस तुम्हारा। सहित पयाग सुभाग हमारा।।<br>
+
नाहिन डरु बिगरिहि परलोकू। पितहु मरन कर मोहि सोकू॥
भरत धन्य तुम्ह जसु जगु जयऊ। कहि अस पेम मगन पुनि भयऊ।।<br>
+
सुकृत सुजस भरि भुअन सुहाए। लछिमन राम सरिस सुत पाए॥
सुनि मुनि बचन सभासद हरषे। साधु सराहि सुमन सुर बरषे।।<br>
+
राम बिरहँ तजि तनु छनभंगू। भूप सोच कर कवन प्रसंगू॥
धन्य धन्य धुनि गगन पयागा। सुनि सुनि भरतु मगन अनुरागा।।<br>
+
राम लखन सिय बिनु पग पनहीं। करि मुनि बेष फिरहिं बन बनही॥
दो0-पुलक गात हियँ रामु सिय सजल सरोरुह नैन।<br>
+
दो0-अजिन बसन फल असन महि सयन डासि कुस पात।
करि प्रनामु मुनि मंडलिहि बोले गदगद बैन।।210।।<br><br>
+
बसि तरु तर नित सहत हिम आतप बरषा बात॥211॥
  
मुनि समाजु अरु तीरथराजू। साँचिहुँ सपथ अघाइ अकाजू।।<br>
+
एहि दुख दाहँ दहइ दिन छाती। भूख बासर नीद न राती॥
एहिं थल जौं किछु कहिअ बनाई। एहि सम अधिक अघ अधमाई।।<br>
+
एहि कुरोग कर औषधु नाहीं। सोधेउँ सकल बिस्व मन माहीं॥
तुम्ह सर्बग्य कहउँ सतिभाऊ। उर अंतरजामी रघुराऊ।।<br>
+
मातु कुमत बढ़ई अघ मूला। तेहिं हमार हित कीन्ह बँसूला॥
मोहि न मातु करतब कर सोचू। नहिं दुखु जियँ जगु जानिहि पोचू।।<br>
+
कलि कुकाठ कर कीन्ह कुजंत्रू। गाड़ि अवधि पढ़ि कठिन कुमंत्रु॥
नाहिन डरु बिगरिहि परलोकू। पितहु मरन कर मोहि न सोकू।।<br>
+
मोहि लगि यहु कुठाटु तेहिं ठाटा। घालेसि सब जगु बारहबाटा॥
सुकृत सुजस भरि भुअन सुहाए। लछिमन राम सरिस सुत पाए।।<br>
+
मिटइ कुजोगु राम फिरि आएँ। बसइ अवध नहिं आन उपाएँ॥
राम बिरहँ तजि तनु छनभंगू। भूप सोच कर कवन प्रसंगू।।<br>
+
भरत बचन सुनि मुनि सुखु पाई। सबहिं कीन्ह बहु भाँति बड़ाई॥
राम लखन सिय बिनु पग पनहीं। करि मुनि बेष फिरहिं बन बनही।।<br>
+
तात करहु जनि सोचु बिसेषी। सब दुखु मिटहि राम पग देखी॥
दो0-अजिन बसन फल असन महि सयन डासि कुस पात।<br>
+
दो0-करि प्रबोध मुनिबर कहेउ अतिथि पेमप्रिय होहु।
बसि तरु तर नित सहत हिम आतप बरषा बात।।211।।<br><br>
+
कंद मूल फल फूल हम देहिं लेहु करि छोहु॥212॥
  
एहि दुख दाहँ दहइ दिन छाती। भूख न बासर नीद न राती।।<br>
+
सुनि मुनि बचन भरत हिँय सोचू। भयउ कुअवसर कठिन सँकोचू॥
एहि कुरोग कर औषधु नाहीं। सोधेउँ सकल बिस्व मन माहीं।।<br>
+
जानि गरुइ गुर गिरा बहोरी। चरन बंदि बोले कर जोरी॥
मातु कुमत बढ़ई अघ मूला। तेहिं हमार हित कीन्ह बँसूला।।<br>
+
सिर धरि आयसु करिअ तुम्हारा। परम धरम यहु नाथ हमारा॥
कलि कुकाठ कर कीन्ह कुजंत्रू। गाड़ि अवधि पढ़ि कठिन कुमंत्रु।।<br>
+
भरत बचन मुनिबर मन भाए। सुचि सेवक सिष निकट बोलाए॥
मोहि लगि यहु कुठाटु तेहिं ठाटा। घालेसि सब जगु बारहबाटा।।<br>
+
चाहिए कीन्ह भरत पहुनाई। कंद मूल फल आनहु जाई॥
मिटइ कुजोगु राम फिरि आएँ। बसइ अवध नहिं आन उपाएँ।।<br>
+
भलेहीं नाथ कहि तिन्ह सिर नाए। प्रमुदित निज निज काज सिधाए॥
भरत बचन सुनि मुनि सुखु पाई। सबहिं कीन्ह बहु भाँति बड़ाई।।<br>
+
मुनिहि सोच पाहुन बड़ नेवता। तसि पूजा चाहिअ जस देवता॥
तात करहु जनि सोचु बिसेषी। सब दुखु मिटहि राम पग देखी।।<br>
+
सुनि रिधि सिधि अनिमादिक आई। आयसु होइ सो करहिं गोसाई॥
दो0-करि प्रबोध मुनिबर कहेउ अतिथि पेमप्रिय होहु।<br>
+
दो0-राम बिरह ब्याकुल भरतु सानुज सहित समाज।
कंद मूल फल फूल हम देहिं लेहु करि छोहु।।212।।<br><br>
+
पहुनाई करि हरहु श्रम कहा मुदित मुनिराज॥213॥
  
सुनि मुनि बचन भरत हिँय सोचू। भयउ कुअवसर कठिन सँकोचू।।<br>
+
रिधि सिधि सिर धरि मुनिबर बानी। बड़भागिनि आपुहि अनुमानी॥
जानि गरुइ गुर गिरा बहोरी। चरन बंदि बोले कर जोरी।।<br>
+
कहहिं परसपर सिधि समुदाई। अतुलित अतिथि राम लघु भाई॥
सिर धरि आयसु करिअ तुम्हारा। परम धरम यहु नाथ हमारा।।<br>
+
मुनि पद बंदि करिअ सोइ आजू। होइ सुखी सब राज समाजू॥
भरत बचन मुनिबर मन भाए। सुचि सेवक सिष निकट बोलाए।।<br>
+
अस कहि रचेउ रुचिर गृह नाना। जेहि बिलोकि बिलखाहिं बिमाना॥
चाहिए कीन्ह भरत पहुनाई। कंद मूल फल आनहु जाई।।<br>
+
भोग बिभूति भूरि भरि राखे। देखत जिन्हहि अमर अभिलाषे॥
भलेहीं नाथ कहि तिन्ह सिर नाए। प्रमुदित निज निज काज सिधाए।।<br>
+
दासीं दास साजु सब लीन्हें। जोगवत रहहिं मनहि मनु दीन्हें॥
मुनिहि सोच पाहुन बड़ नेवता। तसि पूजा चाहिअ जस देवता।।<br>
+
सब समाजु सजि सिधि पल माहीं। जे सुख सुरपुर सपनेहुँ नाहीं॥
सुनि रिधि सिधि अनिमादिक आई। आयसु होइ सो करहिं गोसाई।।<br>
+
प्रथमहिं बास दिए सब केही। सुंदर सुखद जथा रुचि जेही॥
दो0-राम बिरह ब्याकुल भरतु सानुज सहित समाज।<br>
+
दो0-बहुरि सपरिजन भरत कहुँ रिषि अस आयसु दीन्ह।
पहुनाई करि हरहु श्रम कहा मुदित मुनिराज।।213।।<br><br>
+
बिधि बिसमय दायकु बिभव मुनिबर तपबल कीन्ह॥214॥
  
रिधि सिधि सिर धरि मुनिबर बानी। बड़भागिनि आपुहि अनुमानी।।<br>
+
मुनि प्रभाउ जब भरत बिलोका। सब लघु लगे लोकपति लोका॥
कहहिं परसपर सिधि समुदाई। अतुलित अतिथि राम लघु भाई।।<br>
+
सुख समाजु नहिं जाइ बखानी। देखत बिरति बिसारहीं ग्यानी॥
मुनि पद बंदि करिअ सोइ आजू। होइ सुखी सब राज समाजू।।<br>
+
आसन सयन सुबसन बिताना। बन बाटिका बिहग मृग नाना॥
अस कहि रचेउ रुचिर गृह नाना। जेहि बिलोकि बिलखाहिं बिमाना।।<br>
+
सुरभि फूल फल अमिअ समाना। बिमल जलासय बिबिध बिधाना।
भोग बिभूति भूरि भरि राखे। देखत जिन्हहि अमर अभिलाषे।।<br>
+
असन पान सुच अमिअ अमी से। देखि लोग सकुचात जमी से॥
दासीं दास साजु सब लीन्हें। जोगवत रहहिं मनहि मनु दीन्हें।।<br>
+
सुर सुरभी सुरतरु सबही कें। लखि अभिलाषु सुरेस सची कें॥
सब समाजु सजि सिधि पल माहीं। जे सुख सुरपुर सपनेहुँ नाहीं।।<br>
+
रितु बसंत बह त्रिबिध बयारी। सब कहँ सुलभ पदारथ चारी॥
प्रथमहिं बास दिए सब केही। सुंदर सुखद जथा रुचि जेही।।<br>
+
स्त्रक चंदन बनितादिक भोगा। देखि हरष बिसमय बस लोगा॥
दो0-बहुरि सपरिजन भरत कहुँ रिषि अस आयसु दीन्ह।<br>
+
दो0-संपत चकई भरतु चक मुनि आयस खेलवार॥
बिधि बिसमय दायकु बिभव मुनिबर तपबल कीन्ह।।214।।<br><br>
+
तेहि निसि आश्रम पिंजराँ राखे भा भिनुसार॥215॥
  
मुनि प्रभाउ जब भरत बिलोका। सब लघु लगे लोकपति लोका।।<br>
+
मासपारायण, उन्नीसवाँ विश्राम
सुख समाजु नहिं जाइ बखानी। देखत बिरति बिसारहीं ग्यानी।।<br>
+
आसन सयन सुबसन बिताना। बन बाटिका बिहग मृग नाना।।<br>
+
सुरभि फूल फल अमिअ समाना। बिमल जलासय बिबिध बिधाना।<br>
+
असन पान सुच अमिअ अमी से। देखि लोग सकुचात जमी से।।<br>
+
सुर सुरभी सुरतरु सबही कें। लखि अभिलाषु सुरेस सची कें।।<br>
+
रितु बसंत बह त्रिबिध बयारी। सब कहँ सुलभ पदारथ चारी।।<br>
+
स्त्रक चंदन बनितादिक भोगा। देखि हरष बिसमय बस लोगा।।<br>
+
दो0-संपत चकई भरतु चक मुनि आयस खेलवार।।<br>
+
तेहि निसि आश्रम पिंजराँ राखे भा भिनुसार।।215।।<br><br>
+
  
मासपारायण, उन्नीसवाँ विश्राम<br><br>
+
कीन्ह निमज्जनु तीरथराजा। नाइ मुनिहि सिरु सहित समाजा॥
 +
रिषि आयसु असीस सिर राखी। करि दंडवत बिनय बहु भाषी॥
 +
पथ गति कुसल साथ सब लीन्हे। चले चित्रकूटहिं चितु दीन्हें॥
 +
रामसखा कर दीन्हें लागू। चलत देह धरि जनु अनुरागू॥
 +
नहिं पद त्रान सीस नहिं छाया। पेमु नेमु ब्रतु धरमु अमाया॥
 +
लखन राम सिय पंथ कहानी। पूँछत सखहि कहत मृदु बानी॥
 +
राम बास थल बिटप बिलोकें। उर अनुराग रहत नहिं रोकैं॥
 +
दैखि दसा सुर बरिसहिं फूला। भइ मृदु महि मगु मंगल मूला॥
 +
दो0-किएँ जाहिं छाया जलद सुखद बहइ बर बात।
 +
तस मगु भयउ न राम कहँ जस भा भरतहि जात॥216॥
  
कीन्ह निमज्जनु तीरथराजा। नाइ मुनिहि सिरु सहित समाजा।।<br>
+
जड़ चेतन मग जीव घनेरे। जे चितए प्रभु जिन्ह प्रभु हेरे॥
रिषि आयसु असीस सिर राखी। करि दंडवत बिनय बहु भाषी।।<br>
+
ते सब भए परम पद जोगू। भरत दरस मेटा भव रोगू॥
पथ गति कुसल साथ सब लीन्हे। चले चित्रकूटहिं चितु दीन्हें।।<br>
+
यह बड़ि बात भरत कइ नाहीं। सुमिरत जिनहि रामु मन माहीं॥
रामसखा कर दीन्हें लागू। चलत देह धरि जनु अनुरागू।।<br>
+
बारक राम कहत जग जेऊ। होत तरन तारन नर तेऊ॥
नहिं पद त्रान सीस नहिं छाया। पेमु नेमु ब्रतु धरमु अमाया।।<br>
+
भरतु राम प्रिय पुनि लघु भ्राता। कस न होइ मगु मंगलदाता॥
लखन राम सिय पंथ कहानी। पूँछत सखहि कहत मृदु बानी।।<br>
+
सिद्ध साधु मुनिबर अस कहहीं। भरतहि निरखि हरषु हियँ लहहीं॥
राम बास थल बिटप बिलोकें। उर अनुराग रहत नहिं रोकैं।।<br>
+
देखि प्रभाउ सुरेसहि सोचू। जगु भल भलेहि पोच कहुँ पोचू॥
दैखि दसा सुर बरिसहिं फूला। भइ मृदु महि मगु मंगल मूला।।<br>
+
गुर सन कहेउ करिअ प्रभु सोई। रामहि भरतहि भेंट न होई॥
दो0-किएँ जाहिं छाया जलद सुखद बहइ बर बात।<br>
+
दो0-रामु सँकोची प्रेम बस भरत सपेम पयोधि।
तस मगु भयउ न राम कहँ जस भा भरतहि जात।।216।।<br><br>
+
बनी बात बेगरन चहति करिअ जतनु छलु सोधि॥217॥
  
जड़ चेतन मग जीव घनेरे। जे चितए प्रभु जिन्ह प्रभु हेरे।।<br>
+
बचन सुनत सुरगुरु मुसकाने। सहसनयन बिनु लोचन जाने॥
ते सब भए परम पद जोगू। भरत दरस मेटा भव रोगू।।<br>
+
मायापति सेवक सन माया। करइ त उलटि परइ सुरराया॥
यह बड़ि बात भरत कइ नाहीं। सुमिरत जिनहि रामु मन माहीं।।<br>
+
तब किछु कीन्ह राम रुख जानी। अब कुचालि करि होइहि हानी॥
बारक राम कहत जग जेऊ। होत तरन तारन नर तेऊ।।<br>
+
सुनु सुरेस रघुनाथ सुभाऊ। निज अपराध रिसाहिं काऊ॥
भरतु राम प्रिय पुनि लघु भ्राता। कस होइ मगु मंगलदाता।।<br>
+
जो अपराधु भगत कर करई। राम रोष पावक सो जरई॥
सिद्ध साधु मुनिबर अस कहहीं। भरतहि निरखि हरषु हियँ लहहीं।।<br>
+
लोकहुँ बेद बिदित इतिहासा। यह महिमा जानहिं दुरबासा॥
देखि प्रभाउ सुरेसहि सोचू। जगु भल भलेहि पोच कहुँ पोचू।।<br>
+
भरत सरिस को राम सनेही। जगु जप राम रामु जप जेही॥
गुर सन कहेउ करिअ प्रभु सोई। रामहि भरतहि भेंट न होई।।<br>
+
दो0-मनहुँ न आनिअ अमरपति रघुबर भगत अकाजु।
दो0-रामु सँकोची प्रेम बस भरत सपेम पयोधि।<br>
+
अजसु लोक परलोक दुख दिन दिन सोक समाजु॥218॥
बनी बात बेगरन चहति करिअ जतनु छलु सोधि।।217।।<br><br>
+
  
