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"सुदामा चरित / नरोत्तमदास" के अवतरणों में अंतर

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<poem>
 
विप्र सुदामा बसत हैं, सदा आपने धाम।
 
भीख माँगि भोजन करैं, हिये जपत हरि-नाम॥
 
  
ताकी घरनी पतिव्रता, गहै वेद की रीति।
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* [[सुदामा चरित / नरोत्तमदास / पृष्ठ 1]]
सलज सुशील सुबुद्धि अति, पति सेवा सौं प्रीति॥
+
* [[सुदामा चरित / नरोत्तमदास / पृष्ठ 2]]
 
+
* [[सुदामा चरित / नरोत्तमदास / पृष्ठ 3]]
कह्यौ सुदामा एक दिन, कृस्न हमारे मित्र।
+
* [[सुदामा चरित / नरोत्तमदास / पृष्ठ 4]]
करत रहति उपदेस गुरु, ऐसो परम विचित्र॥
+
* [[सुदामा चरित / नरोत्तमदास / पृष्ठ 5]]
 
+
* [[सुदामा चरित / नरोत्तमदास / पृष्ठ 6]]
'''(सुदामा की पत्नी)'''
+
* [[सुदामा चरित / नरोत्तमदास / पृष्ठ 7]]
लोचन-कमल, दुख मोचन, तिलक भाल,
+
* [[सुदामा चरित / नरोत्तमदास / पृष्ठ 8]]
::स्रवननि कुंडल, मुकुट धरे माथ हैं।
+
* [[सुदामा चरित / नरोत्तमदास / पृष्ठ 9]]
ओढ़े पीत बसन, गरे में बैजयंती माल,
+
* [[सुदामा चरित / नरोत्तमदास / पृष्ठ 10]]
::संख-चक्र-गदा और पद्म लिये हाथ हैं।
+
* [[सुदामा चरित / नरोत्तमदास / पृष्ठ 11]]
विद्व नरोत्तम संदीपनि गुरु के पास,
+
* [[सुदामा चरित / नरोत्तमदास / पृष्ठ 12]]
::तुम ही कहत हम पढ़े एक साथ हैं।
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द्वारिका के गये हरि दारिद हरैंगे पिय,
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::द्वारिका के नाथ वै अनाथन के नाथ हैं॥
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'''(सुदामा)'''
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सिच्छक हौं, सिगरे जग को तिय, ताको कहाँ अब देति है सिच्छा।
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जे तप कै परलोक सुधारत, संपति की तिनके नहि इच्छा॥
+
मेरे हिये हरि के पद-पंकज, बार हजार लै देखि परिच्छा।
+
औरन को धन चाहिये बावरि, ब्राह्मन को धन केवल भिच्छा॥
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'''(सुदामा की पत्नी)'''
+
कोदों, सवाँ जुरितो भरि पेट, तौ चाहति ना दधि दूध मठौती।
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सीत बितीतत जौ सिसियातहिं, हौं हठती पै तुम्हें न हठौती॥
+
जो जनती न हितू हरि सों तुम्हें, काहे को द्वारिका पेलि पठौती।
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या घर ते न गयौ कबहूँ पिय, टूटो तवा अरु फूटी कठौती॥
+
 
