"सुझाई गयी कविताएं" के अवतरणों में अंतर
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+ | '''यह अँजोरे पाख की एकादशी''' | ||
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+ | यह अँजोरे पाख की एकादशी | ||
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+ | दूध की धोयी, विलोयी-सी हँसी । | ||
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+ | गंधमाती हवा झुरुकी चैत की, | ||
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+ | अलस रसभीनी युवा मद की थकी | ||
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+ | लतर तरु की बाँह में, | ||
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+ | चाँदनी की छाँह में | ||
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+ | एक छवि मन में कहीं तिरछी फँसी | ||
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+ | गोल लहरें, जुन्हाई अँगिया कसी । | ||
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+ | हर बटोही को टिकोरे टोंकते, | ||
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+ | और टेसू, पथ अगोरे रोकते | ||
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+ | कमल खिलते ताल में, | ||
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+ | बसा कोई ख्याल में | ||
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+ | चंद्रमा, श्रृंगार का ज्यों आरसी, | ||
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+ | रात, जैसे प्यार के त्यौहार-सी । | ||
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+ | गुनगुनाती पाँत भँवरों की चली, | ||
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+ | लाज से दुहरी हुई जाती कली | ||
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+ | धना बैठी सोहती, | ||
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+ | बाट प्रिय की जोहती | ||
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+ | द्वार पर ज्यों सगुन बन्दनवार-सी | ||
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+ | रस भिंगोयी सुघर द्वारा चार-सी । | ||
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+ | '''झण्डे रह जायँगे, आदमी नहीं,''' | ||
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+ | झण्डे रह जायँगे, आदमी नहीं, | ||
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+ | इसलिए हमें सहेज लो, ममी, सही । | ||
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+ | जीवित का तिरस्कार, पुजें मक़बरे, | ||
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+ | रीति यह तुम्हारी है, कौन क्या करे । | ||
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+ | ताजमहल, पितृपक्ष, श्राद्ध सिलसिले, | ||
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+ | रस्म यह अभी नहीं, कभी थमी नहीं । | ||
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+ | शायद कल मानव की हों न सूरतें | ||
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+ | शायद रह जाएँगी, हमी मूरतें । | ||
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+ | आदम के शकलों की यादगार हम, | ||
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+ | इसलिए, हमें सहेज लो, डमी सही । | ||
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+ | पिरामिड, अजायबघर, शान हैं हमीं, | ||
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+ | हमें देखभाल लो, नहीं ज़रा कमी । | ||
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+ | प्रतिनिधि हम गत-आगत दोनों के हैं, | ||
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+ | पथरायी आँखों में है नमी कहीं ? | ||
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+ | '''गुजर गया एक और दिन''' | ||
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+ | गुजर गया एक और दिन, | ||
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+ | रोज की तरह । | ||
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+ | चुगली औ’ कोरी तारीफ़, | ||
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+ | बस यही किया । | ||
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+ | जोड़े हैं काफिये-रदीफ़ | ||
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+ | कुछ नहीं किया । | ||
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+ | तौबा कर आज फिर हुई, | ||
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+ | झूठ से सुलह । | ||
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+ | याद रहा महज नून-तेल, | ||
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+ | और कुछ नहीं | ||
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+ | अफसर के सामने दलेल, | ||
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+ | नित्य क्रम यही | ||
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+ | शब्द बचे, अर्थ खो गये, | ||
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+ | ज्यों मिलन-विरह । | ||
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+ | रह गया न कोई अहसास | ||
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+ | क्या बुरा-भला | ||
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+ | छाँछ पर न कोई विश्वास | ||
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+ | दूध का जला | ||
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+ | कोल्हू की परिधि फाइलें | ||
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+ | मेज की सतह । | ||
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+ | ‘ठकुर सुहाती’ जुड़ी जमात, | ||
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+ | यहाँ यह मजा । | ||
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+ | मुँहदेखी, यदि न करो बात | ||
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+ | तो मिले सजा । | ||
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+ | सिर्फ बधिर, अंधे, गूँगों – | ||
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+ | के लिए जगह । | ||
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+ | डरा नहीं, आये तूफान, | ||
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+ | उमस क्या करुँ ? | ||
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+ | बंधक हैं अहं स्वाभिमान, | ||
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+ | घुटूँ औ’ मरूँ | ||
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+ | चर्चाएँ नित अभाव की – | ||
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+ | शाम औ’ सुबह। | ||
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+ | केवल पुंसत्वहीन, क्रोध, | ||
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+ | और बेबसी । | ||
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+ | अपनी सीमाओं का बोध | ||
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+ | खोखली हँसी | ||
