भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"इस तरह तारीकियों के हल निकले जाएँगे / कुमार अनिल" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
Kumar anil (चर्चा | योगदान) (नया पृष्ठ: <poem>इस तरह तारीकियों के हल निकाले जायेंगे सिर्फ अंधों के घरों में द…) |
|||
पंक्ति 1: | पंक्ति 1: | ||
+ | {{KKGlobal}} | ||
+ | {{KKRachna | ||
+ | |रचनाकार=कुमार अनिल | ||
+ | |संग्रह=और कब तक चुप रहें / कुमार अनिल | ||
+ | }} | ||
+ | {{KKCatGhazal}} | ||
<poem>इस तरह तारीकियों के हल निकाले जायेंगे | <poem>इस तरह तारीकियों के हल निकाले जायेंगे | ||
सिर्फ अंधों के घरों में दीप बाले जायेंगे | सिर्फ अंधों के घरों में दीप बाले जायेंगे |
20:47, 28 दिसम्बर 2010 के समय का अवतरण
इस तरह तारीकियों के हल निकाले जायेंगे
सिर्फ अंधों के घरों में दीप बाले जायेंगे
जिसको जो भी चाहियेगा वो उसे मिल जायेगा
उससे पहले हाथ लेकिन काट डाले जायेंगे
सोचते हैं आँख के आगे हथेली को रखे
कब लकीरें साफ़ होंगी कब ये छाले जायेंगे
रंगतें तो लूट ली फूलों क़ी, उजली धूप ने
गंध को झोंके हवाओं के उड़ा ले जायेंगे
फिर बिखर जायेगा तिनको क़ी तरह सारा हुजूम
चाँद सिक्के भीड़ में अब यूं उछाले जायेंगे
काँच के महलों में रह कर आज तो खुश हो बहुत
क्या करोगे कल अगर पत्थर उछाले जायेंगे
गुमशुदा इंसानियत को ढूँढने के वास्ते
सुन रहें हैं अब समंदर भी खंगाले जायेंगे
रोटियां सूखी इन्हें दे आप शर्मिंदा न हों
इतने भूखे हैं कि ये पत्थर पचा ले जायेंगे