बचन सुनत सुरगुरु मुसकाने। सहसनयन बिनु लोचन जाने।।<br>
+
सुनु सुरेस उपदेसु हमारा। रामहि सेवकु परम पिआरा॥
मायापति सेवक सन माया। करइ त उलटि परइ सुरराया।।<br>
+
मानत सुखु सेवक सेवकाई। सेवक बैर बैरु अधिकाई॥
तब किछु कीन्ह राम रुख जानी। अब कुचालि करि होइहि हानी।।<br>
+
जद्यपि सम नहिं राग न रोषू। गहहिं पाप पूनु गुन दोषू॥
सुनु सुरेस रघुनाथ सुभाऊ। निज अपराध रिसाहिं काऊ।।<br>
+
करम प्रधान बिस्व करि राखा। जो जस करइ सो तस फलु चाखा॥
जो अपराधु भगत कर करई। राम रोष पावक सो जरई।।<br>
+
तदपि करहिं सम बिषम बिहारा। भगत अभगत हृदय अनुसारा॥
लोकहुँ बेद बिदित इतिहासा। यह महिमा जानहिं दुरबासा।।<br>
+
अगुन अलेप अमान एकरस। रामु सगुन भए भगत पेम बस॥
भरत सरिस को राम सनेही। जगु जप राम रामु जप जेही।।<br>
+
राम सदा सेवक रुचि राखी। बेद पुरान साधु सुर साखी॥
दो0-मनहुँ न आनिअ अमरपति रघुबर भगत अकाजु।<br>
+
अस जियँ जानि तजहु कुटिलाई। करहु भरत पद प्रीति सुहाई॥
अजसु लोक परलोक दुख दिन दिन सोक समाजु।।218।।<br><br>
+
दो0-राम भगत परहित निरत पर दुख दुखी दयाल।
 +
भगत सिरोमनि भरत तें जनि डरपहु सुरपाल॥219॥
  
सुनु सुरेस उपदेसु हमारा। रामहि सेवकु परम पिआरा।।<br>
+
सत्यसंध प्रभु सुर हितकारी। भरत राम आयस अनुसारी॥
मानत सुखु सेवक सेवकाई। सेवक बैर बैरु अधिकाई।।<br>
+
स्वारथ बिबस बिकल तुम्ह होहू। भरत दोसु नहिं राउर मोहू॥
जद्यपि सम नहिं राग न रोषू। गहहिं न पाप पूनु गुन दोषू।।<br>
+
सुनि सुरबर सुरगुर बर बानी। भा प्रमोदु मन मिटी गलानी॥
करम प्रधान बिस्व करि राखा। जो जस करइ सो तस फलु चाखा।।<br>
+
बरषि प्रसून हरषि सुरराऊ। लगे सराहन भरत सुभाऊ॥
तदपि करहिं सम बिषम बिहारा। भगत अभगत हृदय अनुसारा।।<br>
+
एहि बिधि भरत चले मग जाहीं। दसा देखि मुनि सिद्ध सिहाहीं॥
अगुन अलेप अमान एकरस। रामु सगुन भए भगत पेम बस।।<br>
+
जबहिं रामु कहि लेहिं उसासा। उमगत पेमु मनहँ चहु पासा॥
राम सदा सेवक रुचि राखी। बेद पुरान साधु सुर साखी।।<br>
+
द्रवहिं बचन सुनि कुलिस पषाना। पुरजन पेमु न जाइ बखाना॥
अस जियँ जानि तजहु कुटिलाई। करहु भरत पद प्रीति सुहाई।।<br>
+
बीच बास करि जमुनहिं आए। निरखि नीरु लोचन जल छाए॥
दो0-राम भगत परहित निरत पर दुख दुखी दयाल।<br>
+
दो0-रघुबर बरन बिलोकि बर बारि समेत समाज।
भगत सिरोमनि भरत तें जनि डरपहु सुरपाल।।219।।<br><br>
+
होत मगन बारिधि बिरह चढ़े बिबेक जहाज॥220॥
  
सत्यसंध प्रभु सुर हितकारी। भरत राम आयस अनुसारी।।<br>
+
जमुन तीर तेहि दिन करि बासू। भयउ समय सम सबहि सुपासू॥
स्वारथ बिबस बिकल तुम्ह होहू। भरत दोसु नहिं राउर मोहू।।<br>
+
रातहिं घाट घाट की तरनी। आईं अगनित जाहिं न बरनी॥
सुनि सुरबर सुरगुर बर बानी। भा प्रमोदु मन मिटी गलानी।।<br>
+
प्रात पार भए एकहि खेंवाँ। तोषे रामसखा की सेवाँ॥
बरषि प्रसून हरषि सुरराऊ। लगे सराहन भरत सुभाऊ।।<br>
+
चले नहाइ नदिहि सिर नाई। साथ निषादनाथ दोउ भाई॥
एहि बिधि भरत चले मग जाहीं। दसा देखि मुनि सिद्ध सिहाहीं।।<br>
+
आगें मुनिबर बाहन आछें। राजसमाज जाइ सबु पाछें॥
जबहिं रामु कहि लेहिं उसासा। उमगत पेमु मनहँ चहु पासा।।<br>
+
तेहिं पाछें दोउ बंधु पयादें। भूषन बसन बेष सुठि सादें॥
द्रवहिं बचन सुनि कुलिस पषाना। पुरजन पेमु न जाइ बखाना।।<br>
+
सेवक सुह्रद सचिवसुत साथा। सुमिरत लखनु सीय रघुनाथा॥
बीच बास करि जमुनहिं आए। निरखि नीरु लोचन जल छाए।।<br>
+
जहँ जहँ राम बास बिश्रामा। तहँ तहँ करहिं सप्रेम प्रनामा॥
दो0-रघुबर बरन बिलोकि बर बारि समेत समाज।<br>
+
दो0-मगबासी नर नारि सुनि धाम काम तजि धाइ।
होत मगन बारिधि बिरह चढ़े बिबेक जहाज।।220।।<br><br>
+
देखि सरूप सनेह सब मुदित जनम फलु पाइ॥221॥
  
जमुन तीर तेहि दिन करि बासू। भयउ समय सम सबहि सुपासू।।<br>
+
कहहिं सपेम एक एक पाहीं। रामु लखनु सखि होहिं कि नाहीं॥
रातहिं घाट घाट की तरनी। आईं अगनित जाहिं बरनी।।<br>
+
बय बपु बरन रूप सोइ आली। सीलु सनेहु सरिस सम चाली॥
प्रात पार भए एकहि खेंवाँ। तोषे रामसखा की सेवाँ।।<br>
+
बेषु सो सखि सीय न संगा। आगें अनी चली चतुरंगा॥
चले नहाइ नदिहि सिर नाई। साथ निषादनाथ दोउ भाई।।<br>
+
नहिं प्रसन्न मुख मानस खेदा। सखि संदेहु होइ एहिं भेदा॥
आगें मुनिबर बाहन आछें। राजसमाज जाइ सबु पाछें।।<br>
+
तासु तरक तियगन मन मानी। कहहिं सकल तेहि सम न सयानी॥
तेहिं पाछें दोउ बंधु पयादें। भूषन बसन बेष सुठि सादें।।<br>
+
तेहि सराहि बानी फुरि पूजी। बोली मधुर बचन तिय दूजी॥
सेवक सुह्रद सचिवसुत साथा। सुमिरत लखनु सीय रघुनाथा।।<br>
+
कहि सपेम सब कथाप्रसंगू। जेहि बिधि राम राज रस भंगू॥
जहँ जहँ राम बास बिश्रामा। तहँ तहँ करहिं सप्रेम प्रनामा।।<br>
+
भरतहि बहुरि सराहन लागी। सील सनेह सुभाय सुभागी॥
दो0-मगबासी नर नारि सुनि धाम काम तजि धाइ।<br>
+
दो0-चलत पयादें खात फल पिता दीन्ह तजि राजु।
देखि सरूप सनेह सब मुदित जनम फलु पाइ।।221।।<br><br>
+
जात मनावन रघुबरहि भरत सरिस को आजु॥222॥
  
कहहिं सपेम एक एक पाहीं। रामु लखनु सखि होहिं कि नाहीं।।<br>
+
भायप भगति भरत आचरनू। कहत सुनत दुख दूषन हरनू॥
बय बपु बरन रूप सोइ आली। सीलु सनेहु सरिस सम चाली।।<br>
+
जो कछु कहब थोर सखि सोई। राम बंधु अस काहे होई॥
बेषु न सो सखि सीय संगा। आगें अनी चली चतुरंगा।।<br>
+
हम सब सानुज भरतहि देखें। भइन्ह धन्य जुबती जन लेखें॥
नहिं प्रसन्न मुख मानस खेदा। सखि संदेहु होइ एहिं भेदा।।<br>
+
सुनि गुन देखि दसा पछिताहीं। कैकइ जननि जोगु सुतु नाहीं॥
तासु तरक तियगन मन मानी। कहहिं सकल तेहि सम न सयानी।।<br>
+
कोउ कह दूषनु रानिहि नाहिन। बिधि सबु कीन्ह हमहि जो दाहिन॥
तेहि सराहि बानी फुरि पूजी। बोली मधुर बचन तिय दूजी।।<br>
+
कहँ हम लोक बेद बिधि हीनी। लघु तिय कुल करतूति मलीनी॥
कहि सपेम सब कथाप्रसंगू। जेहि बिधि राम राज रस भंगू।।<br>
+
बसहिं कुदेस कुगाँव कुबामा। कहँ यह दरसु पुन्य परिनामा॥
भरतहि बहुरि सराहन लागी। सील सनेह सुभाय सुभागी।।<br>
+
अस अनंदु अचिरिजु प्रति ग्रामा। जनु मरुभूमि कलपतरु जामा॥
दो0-चलत पयादें खात फल पिता दीन्ह तजि राजु।<br>
+
दो0-भरत दरसु देखत खुलेउ मग लोगन्ह कर भागु।
जात मनावन रघुबरहि भरत सरिस को आजु।।222।।<br><br>
+
जनु सिंघलबासिन्ह भयउ बिधि बस सुलभ प्रयागु॥223॥
  
भायप भगति भरत आचरनू। कहत सुनत दुख दूषन हरनू।।<br>
+
निज गुन सहित राम गुन गाथा। सुनत जाहिं सुमिरत रघुनाथा॥
जो कछु कहब थोर सखि सोई। राम बंधु अस काहे न होई।।<br>
+
तीरथ मुनि आश्रम सुरधामा। निरखि निमज्जहिं करहिं प्रनामा॥
हम सब सानुज भरतहि देखें। भइन्ह धन्य जुबती जन लेखें।।<br>
+
मनहीं मन मागहिं बरु एहू। सीय राम पद पदुम सनेहू॥
सुनि गुन देखि दसा पछिताहीं। कैकइ जननि जोगु सुतु नाहीं।।<br>
+
मिलहिं किरात कोल बनबासी। बैखानस बटु जती उदासी॥
कोउ कह दूषनु रानिहि नाहिन। बिधि सबु कीन्ह हमहि जो दाहिन।।<br>
+
करि प्रनामु पूँछहिं जेहिं तेही। केहि बन लखनु रामु बैदेही॥
कहँ हम लोक बेद बिधि हीनी। लघु तिय कुल करतूति मलीनी।।<br>
+
ते प्रभु समाचार सब कहहीं। भरतहि देखि जनम फलु लहहीं॥
बसहिं कुदेस कुगाँव कुबामा। कहँ यह दरसु पुन्य परिनामा।।<br>
+
जे जन कहहिं कुसल हम देखे। ते प्रिय राम लखन सम लेखे॥
अस अनंदु अचिरिजु प्रति ग्रामा। जनु मरुभूमि कलपतरु जामा।।<br>
+
एहि बिधि बूझत सबहि सुबानी। सुनत राम बनबास कहानी॥
दो0-भरत दरसु देखत खुलेउ मग लोगन्ह कर भागु।<br>
+
दो0-तेहि बासर बसि प्रातहीं चले सुमिरि रघुनाथ।
जनु सिंघलबासिन्ह भयउ बिधि बस सुलभ प्रयागु।।223।।<br><br>
+
राम दरस की लालसा भरत सरिस सब साथ॥224॥
  
निज गुन सहित राम गुन गाथा। सुनत जाहिं सुमिरत रघुनाथा।।<br>
+
मंगल सगुन होहिं सब काहू। फरकहिं सुखद बिलोचन बाहू॥
तीरथ मुनि आश्रम सुरधामा। निरखि निमज्जहिं करहिं प्रनामा।।<br>
+
भरतहि सहित समाज उछाहू। मिलिहहिं रामु मिटहि दुख दाहू॥
मनहीं मन मागहिं बरु एहू। सीय राम पद पदुम सनेहू।।<br>
+
करत मनोरथ जस जियँ जाके। जाहिं सनेह सुराँ सब छाके॥
मिलहिं किरात कोल बनबासी। बैखानस बटु जती उदासी।।<br>
+
सिथिल अंग पग मग डगि डोलहिं। बिहबल बचन पेम बस बोलहिं॥
करि प्रनामु पूँछहिं जेहिं तेही। केहि बन लखनु रामु बैदेही।।<br>
+
रामसखाँ तेहि समय देखावा। सैल सिरोमनि सहज सुहावा॥
ते प्रभु समाचार सब कहहीं। भरतहि देखि जनम फलु लहहीं।।<br>
+
जासु समीप सरित पय तीरा। सीय समेत बसहिं दोउ बीरा॥
जे जन कहहिं कुसल हम देखे। ते प्रिय राम लखन सम लेखे।।<br>
+
देखि करहिं सब दंड प्रनामा। कहि जय जानकि जीवन रामा॥
एहि बिधि बूझत सबहि सुबानी। सुनत राम बनबास कहानी।।<br>
+
प्रेम मगन अस राज समाजू। जनु फिरि अवध चले रघुराजू॥
दो0-तेहि बासर बसि प्रातहीं चले सुमिरि रघुनाथ।<br>
+
दो0-भरत प्रेमु तेहि समय जस तस कहि सकइ न सेषु।
राम दरस की लालसा भरत सरिस सब साथ।।224।।<br><br>
+
कबिहिं अगम जिमि ब्रह्मसुखु अह मम मलिन जनेषु॥225॥
  
मंगल सगुन होहिं सब काहू। फरकहिं सुखद बिलोचन बाहू।।<br>
+
सकल सनेह सिथिल रघुबर कें। गए कोस दुइ दिनकर ढरकें॥
भरतहि सहित समाज उछाहू। मिलिहहिं रामु मिटहि दुख दाहू।।<br>
+
जलु थलु देखि बसे निसि बीतें। कीन्ह गवन रघुनाथ पिरीतें॥
करत मनोरथ जस जियँ जाके। जाहिं सनेह सुराँ सब छाके।।<br>
+
उहाँ रामु रजनी अवसेषा। जागे सीयँ सपन अस देखा॥
सिथिल अंग पग मग डगि डोलहिं। बिहबल बचन पेम बस बोलहिं।।<br>
+
सहित समाज भरत जनु आए। नाथ बियोग ताप तन ताए॥
रामसखाँ तेहि समय देखावा। सैल सिरोमनि सहज सुहावा।।<br>
+
सकल मलिन मन दीन दुखारी। देखीं सासु आन अनुहारी॥
जासु समीप सरित पय तीरा। सीय समेत बसहिं दोउ बीरा।।<br>
+
सुनि सिय सपन भरे जल लोचन। भए सोचबस सोच बिमोचन॥
देखि करहिं सब दंड प्रनामा। कहि जय जानकि जीवन रामा।।<br>
+
लखन सपन यह नीक न होई। कठिन कुचाह सुनाइहि कोई॥
प्रेम मगन अस राज समाजू। जनु फिरि अवध चले रघुराजू।।<br>
+
अस कहि बंधु समेत नहाने। पूजि पुरारि साधु सनमाने॥
दो0-भरत प्रेमु तेहि समय जस तस कहि सकइ न सेषु।<br>
+
छं0-सनमानि सुर मुनि बंदि बैठे उत्तर दिसि देखत भए।
कबिहिं अगम जिमि ब्रह्मसुखु अह मम मलिन जनेषु।।225।<br><br>
+
नभ धूरि खग मृग भूरि भागे बिकल प्रभु आश्रम गए॥
 +
तुलसी उठे अवलोकि कारनु काह चित सचकित रहे।
 +
सब समाचार किरात कोलन्हि आइ तेहि अवसर कहे॥
 +
दो0-सुनत सुमंगल बैन मन प्रमोद तन पुलक भर।
 +
सरद सरोरुह नैन तुलसी भरे सनेह जल॥226॥
  
