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जागृति / मनोज श्रीवास्तव

No change in size, 11:50, 2 जुलाई 2010
गली-कूचों में उन्मत्त
नाच रही है जागृति,
चिपक रहे हैं लोग उससे,बटोर रहे हैं --
अक्षुन्ण रतिसुख
उसके पारसी छुअन से,
बेशक! बखूबी जागृति
हो रही होती है परिभाषित
उनके सनकी परेडों से तब
वे ज्यादा सक्रिय होते हैं जब
इत्र-द्रव्य लेपित प्राणियों पर,
ठठाकर हंसते हैं--
साहित्य-गोष्ठियों पर
अंगरेजीदार जुबान में
इम्पोर्टिड-सी
विचित्र मादाओं से.