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+ | झिड़क दिया बेवा माँ को | ||
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+ | उफ्, बिलावजह । | ||
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+ | '''पल्लू की कोर दाब दाँत के तले''' | ||
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+ | पल्लू की कोर दाब दाँत के तले | ||
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+ | कनखी ने किये बहुत वायदे भले । | ||
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+ | कंगना की खनक | ||
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+ | पड़ी हाथ हथकड़ी । | ||
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+ | पाँवों में रिमझिम की बेडियाँ पड़ी । | ||
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+ | सन्नाटे में बैरी बोल ये खले, | ||
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+ | हर आहट पहरु बन गीत मन छले । | ||
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+ | नाजों में पले छैल सलोने पिया, | ||
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+ | यूँ न हो अधीर, | ||
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+ | तनिक धीर धर पिया । | ||
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+ | बँसवारी झुरमुट में साँझ दिन ढले, | ||
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+ | आऊँगी मिलने में पिय दिया जले । | ||
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+ | '''एक चाय की चुस्की''' | ||
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+ | एक चाय की चुस्की | ||
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+ | एक कहकहा | ||
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+ | अपना तो इतना सामान ही रहा । | ||
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+ | चुभन और दंशन | ||
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+ | पैने यथार्थ के | ||
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+ | पग-पग पर घेर रहे | ||
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+ | प्रेत स्वार्थ के । | ||
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+ | भीतर ही भीतर | ||
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+ | मैं बहुत ही दहा | ||
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+ | किंतु कभी भूले से कुछ नहीं कहा । | ||
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+ | एक अदद गंध | ||
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+ | एक टेक गीत की | ||
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+ | बतरस भीगी संध्या | ||
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+ | बातचीत की । | ||
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+ | इन्हीं के भरोसे क्या-क्या नहीं सहा | ||
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+ | छू ली है एक नहीं सभी इन्तहा । | ||
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+ | एक कसम जीने की | ||
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+ | ढेर उलझने | ||
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+ | दोनों गर नहीं रहे | ||
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+ | बात क्या बने । | ||
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+ | देखता रहा सब कुछ सामने ढहा | ||
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+ | मगर किसी के कभी चरण नहीं गहा । | ||
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+ | '''टहनी पर फूल जब खिला''' | ||
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+ | टहनी पर फूल जब खिला | ||
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+ | हमसे देखा नहीं गया । | ||
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+ | एक फूल निवेदित किया | ||
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+ | गुलदस्ते के हिसाब में | ||
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+ | पुस्तक में एक रख दिया | ||
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+ | एक पत्र के जवाब में । | ||
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+ | शोख रंग उठे झिलमिला | ||
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+ | हमसे देखा नहीं गया । | ||
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+ | प्रतिमा को | ||
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+ | औ समाधि को | ||
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+ | छिन भर विश्वास के लिये | ||
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+ | एक फूल जूड़े को भी | ||
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+ | गुनगुनी उसांस के लिये । | ||
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+ | आलिगुंजन गंध सिलसिला | ||
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+ | हमसे देखा नहीं गया । | ||
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+ | एक फूल विसर्जित हुआ | ||
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+ | मिथ्या सौंदर्य-बोध को | ||
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+ | अचकन की शान के लिये | ||
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+ | युग के कापुरुष क्रोध को | ||
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+ | व्यंग टीस उठी तिलमिला । | ||
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+ | हमसे देखा नहीं गया । | ||
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+ | जयप्रकाश मानस (यानी संपादक नहीं-नहीं, केवल कविता सुझाने वाला ) |
02:34, 27 अगस्त 2006 का अवतरण
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यह अँजोरे पाख की एकादशी
यह अँजोरे पाख की एकादशी
दूध की धोयी, विलोयी-सी हँसी ।
गंधमाती हवा झुरुकी चैत की,
अलस रसभीनी युवा मद की थकी
लतर तरु की बाँह में,
चाँदनी की छाँह में
एक छवि मन में कहीं तिरछी फँसी
गोल लहरें, जुन्हाई अँगिया कसी ।
हर बटोही को टिकोरे टोंकते,
और टेसू, पथ अगोरे रोकते
कमल खिलते ताल में,
बसा कोई ख्याल में
चंद्रमा, श्रृंगार का ज्यों आरसी,
रात, जैसे प्यार के त्यौहार-सी ।
गुनगुनाती पाँत भँवरों की चली,
लाज से दुहरी हुई जाती कली
धना बैठी सोहती,
बाट प्रिय की जोहती
द्वार पर ज्यों सगुन बन्दनवार-सी
रस भिंगोयी सुघर द्वारा चार-सी ।
झण्डे रह जायँगे, आदमी नहीं,
झण्डे रह जायँगे, आदमी नहीं,
इसलिए हमें सहेज लो, ममी, सही ।
जीवित का तिरस्कार, पुजें मक़बरे,
रीति यह तुम्हारी है, कौन क्या करे ।
ताजमहल, पितृपक्ष, श्राद्ध सिलसिले,
रस्म यह अभी नहीं, कभी थमी नहीं ।
शायद कल मानव की हों न सूरतें
शायद रह जाएँगी, हमी मूरतें ।
आदम के शकलों की यादगार हम,
इसलिए, हमें सहेज लो, डमी सही ।
पिरामिड, अजायबघर, शान हैं हमीं,
हमें देखभाल लो, नहीं ज़रा कमी ।
प्रतिनिधि हम गत-आगत दोनों के हैं,
पथरायी आँखों में है नमी कहीं ?