सकल सनेह सिथिल रघुबर कें। गए कोस दुइ दिनकर ढरकें।।<br>
+
बहुरि सोचबस भे सियरवनू। कारन कवन भरत आगवनू॥
जलु थलु देखि बसे निसि बीतें। कीन्ह गवन रघुनाथ पिरीतें।।<br>
+
एक आइ अस कहा बहोरी। सेन संग चतुरंग न थोरी॥
उहाँ रामु रजनी अवसेषा। जागे सीयँ सपन अस देखा।।<br>
+
सो सुनि रामहि भा अति सोचू। इत पितु बच इत बंधु सकोचू॥
सहित समाज भरत जनु आए। नाथ बियोग ताप तन ताए।।<br>
+
भरत सुभाउ समुझि मन माहीं। प्रभु चित हित थिति पावत नाही॥
सकल मलिन मन दीन दुखारी। देखीं सासु आन अनुहारी।।<br>
+
समाधान तब भा यह जाने। भरतु कहे महुँ साधु सयाने॥
सुनि सिय सपन भरे जल लोचन। भए सोचबस सोच बिमोचन।।<br>
+
लखन लखेउ प्रभु हृदयँ खभारू। कहत समय सम नीति बिचारू॥
लखन सपन यह नीक न होई। कठिन कुचाह सुनाइहि कोई।।<br>
+
बिनु पूँछ कछु कहउँ गोसाईं। सेवकु समयँ न ढीठ ढिठाई॥
अस कहि बंधु समेत नहाने। पूजि पुरारि साधु सनमाने।।<br>
+
तुम्ह सर्बग्य सिरोमनि स्वामी। आपनि समुझि कहउँ अनुगामी॥
छं0-सनमानि सुर मुनि बंदि बैठे उत्तर दिसि देखत भए।<br>
+
दो0-नाथ सुह्रद सुठि सरल चित सील सनेह निधान॥
नभ धूरि खग मृग भूरि भागे बिकल प्रभु आश्रम गए।।<br>
+
सब पर प्रीति प्रतीति जियँ जानिअ आपु समान॥227॥
तुलसी उठे अवलोकि कारनु काह चित सचकित रहे।<br>
+
सब समाचार किरात कोलन्हि आइ तेहि अवसर कहे।।<br>
+
दो0-सुनत सुमंगल बैन मन प्रमोद तन पुलक भर।<br>
+
सरद सरोरुह नैन तुलसी भरे सनेह जल।।226।।<br><br>
+
  
बहुरि सोचबस भे सियरवनू। कारन कवन भरत आगवनू।।<br>
+
बिषई जीव पाइ प्रभुताई। मूढ़ मोह बस होहिं जनाई॥
एक आइ अस कहा बहोरी। सेन संग चतुरंग न थोरी।।<br>
+
भरतु नीति रत साधु सुजाना। प्रभु पद प्रेम सकल जगु जाना॥
सो सुनि रामहि भा अति सोचू। इत पितु बच इत बंधु सकोचू।।<br>
+
तेऊ आजु राम पदु पाई। चले धरम मरजाद मेटाई॥
भरत सुभाउ समुझि मन माहीं। प्रभु चित हित थिति पावत नाही।।<br>
+
कुटिल कुबंध कुअवसरु ताकी। जानि राम बनवास एकाकी॥
समाधान तब भा यह जाने। भरतु कहे महुँ साधु सयाने।।<br>
+
करि कुमंत्रु मन साजि समाजू। आए करै अकंटक राजू॥
लखन लखेउ प्रभु हृदयँ खभारू। कहत समय सम नीति बिचारू।।<br>
+
कोटि प्रकार कलपि कुटलाई। आए दल बटोरि दोउ भाई॥
बिनु पूँछ कछु कहउँ गोसाईं। सेवकु समयँ ढीठ ढिठाई।।<br>
+
जौं जियँ होति कपट कुचाली। केहि सोहाति रथ बाजि गजाली॥
तुम्ह सर्बग्य सिरोमनि स्वामी। आपनि समुझि कहउँ अनुगामी।।<br>
+
भरतहि दोसु देइ को जाएँ। जग बौराइ राज पदु पाएँ॥
दो0-नाथ सुह्रद सुठि सरल चित सील सनेह निधान।।<br>
+
दो0-ससि गुर तिय गामी नघुषु चढ़ेउ भूमिसुर जान।
सब पर प्रीति प्रतीति जियँ जानिअ आपु समान।।227।।<br><br>
+
लोक बेद तें बिमुख भा अधम न बेन समान॥228॥
  
बिषई जीव पाइ प्रभुताई। मूढ़ मोह बस होहिं जनाई।।<br>
+
सहसबाहु सुरनाथु त्रिसंकू। केहि न राजमद दीन्ह कलंकू॥
भरतु नीति रत साधु सुजाना। प्रभु पद प्रेम सकल जगु जाना।।<br>
+
भरत कीन्ह यह उचित उपाऊ। रिपु रिन रंच न राखब काऊ॥
तेऊ आजु राम पदु पाई। चले धरम मरजाद मेटाई।।<br>
+
एक कीन्हि नहिं भरत भलाई। निदरे रामु जानि असहाई॥
कुटिल कुबंध कुअवसरु ताकी। जानि राम बनवास एकाकी।।<br>
+
समुझि परिहि सोउ आजु बिसेषी। समर सरोष राम मुखु पेखी॥
करि कुमंत्रु मन साजि समाजू। आए करै अकंटक राजू।।<br>
+
एतना कहत नीति रस भूला। रन रस बिटपु पुलक मिस फूला॥
कोटि प्रकार कलपि कुटलाई। आए दल बटोरि दोउ भाई।।<br>
+
प्रभु पद बंदि सीस रज राखी। बोले सत्य सहज बलु भाषी॥
जौं जियँ होति कपट कुचाली। केहि सोहाति रथ बाजि गजाली।।<br>
+
अनुचित नाथ मानब मोरा। भरत हमहि उपचार न थोरा॥
भरतहि दोसु देइ को जाएँ। जग बौराइ राज पदु पाएँ।।<br>
+
कहँ लगि सहिअ रहिअ मनु मारें। नाथ साथ धनु हाथ हमारें॥
दो0-ससि गुर तिय गामी नघुषु चढ़ेउ भूमिसुर जान।<br>
+
दो0-छत्रि जाति रघुकुल जनमु राम अनुग जगु जान।
लोक बेद तें बिमुख भा अधम न बेन समान।।228।।<br><br>
+
लातहुँ मारें चढ़ति सिर नीच को धूरि समान॥229॥
  
सहसबाहु सुरनाथु त्रिसंकू। केहि न राजमद दीन्ह कलंकू।।<br>
+
उठि कर जोरि रजायसु मागा। मनहुँ बीर रस सोवत जागा॥
भरत कीन्ह यह उचित उपाऊ। रिपु रिन रंच न राखब काऊ।।<br>
+
बाँधि जटा सिर कसि कटि भाथा। साजि सरासनु सायकु हाथा॥
एक कीन्हि नहिं भरत भलाई। निदरे रामु जानि असहाई।।<br>
+
आजु राम सेवक जसु लेऊँ। भरतहि समर सिखावन देऊँ॥
समुझि परिहि सोउ आजु बिसेषी। समर सरोष राम मुखु पेखी।।<br>
+
राम निरादर कर फलु पाई। सोवहुँ समर सेज दोउ भाई॥
एतना कहत नीति रस भूला। रन रस बिटपु पुलक मिस फूला।।<br>
+
आइ बना भल सकल समाजू। प्रगट करउँ रिस पाछिल आजू॥
प्रभु पद बंदि सीस रज राखी। बोले सत्य सहज बलु भाषी।।<br>
+
जिमि करि निकर दलइ मृगराजू। लेइ लपेटि लवा जिमि बाजू॥
अनुचित नाथ न मानब मोरा। भरत हमहि उपचार न थोरा।।<br>
+
तैसेहिं भरतहि सेन समेता। सानुज निदरि निपातउँ खेता॥
कहँ लगि सहिअ रहिअ मनु मारें। नाथ साथ धनु हाथ हमारें।।<br>
+
जौं सहाय कर संकरु आई। तौ मारउँ रन राम दोहाई॥
दो0-छत्रि जाति रघुकुल जनमु राम अनुग जगु जान।<br>
+
दो0-अति सरोष माखे लखनु लखि सुनि सपथ प्रवान।
लातहुँ मारें चढ़ति सिर नीच को धूरि समान।।229।।<br><br>
+
सभय लोक सब लोकपति चाहत भभरि भगान॥230॥
  
उठि कर जोरि रजायसु मागा। मनहुँ बीर रस सोवत जागा।।<br>
+
जगु भय मगन गगन भइ बानी। लखन बाहुबलु बिपुल बखानी॥
बाँधि जटा सिर कसि कटि भाथा। साजि सरासनु सायकु हाथा।।<br>
+
तात प्रताप प्रभाउ तुम्हारा। को कहि सकइ को जाननिहारा॥
आजु राम सेवक जसु लेऊँ। भरतहि समर सिखावन देऊँ।।<br>
+
अनुचित उचित काजु किछु होऊ। समुझि करिअ भल कह सबु कोऊ॥
राम निरादर कर फलु पाई। सोवहुँ समर सेज दोउ भाई।।<br>
+
सहसा करि पाछैं पछिताहीं। कहहिं बेद बुध ते बुध नाहीं॥
आइ बना भल सकल समाजू। प्रगट करउँ रिस पाछिल आजू।।<br>
+
सुनि सुर बचन लखन सकुचाने। राम सीयँ सादर सनमाने॥
जिमि करि निकर दलइ मृगराजू। लेइ लपेटि लवा जिमि बाजू।।<br>
+
कही तात तुम्ह नीति सुहाई। सब तें कठिन राजमदु भाई॥
तैसेहिं भरतहि सेन समेता। सानुज निदरि निपातउँ खेता।।<br>
+
जो अचवँत नृप मातहिं तेई। नाहिन साधुसभा जेहिं सेई॥
जौं सहाय कर संकरु आई। तौ मारउँ रन राम दोहाई।।<br>
+
सुनहु लखन भल भरत सरीसा। बिधि प्रपंच महँ सुना न दीसा॥
दो0-अति सरोष माखे लखनु लखि सुनि सपथ प्रवान।<br>
+
दो0-भरतहि होइ न राजमदु बिधि हरि हर पद पाइ॥
सभय लोक सब लोकपति चाहत भभरि भगान।।230।।<br><br>
+
कबहुँ कि काँजी सीकरनि छीरसिंधु बिनसाइ॥231॥
  
जगु भय मगन गगन भइ बानी। लखन बाहुबलु बिपुल बखानी।।<br>
+
तिमिरु तरुन तरनिहि मकु गिलई। गगनु मगन मकु मेघहिं मिलई॥
तात प्रताप प्रभाउ तुम्हारा। को कहि सकइ को जाननिहारा।।<br>
+
गोपद जल बूड़हिं घटजोनी। सहज छमा बरु छाड़ै छोनी॥
अनुचित उचित काजु किछु होऊ। समुझि करिअ भल कह सबु कोऊ।।<br>
+
मसक फूँक मकु मेरु उड़ाई। होइ न नृपमदु भरतहि भाई॥
सहसा करि पाछैं पछिताहीं। कहहिं बेद बुध ते बुध नाहीं।।<br>
+
लखन तुम्हार सपथ पितु आना। सुचि सुबंधु नहिं भरत समाना॥
सुनि सुर बचन लखन सकुचाने। राम सीयँ सादर सनमाने।।<br>
+
सगुन खीरु अवगुन जलु ताता। मिलइ रचइ परपंचु बिधाता॥
कही तात तुम्ह नीति सुहाई। सब तें कठिन राजमदु भाई।।<br>
+
भरतु हंस रबिबंस तड़ागा। जनमि कीन्ह गुन दोष बिभागा॥
जो अचवँत नृप मातहिं तेई। नाहिन साधुसभा जेहिं सेई।।<br>
+
गहि गुन पय तजि अवगुन बारी। निज जस जगत कीन्हि उजिआरी॥
सुनहु लखन भल भरत सरीसा। बिधि प्रपंच महँ सुना न दीसा।।<br>
+
कहत भरत गुन सीलु सुभाऊ। पेम पयोधि मगन रघुराऊ॥
दो0-भरतहि होइ न राजमदु बिधि हरि हर पद पाइ।।<br>
+
दो0-सुनि रघुबर बानी बिबुध देखि भरत पर हेतु।
कबहुँ कि काँजी सीकरनि छीरसिंधु बिनसाइ।।231।।<br><br>
+
सकल सराहत राम सो प्रभु को कृपानिकेतु॥232॥
  
तिमिरु तरुन तरनिहि मकु गिलई। गगनु मगन मकु मेघहिं मिलई।।<br>
+
जौं न होत जग जनम भरत को। सकल धरम धुर धरनि धरत को॥
गोपद जल बूड़हिं घटजोनी। सहज छमा बरु छाड़ै छोनी।।<br>
+
कबि कुल अगम भरत गुन गाथा। को जानइ तुम्ह बिनु रघुनाथा॥
मसक फूँक मकु मेरु उड़ाई। होइ नृपमदु भरतहि भाई।।<br>
+
लखन राम सियँ सुनि सुर बानी। अति सुखु लहेउ जाइ बखानी॥
लखन तुम्हार सपथ पितु आना। सुचि सुबंधु नहिं भरत समाना।।<br>
+
इहाँ भरतु सब सहित सहाए। मंदाकिनीं पुनीत नहाए॥
सगुन खीरु अवगुन जलु ताता। मिलइ रचइ परपंचु बिधाता।।<br>
+
सरित समीप राखि सब लोगा। मागि मातु गुर सचिव नियोगा॥
भरतु हंस रबिबंस तड़ागा। जनमि कीन्ह गुन दोष बिभागा।।<br>
+
चले भरतु जहँ सिय रघुराई। साथ निषादनाथु लघु भाई॥
गहि गुन पय तजि अवगुन बारी। निज जस जगत कीन्हि उजिआरी।।<br>
+
समुझि मातु करतब सकुचाहीं। करत कुतरक कोटि मन माहीं॥
कहत भरत गुन सीलु सुभाऊ। पेम पयोधि मगन रघुराऊ।।<br>
+
रामु लखनु सिय सुनि मम नाऊँ। उठि जनि अनत जाहिं तजि ठाऊँ॥
दो0-सुनि रघुबर बानी बिबुध देखि भरत पर हेतु।<br>
+
दो0-मातु मते महुँ मानि मोहि जो कछु करहिं सो थोर।
सकल सराहत राम सो प्रभु को कृपानिकेतु।।232।।<br><br>
+
अघ अवगुन छमि आदरहिं समुझि आपनी ओर॥233॥
  
जौं न होत जग जनम भरत को। सकल धरम धुर धरनि धरत को।।<br>
+
जौं परिहरहिं मलिन मनु जानी। जौ सनमानहिं सेवकु मानी॥
कबि कुल अगम भरत गुन गाथा। को जानइ तुम्ह बिनु रघुनाथा।।<br>
+
मोरें सरन रामहि की पनही। राम सुस्वामि दोसु सब जनही॥
लखन राम सियँ सुनि सुर बानी। अति सुखु लहेउ न जाइ बखानी।।<br>
+
जग जस भाजन चातक मीना। नेम पेम निज निपुन नबीना॥
इहाँ भरतु सब सहित सहाए। मंदाकिनीं पुनीत नहाए।।<br>
+
अस मन गुनत चले मग जाता। सकुच सनेहँ सिथिल सब गाता॥
सरित समीप राखि सब लोगा। मागि मातु गुर सचिव नियोगा।।<br>
+
फेरत मनहुँ मातु कृत खोरी। चलत भगति बल धीरज धोरी॥
चले भरतु जहँ सिय रघुराई। साथ निषादनाथु लघु भाई।।<br>
+
जब समुझत रघुनाथ सुभाऊ। तब पथ परत उताइल पाऊ॥
समुझि मातु करतब सकुचाहीं। करत कुतरक कोटि मन माहीं।।<br>
+
भरत दसा तेहि अवसर कैसी। जल प्रबाहँ जल अलि गति जैसी॥
रामु लखनु सिय सुनि मम नाऊँ। उठि जनि अनत जाहिं तजि ठाऊँ।।<br>
+
देखि भरत कर सोचु सनेहू। भा निषाद तेहि समयँ बिदेहू॥
दो0-मातु मते महुँ मानि मोहि जो कछु करहिं सो थोर।<br>
+
दो0-लगे होन मंगल सगुन सुनि गुनि कहत निषादु।
अघ अवगुन छमि आदरहिं समुझि आपनी ओर।।233।।<br><br>
+
मिटिहि सोचु होइहि हरषु पुनि परिनाम बिषादु॥234॥
  