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'''(सुदामा)'''
+
छाँड़ि सबै जक तोहि लगी बक, आठहु जाम यहै झक ठानी।
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जातहि दैहैं, लदाय लढ़ा भरि, लैहैं लदाय यहै जिय जानी॥
+
पाँउ कहाँ ते अटारि अटा, जिनको विधि दीन्हि है टूटि सी छानी।
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जो पै दरिद्र लिखो है ललाट तौ, काहु पै मेटि न जात अयानी॥
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'''(सुदामा की पत्नी)'''
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विप्र के भगत हरि जगत विदित बंधु,
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::लेत सब ही की सुधि ऐसे महादानि हैं।
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पढ़े एक चटसार कही तुम कैयो बार,
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::लोचन अपार वै तुम्हैं न पहिचानि हैं।
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एक दीनबंधु कृपासिंधु फेरि गुरुबंधु,
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::तुम सम कौन दीन जाकौ जिय जानि हैं।
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नाम लेते चौगुनी, गये तें द्वार सौगुनी सो,
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::देखत सहस्त्र गुनी प्रीति प्रभु मानि हैं॥
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'''(सुदामा)'''
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द्वारिका जाहु जू द्वारिका जाहु जू, आठहु जाम यहै झक तेरे।
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जौ न कहौ करिये तो बड़ौ दुख, जैये कहाँ अपनी गति हेरे॥
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द्वार खरे प्रभु के छरिया तहँ, भूपति जान न पावत नेरे।
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पाँच सुपारि तै देखु बिचार कै, भेंट को चारि न चाउर मेरे॥
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यह सुनि कै तब ब्राह्मनी, गई परोसी पास।
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पाव सेर चाउर लिये, आई सहित हुलास॥
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सिद्धि करी गनपति सुमिरि, बाँधि दुपटिया खूँट।
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माँगत खात चले तहाँ, मारग वाली बूट॥
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दीठि चकचौंधि गई देखत सुबर्नमई,
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::एक तें सरस एक द्वारिका के भौन हैं।
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पूछे बिन कोऊ कहूँ काहू सों न करे बात,
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::देवता से बैठे सब साधि-साधि मौन हैं।
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देखत सुदामा धाय पौरजन गहे पाँय,
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::कृपा करि कहौ विप्र कहाँ कीन्हौ गौन हैं।
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धीरज अधीर के हरन पर पीर के,
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::बताओ बलवीर के महल यहाँ कौन हैं?
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'''(श्रीकृष्ण का द्वारपाल)'''
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सीस पगा न झगा तन में प्रभु, जानै को आहि बसै केहि ग्रामा।
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धोति फटी-सी लटी दुपटी अरु, पाँय उपानह की नहिं सामा॥
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द्वार खड्यो द्विज दुर्बल एक, रह्यौ चकिसौं वसुधा अभिरामा।
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पूछत दीन दयाल को धाम, बतावत आपनो नाम सुदामा॥
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बोल्यौ द्वारपाल सुदामा नाम पाँड़े सुनि,
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::छाँड़े राज-काज ऐसे जी की गति जानै को?
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द्वारिका के नाथ हाथ जोरि धाय गहे पाँय,
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::भेंटत लपटाय करि ऐसे दुख सानै को?
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नैन दोऊ जल भरि पूछत कुसल हरि,
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::बिप्र बोल्यौं विपदा में मोहि पहिचाने को?
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जैसी तुम करौ तैसी करै को कृपा के सिंधु,
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::ऐसी प्रीति दीनबंधु! दीनन सौ माने को?
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ऐसे बेहाल बेवाइन सों पग, कंटक-जाल लगे पुनि जोये।
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हाय! महादुख पायो सखा तुम, आये इतै न किते दिन खोये॥
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देखि सुदामा की दीन दसा, करुना करिके करुनानिधि रोये।
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पानी परात को हाथ छुयो नहिं, नैनन के जल सौं पग धोये॥
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'''(श्री कृष्ण)'''
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कछु भाभी हमको दियौ, सो तुम काहे न देत।
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चाँपि पोटरी काँख में, रहे कहौ केहि हेत॥
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आगे चना गुरु-मातु दिये त, लिये तुम चाबि हमें नहिं दीने।
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श्याम कह्यौ मुसुकाय सुदामा सों, चोरि कि बानि में हौ जू प्रवीने॥
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पोटरि काँख में चाँपि रहे तुम, खोलत नाहिं सुधा-रस भीने।
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पाछिलि बानि अजौं न तजी तुम, तैसइ भाभी के तंदुल कीने॥
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देनो हुतौ सो दै चुके, बिप्र न जानी गाथ।
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चलती बेर गोपाल जू, कछू न दीन्हौं हाथ॥
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वह पुलकनि वह उठ मिलनि, वह आदर की भाँति।
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यह पठवनि गोपाल की, कछू ना जानी जाति॥
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घर-घर कर ओड़त फिरे, तनक दही के काज।
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कहा भयौ जो अब भयौ, हरि को राज-समाज॥
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हौं कब इत आवत हुतौ, वाही पठ्यौ ठेलि।
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कहिहौं धनि सौं जाइकै, अब धन धरौ सकेलि॥
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वैसेइ राज-समाज बने, गज-बाजि घने, मन संभ्रम छायौ।
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वैसेइ कंचन के सब धाम हैं, द्वारिके के महिलों फिरि आयौ।
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भौन बिलोकिबे को मन लोचत सोचत ही सब गाँव मँझायौ।
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पूछत पाँड़े फिरैं सबसों पर झोपरी को कहूँ खोज न पायौ॥
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कनक-दंड कर में लिये, द्वारपाल हैं द्वार।
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जाय दिखायौ सबनि लैं, या है महल तुम्हार॥
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टूटी सी मड़ैया मेरी परी हुती याही ठौर,
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::तामैं परो दुख काटौं कहाँ हेम-धाम री।
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जेवर-जराऊ तुम साजे प्रति अंग-अंग,
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::सखी सोहै संग वह छूछी हुती छाम री।
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तुम तो पटंबर री ओढ़े किनारीदार,
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::सारी जरतारी वह ओढ़े कारी कामरी।
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मेरी वा पंडाइन तिहारी अनुहार ही पै,
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::विपदा सताई वह पाई कहाँ पामरी?
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कै वह टूटि-सि छानि हती कहाँ, कंचन के सब धाम सुहावत।
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कै पग में पनही न हती कहँ, लै गजराजहु ठाढ़े महावत॥
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भूमि कठोर पै रात कटै कहाँ, कोमल सेज पै नींद न आवत।
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कैं जुरतो नहिं कोदो सवाँ प्रभु, के परताप तै दाख न भावत॥
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02:16, 14 फ़रवरी 2011 का अवतरण