गुजर गया एक और दिन
गुजर गया एक और दिन,
रोज की तरह ।
चुगली औ’ कोरी तारीफ़,
बस यही किया ।
जोड़े हैं काफिये-रदीफ़
कुछ नहीं किया ।
तौबा कर आज फिर हुई,
झूठ से सुलह ।
याद रहा महज नून-तेल,
और कुछ नहीं
अफसर के सामने दलेल,
नित्य क्रम यही
शब्द बचे, अर्थ खो गये,
ज्यों मिलन-विरह ।
रह गया न कोई अहसास
क्या बुरा-भला
छाँछ पर न कोई विश्वास
दूध का जला
कोल्हू की परिधि फाइलें
मेज की सतह ।
‘ठकुर सुहाती’ जुड़ी जमात,
यहाँ यह मजा ।
मुँहदेखी, यदि न करो बात
तो मिले सजा ।
सिर्फ बधिर, अंधे, गूँगों –
के लिए जगह ।
डरा नहीं, आये तूफान,
उमस क्या करुँ ?
बंधक हैं अहं स्वाभिमान,
घुटूँ औ’ मरूँ
चर्चाएँ नित अभाव की –
शाम औ’ सुबह।
केवल पुंसत्वहीन, क्रोध,
और बेबसी ।
अपनी सीमाओं का बोध
खोखली हँसी
झिड़क दिया बेवा माँ को
उफ्, बिलावजह ।
पल्लू की कोर दाब दाँत के तले
पल्लू की कोर दाब दाँत के तले
कनखी ने किये बहुत वायदे भले ।
कंगना की खनक
पड़ी हाथ हथकड़ी ।
पाँवों में रिमझिम की बेडियाँ पड़ी ।
सन्नाटे में बैरी बोल ये खले,
हर आहट पहरु बन गीत मन छले ।
नाजों में पले छैल सलोने पिया,
यूँ न हो अधीर,
तनिक धीर धर पिया ।
बँसवारी झुरमुट में साँझ दिन ढले,
आऊँगी मिलने में पिय दिया जले ।
एक चाय की चुस्की
एक चाय की चुस्की
एक कहकहा
अपना तो इतना सामान ही रहा ।
चुभन और दंशन
पैने यथार्थ के
पग-पग पर घेर रहे
प्रेत स्वार्थ के ।
भीतर ही भीतर
मैं बहुत ही दहा
किंतु कभी भूले से कुछ नहीं कहा ।
एक अदद गंध
एक टेक गीत की
बतरस भीगी संध्या
बातचीत की ।
इन्हीं के भरोसे क्या-क्या नहीं सहा
छू ली है एक नहीं सभी इन्तहा ।
एक कसम जीने की
ढेर उलझने
दोनों गर नहीं रहे
बात क्या बने ।
देखता रहा सब कुछ सामने ढहा
मगर किसी के कभी चरण नहीं गहा ।
टहनी पर फूल जब खिला
टहनी पर फूल जब खिला
हमसे देखा नहीं गया ।
एक फूल निवेदित किया
गुलदस्ते के हिसाब में
पुस्तक में एक रख दिया
एक पत्र के जवाब में ।
शोख रंग उठे झिलमिला
हमसे देखा नहीं गया ।
प्रतिमा को
औ समाधि को
छिन भर विश्वास के लिये
एक फूल जूड़े को भी
गुनगुनी उसांस के लिये ।
आलिगुंजन गंध सिलसिला
हमसे देखा नहीं गया ।
एक फूल विसर्जित हुआ
मिथ्या सौंदर्य-बोध को
अचकन की शान के लिये
युग के कापुरुष क्रोध को
व्यंग टीस उठी तिलमिला ।
हमसे देखा नहीं गया ।
जयप्रकाश मानस (यानी संपादक नहीं-नहीं, केवल कविता सुझाने वाला )