जौं परिहरहिं मलिन मनु जानी। जौ सनमानहिं सेवकु मानी।।<br>
+
सेवक बचन सत्य सब जाने। आश्रम निकट जाइ निअराने॥
मोरें सरन रामहि की पनही। राम सुस्वामि दोसु सब जनही।।<br>
+
भरत दीख बन सैल समाजू। मुदित छुधित जनु पाइ सुनाजू॥
जग जस भाजन चातक मीना। नेम पेम निज निपुन नबीना।।<br>
+
ईति भीति जनु प्रजा दुखारी। त्रिबिध ताप पीड़ित ग्रह मारी॥
अस मन गुनत चले मग जाता। सकुच सनेहँ सिथिल सब गाता।।<br>
+
जाइ सुराज सुदेस सुखारी। होहिं भरत गति तेहि अनुहारी॥
फेरत मनहुँ मातु कृत खोरी। चलत भगति बल धीरज धोरी।।<br>
+
राम बास बन संपति भ्राजा। सुखी प्रजा जनु पाइ सुराजा॥
जब समुझत रघुनाथ सुभाऊ। तब पथ परत उताइल पाऊ।।<br>
+
सचिव बिरागु बिबेकु नरेसू। बिपिन सुहावन पावन देसू॥
भरत दसा तेहि अवसर कैसी। जल प्रबाहँ जल अलि गति जैसी।।<br>
+
भट जम नियम सैल रजधानी। सांति सुमति सुचि सुंदर रानी॥
देखि भरत कर सोचु सनेहू। भा निषाद तेहि समयँ बिदेहू।।<br>
+
सकल अंग संपन्न सुराऊ। राम चरन आश्रित चित चाऊ॥
दो0-लगे होन मंगल सगुन सुनि गुनि कहत निषादु।<br>
+
दो0-जीति मोह महिपालु दल सहित बिबेक भुआलु।
मिटिहि सोचु होइहि हरषु पुनि परिनाम बिषादु।।234।।<br><br>
+
करत अकंटक राजु पुरँ सुख संपदा सुकालु॥235॥
  
सेवक बचन सत्य सब जाने। आश्रम निकट जाइ निअराने।।<br>
+
बन प्रदेस मुनि बास घनेरे। जनु पुर नगर गाउँ गन खेरे॥
भरत दीख बन सैल समाजू। मुदित छुधित जनु पाइ सुनाजू।।<br>
+
बिपुल बिचित्र बिहग मृग नाना। प्रजा समाजु न जाइ बखाना॥
ईति भीति जनु प्रजा दुखारी। त्रिबिध ताप पीड़ित ग्रह मारी।।<br>
+
खगहा करि हरि बाघ बराहा। देखि महिष बृष साजु सराहा॥
जाइ सुराज सुदेस सुखारी। होहिं भरत गति तेहि अनुहारी।।<br>
+
बयरु बिहाइ चरहिं एक संगा। जहँ तहँ मनहुँ सेन चतुरंगा॥
राम बास बन संपति भ्राजा। सुखी प्रजा जनु पाइ सुराजा।।<br>
+
झरना झरहिं मत्त गज गाजहिं। मनहुँ निसान बिबिधि बिधि बाजहिं॥
सचिव बिरागु बिबेकु नरेसू। बिपिन सुहावन पावन देसू।।<br>
+
चक चकोर चातक सुक पिक गन। कूजत मंजु मराल मुदित मन॥
भट जम नियम सैल रजधानी। सांति सुमति सुचि सुंदर रानी।।<br>
+
अलिगन गावत नाचत मोरा। जनु सुराज मंगल चहु ओरा॥
सकल अंग संपन्न सुराऊ। राम चरन आश्रित चित चाऊ।।<br>
+
बेलि बिटप तृन सफल सफूला। सब समाजु मुद मंगल मूला॥
दो0-जीति मोह महिपालु दल सहित बिबेक भुआलु।<br>
+
दो-राम सैल सोभा निरखि भरत हृदयँ अति पेमु।
करत अकंटक राजु पुरँ सुख संपदा सुकालु।।235।।<br><br>
+
तापस तप फलु पाइ जिमि सुखी सिरानें नेमु॥236॥
  
बन प्रदेस मुनि बास घनेरे। जनु पुर नगर गाउँ गन खेरे।।<br>
+
मासपारायण, बीसवाँ विश्राम
बिपुल बिचित्र बिहग मृग नाना। प्रजा समाजु न जाइ बखाना।।<br>
+
खगहा करि हरि बाघ बराहा। देखि महिष बृष साजु सराहा।।<br>
+
बयरु बिहाइ चरहिं एक संगा। जहँ तहँ मनहुँ सेन चतुरंगा।।<br>
+
झरना झरहिं मत्त गज गाजहिं। मनहुँ निसान बिबिधि बिधि बाजहिं।।<br>
+
चक चकोर चातक सुक पिक गन। कूजत मंजु मराल मुदित मन।।<br>
+
अलिगन गावत नाचत मोरा। जनु सुराज मंगल चहु ओरा।।<br>
+
बेलि बिटप तृन सफल सफूला। सब समाजु मुद मंगल मूला।।<br>
+
दो-राम सैल सोभा निरखि भरत हृदयँ अति पेमु।<br>
+
तापस तप फलु पाइ जिमि सुखी सिरानें नेमु।।236।।<br><br>
+
  
मासपारायण, बीसवाँ विश्राम<br><br>
+
नवाह्नपारायण, पाँचवाँ विश्राम
नवाह्नपारायण, पाँचवाँ विश्राम<br><br>
+
  
तब केवट ऊँचें चढ़ि धाई। कहेउ भरत सन भुजा उठाई।।<br>
+
तब केवट ऊँचें चढ़ि धाई। कहेउ भरत सन भुजा उठाई॥
नाथ देखिअहिं बिटप बिसाला। पाकरि जंबु रसाल तमाला।।<br>
+
नाथ देखिअहिं बिटप बिसाला। पाकरि जंबु रसाल तमाला॥
जिन्ह तरुबरन्ह मध्य बटु सोहा। मंजु बिसाल देखि मनु मोहा।।<br>
+
जिन्ह तरुबरन्ह मध्य बटु सोहा। मंजु बिसाल देखि मनु मोहा॥
नील सघन पल्ल्व फल लाला। अबिरल छाहँ सुखद सब काला।।<br>
+
नील सघन पल्ल्व फल लाला। अबिरल छाहँ सुखद सब काला॥
मानहुँ तिमिर अरुनमय रासी। बिरची बिधि सँकेलि सुषमा सी।।<br>
+
मानहुँ तिमिर अरुनमय रासी। बिरची बिधि सँकेलि सुषमा सी॥
ए तरु सरित समीप गोसाँई। रघुबर परनकुटी जहँ छाई।।<br>
+
ए तरु सरित समीप गोसाँई। रघुबर परनकुटी जहँ छाई॥
तुलसी तरुबर बिबिध सुहाए। कहुँ कहुँ सियँ कहुँ लखन लगाए।।<br>
+
तुलसी तरुबर बिबिध सुहाए। कहुँ कहुँ सियँ कहुँ लखन लगाए॥
बट छायाँ बेदिका बनाई। सियँ निज पानि सरोज सुहाई।।<br>
+
बट छायाँ बेदिका बनाई। सियँ निज पानि सरोज सुहाई॥
दो0-जहाँ बैठि मुनिगन सहित नित सिय रामु सुजान।<br>
+
दो0-जहाँ बैठि मुनिगन सहित नित सिय रामु सुजान।
सुनहिं कथा इतिहास सब आगम निगम पुरान।।237।।<br><br>
+
सुनहिं कथा इतिहास सब आगम निगम पुरान॥237॥
  
सखा बचन सुनि बिटप निहारी। उमगे भरत बिलोचन बारी।।<br>
+
सखा बचन सुनि बिटप निहारी। उमगे भरत बिलोचन बारी॥
करत प्रनाम चले दोउ भाई। कहत प्रीति सारद सकुचाई।।<br>
+
करत प्रनाम चले दोउ भाई। कहत प्रीति सारद सकुचाई॥
हरषहिं निरखि राम पद अंका। मानहुँ पारसु पायउ रंका।।<br>
+
हरषहिं निरखि राम पद अंका। मानहुँ पारसु पायउ रंका॥
रज सिर धरि हियँ नयनन्हि लावहिं। रघुबर मिलन सरिस सुख पावहिं।।<br>
+
रज सिर धरि हियँ नयनन्हि लावहिं। रघुबर मिलन सरिस सुख पावहिं॥
देखि भरत गति अकथ अतीवा। प्रेम मगन मृग खग जड़ जीवा।।<br>
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देखि भरत गति अकथ अतीवा। प्रेम मगन मृग खग जड़ जीवा॥
सखहि सनेह बिबस मग भूला। कहि सुपंथ सुर बरषहिं फूला।।<br>
+
सखहि सनेह बिबस मग भूला। कहि सुपंथ सुर बरषहिं फूला॥
निरखि सिद्ध साधक अनुरागे। सहज सनेहु सराहन लागे।।<br>
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निरखि सिद्ध साधक अनुरागे। सहज सनेहु सराहन लागे॥
होत न भूतल भाउ भरत को। अचर सचर चर अचर करत को।।<br>
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होत न भूतल भाउ भरत को। अचर सचर चर अचर करत को॥
दो0-पेम अमिअ मंदरु बिरहु भरतु पयोधि गँभीर।<br>
+
दो0-पेम अमिअ मंदरु बिरहु भरतु पयोधि गँभीर।
मथि प्रगटेउ सुर साधु हित कृपासिंधु रघुबीर।।238।।<br><br>
+
मथि प्रगटेउ सुर साधु हित कृपासिंधु रघुबीर॥238॥
  
सखा समेत मनोहर जोटा। लखेउ न लखन सघन बन ओटा।।<br>
+
सखा समेत मनोहर जोटा। लखेउ न लखन सघन बन ओटा॥
भरत दीख प्रभु आश्रमु पावन। सकल सुमंगल सदनु सुहावन।।<br>
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भरत दीख प्रभु आश्रमु पावन। सकल सुमंगल सदनु सुहावन॥
करत प्रबेस मिटे दुख दावा। जनु जोगीं परमारथु पावा।।<br>
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करत प्रबेस मिटे दुख दावा। जनु जोगीं परमारथु पावा॥
देखे भरत लखन प्रभु आगे। पूँछे बचन कहत अनुरागे।।<br>
+
देखे भरत लखन प्रभु आगे। पूँछे बचन कहत अनुरागे॥
सीस जटा कटि मुनि पट बाँधें। तून कसें कर सरु धनु काँधें।।<br>
+
सीस जटा कटि मुनि पट बाँधें। तून कसें कर सरु धनु काँधें॥
बेदी पर मुनि साधु समाजू। सीय सहित राजत रघुराजू।।<br>
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बेदी पर मुनि साधु समाजू। सीय सहित राजत रघुराजू॥
बलकल बसन जटिल तनु स्यामा। जनु मुनि बेष कीन्ह रति कामा।।<br>
+
बलकल बसन जटिल तनु स्यामा। जनु मुनि बेष कीन्ह रति कामा॥
कर कमलनि धनु सायकु फेरत। जिय की जरनि हरत हँसि हेरत।।<br>
+
कर कमलनि धनु सायकु फेरत। जिय की जरनि हरत हँसि हेरत॥
दो0-लसत मंजु मुनि मंडली मध्य सीय रघुचंदु।<br>
+
दो0-लसत मंजु मुनि मंडली मध्य सीय रघुचंदु।
ग्यान सभाँ जनु तनु धरे भगति सच्चिदानंदु।।239।।<br><br>
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ग्यान सभाँ जनु तनु धरे भगति सच्चिदानंदु॥239॥
  
सानुज सखा समेत मगन मन। बिसरे हरष सोक सुख दुख गन।।<br>
+
सानुज सखा समेत मगन मन। बिसरे हरष सोक सुख दुख गन॥
पाहि नाथ कहि पाहि गोसाई। भूतल परे लकुट की नाई।।<br>
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पाहि नाथ कहि पाहि गोसाई। भूतल परे लकुट की नाई॥
बचन सपेम लखन पहिचाने। करत प्रनामु भरत जियँ जाने।।<br>
+
बचन सपेम लखन पहिचाने। करत प्रनामु भरत जियँ जाने॥
बंधु सनेह सरस एहि ओरा। उत साहिब सेवा बस जोरा।।<br>
+
बंधु सनेह सरस एहि ओरा। उत साहिब सेवा बस जोरा॥
मिलि न जाइ नहिं गुदरत बनई। सुकबि लखन मन की गति भनई।।<br>
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मिलि न जाइ नहिं गुदरत बनई। सुकबि लखन मन की गति भनई॥
रहे राखि सेवा पर भारू। चढ़ी चंग जनु खैंच खेलारू।।<br>
+
रहे राखि सेवा पर भारू। चढ़ी चंग जनु खैंच खेलारू॥
कहत सप्रेम नाइ महि माथा। भरत प्रनाम करत रघुनाथा।।<br>
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कहत सप्रेम नाइ महि माथा। भरत प्रनाम करत रघुनाथा॥
उठे रामु सुनि पेम अधीरा। कहुँ पट कहुँ निषंग धनु तीरा।।<br>
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उठे रामु सुनि पेम अधीरा। कहुँ पट कहुँ निषंग धनु तीरा॥
दो0-बरबस लिए उठाइ उर लाए कृपानिधान।<br>
+
दो0-बरबस लिए उठाइ उर लाए कृपानिधान।
भरत राम की मिलनि लखि बिसरे सबहि अपान।।240।।<br><br>
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भरत राम की मिलनि लखि बिसरे सबहि अपान॥240॥
  
मिलनि प्रीति किमि जाइ बखानी। कबिकुल अगम करम मन बानी।।<br>
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मिलनि प्रीति किमि जाइ बखानी। कबिकुल अगम करम मन बानी॥
परम पेम पूरन दोउ भाई। मन बुधि चित अहमिति बिसराई।।<br>
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परम पेम पूरन दोउ भाई। मन बुधि चित अहमिति बिसराई॥
कहहु सुपेम प्रगट को करई। केहि छाया कबि मति अनुसरई।।<br>
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कहहु सुपेम प्रगट को करई। केहि छाया कबि मति अनुसरई॥
कबिहि अरथ आखर बलु साँचा। अनुहरि ताल गतिहि नटु नाचा।।<br>
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कबिहि अरथ आखर बलु साँचा। अनुहरि ताल गतिहि नटु नाचा॥
अगम सनेह भरत रघुबर को। जहँ न जाइ मनु बिधि हरि हर को।।<br>
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अगम सनेह भरत रघुबर को। जहँ न जाइ मनु बिधि हरि हर को॥
सो मैं कुमति कहौं केहि भाँती। बाज सुराग कि गाँडर ताँती।।<br>
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सो मैं कुमति कहौं केहि भाँती। बाज सुराग कि गाँडर ताँती॥
मिलनि बिलोकि भरत रघुबर की। सुरगन सभय धकधकी धरकी।।<br>
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मिलनि बिलोकि भरत रघुबर की। सुरगन सभय धकधकी धरकी॥
समुझाए सुरगुरु जड़ जागे। बरषि प्रसून प्रसंसन लागे।।<br>
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समुझाए सुरगुरु जड़ जागे। बरषि प्रसून प्रसंसन लागे॥
दो0-मिलि सपेम रिपुसूदनहि केवटु भेंटेउ राम।<br>
+
दो0-मिलि सपेम रिपुसूदनहि केवटु भेंटेउ राम।
भूरि भायँ भेंटे भरत लछिमन करत प्रनाम।।241।।<br><br>
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भूरि भायँ भेंटे भरत लछिमन करत प्रनाम॥241॥
  
भेंटेउ लखन ललकि लघु भाई। बहुरि निषादु लीन्ह उर लाई।।<br>
+
भेंटेउ लखन ललकि लघु भाई। बहुरि निषादु लीन्ह उर लाई॥
पुनि मुनिगन दुहुँ भाइन्ह बंदे। अभिमत आसिष पाइ अनंदे।।<br>
+
पुनि मुनिगन दुहुँ भाइन्ह बंदे। अभिमत आसिष पाइ अनंदे॥
सानुज भरत उमगि अनुरागा। धरि सिर सिय पद पदुम परागा।।<br>
+
सानुज भरत उमगि अनुरागा। धरि सिर सिय पद पदुम परागा॥
पुनि पुनि करत प्रनाम उठाए। सिर कर कमल परसि बैठाए।।<br>
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पुनि पुनि करत प्रनाम उठाए। सिर कर कमल परसि बैठाए॥
सीयँ असीस दीन्हि मन माहीं। मगन सनेहँ देह सुधि नाहीं।।<br>
+
सीयँ असीस दीन्हि मन माहीं। मगन सनेहँ देह सुधि नाहीं॥
सब बिधि सानुकूल लखि सीता। भे निसोच उर अपडर बीता।।<br>
+
सब बिधि सानुकूल लखि सीता। भे निसोच उर अपडर बीता॥
कोउ किछु कहइ न कोउ किछु पूँछा। प्रेम भरा मन निज गति छूँछा।।<br>
+
कोउ किछु कहइ न कोउ किछु पूँछा। प्रेम भरा मन निज गति छूँछा॥
तेहि अवसर केवटु धीरजु धरि। जोरि पानि बिनवत प्रनामु करि।।<br>
+
तेहि अवसर केवटु धीरजु धरि। जोरि पानि बिनवत प्रनामु करि॥
दो0-नाथ साथ मुनिनाथ के मातु सकल पुर लोग।<br>
+
दो0-नाथ साथ मुनिनाथ के मातु सकल पुर लोग।
सेवक सेनप सचिव सब आए बिकल बियोग।।242।।<br><br>
+
सेवक सेनप सचिव सब आए बिकल बियोग॥242॥
  
सीलसिंधु सुनि गुर आगवनू। सिय समीप राखे रिपुदवनू।।<br>
+
सीलसिंधु सुनि गुर आगवनू। सिय समीप राखे रिपुदवनू॥
चले सबेग रामु तेहि काला। धीर धरम धुर दीनदयाला।।<br>
+
चले सबेग रामु तेहि काला। धीर धरम धुर दीनदयाला॥
गुरहि देखि सानुज अनुरागे। दंड प्रनाम करन प्रभु लागे।।<br>
+
गुरहि देखि सानुज अनुरागे। दंड प्रनाम करन प्रभु लागे॥
मुनिबर धाइ लिए उर लाई। प्रेम उमगि भेंटे दोउ भाई।।<br>
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मुनिबर धाइ लिए उर लाई। प्रेम उमगि भेंटे दोउ भाई॥
प्रेम पुलकि केवट कहि नामू। कीन्ह दूरि तें दंड प्रनामू।।<br>
+
प्रेम पुलकि केवट कहि नामू। कीन्ह दूरि तें दंड प्रनामू॥
रामसखा रिषि बरबस भेंटा। जनु महि लुठत सनेह समेटा।।<br>
+
रामसखा रिषि बरबस भेंटा। जनु महि लुठत सनेह समेटा॥
रघुपति भगति सुमंगल मूला। नभ सराहि सुर बरिसहिं फूला।।<br>
+
रघुपति भगति सुमंगल मूला। नभ सराहि सुर बरिसहिं फूला॥
एहि सम निपट नीच कोउ नाहीं। बड़ बसिष्ठ सम को जग माहीं।।<br>
+
एहि सम निपट नीच कोउ नाहीं। बड़ बसिष्ठ सम को जग माहीं॥
दो0-जेहि लखि लखनहु तें अधिक मिले मुदित मुनिराउ।<br>
+
दो0-जेहि लखि लखनहु तें अधिक मिले मुदित मुनिराउ।
सो सीतापति भजन को प्रगट प्रताप प्रभाउ।।243।।<br><br>
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सो सीतापति भजन को प्रगट प्रताप प्रभाउ॥243॥
  
आरत लोग राम सबु जाना। करुनाकर सुजान भगवाना।।<br>
+
आरत लोग राम सबु जाना। करुनाकर सुजान भगवाना॥
जो जेहि भायँ रहा अभिलाषी। तेहि तेहि कै तसि तसि रुख राखी।।<br>
+
जो जेहि भायँ रहा अभिलाषी। तेहि तेहि कै तसि तसि रुख राखी॥
सानुज मिलि पल महु सब काहू। कीन्ह दूरि दुखु दारुन दाहू।।<br>
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सानुज मिलि पल महु सब काहू। कीन्ह दूरि दुखु दारुन दाहू॥
यह बड़ि बातँ राम कै नाहीं। जिमि घट कोटि एक रबि छाहीं।।<br>
+
यह बड़ि बातँ राम कै नाहीं। जिमि घट कोटि एक रबि छाहीं॥
मिलि केवटिहि उमगि अनुरागा। पुरजन सकल सराहहिं भागा।।<br>
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मिलि केवटिहि उमगि अनुरागा। पुरजन सकल सराहहिं भागा॥
देखीं राम दुखित महतारीं। जनु सुबेलि अवलीं हिम मारीं।।<br>
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देखीं राम दुखित महतारीं। जनु सुबेलि अवलीं हिम मारीं॥
प्रथम राम भेंटी कैकेई। सरल सुभायँ भगति मति भेई।।<br>
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प्रथम राम भेंटी कैकेई। सरल सुभायँ भगति मति भेई॥
पग परि कीन्ह प्रबोधु बहोरी। काल करम बिधि सिर धरि खोरी।।<br>
+
पग परि कीन्ह प्रबोधु बहोरी। काल करम बिधि सिर धरि खोरी॥
दो0-भेटीं रघुबर मातु सब करि प्रबोधु परितोषु।।<br>
+
दो0-भेटीं रघुबर मातु सब करि प्रबोधु परितोषु॥
अंब ईस आधीन जगु काहु न देइअ दोषु।।244।।<br><br>
+
अंब ईस आधीन जगु काहु न देइअ दोषु॥244॥
  
गुरतिय पद बंदे दुहु भाई। सहित बिप्रतिय जे सँग आई।।<br>
+
गुरतिय पद बंदे दुहु भाई। सहित बिप्रतिय जे सँग आई॥
गंग गौरि सम सब सनमानीं।।देहिं असीस मुदित मृदु बानी।।<br>
+
गंग गौरि सम सब सनमानीं॥देहिं असीस मुदित मृदु बानी॥
गहि पद लगे सुमित्रा अंका। जनु भेटीं संपति अति रंका।।<br>
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गहि पद लगे सुमित्रा अंका। जनु भेटीं संपति अति रंका॥
पुनि जननि चरननि दोउ भ्राता। परे पेम ब्याकुल सब गाता।।<br>
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पुनि जननि चरननि दोउ भ्राता। परे पेम ब्याकुल सब गाता॥
अति अनुराग अंब उर लाए। नयन सनेह सलिल अन्हवाए।।<br>
+
अति अनुराग अंब उर लाए। नयन सनेह सलिल अन्हवाए॥
तेहि अवसर कर हरष बिषादू। किमि कबि कहै मूक जिमि स्वादू।।<br>
+
तेहि अवसर कर हरष बिषादू। किमि कबि कहै मूक जिमि स्वादू॥
मिलि जननहि सानुज रघुराऊ। गुर सन कहेउ कि धारिअ पाऊ।।<br>
+
मिलि जननहि सानुज रघुराऊ। गुर सन कहेउ कि धारिअ पाऊ॥
पुरजन पाइ मुनीस नियोगू। जल थल तकि तकि उतरेउ लोगू।।<br>
+
पुरजन पाइ मुनीस नियोगू। जल थल तकि तकि उतरेउ लोगू॥
दो0-महिसुर मंत्री मातु गुर गने लोग लिए साथ।।<br>
+
दो0-महिसुर मंत्री मातु गुर गने लोग लिए साथ॥
पावन आश्रम गवनु किय भरत लखन रघुनाथ।।245।।<br><br>
+
पावन आश्रम गवनु किय भरत लखन रघुनाथ॥245॥
  
सीय आइ मुनिबर पग लागी। उचित असीस लही मन मागी।।<br>
+
सीय आइ मुनिबर पग लागी। उचित असीस लही मन मागी॥
गुरपतिनिहि मुनितियन्ह समेता। मिली पेमु कहि जाइ न जेता।।<br>
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गुरपतिनिहि मुनितियन्ह समेता। मिली पेमु कहि जाइ न जेता॥
बंदि बंदि पग सिय सबही के। आसिरबचन लहे प्रिय जी के।।<br>
+
बंदि बंदि पग सिय सबही के। आसिरबचन लहे प्रिय जी के॥
सासु सकल जब सीयँ निहारीं। मूदे नयन सहमि सुकुमारीं।।<br>
+
सासु सकल जब सीयँ निहारीं। मूदे नयन सहमि सुकुमारीं॥
परीं बधिक बस मनहुँ मरालीं। काह कीन्ह करतार कुचालीं।।<br>
+
परीं बधिक बस मनहुँ मरालीं। काह कीन्ह करतार कुचालीं॥
तिन्ह सिय निरखि निपट दुखु पावा। सो सबु सहिअ जो दैउ सहावा।।<br>
+
तिन्ह सिय निरखि निपट दुखु पावा। सो सबु सहिअ जो दैउ सहावा॥
जनकसुता तब उर धरि धीरा। नील नलिन लोयन भरि नीरा।।<br>
+
जनकसुता तब उर धरि धीरा। नील नलिन लोयन भरि नीरा॥
मिली सकल सासुन्ह सिय जाई। तेहि अवसर करुना महि छाई।।<br>
+
मिली सकल सासुन्ह सिय जाई। तेहि अवसर करुना महि छाई॥
दो0-लागि लागि पग सबनि सिय भेंटति अति अनुराग।।<br>
+
दो0-लागि लागि पग सबनि सिय भेंटति अति अनुराग॥
हृदयँ असीसहिं पेम बस रहिअहु भरी सोहाग।।246।।<br><br>
+
हृदयँ असीसहिं पेम बस रहिअहु भरी सोहाग॥246॥
  
बिकल सनेहँ सीय सब रानीं। बैठन सबहि कहेउ गुर ग्यानीं।।<br>
+
बिकल सनेहँ सीय सब रानीं। बैठन सबहि कहेउ गुर ग्यानीं॥
कहि जग गति मायिक मुनिनाथा। कहे कछुक परमारथ गाथा।।<br>
+
कहि जग गति मायिक मुनिनाथा। कहे कछुक परमारथ गाथा॥
नृप कर सुरपुर गवनु सुनावा। सुनि रघुनाथ दुसह दुखु पावा।।<br>
+
नृप कर सुरपुर गवनु सुनावा। सुनि रघुनाथ दुसह दुखु पावा॥
मरन हेतु निज नेहु बिचारी। भे अति बिकल धीर धुर धारी।।<br>
+
मरन हेतु निज नेहु बिचारी। भे अति बिकल धीर धुर धारी॥
कुलिस कठोर सुनत कटु बानी। बिलपत लखन सीय सब रानी।।<br>
+
कुलिस कठोर सुनत कटु बानी। बिलपत लखन सीय सब रानी॥
सोक बिकल अति सकल समाजू। मानहुँ राजु अकाजेउ आजू।।<br>
+
सोक बिकल अति सकल समाजू। मानहुँ राजु अकाजेउ आजू॥
मुनिबर बहुरि राम समुझाए। सहित समाज सुसरित नहाए।।<br>
+
मुनिबर बहुरि राम समुझाए। सहित समाज सुसरित नहाए॥
ब्रतु निरंबु तेहि दिन प्रभु कीन्हा। मुनिहु कहें जलु काहुँ न लीन्हा।।<br>
+
ब्रतु निरंबु तेहि दिन प्रभु कीन्हा। मुनिहु कहें जलु काहुँ न लीन्हा॥
दो0-भोरु भएँ रघुनंदनहि जो मुनि आयसु दीन्ह।।<br>
+
दो0-भोरु भएँ रघुनंदनहि जो मुनि आयसु दीन्ह॥
श्रद्धा भगति समेत प्रभु सो सबु सादरु कीन्ह।।247।।<br><br>
+
श्रद्धा भगति समेत प्रभु सो सबु सादरु कीन्ह॥247॥
  
करि पितु क्रिया बेद जसि बरनी। भे पुनीत पातक तम तरनी।।<br>
+
करि पितु क्रिया बेद जसि बरनी। भे पुनीत पातक तम तरनी॥
जासु नाम पावक अघ तूला। सुमिरत सकल सुमंगल मूला।।<br>
+
जासु नाम पावक अघ तूला। सुमिरत सकल सुमंगल मूला॥
सुद्ध सो भयउ साधु संमत अस। तीरथ आवाहन सुरसरि जस।।<br>
+
सुद्ध सो भयउ साधु संमत अस। तीरथ आवाहन सुरसरि जस॥
सुद्ध भएँ दुइ बासर बीते। बोले गुर सन राम पिरीते।।<br>
+
सुद्ध भएँ दुइ बासर बीते। बोले गुर सन राम पिरीते॥
नाथ लोग सब निपट दुखारी। कंद मूल फल अंबु अहारी।।<br>
+
नाथ लोग सब निपट दुखारी। कंद मूल फल अंबु अहारी॥
सानुज भरतु सचिव सब माता। देखि मोहि पल जिमि जुग जाता।।<br>
+
सानुज भरतु सचिव सब माता। देखि मोहि पल जिमि जुग जाता॥
सब समेत पुर धारिअ पाऊ। आपु इहाँ अमरावति राऊ।।<br>
+
सब समेत पुर धारिअ पाऊ। आपु इहाँ अमरावति राऊ॥
बहुत कहेउँ सब कियउँ ढिठाई। उचित होइ तस करिअ गोसाँई।।<br>
+
बहुत कहेउँ सब कियउँ ढिठाई। उचित होइ तस करिअ गोसाँई॥
दो0-धर्म सेतु करुनायतन कस न कहहु अस राम।<br>
+
दो0-धर्म सेतु करुनायतन कस न कहहु अस राम।
लोग दुखित दिन दुइ दरस देखि लहहुँ बिश्राम।।248।।<br><br>
+
लोग दुखित दिन दुइ दरस देखि लहहुँ बिश्राम॥248॥
  
राम बचन सुनि सभय समाजू। जनु जलनिधि महुँ बिकल जहाजू।।<br>
+
राम बचन सुनि सभय समाजू। जनु जलनिधि महुँ बिकल जहाजू॥
सुनि गुर गिरा सुमंगल मूला। भयउ मनहुँ मारुत अनुकुला।।<br>
+
सुनि गुर गिरा सुमंगल मूला। भयउ मनहुँ मारुत अनुकुला॥
पावन पयँ तिहुँ काल नहाहीं। जो बिलोकि अंघ ओघ नसाहीं।।<br>
+
पावन पयँ तिहुँ काल नहाहीं। जो बिलोकि अंघ ओघ नसाहीं॥
मंगलमूरति लोचन भरि भरि। निरखहिं हरषि दंडवत करि करि।।<br>
+
मंगलमूरति लोचन भरि भरि। निरखहिं हरषि दंडवत करि करि॥
राम सैल बन देखन जाहीं। जहँ सुख सकल सकल दुख नाहीं।।<br>
+
राम सैल बन देखन जाहीं। जहँ सुख सकल सकल दुख नाहीं॥
झरना झरिहिं सुधासम बारी। त्रिबिध तापहर त्रिबिध बयारी।।<br>
+
झरना झरिहिं सुधासम बारी। त्रिबिध तापहर त्रिबिध बयारी॥
बिटप बेलि तृन अगनित जाती। फल प्रसून पल्लव बहु भाँती।।<br>
+
बिटप बेलि तृन अगनित जाती। फल प्रसून पल्लव बहु भाँती॥
सुंदर सिला सुखद तरु छाहीं। जाइ बरनि बन छबि केहि पाहीं।।<br>
+
सुंदर सिला सुखद तरु छाहीं। जाइ बरनि बन छबि केहि पाहीं॥
दो0-सरनि सरोरुह जल बिहग कूजत गुंजत भृंग।<br>
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दो0-सरनि सरोरुह जल बिहग कूजत गुंजत भृंग।
बैर बिगत बिहरत बिपिन मृग बिहंग बहुरंग।।249।।<br><br>
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बैर बिगत बिहरत बिपिन मृग बिहंग बहुरंग॥249॥
  
कोल किरात भिल्ल बनबासी। मधु सुचि सुंदर स्वादु सुधा सी।।<br>
+
कोल किरात भिल्ल बनबासी। मधु सुचि सुंदर स्वादु सुधा सी॥
भरि भरि परन पुटीं रचि रुरी। कंद मूल फल अंकुर जूरी।।<br>
+
भरि भरि परन पुटीं रचि रुरी। कंद मूल फल अंकुर जूरी॥
सबहि देहिं करि बिनय प्रनामा। कहि कहि स्वाद भेद गुन नामा।।<br>
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सबहि देहिं करि बिनय प्रनामा। कहि कहि स्वाद भेद गुन नामा॥
देहिं लोग बहु मोल न लेहीं। फेरत राम दोहाई देहीं।।<br>
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देहिं लोग बहु मोल न लेहीं। फेरत राम दोहाई देहीं॥
कहहिं सनेह मगन मृदु बानी। मानत साधु पेम पहिचानी।।<br>
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कहहिं सनेह मगन मृदु बानी। मानत साधु पेम पहिचानी॥
तुम्ह सुकृती हम नीच निषादा। पावा दरसनु राम प्रसादा।।<br>
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तुम्ह सुकृती हम नीच निषादा। पावा दरसनु राम प्रसादा॥
हमहि अगम अति दरसु तुम्हारा। जस मरु धरनि देवधुनि धारा।।<br>
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हमहि अगम अति दरसु तुम्हारा। जस मरु धरनि देवधुनि धारा॥
राम कृपाल निषाद नेवाजा। परिजन प्रजउ चहिअ जस राजा।।<br>
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राम कृपाल निषाद नेवाजा। परिजन प्रजउ चहिअ जस राजा॥
दो0-यह जिँयँ जानि सँकोचु तजि करिअ छोहु लखि नेहु।<br>
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दो0-यह जिँयँ जानि सँकोचु तजि करिअ छोहु लखि नेहु।
हमहि कृतारथ करन लगि फल तृन अंकुर लेहु।।250।।<br><br>
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हमहि कृतारथ करन लगि फल तृन अंकुर लेहु॥250॥
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</poem>

12:15, 11 अप्रैल 2017 के समय का अवतरण

राम सुना दुखु कान न काऊ। जीवनतरु जिमि जोगवइ राऊ॥
पलक नयन फनि मनि जेहि भाँती। जोगवहिं जननि सकल दिन राती॥
ते अब फिरत बिपिन पदचारी। कंद मूल फल फूल अहारी॥
धिग कैकेई अमंगल मूला। भइसि प्रान प्रियतम प्रतिकूला॥
मैं धिग धिग अघ उदधि अभागी। सबु उतपातु भयउ जेहि लागी॥
कुल कलंकु करि सृजेउ बिधाताँ। साइँदोह मोहि कीन्ह कुमाताँ॥
सुनि सप्रेम समुझाव निषादू। नाथ करिअ कत बादि बिषादू॥
राम तुम्हहि प्रिय तुम्ह प्रिय रामहि। यह निरजोसु दोसु बिधि बामहि॥
छं0-बिधि बाम की करनी कठिन जेंहिं मातु कीन्ही बावरी।
तेहि राति पुनि पुनि करहिं प्रभु सादर सरहना रावरी॥
तुलसी न तुम्ह सो राम प्रीतमु कहतु हौं सौहें किएँ।
परिनाम मंगल जानि अपने आनिए धीरजु हिएँ॥
सो0-अंतरजामी रामु सकुच सप्रेम कृपायतन।
चलिअ करिअ बिश्रामु यह बिचारि दृढ़ आनि मन॥201॥

सखा बचन सुनि उर धरि धीरा। बास चले सुमिरत रघुबीरा॥
यह सुधि पाइ नगर नर नारी। चले बिलोकन आरत भारी॥
परदखिना करि करहिं प्रनामा। देहिं कैकइहि खोरि निकामा॥
भरी भरि बारि बिलोचन लेंहीं। बाम बिधाताहि दूषन देहीं॥
एक सराहहिं भरत सनेहू। कोउ कह नृपति निबाहेउ नेहू॥
निंदहिं आपु सराहि निषादहि। को कहि सकइ बिमोह बिषादहि॥
एहि बिधि राति लोगु सबु जागा। भा भिनुसार गुदारा लागा॥
गुरहि सुनावँ चढ़ाइ सुहाईं। नईं नाव सब मातु चढ़ाईं॥
दंड चारि महँ भा सबु पारा। उतरि भरत तब सबहि सँभारा॥
दो0-प्रातक्रिया करि मातु पद बंदि गुरहि सिरु नाइ।
आगें किए निषाद गन दीन्हेउ कटकु चलाइ॥202॥

कियउ निषादनाथु अगुआईं। मातु पालकीं सकल चलाईं॥
साथ बोलाइ भाइ लघु दीन्हा। बिप्रन्ह सहित गवनु गुर कीन्हा॥
आपु सुरसरिहि कीन्ह प्रनामू। सुमिरे लखन सहित सिय रामू॥
गवने भरत पयोदेहिं पाए। कोतल संग जाहिं डोरिआए॥
कहहिं सुसेवक बारहिं बारा। होइअ नाथ अस्व असवारा॥
रामु पयोदेहि पायँ सिधाए। हम कहँ रथ गज बाजि बनाए॥
सिर भर जाउँ उचित अस मोरा। सब तें सेवक धरमु कठोरा॥
देखि भरत गति सुनि मृदु बानी। सब सेवक गन गरहिं गलानी॥
दो0-भरत तीसरे पहर कहँ कीन्ह प्रबेसु प्रयाग।
कहत राम सिय राम सिय उमगि उमगि अनुराग॥203॥

झलका झलकत पायन्ह कैंसें। पंकज कोस ओस कन जैसें॥
भरत पयादेहिं आए आजू। भयउ दुखित सुनि सकल समाजू॥
खबरि लीन्ह सब लोग नहाए। कीन्ह प्रनामु त्रिबेनिहिं आए॥
सबिधि सितासित नीर नहाने। दिए दान महिसुर सनमाने॥
देखत स्यामल धवल हलोरे। पुलकि सरीर भरत कर जोरे॥
सकल काम प्रद तीरथराऊ। बेद बिदित जग प्रगट प्रभाऊ॥
मागउँ भीख त्यागि निज धरमू। आरत काह न करइ कुकरमू॥
अस जियँ जानि सुजान सुदानी। सफल करहिं जग जाचक बानी॥
दो0-अरथ न धरम न काम रुचि गति न चहउँ निरबान।
जनम जनम रति राम पद यह बरदानु न आन॥204॥

जानहुँ रामु कुटिल करि मोही। लोग कहउ गुर साहिब द्रोही॥
सीता राम चरन रति मोरें। अनुदिन बढ़उ अनुग्रह तोरें॥
जलदु जनम भरि सुरति बिसारउ। जाचत जलु पबि पाहन डारउ॥
चातकु रटनि घटें घटि जाई। बढ़े प्रेमु सब भाँति भलाई॥
कनकहिं बान चढ़इ जिमि दाहें। तिमि प्रियतम पद नेम निबाहें॥
भरत बचन सुनि माझ त्रिबेनी। भइ मृदु बानि सुमंगल देनी॥
तात भरत तुम्ह सब बिधि साधू। राम चरन अनुराग अगाधू॥
बाद गलानि करहु मन माहीं। तुम्ह सम रामहि कोउ प्रिय नाहीं॥
दो0-तनु पुलकेउ हियँ हरषु सुनि बेनि बचन अनुकूल।
भरत धन्य कहि धन्य सुर हरषित बरषहिं फूल॥205॥

प्रमुदित तीरथराज निवासी। बैखानस बटु गृही उदासी॥
कहहिं परसपर मिलि दस पाँचा। भरत सनेह सीलु सुचि साँचा॥
सुनत राम गुन ग्राम सुहाए। भरद्वाज मुनिबर पहिं आए॥
दंड प्रनामु करत मुनि देखे। मूरतिमंत भाग्य निज लेखे॥
धाइ उठाइ लाइ उर लीन्हे। दीन्हि असीस कृतारथ कीन्हे॥
आसनु दीन्ह नाइ सिरु बैठे। चहत सकुच गृहँ जनु भजि पैठे॥
मुनि पूँछब कछु यह बड़ सोचू। बोले रिषि लखि सीलु सँकोचू॥
सुनहु भरत हम सब सुधि पाई। बिधि करतब पर किछु न बसाई॥
दो0-तुम्ह गलानि जियँ जनि करहु समुझी मातु करतूति।
तात कैकइहि दोसु नहिं गई गिरा मति धूति॥206॥

यहउ कहत भल कहिहि न कोऊ। लोकु बेद बुध संमत दोऊ॥
तात तुम्हार बिमल जसु गाई। पाइहि लोकउ बेदु बड़ाई॥
लोक बेद संमत सबु कहई। जेहि पितु देइ राजु सो लहई॥
राउ सत्यब्रत तुम्हहि बोलाई। देत राजु सुखु धरमु बड़ाई॥
राम गवनु बन अनरथ मूला। जो सुनि सकल बिस्व भइ सूला॥
सो भावी बस रानि अयानी। करि कुचालि अंतहुँ पछितानी॥
तहँउँ तुम्हार अलप अपराधू। कहै सो अधम अयान असाधू॥
करतेहु राजु त तुम्हहि न दोषू। रामहि होत सुनत संतोषू॥
दो0-अब अति कीन्हेहु भरत भल तुम्हहि उचित मत एहु।
सकल सुमंगल मूल जग रघुबर चरन सनेहु॥207॥

सो तुम्हार धनु जीवनु प्राना। भूरिभाग को तुम्हहि समाना॥
यह तम्हार आचरजु न ताता। दसरथ सुअन राम प्रिय भ्राता॥
सुनहु भरत रघुबर मन माहीं। पेम पात्रु तुम्ह सम कोउ नाहीं॥
लखन राम सीतहि अति प्रीती। निसि सब तुम्हहि सराहत बीती॥
जाना मरमु नहात प्रयागा। मगन होहिं तुम्हरें अनुरागा॥
तुम्ह पर अस सनेहु रघुबर कें। सुख जीवन जग जस जड़ नर कें॥
यह न अधिक रघुबीर बड़ाई। प्रनत कुटुंब पाल रघुराई॥
तुम्ह तौ भरत मोर मत एहू। धरें देह जनु राम सनेहू॥
दो0-तुम्ह कहँ भरत कलंक यह हम सब कहँ उपदेसु।
राम भगति रस सिद्धि हित भा यह समउ गनेसु॥208॥

नव बिधु बिमल तात जसु तोरा। रघुबर किंकर कुमुद चकोरा॥
उदित सदा अँथइहि कबहूँ ना। घटिहि न जग नभ दिन दिन दूना॥
कोक तिलोक प्रीति अति करिही। प्रभु प्रताप रबि छबिहि न हरिही॥
निसि दिन सुखद सदा सब काहू। ग्रसिहि न कैकइ करतबु राहू॥
पूरन राम सुपेम पियूषा। गुर अवमान दोष नहिं दूषा॥
राम भगत अब अमिअँ अघाहूँ। कीन्हेहु सुलभ सुधा बसुधाहूँ॥
भूप भगीरथ सुरसरि आनी। सुमिरत सकल सुंमगल खानी॥
दसरथ गुन गन बरनि न जाहीं। अधिकु कहा जेहि सम जग नाहीं॥
दो0-जासु सनेह सकोच बस राम प्रगट भए आइ॥
जे हर हिय नयननि कबहुँ निरखे नहीं अघाइ॥209॥

कीरति बिधु तुम्ह कीन्ह अनूपा। जहँ बस राम पेम मृगरूपा॥
तात गलानि करहु जियँ जाएँ। डरहु दरिद्रहि पारसु पाएँ॥॥
सुनहु भरत हम झूठ न कहहीं। उदासीन तापस बन रहहीं॥
सब साधन कर सुफल सुहावा। लखन राम सिय दरसनु पावा॥
तेहि फल कर फलु दरस तुम्हारा। सहित पयाग सुभाग हमारा॥
भरत धन्य तुम्ह जसु जगु जयऊ। कहि अस पेम मगन पुनि भयऊ॥
सुनि मुनि बचन सभासद हरषे। साधु सराहि सुमन सुर बरषे॥
धन्य धन्य धुनि गगन पयागा। सुनि सुनि भरतु मगन अनुरागा॥
दो0-पुलक गात हियँ रामु सिय सजल सरोरुह नैन।
करि प्रनामु मुनि मंडलिहि बोले गदगद बैन॥210॥

मुनि समाजु अरु तीरथराजू। साँचिहुँ सपथ अघाइ अकाजू॥
एहिं थल जौं किछु कहिअ बनाई। एहि सम अधिक न अघ अधमाई॥
तुम्ह सर्बग्य कहउँ सतिभाऊ। उर अंतरजामी रघुराऊ॥
मोहि न मातु करतब कर सोचू। नहिं दुखु जियँ जगु जानिहि पोचू॥
नाहिन डरु बिगरिहि परलोकू। पितहु मरन कर मोहि न सोकू॥
सुकृत सुजस भरि भुअन सुहाए। लछिमन राम सरिस सुत पाए॥
राम बिरहँ तजि तनु छनभंगू। भूप सोच कर कवन प्रसंगू॥
राम लखन सिय बिनु पग पनहीं। करि मुनि बेष फिरहिं बन बनही॥
दो0-अजिन बसन फल असन महि सयन डासि कुस पात।
बसि तरु तर नित सहत हिम आतप बरषा बात॥211॥

एहि दुख दाहँ दहइ दिन छाती। भूख न बासर नीद न राती॥
एहि कुरोग कर औषधु नाहीं। सोधेउँ सकल बिस्व मन माहीं॥
मातु कुमत बढ़ई अघ मूला। तेहिं हमार हित कीन्ह बँसूला॥
कलि कुकाठ कर कीन्ह कुजंत्रू। गाड़ि अवधि पढ़ि कठिन कुमंत्रु॥
मोहि लगि यहु कुठाटु तेहिं ठाटा। घालेसि सब जगु बारहबाटा॥
मिटइ कुजोगु राम फिरि आएँ। बसइ अवध नहिं आन उपाएँ॥
भरत बचन सुनि मुनि सुखु पाई। सबहिं कीन्ह बहु भाँति बड़ाई॥
तात करहु जनि सोचु बिसेषी। सब दुखु मिटहि राम पग देखी॥
दो0-करि प्रबोध मुनिबर कहेउ अतिथि पेमप्रिय होहु।
कंद मूल फल फूल हम देहिं लेहु करि छोहु॥212॥

सुनि मुनि बचन भरत हिँय सोचू। भयउ कुअवसर कठिन सँकोचू॥
जानि गरुइ गुर गिरा बहोरी। चरन बंदि बोले कर जोरी॥
सिर धरि आयसु करिअ तुम्हारा। परम धरम यहु नाथ हमारा॥
भरत बचन मुनिबर मन भाए। सुचि सेवक सिष निकट बोलाए॥
चाहिए कीन्ह भरत पहुनाई। कंद मूल फल आनहु जाई॥
भलेहीं नाथ कहि तिन्ह सिर नाए। प्रमुदित निज निज काज सिधाए॥
मुनिहि सोच पाहुन बड़ नेवता। तसि पूजा चाहिअ जस देवता॥
सुनि रिधि सिधि अनिमादिक आई। आयसु होइ सो करहिं गोसाई॥
दो0-राम बिरह ब्याकुल भरतु सानुज सहित समाज।
पहुनाई करि हरहु श्रम कहा मुदित मुनिराज॥213॥

रिधि सिधि सिर धरि मुनिबर बानी। बड़भागिनि आपुहि अनुमानी॥
कहहिं परसपर सिधि समुदाई। अतुलित अतिथि राम लघु भाई॥
मुनि पद बंदि करिअ सोइ आजू। होइ सुखी सब राज समाजू॥
अस कहि रचेउ रुचिर गृह नाना। जेहि बिलोकि बिलखाहिं बिमाना॥
भोग बिभूति भूरि भरि राखे। देखत जिन्हहि अमर अभिलाषे॥
दासीं दास साजु सब लीन्हें। जोगवत रहहिं मनहि मनु दीन्हें॥
सब समाजु सजि सिधि पल माहीं। जे सुख सुरपुर सपनेहुँ नाहीं॥
प्रथमहिं बास दिए सब केही। सुंदर सुखद जथा रुचि जेही॥
दो0-बहुरि सपरिजन भरत कहुँ रिषि अस आयसु दीन्ह।
बिधि बिसमय दायकु बिभव मुनिबर तपबल कीन्ह॥214॥

मुनि प्रभाउ जब भरत बिलोका। सब लघु लगे लोकपति लोका॥
सुख समाजु नहिं जाइ बखानी। देखत बिरति बिसारहीं ग्यानी॥
आसन सयन सुबसन बिताना। बन बाटिका बिहग मृग नाना॥
सुरभि फूल फल अमिअ समाना। बिमल जलासय बिबिध बिधाना।
असन पान सुच अमिअ अमी से। देखि लोग सकुचात जमी से॥
सुर सुरभी सुरतरु सबही कें। लखि अभिलाषु सुरेस सची कें॥
रितु बसंत बह त्रिबिध बयारी। सब कहँ सुलभ पदारथ चारी॥
स्त्रक चंदन बनितादिक भोगा। देखि हरष बिसमय बस लोगा॥
दो0-संपत चकई भरतु चक मुनि आयस खेलवार॥
तेहि निसि आश्रम पिंजराँ राखे भा भिनुसार॥215॥

मासपारायण, उन्नीसवाँ विश्राम

कीन्ह निमज्जनु तीरथराजा। नाइ मुनिहि सिरु सहित समाजा॥
रिषि आयसु असीस सिर राखी। करि दंडवत बिनय बहु भाषी॥
पथ गति कुसल साथ सब लीन्हे। चले चित्रकूटहिं चितु दीन्हें॥
रामसखा कर दीन्हें लागू। चलत देह धरि जनु अनुरागू॥
नहिं पद त्रान सीस नहिं छाया। पेमु नेमु ब्रतु धरमु अमाया॥
लखन राम सिय पंथ कहानी। पूँछत सखहि कहत मृदु बानी॥
राम बास थल बिटप बिलोकें। उर अनुराग रहत नहिं रोकैं॥
दैखि दसा सुर बरिसहिं फूला। भइ मृदु महि मगु मंगल मूला॥
दो0-किएँ जाहिं छाया जलद सुखद बहइ बर बात।
तस मगु भयउ न राम कहँ जस भा भरतहि जात॥216॥

जड़ चेतन मग जीव घनेरे। जे चितए प्रभु जिन्ह प्रभु हेरे॥
ते सब भए परम पद जोगू। भरत दरस मेटा भव रोगू॥
यह बड़ि बात भरत कइ नाहीं। सुमिरत जिनहि रामु मन माहीं॥
बारक राम कहत जग जेऊ। होत तरन तारन नर तेऊ॥
भरतु राम प्रिय पुनि लघु भ्राता। कस न होइ मगु मंगलदाता॥
सिद्ध साधु मुनिबर अस कहहीं। भरतहि निरखि हरषु हियँ लहहीं॥
देखि प्रभाउ सुरेसहि सोचू। जगु भल भलेहि पोच कहुँ पोचू॥
गुर सन कहेउ करिअ प्रभु सोई। रामहि भरतहि भेंट न होई॥
दो0-रामु सँकोची प्रेम बस भरत सपेम पयोधि।
बनी बात बेगरन चहति करिअ जतनु छलु सोधि॥217॥

बचन सुनत सुरगुरु मुसकाने। सहसनयन बिनु लोचन जाने॥
मायापति सेवक सन माया। करइ त उलटि परइ सुरराया॥
तब किछु कीन्ह राम रुख जानी। अब कुचालि करि होइहि हानी॥
सुनु सुरेस रघुनाथ सुभाऊ। निज अपराध रिसाहिं न काऊ॥
जो अपराधु भगत कर करई। राम रोष पावक सो जरई॥
लोकहुँ बेद बिदित इतिहासा। यह महिमा जानहिं दुरबासा॥
भरत सरिस को राम सनेही। जगु जप राम रामु जप जेही॥
दो0-मनहुँ न आनिअ अमरपति रघुबर भगत अकाजु।
अजसु लोक परलोक दुख दिन दिन सोक समाजु॥218॥

सुनु सुरेस उपदेसु हमारा। रामहि सेवकु परम पिआरा॥
मानत सुखु सेवक सेवकाई। सेवक बैर बैरु अधिकाई॥
जद्यपि सम नहिं राग न रोषू। गहहिं न पाप पूनु गुन दोषू॥
करम प्रधान बिस्व करि राखा। जो जस करइ सो तस फलु चाखा॥
तदपि करहिं सम बिषम बिहारा। भगत अभगत हृदय अनुसारा॥
अगुन अलेप अमान एकरस। रामु सगुन भए भगत पेम बस॥
राम सदा सेवक रुचि राखी। बेद पुरान साधु सुर साखी॥
अस जियँ जानि तजहु कुटिलाई। करहु भरत पद प्रीति सुहाई॥
दो0-राम भगत परहित निरत पर दुख दुखी दयाल।
भगत सिरोमनि भरत तें जनि डरपहु सुरपाल॥219॥

सत्यसंध प्रभु सुर हितकारी। भरत राम आयस अनुसारी॥
स्वारथ बिबस बिकल तुम्ह होहू। भरत दोसु नहिं राउर मोहू॥
सुनि सुरबर सुरगुर बर बानी। भा प्रमोदु मन मिटी गलानी॥
बरषि प्रसून हरषि सुरराऊ। लगे सराहन भरत सुभाऊ॥
एहि बिधि भरत चले मग जाहीं। दसा देखि मुनि सिद्ध सिहाहीं॥
जबहिं रामु कहि लेहिं उसासा। उमगत पेमु मनहँ चहु पासा॥
द्रवहिं बचन सुनि कुलिस पषाना। पुरजन पेमु न जाइ बखाना॥
बीच बास करि जमुनहिं आए। निरखि नीरु लोचन जल छाए॥
दो0-रघुबर बरन बिलोकि बर बारि समेत समाज।
होत मगन बारिधि बिरह चढ़े बिबेक जहाज॥220॥

जमुन तीर तेहि दिन करि बासू। भयउ समय सम सबहि सुपासू॥
रातहिं घाट घाट की तरनी। आईं अगनित जाहिं न बरनी॥
प्रात पार भए एकहि खेंवाँ। तोषे रामसखा की सेवाँ॥
चले नहाइ नदिहि सिर नाई। साथ निषादनाथ दोउ भाई॥
आगें मुनिबर बाहन आछें। राजसमाज जाइ सबु पाछें॥
तेहिं पाछें दोउ बंधु पयादें। भूषन बसन बेष सुठि सादें॥
सेवक सुह्रद सचिवसुत साथा। सुमिरत लखनु सीय रघुनाथा॥
जहँ जहँ राम बास बिश्रामा। तहँ तहँ करहिं सप्रेम प्रनामा॥
दो0-मगबासी नर नारि सुनि धाम काम तजि धाइ।
देखि सरूप सनेह सब मुदित जनम फलु पाइ॥221॥

कहहिं सपेम एक एक पाहीं। रामु लखनु सखि होहिं कि नाहीं॥
बय बपु बरन रूप सोइ आली। सीलु सनेहु सरिस सम चाली॥
बेषु न सो सखि सीय न संगा। आगें अनी चली चतुरंगा॥
नहिं प्रसन्न मुख मानस खेदा। सखि संदेहु होइ एहिं भेदा॥
तासु तरक तियगन मन मानी। कहहिं सकल तेहि सम न सयानी॥
तेहि सराहि बानी फुरि पूजी। बोली मधुर बचन तिय दूजी॥
कहि सपेम सब कथाप्रसंगू। जेहि बिधि राम राज रस भंगू॥
भरतहि बहुरि सराहन लागी। सील सनेह सुभाय सुभागी॥
दो0-चलत पयादें खात फल पिता दीन्ह तजि राजु।
जात मनावन रघुबरहि भरत सरिस को आजु॥222॥

भायप भगति भरत आचरनू। कहत सुनत दुख दूषन हरनू॥
जो कछु कहब थोर सखि सोई। राम बंधु अस काहे न होई॥
हम सब सानुज भरतहि देखें। भइन्ह धन्य जुबती जन लेखें॥
सुनि गुन देखि दसा पछिताहीं। कैकइ जननि जोगु सुतु नाहीं॥
कोउ कह दूषनु रानिहि नाहिन। बिधि सबु कीन्ह हमहि जो दाहिन॥
कहँ हम लोक बेद बिधि हीनी। लघु तिय कुल करतूति मलीनी॥
बसहिं कुदेस कुगाँव कुबामा। कहँ यह दरसु पुन्य परिनामा॥
अस अनंदु अचिरिजु प्रति ग्रामा। जनु मरुभूमि कलपतरु जामा॥
दो0-भरत दरसु देखत खुलेउ मग लोगन्ह कर भागु।
जनु सिंघलबासिन्ह भयउ बिधि बस सुलभ प्रयागु॥223॥

निज गुन सहित राम गुन गाथा। सुनत जाहिं सुमिरत रघुनाथा॥
तीरथ मुनि आश्रम सुरधामा। निरखि निमज्जहिं करहिं प्रनामा॥
मनहीं मन मागहिं बरु एहू। सीय राम पद पदुम सनेहू॥
मिलहिं किरात कोल बनबासी। बैखानस बटु जती उदासी॥
करि प्रनामु पूँछहिं जेहिं तेही। केहि बन लखनु रामु बैदेही॥
ते प्रभु समाचार सब कहहीं। भरतहि देखि जनम फलु लहहीं॥
जे जन कहहिं कुसल हम देखे। ते प्रिय राम लखन सम लेखे॥
एहि बिधि बूझत सबहि सुबानी। सुनत राम बनबास कहानी॥
दो0-तेहि बासर बसि प्रातहीं चले सुमिरि रघुनाथ।
राम दरस की लालसा भरत सरिस सब साथ॥224॥

मंगल सगुन होहिं सब काहू। फरकहिं सुखद बिलोचन बाहू॥
भरतहि सहित समाज उछाहू। मिलिहहिं रामु मिटहि दुख दाहू॥
करत मनोरथ जस जियँ जाके। जाहिं सनेह सुराँ सब छाके॥
सिथिल अंग पग मग डगि डोलहिं। बिहबल बचन पेम बस बोलहिं॥
रामसखाँ तेहि समय देखावा। सैल सिरोमनि सहज सुहावा॥
जासु समीप सरित पय तीरा। सीय समेत बसहिं दोउ बीरा॥
देखि करहिं सब दंड प्रनामा। कहि जय जानकि जीवन रामा॥
प्रेम मगन अस राज समाजू। जनु फिरि अवध चले रघुराजू॥
दो0-भरत प्रेमु तेहि समय जस तस कहि सकइ न सेषु।
कबिहिं अगम जिमि ब्रह्मसुखु अह मम मलिन जनेषु॥225॥

सकल सनेह सिथिल रघुबर कें। गए कोस दुइ दिनकर ढरकें॥
जलु थलु देखि बसे निसि बीतें। कीन्ह गवन रघुनाथ पिरीतें॥
उहाँ रामु रजनी अवसेषा। जागे सीयँ सपन अस देखा॥
सहित समाज भरत जनु आए। नाथ बियोग ताप तन ताए॥
सकल मलिन मन दीन दुखारी। देखीं सासु आन अनुहारी॥
सुनि सिय सपन भरे जल लोचन। भए सोचबस सोच बिमोचन॥
लखन सपन यह नीक न होई। कठिन कुचाह सुनाइहि कोई॥
अस कहि बंधु समेत नहाने। पूजि पुरारि साधु सनमाने॥
छं0-सनमानि सुर मुनि बंदि बैठे उत्तर दिसि देखत भए।
नभ धूरि खग मृग भूरि भागे बिकल प्रभु आश्रम गए॥
तुलसी उठे अवलोकि कारनु काह चित सचकित रहे।
सब समाचार किरात कोलन्हि आइ तेहि अवसर कहे॥
दो0-सुनत सुमंगल बैन मन प्रमोद तन पुलक भर।
सरद सरोरुह नैन तुलसी भरे सनेह जल॥226॥

बहुरि सोचबस भे सियरवनू। कारन कवन भरत आगवनू॥
एक आइ अस कहा बहोरी। सेन संग चतुरंग न थोरी॥
सो सुनि रामहि भा अति सोचू। इत पितु बच इत बंधु सकोचू॥
भरत सुभाउ समुझि मन माहीं। प्रभु चित हित थिति पावत नाही॥
समाधान तब भा यह जाने। भरतु कहे महुँ साधु सयाने॥
लखन लखेउ प्रभु हृदयँ खभारू। कहत समय सम नीति बिचारू॥
बिनु पूँछ कछु कहउँ गोसाईं। सेवकु समयँ न ढीठ ढिठाई॥
तुम्ह सर्बग्य सिरोमनि स्वामी। आपनि समुझि कहउँ अनुगामी॥
दो0-नाथ सुह्रद सुठि सरल चित सील सनेह निधान॥
सब पर प्रीति प्रतीति जियँ जानिअ आपु समान॥227॥

बिषई जीव पाइ प्रभुताई। मूढ़ मोह बस होहिं जनाई॥
भरतु नीति रत साधु सुजाना। प्रभु पद प्रेम सकल जगु जाना॥
तेऊ आजु राम पदु पाई। चले धरम मरजाद मेटाई॥
कुटिल कुबंध कुअवसरु ताकी। जानि राम बनवास एकाकी॥
करि कुमंत्रु मन साजि समाजू। आए करै अकंटक राजू॥
कोटि प्रकार कलपि कुटलाई। आए दल बटोरि दोउ भाई॥
जौं जियँ होति न कपट कुचाली। केहि सोहाति रथ बाजि गजाली॥
भरतहि दोसु देइ को जाएँ। जग बौराइ राज पदु पाएँ॥
दो0-ससि गुर तिय गामी नघुषु चढ़ेउ भूमिसुर जान।
लोक बेद तें बिमुख भा अधम न बेन समान॥228॥

सहसबाहु सुरनाथु त्रिसंकू। केहि न राजमद दीन्ह कलंकू॥
भरत कीन्ह यह उचित उपाऊ। रिपु रिन रंच न राखब काऊ॥
एक कीन्हि नहिं भरत भलाई। निदरे रामु जानि असहाई॥
समुझि परिहि सोउ आजु बिसेषी। समर सरोष राम मुखु पेखी॥
एतना कहत नीति रस भूला। रन रस बिटपु पुलक मिस फूला॥
प्रभु पद बंदि सीस रज राखी। बोले सत्य सहज बलु भाषी॥
अनुचित नाथ न मानब मोरा। भरत हमहि उपचार न थोरा॥
कहँ लगि सहिअ रहिअ मनु मारें। नाथ साथ धनु हाथ हमारें॥
दो0-छत्रि जाति रघुकुल जनमु राम अनुग जगु जान।
लातहुँ मारें चढ़ति सिर नीच को धूरि समान॥229॥

उठि कर जोरि रजायसु मागा। मनहुँ बीर रस सोवत जागा॥
बाँधि जटा सिर कसि कटि भाथा। साजि सरासनु सायकु हाथा॥
आजु राम सेवक जसु लेऊँ। भरतहि समर सिखावन देऊँ॥
राम निरादर कर फलु पाई। सोवहुँ समर सेज दोउ भाई॥
आइ बना भल सकल समाजू। प्रगट करउँ रिस पाछिल आजू॥
जिमि करि निकर दलइ मृगराजू। लेइ लपेटि लवा जिमि बाजू॥
तैसेहिं भरतहि सेन समेता। सानुज निदरि निपातउँ खेता॥
जौं सहाय कर संकरु आई। तौ मारउँ रन राम दोहाई॥
दो0-अति सरोष माखे लखनु लखि सुनि सपथ प्रवान।
सभय लोक सब लोकपति चाहत भभरि भगान॥230॥

जगु भय मगन गगन भइ बानी। लखन बाहुबलु बिपुल बखानी॥
तात प्रताप प्रभाउ तुम्हारा। को कहि सकइ को जाननिहारा॥
अनुचित उचित काजु किछु होऊ। समुझि करिअ भल कह सबु कोऊ॥
सहसा करि पाछैं पछिताहीं। कहहिं बेद बुध ते बुध नाहीं॥
सुनि सुर बचन लखन सकुचाने। राम सीयँ सादर सनमाने॥
कही तात तुम्ह नीति सुहाई। सब तें कठिन राजमदु भाई॥
जो अचवँत नृप मातहिं तेई। नाहिन साधुसभा जेहिं सेई॥
सुनहु लखन भल भरत सरीसा। बिधि प्रपंच महँ सुना न दीसा॥
दो0-भरतहि होइ न राजमदु बिधि हरि हर पद पाइ॥
कबहुँ कि काँजी सीकरनि छीरसिंधु बिनसाइ॥231॥

तिमिरु तरुन तरनिहि मकु गिलई। गगनु मगन मकु मेघहिं मिलई॥
गोपद जल बूड़हिं घटजोनी। सहज छमा बरु छाड़ै छोनी॥
मसक फूँक मकु मेरु उड़ाई। होइ न नृपमदु भरतहि भाई॥
लखन तुम्हार सपथ पितु आना। सुचि सुबंधु नहिं भरत समाना॥
सगुन खीरु अवगुन जलु ताता। मिलइ रचइ परपंचु बिधाता॥
भरतु हंस रबिबंस तड़ागा। जनमि कीन्ह गुन दोष बिभागा॥
गहि गुन पय तजि अवगुन बारी। निज जस जगत कीन्हि उजिआरी॥
कहत भरत गुन सीलु सुभाऊ। पेम पयोधि मगन रघुराऊ॥
दो0-सुनि रघुबर बानी बिबुध देखि भरत पर हेतु।
सकल सराहत राम सो प्रभु को कृपानिकेतु॥232॥

जौं न होत जग जनम भरत को। सकल धरम धुर धरनि धरत को॥
कबि कुल अगम भरत गुन गाथा। को जानइ तुम्ह बिनु रघुनाथा॥
लखन राम सियँ सुनि सुर बानी। अति सुखु लहेउ न जाइ बखानी॥
इहाँ भरतु सब सहित सहाए। मंदाकिनीं पुनीत नहाए॥
सरित समीप राखि सब लोगा। मागि मातु गुर सचिव नियोगा॥
चले भरतु जहँ सिय रघुराई। साथ निषादनाथु लघु भाई॥
समुझि मातु करतब सकुचाहीं। करत कुतरक कोटि मन माहीं॥
रामु लखनु सिय सुनि मम नाऊँ। उठि जनि अनत जाहिं तजि ठाऊँ॥
दो0-मातु मते महुँ मानि मोहि जो कछु करहिं सो थोर।
अघ अवगुन छमि आदरहिं समुझि आपनी ओर॥233॥

जौं परिहरहिं मलिन मनु जानी। जौ सनमानहिं सेवकु मानी॥
मोरें सरन रामहि की पनही। राम सुस्वामि दोसु सब जनही॥
जग जस भाजन चातक मीना। नेम पेम निज निपुन नबीना॥
अस मन गुनत चले मग जाता। सकुच सनेहँ सिथिल सब गाता॥
फेरत मनहुँ मातु कृत खोरी। चलत भगति बल धीरज धोरी॥
जब समुझत रघुनाथ सुभाऊ। तब पथ परत उताइल पाऊ॥
भरत दसा तेहि अवसर कैसी। जल प्रबाहँ जल अलि गति जैसी॥
देखि भरत कर सोचु सनेहू। भा निषाद तेहि समयँ बिदेहू॥
दो0-लगे होन मंगल सगुन सुनि गुनि कहत निषादु।
मिटिहि सोचु होइहि हरषु पुनि परिनाम बिषादु॥234॥

सेवक बचन सत्य सब जाने। आश्रम निकट जाइ निअराने॥
भरत दीख बन सैल समाजू। मुदित छुधित जनु पाइ सुनाजू॥
ईति भीति जनु प्रजा दुखारी। त्रिबिध ताप पीड़ित ग्रह मारी॥
जाइ सुराज सुदेस सुखारी। होहिं भरत गति तेहि अनुहारी॥
राम बास बन संपति भ्राजा। सुखी प्रजा जनु पाइ सुराजा॥
सचिव बिरागु बिबेकु नरेसू। बिपिन सुहावन पावन देसू॥
भट जम नियम सैल रजधानी। सांति सुमति सुचि सुंदर रानी॥
सकल अंग संपन्न सुराऊ। राम चरन आश्रित चित चाऊ॥
दो0-जीति मोह महिपालु दल सहित बिबेक भुआलु।
करत अकंटक राजु पुरँ सुख संपदा सुकालु॥235॥

बन प्रदेस मुनि बास घनेरे। जनु पुर नगर गाउँ गन खेरे॥
बिपुल बिचित्र बिहग मृग नाना। प्रजा समाजु न जाइ बखाना॥
खगहा करि हरि बाघ बराहा। देखि महिष बृष साजु सराहा॥
बयरु बिहाइ चरहिं एक संगा। जहँ तहँ मनहुँ सेन चतुरंगा॥
झरना झरहिं मत्त गज गाजहिं। मनहुँ निसान बिबिधि बिधि बाजहिं॥
चक चकोर चातक सुक पिक गन। कूजत मंजु मराल मुदित मन॥
अलिगन गावत नाचत मोरा। जनु सुराज मंगल चहु ओरा॥
बेलि बिटप तृन सफल सफूला। सब समाजु मुद मंगल मूला॥
दो-राम सैल सोभा निरखि भरत हृदयँ अति पेमु।
तापस तप फलु पाइ जिमि सुखी सिरानें नेमु॥236॥

मासपारायण, बीसवाँ विश्राम

नवाह्नपारायण, पाँचवाँ विश्राम

तब केवट ऊँचें चढ़ि धाई। कहेउ भरत सन भुजा उठाई॥
नाथ देखिअहिं बिटप बिसाला। पाकरि जंबु रसाल तमाला॥
जिन्ह तरुबरन्ह मध्य बटु सोहा। मंजु बिसाल देखि मनु मोहा॥
नील सघन पल्ल्व फल लाला। अबिरल छाहँ सुखद सब काला॥
मानहुँ तिमिर अरुनमय रासी। बिरची बिधि सँकेलि सुषमा सी॥
ए तरु सरित समीप गोसाँई। रघुबर परनकुटी जहँ छाई॥
तुलसी तरुबर बिबिध सुहाए। कहुँ कहुँ सियँ कहुँ लखन लगाए॥
बट छायाँ बेदिका बनाई। सियँ निज पानि सरोज सुहाई॥
दो0-जहाँ बैठि मुनिगन सहित नित सिय रामु सुजान।
सुनहिं कथा इतिहास सब आगम निगम पुरान॥237॥

सखा बचन सुनि बिटप निहारी। उमगे भरत बिलोचन बारी॥
करत प्रनाम चले दोउ भाई। कहत प्रीति सारद सकुचाई॥
हरषहिं निरखि राम पद अंका। मानहुँ पारसु पायउ रंका॥
रज सिर धरि हियँ नयनन्हि लावहिं। रघुबर मिलन सरिस सुख पावहिं॥
देखि भरत गति अकथ अतीवा। प्रेम मगन मृग खग जड़ जीवा॥
सखहि सनेह बिबस मग भूला। कहि सुपंथ सुर बरषहिं फूला॥
निरखि सिद्ध साधक अनुरागे। सहज सनेहु सराहन लागे॥
होत न भूतल भाउ भरत को। अचर सचर चर अचर करत को॥
दो0-पेम अमिअ मंदरु बिरहु भरतु पयोधि गँभीर।
मथि प्रगटेउ सुर साधु हित कृपासिंधु रघुबीर॥238॥

सखा समेत मनोहर जोटा। लखेउ न लखन सघन बन ओटा॥
भरत दीख प्रभु आश्रमु पावन। सकल सुमंगल सदनु सुहावन॥
करत प्रबेस मिटे दुख दावा। जनु जोगीं परमारथु पावा॥
देखे भरत लखन प्रभु आगे। पूँछे बचन कहत अनुरागे॥
सीस जटा कटि मुनि पट बाँधें। तून कसें कर सरु धनु काँधें॥
बेदी पर मुनि साधु समाजू। सीय सहित राजत रघुराजू॥
बलकल बसन जटिल तनु स्यामा। जनु मुनि बेष कीन्ह रति कामा॥
कर कमलनि धनु सायकु फेरत। जिय की जरनि हरत हँसि हेरत॥
दो0-लसत मंजु मुनि मंडली मध्य सीय रघुचंदु।
ग्यान सभाँ जनु तनु धरे भगति सच्चिदानंदु॥239॥

सानुज सखा समेत मगन मन। बिसरे हरष सोक सुख दुख गन॥
पाहि नाथ कहि पाहि गोसाई। भूतल परे लकुट की नाई॥
बचन सपेम लखन पहिचाने। करत प्रनामु भरत जियँ जाने॥
बंधु सनेह सरस एहि ओरा। उत साहिब सेवा बस जोरा॥
मिलि न जाइ नहिं गुदरत बनई। सुकबि लखन मन की गति भनई॥
रहे राखि सेवा पर भारू। चढ़ी चंग जनु खैंच खेलारू॥
कहत सप्रेम नाइ महि माथा। भरत प्रनाम करत रघुनाथा॥
उठे रामु सुनि पेम अधीरा। कहुँ पट कहुँ निषंग धनु तीरा॥
दो0-बरबस लिए उठाइ उर लाए कृपानिधान।
भरत राम की मिलनि लखि बिसरे सबहि अपान॥240॥

मिलनि प्रीति किमि जाइ बखानी। कबिकुल अगम करम मन बानी॥
परम पेम पूरन दोउ भाई। मन बुधि चित अहमिति बिसराई॥
कहहु सुपेम प्रगट को करई। केहि छाया कबि मति अनुसरई॥
कबिहि अरथ आखर बलु साँचा। अनुहरि ताल गतिहि नटु नाचा॥
अगम सनेह भरत रघुबर को। जहँ न जाइ मनु बिधि हरि हर को॥
सो मैं कुमति कहौं केहि भाँती। बाज सुराग कि गाँडर ताँती॥
मिलनि बिलोकि भरत रघुबर की। सुरगन सभय धकधकी धरकी॥
समुझाए सुरगुरु जड़ जागे। बरषि प्रसून प्रसंसन लागे॥
दो0-मिलि सपेम रिपुसूदनहि केवटु भेंटेउ राम।
भूरि भायँ भेंटे भरत लछिमन करत प्रनाम॥241॥

भेंटेउ लखन ललकि लघु भाई। बहुरि निषादु लीन्ह उर लाई॥
पुनि मुनिगन दुहुँ भाइन्ह बंदे। अभिमत आसिष पाइ अनंदे॥
सानुज भरत उमगि अनुरागा। धरि सिर सिय पद पदुम परागा॥
पुनि पुनि करत प्रनाम उठाए। सिर कर कमल परसि बैठाए॥
सीयँ असीस दीन्हि मन माहीं। मगन सनेहँ देह सुधि नाहीं॥
सब बिधि सानुकूल लखि सीता। भे निसोच उर अपडर बीता॥
कोउ किछु कहइ न कोउ किछु पूँछा। प्रेम भरा मन निज गति छूँछा॥
तेहि अवसर केवटु धीरजु धरि। जोरि पानि बिनवत प्रनामु करि॥
दो0-नाथ साथ मुनिनाथ के मातु सकल पुर लोग।
सेवक सेनप सचिव सब आए बिकल बियोग॥242॥

सीलसिंधु सुनि गुर आगवनू। सिय समीप राखे रिपुदवनू॥
चले सबेग रामु तेहि काला। धीर धरम धुर दीनदयाला॥
गुरहि देखि सानुज अनुरागे। दंड प्रनाम करन प्रभु लागे॥
मुनिबर धाइ लिए उर लाई। प्रेम उमगि भेंटे दोउ भाई॥
प्रेम पुलकि केवट कहि नामू। कीन्ह दूरि तें दंड प्रनामू॥
रामसखा रिषि बरबस भेंटा। जनु महि लुठत सनेह समेटा॥
रघुपति भगति सुमंगल मूला। नभ सराहि सुर बरिसहिं फूला॥
एहि सम निपट नीच कोउ नाहीं। बड़ बसिष्ठ सम को जग माहीं॥
दो0-जेहि लखि लखनहु तें अधिक मिले मुदित मुनिराउ।
सो सीतापति भजन को प्रगट प्रताप प्रभाउ॥243॥

आरत लोग राम सबु जाना। करुनाकर सुजान भगवाना॥
जो जेहि भायँ रहा अभिलाषी। तेहि तेहि कै तसि तसि रुख राखी॥
सानुज मिलि पल महु सब काहू। कीन्ह दूरि दुखु दारुन दाहू॥
यह बड़ि बातँ राम कै नाहीं। जिमि घट कोटि एक रबि छाहीं॥
मिलि केवटिहि उमगि अनुरागा। पुरजन सकल सराहहिं भागा॥
देखीं राम दुखित महतारीं। जनु सुबेलि अवलीं हिम मारीं॥
प्रथम राम भेंटी कैकेई। सरल सुभायँ भगति मति भेई॥
पग परि कीन्ह प्रबोधु बहोरी। काल करम बिधि सिर धरि खोरी॥
दो0-भेटीं रघुबर मातु सब करि प्रबोधु परितोषु॥
अंब ईस आधीन जगु काहु न देइअ दोषु॥244॥

गुरतिय पद बंदे दुहु भाई। सहित बिप्रतिय जे सँग आई॥
गंग गौरि सम सब सनमानीं॥देहिं असीस मुदित मृदु बानी॥
गहि पद लगे सुमित्रा अंका। जनु भेटीं संपति अति रंका॥
पुनि जननि चरननि दोउ भ्राता। परे पेम ब्याकुल सब गाता॥
अति अनुराग अंब उर लाए। नयन सनेह सलिल अन्हवाए॥
तेहि अवसर कर हरष बिषादू। किमि कबि कहै मूक जिमि स्वादू॥
मिलि जननहि सानुज रघुराऊ। गुर सन कहेउ कि धारिअ पाऊ॥
पुरजन पाइ मुनीस नियोगू। जल थल तकि तकि उतरेउ लोगू॥
दो0-महिसुर मंत्री मातु गुर गने लोग लिए साथ॥
पावन आश्रम गवनु किय भरत लखन रघुनाथ॥245॥

सीय आइ मुनिबर पग लागी। उचित असीस लही मन मागी॥
गुरपतिनिहि मुनितियन्ह समेता। मिली पेमु कहि जाइ न जेता॥
बंदि बंदि पग सिय सबही के। आसिरबचन लहे प्रिय जी के॥
सासु सकल जब सीयँ निहारीं। मूदे नयन सहमि सुकुमारीं॥
परीं बधिक बस मनहुँ मरालीं। काह कीन्ह करतार कुचालीं॥
तिन्ह सिय निरखि निपट दुखु पावा। सो सबु सहिअ जो दैउ सहावा॥
जनकसुता तब उर धरि धीरा। नील नलिन लोयन भरि नीरा॥
मिली सकल सासुन्ह सिय जाई। तेहि अवसर करुना महि छाई॥
दो0-लागि लागि पग सबनि सिय भेंटति अति अनुराग॥
हृदयँ असीसहिं पेम बस रहिअहु भरी सोहाग॥246॥

बिकल सनेहँ सीय सब रानीं। बैठन सबहि कहेउ गुर ग्यानीं॥
कहि जग गति मायिक मुनिनाथा। कहे कछुक परमारथ गाथा॥
नृप कर सुरपुर गवनु सुनावा। सुनि रघुनाथ दुसह दुखु पावा॥
मरन हेतु निज नेहु बिचारी। भे अति बिकल धीर धुर धारी॥
कुलिस कठोर सुनत कटु बानी। बिलपत लखन सीय सब रानी॥
सोक बिकल अति सकल समाजू। मानहुँ राजु अकाजेउ आजू॥
मुनिबर बहुरि राम समुझाए। सहित समाज सुसरित नहाए॥
ब्रतु निरंबु तेहि दिन प्रभु कीन्हा। मुनिहु कहें जलु काहुँ न लीन्हा॥
दो0-भोरु भएँ रघुनंदनहि जो मुनि आयसु दीन्ह॥
श्रद्धा भगति समेत प्रभु सो सबु सादरु कीन्ह॥247॥

करि पितु क्रिया बेद जसि बरनी। भे पुनीत पातक तम तरनी॥
जासु नाम पावक अघ तूला। सुमिरत सकल सुमंगल मूला॥
सुद्ध सो भयउ साधु संमत अस। तीरथ आवाहन सुरसरि जस॥
सुद्ध भएँ दुइ बासर बीते। बोले गुर सन राम पिरीते॥
नाथ लोग सब निपट दुखारी। कंद मूल फल अंबु अहारी॥
सानुज भरतु सचिव सब माता। देखि मोहि पल जिमि जुग जाता॥
सब समेत पुर धारिअ पाऊ। आपु इहाँ अमरावति राऊ॥
बहुत कहेउँ सब कियउँ ढिठाई। उचित होइ तस करिअ गोसाँई॥
दो0-धर्म सेतु करुनायतन कस न कहहु अस राम।
लोग दुखित दिन दुइ दरस देखि लहहुँ बिश्राम॥248॥

राम बचन सुनि सभय समाजू। जनु जलनिधि महुँ बिकल जहाजू॥
सुनि गुर गिरा सुमंगल मूला। भयउ मनहुँ मारुत अनुकुला॥
पावन पयँ तिहुँ काल नहाहीं। जो बिलोकि अंघ ओघ नसाहीं॥
मंगलमूरति लोचन भरि भरि। निरखहिं हरषि दंडवत करि करि॥
राम सैल बन देखन जाहीं। जहँ सुख सकल सकल दुख नाहीं॥
झरना झरिहिं सुधासम बारी। त्रिबिध तापहर त्रिबिध बयारी॥
बिटप बेलि तृन अगनित जाती। फल प्रसून पल्लव बहु भाँती॥
सुंदर सिला सुखद तरु छाहीं। जाइ बरनि बन छबि केहि पाहीं॥
दो0-सरनि सरोरुह जल बिहग कूजत गुंजत भृंग।
बैर बिगत बिहरत बिपिन मृग बिहंग बहुरंग॥249॥

कोल किरात भिल्ल बनबासी। मधु सुचि सुंदर स्वादु सुधा सी॥
भरि भरि परन पुटीं रचि रुरी। कंद मूल फल अंकुर जूरी॥
सबहि देहिं करि बिनय प्रनामा। कहि कहि स्वाद भेद गुन नामा॥
देहिं लोग बहु मोल न लेहीं। फेरत राम दोहाई देहीं॥
कहहिं सनेह मगन मृदु बानी। मानत साधु पेम पहिचानी॥
तुम्ह सुकृती हम नीच निषादा। पावा दरसनु राम प्रसादा॥
हमहि अगम अति दरसु तुम्हारा। जस मरु धरनि देवधुनि धारा॥
राम कृपाल निषाद नेवाजा। परिजन प्रजउ चहिअ जस राजा॥
दो0-यह जिँयँ जानि सँकोचु तजि करिअ छोहु लखि नेहु।
हमहि कृतारथ करन लगि फल तृन अंकुर लेहु॥250॥